प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -9

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एतादृशैनरैरन्येऽसंख्या लोका: प्रभाविता: ।
जायन्तेऽनुसरन्त्येतान् भव्यान् मङ्गलरूपिण:॥७०॥
प्रभावयन्ति नो तांस्तु दुर्जना अपि तु स्वयम्।
स्वसौजन्यप्रभावेण कुर्वते तान् स्वतोऽन्यथा ॥७१॥

टीका-ऐसे दृढ़ निश्चय मनुष्यों से अगणित लोग प्रभावित होते और उनका अनुसरण करते हैं । ऐसे
मनुष्य भव्य मंगल स्वरूप होते हैं । दुर्जन उन्हें प्रभावित नहीं कर पाते, वरन् वे अपनी सज्जनता के प्रभाव से उन्हें ही बदलने में सफल होते हैं॥७०-७१॥ 

परमहंस की परीक्षा 

रामकृष्ण परमहंस आरंभ से ही ब्रह्मचर्य से रहते थे । इस बात की परीक्षा करने के लिए रासमणि के जामाता किसी बहाने उन्हें वेश्या के कोठे पर ले गए । स्वयं अलग हो गए । पूर्व योजना के अनुसार वेश्याएँ उन्हें लुभाने का प्रयत्न करने लगीं । परमहंस ने जोर-जोर से 'माँ-माँ' कहना आरंभ किया । वेश्याएँ डर गईं । परमहंस की आँखों से आँसू टपकने लगे । इस प्रकार परीक्षा वाला खेल खत्म हुआ ।

महानता के पथगामी ऐसी परिस्थितियों में हानि-लाभ का विचार नहीं करते । सिद्धांत न डिगें, उनका ध्यान
इस बात में रहता है ।

झूँठी गवाही न दी

एक बार की बात है । बंगाल के दिवंगत नेता डॉ० विधान चंद्र राय कलकत्ता मेडीकल कॉलेज में डाक्टरी पड़ रहे थे । उन्के एक अंग्रेज प्रोफेसर थे-प्रौ० पैक, जो अपनी घोड़ागाड़ी से बाजार की सैर करने के लिए निकलें । दुर्भाग्यवश उनकी गाड़ी एक ट्राम गाड़ी से टकरा गयी । यह घटना विधान चंद्र के सामने ही घटी । प्रौफेसर साहब ने गाड़ी के कोचवान के विरोध में विधानचंद्र राय को झूँठी गवाही प्रस्तुत करने के लिए दबाव डाला । वस्तुत: गलती कोचवान की नहीं थी। विधानचंद्र इस पर सहमत नहीं हुए ।

प्रौफेसर पैक उनके एक विषय की मौखिक परीक्षा के इंचार्ज थे। विधानचंद्र को मौखिक परीक्षा में फेल करके ही
उनने अपनी नाराजगी का बदला चुकाया । नवयुवक के ऊपर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा और पूरी लगन, निष्ठा के साथ दूसरी परीक्षा की तैयारी में लगा रहा । कर्नल की अंतरात्मा उसे अवांछनीय कृत्य के लिए कोसती रही । अंतत: उसने विधानचंद्र से क्षमा माँगी और उसकी इस आदर्शनिष्ठा की जीवनपर्यंत भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे ।

श्रेष्ठता के राजमार्ग पर चलते हुए प्राण न्यौछावर करने पड़े तो भी जो अपने प्रण से नहीं डिगते, इतिहास पीछे
उन्हीं को याद करता और उन्हीं से प्रेरणा-प्रकाश पाता है ।

सोलन तुम्हीं ठीक थे

उन दिनों दार्शनिक सोलन की बहुत ख्याति थी । उसके द्वारा कहे गए वचन सर्वत्र प्रामाणिक माने जाते थे। यूनान के बादशाह के मन में आया कि वह सोलन को राजमहल में बुलाकर अपने वैभव दिखायें, उपहार दें और उसके मुँह से अपनी प्रशंसा करायें । इस प्रकार मसभी उसे बुद्धिमान, शूरवीर और धर्मात्मा मानने लगेंगे।

सोलन को उसने किसी बहाने राजमहल में रूला लिया और सारा वैभव भी दिखा डाला । उपहारों की सारी पिटारी सामने रखी । पर दार्शनिक गप ही रहे । बार-बार पूछने-उकसाने पर भी उनने कुछ न कहा। जब विवश किया गया तो इतना ही कहा-"मेरा चुप रहना ही भला है। प्रशंसा करने योग्य मैंने कुछ देखा नहीं और निंदा सहन न होगी ।"

बादशाह खीज गया । उसने खंभे से बाँधकर सोलन को गोली से उड़ा दिया।

बात पुरानी हो गई । उस बादशाह पर दूसरे राजा ने चढ़ाई की और जीत लिया । हारने पर खंभे से बाँधकर गोली मारने का उन दिनों रिवाज था । सो वही उनके साथ भी हुआ । दिन ठीक वही था, जिसके दस वर्ष पूर्व सोलन को मारा गया था ।

मरते समय राजा ने कहा-"सोलन । तुम्ही ठीक थे । दौलत को जिस-तिस प्रकार जमा करके मैंने वस्तुत: वैसा कुछ नहीं किया था, जिस पर कि तुम जैसें विचारशील के मुँह से प्रशंसा सुन सकता ।

व्यर्थ की बातों में समय न गँवा कर जिन्होंने जीवन के क्षणों का मूल्य पहचाना वे कभी विरोधों से विचलित
नहीं हुए । आगे चलकर वही महान् कहलाये ।

बहुत ऊपर न जायें

एक साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ से मिलने गए । बातों-बातों में अपने देश के पूर्वजों का बढ़-चढ़ कर बखान करने लगे ।

वर्णन लंबा होते देखकर शॉ ने कहा-" पूर्वजों के पुराने बखान के चल पड़ने पर तो आपको आदिमकाल के बंदर पूर्वजों तक पहुँचना पड़ेगा । इसलिए अच्छा यही है हम अपनी और आज की बात करें।

खण्डयन्ति व्रतं स्वं नो दृढ़संकल्पसंयुता:।
संयोगात् खण्डिते प्रायश्चित्तं ते कुर्वते ध्रुवम् ॥७२॥
त्रुटौ कदाचिज्जातायां पातयन्ति मनोबलम् ।
नैव तेऽपि तु द्वैगुण्यसाहसेन पुनस्तथा॥७३॥
निश्चयं तं समादाय पुन: स्यान्न त्रुटि: क्वचित् ।
अर्जयन्ति ततस्तत्र महत्तच्च मनोबलम् ॥७४॥
मालिन्यं चिन्तनक्षेत्रसमुद्भूतं नरास्तु ये ।
क्षालयन्ति जयन्त्यत्र विचारैस्तु विचारकान्॥७५॥
चारित्र्यं न पतत्येषां भ्रष्टता चिन्तने तु या।
दुष्टताया: समावेशमाचारे कुरुते तु सा॥७६॥
तथ्यमेतद् विजानन्ति रक्षन्त्यात्मानमत्र च।
अवाञ्छनीयताऽऽकर्षात्तैरेवात्मधनुधैर: ॥७७॥ 
प्रेम सत्सहयोगोऽपि चाऽऽप्यते परमात्मन: ।
यतात्मा यो नरो नैव स पराजयते क्वचित् ॥७८॥
विश्वजेता स एवास्ति यतात्मा मानवस्तु यः ।
बोधयन्ति नरं चैतत् पन्थान: शास्त्रदर्शिता:॥७९॥

टीका-संकल्पवान् अपना व्रत तोड़ते नहीं, संयोगवश कभी टूटे, तो उसका प्रायश्चित करते हैं । कभी कोई भूल होने पर मनोबल गिरने नहीं देते, वरन् दूने साहस के साथ फिर उस निश्चय पर आरूढ़ होते और भूल की पुनरावृतित न होने देने के लिंए अधिक मनोबल जुटाते हैं । जो चिंतन क्षेत्र की मालीनता को धोता रहता है, कुविचारों को, सद्विचारों की सेना एकत्रित कर परास्त करता रहता है, उसका चरित्र गिरने नहीं पाता । चिंतन की भ्रष्टता ही आचरण में दुष्टता का समावेश करती है, जो इस तथ्य को जानते और अवांछनीय के आकर्षण से आत्म-रक्षा करते रहते हैं, उन आत्मिक क्षेत्र के धनुर्धरों को ही भगवान का सच्चा प्यार और सहयोग मिलता है । जिसने अपने को जीत लिया, वह और किसी से हारता नहीं । आत्म विजयी को ही विश्वविजेता कहते हैं ।
शास्त्रदर्शित समस्त मार्ग मानवमात्र को यही बोध कराते हैं॥७२-७९॥

अर्थ-अनुशासन यही सिखाता है कि जो भी मन में सत्संकल्प रूपी बीज उठा, उसे पूरी निष्ठा से निभाया जाय । ऐसी स्थिति में महामानवों के पास उनकी बहुमूल्य संपदा मनोबल ही सहायक बनती है । वे चरित्रनिष्ठा पर कड़ी दृष्टि रखते हैं एवं विचारों को विचारों से काटकर अपने चिंतन को परिष्कृत बनाये रखते हैं । जिन्होंने इस प्रकार अपने भीतर वाले को सही कर लिया, अपने पर अंकुश लगा लिया, उसे सच्चे
अर्थों में शूरवीर का जा सकता है।

बापू का प्रायश्चित्त

बापू के आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति के लिए सप्ताह में एक दिन का अस्वाद व्रत अनिवार्य था । एक दिन गांधी जी के पुत्र देवदास के उपवास का दिन था। उस दिन कड़ी बनी थी । कड़ी देवदास को बहुत प्रिय थी । मित्रों ने उकसाया, सौ उनने चुपचाप कड़ी खा लीं।

गाँधी जी को इसका पता चल गया । बाल्यावस्था में उन्हें भी ऐसी आदत थी, सो उन्होंने इसे अपनी भूल माना और प्रायश्चित स्वरूप स्वयं एक सप्ताह अस्वाद उपवास रखा।

पशुबलि यों रुकी

गाँधी जी के ही जीवन की एक और घटना है । बात चंपारन जिले की है । गाँधी जी उस क्षेत्र में असहयोग आंदोलन का वातावरण बनाने के लिए गाँव-गाँव घूम रहे थे ।

एक गाँव में उन्होंने पशुबलि का जुलूस निकलते देखा । देवी को बकरा चढ़ाने एक समूह गाता-बजाता जा रहा था ।

गांधी जी ने दृश्य देखा तो उन्होंने एकत्रित लोगों को वैसा न करने के लिए समझाया । न माने तो नया प्रस्ताव
रखा । पशु के रक्त से मनुष्य का रक्त उत्तम ही होगा । तुम लोग अपने देवता पर मेरी बलि चढ़ा दो । उनने सिर नीचे झुका लिया और वहाँ जा खड़े हुए जहाँ बकरा कटना था ।

सन्नाटा छा गया । ग्रामीण लौट गए । वस्तुस्थिति समझी गई और उस क्षेत्र से बलि प्रथा सदा के लिए बंद हो गयी।

धर्मानुशासनस्येदमनुबन्धस्य विद्यते ।
द्वन्द्वं संस्कृतिशब्देन सभ्यताया: पदेन च ॥८०॥
व्यवहरन्ति जना अन्ये ययोर्योगान्नरुह्यते। 
नागरित्वस्य भावोऽयं तथा सामाजिकस्य सः॥८१॥
ज्ञायेते लोक एते च सदाचारस्य नामत: ।
व्यवहारस्य नाम्नाऽपि सतश्च यत्र तत्र तु॥८२॥ 


टीका-यह धर्म का अनुशासन और अनुबंध वाला युग्म है । कितने ही सभ्यता और संस्कृति के नाम से
इसकी विवेचना करते हैं । दोनों के मिलने से नागरिकता और सामाजिकता निभती है । उन्हें सद्व्यवहार और
सदाचार के नाम से भी जाना जाता है॥८०-८२॥ 

राजा ने अपराध स्वीकारा

महानता के अनुयायी मूर्धन्यों में यह दोनों ही संस्कार बिना किसी पूर्वाग्रह और अहंकार के होने चाहिए । महापुरुषों के जीवन में इस सत्य के पग-पग पर दर्शन होते हैं ।

बडौदा नरेश खण्डेराव गायकवाड़ शिकार की खोज में काफी दूर निकल गए । जंगली सूअर का पीछा करते-करते उनके साथी भी इधर-उधर भटक गए । सूअर की भगदड़ से एक खेत की फसल को काफी नुकसान हुआ । किसान ने आगंतुक को सामान्य शिकारी समझ कर बहुत बुरा-भला कहा । बड़ौदा नरेश मौन रहकर सब कुछ सुनते रहे । थोड़ी देर बाद उनके साथी भी उन्हें खोजते हुए वहाँ आ गए । किसान को तब यह पता चला कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं वरन् बड़ौदा महाराज हैं । अब तो वह डर से काँपने लगा । उसे अपने कृत्य पर बड़ी ग्लानि हुई । परंतु उस समय महाराज की नम्रता और सौम्यता देखते ही बनती थी । उन्होंने किसान से कहा-"तुम्हारे खेत की फसल को हानि हुई है, अत: तुम मुझे पकड़ने का अधिकार रखते हो । तुम्हारी कैद से छूटने के लिए मेरी ओर से यह व्यवस्था है कि यही खेत नहीं वरन् तुम्हारे सभी खेत कर से मुक्त रहेंगे । यह सुविधा तुम्हारे उत्तराधिकारियों को भी प्राप्त होगी।"

शिक्षा, वंश परंपरा, शरीर स्वास्थ्य से आज तक कोई भी महान् नहीं बना । इस संस्कृति के अनुपालन से ही महानतायें ढली है ।

गाँधी जी इस सत्य के प्रत्यक्ष उदाहरण थे ।

गाँधी जी और किसान 

गाँधी जी की उन दिनों बिहार में ख्याति थी । वे जिस गाड़ी से बेतिया जा रहे थे, उसी में एक किसान भी चढ़ा । उसे गाँधी जी के दर्शनों की इच्छा थी ।

थर्ड क्लास के सीट पर पैर फैलाये हुए एक व्यक्ति को किसान ने देखा, तो पैर मरोड़कर एक कोने में ठूँस दिया और बोला-"ऐसे पैर फैलाकर बैठा है मानों बाप की गाड़ी हो ।"

गाडी बेतिया पहुँची । डिब्बे में से निकलते ही अपार जनसमूह प्लेटफॉर्म पर खड़ा दिखा । जय-जयकार होने लगी और गाँधी जीं को फूलों से लाद दिया गया।

किसान हड़बड़ा गया । जिसके पैर मरोड़कर कोने में ठूँसे थे, वही गाँधी जी निकले । अनजानेपन पर उसे
पश्चात्ताप हो रहा था । भीड़ हटते ही उसने क्षमा माँगी । गाँधी जी ने कहा-" गलती तो मेरी थी, जो अधिकार से अधिक जगह घेरी । तुम क्यों दु:खी होते हो?"
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