प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ तृतीयोऽध्याय: ।। सत्य-विवेक प्रकरणम्-3

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यथार्थं च परिज्ञातुं तर्कं तथ्यं प्रमाणकम् ।
अन्वेष्टुमुभयो: पक्षे विचार: कर्तुमिष्यते ।। २२ ।।
तदैव शक्यते ज्ञातुं विद्यते का यथार्थता ।
प्रमुञ्जते बुद्धिमेनां न्यायाधीशा विशेषत: ।। २३ ।।
श्रृण्वन्त्युभयवार्तां ते पक्षयो: कुर्वते तथा ।
यत्त्रं तथ्यं तल्लब्धुमावेशेऽज्ञानतोऽपि वा ।। २४ ।।
बलाऽपि च यत्प्रोत्कं पक्षपातधिया नहि ।
तत्र ध्यानं प्रकुर्वन्ति तत्वजिज्ञासव: क्वचित् ।। २५ ।।
गृह्यते नीतिरेषैव यदा तर्हि तु सम्भवम् ।
यथार्थतापरिज्ञानं सत्यं द्रष्टुं च वस्तुत: ।। २६ ।।

टीका-यथार्थता को जानने के लिए तर्क, तथ्य और प्रमाण ढूँढ़ने के उभयपक्षीय प्रतिवेदन पर विचार करना पड़ता है । तब कहीं पता चलता हैं कि यथार्थता क्या है? न्यायाधीश इसी बुद्धि का प्रयोग करते हैं ।

दोनों पक्षों की बात सुनते हैं । तथ्य तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं । आवेश या अज्ञान में तथा बलपूर्वक पक्षपात
के कारण जो कहा गया है, तत्वजिज्ञासु उस पर ध्यान नहीं देते । यही नीति अपनाने पर यथार्थता समझ सकना
संभव होता है और सत्य के दर्शन होते हैं ।।२२ -२६।।

अर्थ-सत्य तक पहुँचने के लिए न्यायाधीश की तरह विभिन्न पक्षों के तर्क, तथ्य, प्रमाण सुनने-समझने का सुझाव ऋषि ने दिया है । परंतु सावधान भी किया है कि तीन स्थिति वालों के कथन को निर्णय
का आधार नहीं बनाना चाहिए ।

(१) आवेशग्रस्त द्वारा दिए गए तथ्य प्रामाणिक नहीं होते । आवेशग्रस्त स्थिति ही असंतुलन की है  । असंतुलन को आधार बनाकर संतुलित निर्णय हो ही नहीं सकता, इसीलिए सत्य शोधक को आवेशग्रस्त मनोभूमि में किसी निर्णय पर नहीं पहुँचना चाहिए ।

(२) अज्ञान में कई बार लोग ऐसी बातें कह जाते हैं, जो उनके स्वयं के खिलाफ पड़ जाती हैं । जानकारी पूरी न हो तो सत्य शोधक को निर्णय लेने से पूर्व कुछ चिंतन कर लेना चाहिए ।

(३) बलपूर्वक, किसी लोभ, भय या किसी के अहसान के दबाव में दिए गए विवरण प्रामाणिक नहीं होते । सही निर्णय लेने के लिए साधक को ऐसी दबाव भरी मनःस्थिति के बाहर आने का प्रयास करना
चाहिए ।

उत्तेजना का न्याय रद्द 

बादशाह अकबर को क्रोध अधिक आता था । वे अपनी कमजोरी समझते थे । क्रोध में अन्याय न हो जाय, इसके लिए उन्होंने नियम बना रखा था कि यदि वे अचानक किसी को कोई सजा सुना दें, तो उस पर अमल न किया जाय । दुबारा शांत मनोभूमि में उनसे फिर पूछा जाय । जब दुबारा निर्णय दिया जाय, तभी दंड लागू हो ।

यथार्थ और छलना 

दो बहनें थीं । एक का नाम यथार्थता, दूसरी का छलना । एक दिन दोनों सरोवर स्न्नान को गई और कपडे़ किनारे पर रखकर तैर-तैर कर नहाने लगीं ।

आदत के अनुसार छलना ने यथार्थता के कपड़े पहन लिए; उसकी कुरूपता ढक गई और बहन के परिधान पहनकर सुंदर लगने लगी ।

यथार्थता बाहर निकली, तो देखा छलना उसके कपड़े पहन कर जा चुकी है । वह करती भी क्या? जो कपड़े सामने थे, उन्हीं से तन ढका और कुरूप लगती, रोती-चीखती घर आई ।

कपड़े दोनों के शरीर पर अभी तक बदले हुए ही हैं । छलना सुंदर दीखती है और अपने को यथार्थता कह कर लोगों को ठगती है । यथार्थता संकोच में डूबी, न कुछ कह पाती है और न करते-धरते बनता है । तर्क, तथ्य की कसौटी पर यथार्थता और छलना को कसना जो जानते हैं, वे छलना से बचकर यथार्थता का लाभ उठा लेते हैं ।

दूसरा पक्ष खोजा और लाभ उठाया 

सौ वर्ष पहले की बात है । अफ्रीका में जूतों की खपत की संभावना खोजने के लिए एक जापानी और एक अमेरिकन कंपनी ने अपने एजेंट भेजे । ताकि उस क्षेत्र में व्यवसाय चलने की बात पर विचार किया जा सके । 

अमेरिकन एजेंटों ने एक सप्ताह के दौरों के बाद रिपोर्ट भेजी-यहाँ कोई जूता पहनना जानता तक नहीं, व्यापार की कोई संभावना नहीं है और वह वापस लौट गया ।

जापानी एजेंट रुका रहा, उसने मालिक को रिपोर्ट भेजी-यहाँ जूते किसी के पास नहीं । जूतों की उपयोगिता समझाने में कुछ समय-साधन लगाने भर की देर है कि खपत का ठिकाना न रहेगा । हम लोग बिना प्रतिस्पर्धा के उस देश में व्यवसाय चलाकर आसानी से मालामाल बन सकते हैं ।

जापानी दृष्टिकोण सही निकला । वे सचमुच मालामाल बन गए । अमेरिकनों की तरह एक पक्ष पर ही विचार करके वे रुके नहीं, दूसरा पक्ष भी खोजा और लाभ उठाया ।

लोभ का भय और साम्राज्य 

सुदूर यात्रा पर निकले एक हंस-हंसिनी रात्रि होने पर एक बरगद वृक्ष पर उतरे । उस पर उल्लुओं का समूह रहता था । उनने स्वागत किया और अपने कोंतर में जगह दे दी ।

सवेरे जब वे चलने लगे, तो उल्लुओं के मुखिया ने हंस से कहा-''तुम जा सकते हो पर हंसिनी हमारी हो गई । इसने हमारे साथ रात जो बिताई है !''

हंस झल्लया-''आप क्या बेतुकी बातें करते हैं, यह तो मेरी पत्नी है ।''

मुखिया ने उल्लुओं को अलग से बुलाकर कान में कहा-'' मेरी बात का समर्थन करो। हंसिनी के जो बच्चे होंगे उनमें एक-एक तुम सबको मिलेगा । वे तुरंत सहमत हो गए ।''

उल्लुओं के एक हो जाने और लड़ने-मरने पर आमादा होने पर हंस ने कहा-''चलो राजा से न्याय करायें ।'' वे सब चल पड़े । हंस ने राजा को सारा घटनाक्रम कह सुनाया ।

राजा फैसला करने को ही था कि मुखिया उल्लू ने राजा के कान में कहा-''आपको मालूम ही है कि हममें से एक किसी के मुँडेर पर बैठने लगता है, तो उस पर भयंकर विपत्ति आती है । यदि आपने हमारे विरुद्ध फैसला किया, तो हम सब राजमहल की मुँडेर पर बैठने लगेंगे और आपका सर्वनाश हो जाएगा ।''

राजा डर गया और दबाव में आकर उसने उल्लुओं के पक्ष में फैसला दिया । 

हंस-हंसिनी रोने लगे । मुखिया ने उन्हें विदा किया और कहा-''जहाँ लोभ और भय की तूती बोलती हो, वहाँ न्याय- औचित्य की कल्पना नहीं करनी चाहिए ।''

सियार का मुकदमा 

एक सियार ने एक बकरी को उसके खेत के बदले तालाब बेच दिया ।

दूसरे दिन सियार बोला-''तालाब बेचा है, पानी नहीं पीने दूँगा ।''

मुकदमा राजा के पास गया । फैसला हुआ-तालाब बकरी का है, उसमें जो पानी भरा है, उसे तुरंत खाली करो । सियार सिटपिटा गया और अपनी बात वापस ले ली ।

तर्क की कसौटी पर विचारों की धूर्तता कट गई ।

एक सवार ऊँट पर सामान समेत बैठा था। उसे दया आयी, सो ऊँट का बोझ सिर पर रख लिया । 

एक जानकार ने कारण समझा और कहा-''इससे ऊँट का बोझ कहाँ हल्का हुआ?'' अबकी बार उसनेनयी सूझ का परिचय दिया; सिर की पगड़ी उतार कर ऊँट की पीठ पर रख दी और समझा इस प्रकार शायद ऊँट की कुछ राहत मिले ।

समाज ऊँट है और व्यक्ति, सवार बोझ । हल्का करने के लिए अपना संतोष नहीं विवेकपूर्वक समाज का हित सोचना चाहिए।

इत्र की परख 

पुरानी बात है कश्मीर के महाराज के पास कन्नौज का एक प्रसिद्ध इत्रवाला गया । अच्छे से अच्छे इत्र उसके पास थे । वह दरबार में पेश किया गया । उसने इत्र की शीशी सामने रख दी ।

राजा में सूँधने की शक्ति नहीं थी, इसका पता उस अत्तार को नहीं था । राजा ने शीशी खोली दरबार सुगंध से महक उठा, पर राजा को कुछ भान नहीं । राजा ने थोड़ा इत्र हथेली पर लेकर आचमन की तरह पान करके देखा तो मुँह कडुवा हो गया । थू-थू करते हुए शीशी फेंक दी; अत्तार को भगा दिया ।

बिना किसी तरह जाने-समझे, कि प्रयोग की जाने वाली वस्तु वास्तव में है क्या? एवं इसका उपयोग किस प्रकार संभव है, कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए । इस योग्यता के अभाव में सहसा निर्णय ले लेने वाले स्वयं तो लाभ उठा नहीं पाते, एक उपयोगी वस्तु को सबके लिए निरर्थक और ठहरा देते हैं ।

नेपोलियन की समझदारी 

नेपोलियन बोनापार्ट ने अपने एक विरोधी को उच्च पद पर नियुक्त किया तो अधिकारियों ने कहा कि यह व्यक्ति आपके बारे में अच्छे विचार नहीं रखता ।

नेपोलियन ने हँसते हुए कहा-''जिस पद के लिए मैंने उसे नियुक्त किया है उसके लिए वह पूर्णतया योग्य है । मेरे बारे में वह व्यक्ति ठीक विचार नहीं रखता, इस उत्तेजना में मैं राष्ट्र के लिए उपयोगी व्यक्ति की उपेक्षा करके राष्ट्र के साथ और स्वयं अपने व्यक्तित्व के साथ अन्याय कर बैठूँगा ।''

बडे़ लोगों का लक्षण 

सूरज आकाश में होकर गुजर रहा था तो उसने सुना कि कुछ लोग इकट्ठा होकर उसे देवता न कहकर आग का गोला मात्र बता रहे हैं । इस पर सूरज को बड़ा बुरा जान पड़ा और उसने दूसरे दिन अपने रथ पर चढ़कर जाने से इन्कार कर दिया।

संसार में हलचल मच गई । प्रभात होने में देर होते देखकर सभी देव-दानव चिंता में डूब गए । कारण जानने और बाधा को हटाने के लिए प्राची से कहा गया । प्राची ने सूरज की बहुत कुछ प्रशंसा और अभ्यर्थना की और सदा की भाँति रथ पर चढ़कर जाने के लिए मनाया ।

सूरज बोला-''जिन लोगों का अनादिकाल से मैं इतना उपकार कर रहा हूँ वे मुझे आग का गोला कहें, तो ऐसे कृतघ्नों का अब मैं मुँह भी न देखूँगा । अब मैं यात्रा पर जाना ही नहीं चाहता ।''

प्राची ने उसे समझाया-''लोक-दृष्टि तो बालकों द्वारा फेंके गए पत्थरों के समान है। विचारशील समुद्र की तरह गंभीर होते हैं, फेंके हुए पत्थर उसके गर्भ में विलीन हो जाते हैं । पर अहंकारी कच्चे घड़े के समान होता है जो छोटे से आघात को भी सहन नहीं कर सकता और जरा-सी चोट से टूट कर छितरा जाता है । आपको छुद्र कच्चे घड़े की तरह नहीं वरन् गंभीर समुद्र की तरह ही व्यवहार करना चाहिए ।

सूरज विचारों में डूब गया और उसे यात्रा के लिए रथ पर सवार होकर जाना ही उचित जान पड़ा ।

कौडिन्य उवाच-

दृश्यते प्राय एवात्र महाभाग ! बुधा अपि ।
हानिलाभस्थितिज्ञा न हितं चिन्वन्ति दूरगम् ।। २७ ।।
कुर्वते भ्रमतश्चात्र निर्णय विपरीतगम् ।
कथमेतद् भवत्यस्माद विवेकी रक्ष्यतां कथम् ।। २८ ।।

टीका-कौडिन्य ने कहा-हे महाभाग ! देखा गया है कि अपना हानि-लाभ पहचानने वाले समझदार व्यक्ति भी दूरगामी हितों को नहीं पहचान पाते, भ्रम में गलत निर्णय ले बैठते हैं, ऐसा क्यों होता है? और ऐसी भूलों से विंवेकवान् का बचाव कैसे होता है? ॥२७-२८॥

आश्वलायन उवाच-

दूरदर्शित्वभावोऽपि विवेकस्यार्थतां गत: ।
न च वस्तुपरिज्ञानमात्रं तस्यार्थ इष्यते ।। २९ ।।
विवेकबुद्धिरादत्ते परिणामान् सुदूरगान् ।
प्रारम्भे हानिमादाय भविष्यत्यधिको यदि ।। ३० ।।
लाभ: समर्थनं तस्य कर्मण: क्रुरुतेऽत्र च ।
लाभदानि प्रतीयन्ते कार्याण्यादौ झटित्यलम् ।। ३१ ।।
दु:खदान्नि तथान्ते च जायन्ते कानिचित्तथा ।
आदौ कष्टप्रदायान्ते सुखदानि भविन्त च ।। ३२ ।।
एतादृशप्रसंगेषु भ्रान्तिग्रस्ता भवन्ति ते ।
अदूरदर्शिनो ये तु लाभं पश्यन्ति चादिमम् ।। ३३ ।।
तदर्थं महतीं हानिं भविष्यत्कालजां त्विमे ।
प्राप्नुवन्ति नरा येनाभ्युदयं नोपयान्ति ते ।। ३४ ।।

टीका-आश्वलायन बोले-विवेक का तात्पर्य दूरदर्शिता भी है । वह मात्र समझदारी तक ही सीमित नहीं है । विवेकवान् दूरगामी परिणामों को भी देखते हैं और आरंभ में तनिक-सी हानि उठाकर भविष्य में यदि अधिक लाभ की संभावना हो, तो उसका भी समर्थन करते हैं । कई काम तत्काल तो लाभदायक प्रतीत होते हैं;
किन्तु अंत में दुःख देते हैं । कुछ आरंभ में तो कष्टकर लगते हैं; किंन्तु उनका परिणाम अंतत: सुखद होता है ।
ऐसे प्रसंगों में अदूरदर्शी तो भ्रमग्रस्त होते हैं और तत्काल लाभ के लिए भविष्य में बडी हानि उठाते हैं, साथ ही अभ्युदय को भी प्राप्त नहीं हो पाते ।। २९-३४ ।।

अर्थ-समझदारी की परिभाषा यहाँ सही परिप्रेक्ष्य में समझना अनिवार्य है । तथाकथित समझ के धनी बुद्धिमान तो समाज में अनेक व्यक्ति देखे जाते हैं किन्तु विवेकशीलता की पूरक दूरदर्शिता का उनमें नितांत अभाव होता है । बहुसंख्य व्यक्ति इसी में आते हैं । मनुष्य जीवन जितनी कठिनाई से मिलता है,
उतना ही दुष्कर है, अपने दूरगामी हितों को भली-भाँति पहचान कर अपने क्रिया-कलापों को तदनुसार नियोजित करना । चासनी में लिपट कर प्राण गँवाने वाली मक्सी की तरह तात्कालिक आकर्षण तो
मायाजाल से भरे इस संसार में पग-पग पर विद्यमान हैं । उनसे स्वयं को बचाना एक बहुत बड़ा पराक्रम पुरुषार्थ है । मनुष्य को वह समझ, जिसे विवेक नाम दिया गया है, से भली-भाँति संपन्न बनाकर सृजेता ने उसे अपना मुकुटमणि बनाकर इस जगती पर भेजा है । अन्यान्य जीवों को यह विशेषता प्राप्त नहीं है । फिर यह क्यों होता है कि उसकी इस दुर्लभ निधि 'समझ' पर भी समय-समय पर पर्दा पड़ता रहता है एवं प्रगति
के स्थान पर अवनति की ओर-पतन के गर्त में लुढ़कने लगता है । प्रस्तुत प्रसंग में इसी जिज्ञासा को उठायाव सत्राध्यक्ष द्वारा उसके समाधान का प्रयास किया गया है ।

वस्तुत: विवेक को सामान्य समझदारी तक ही सीमित नहीं माना गया है । समझ तो सभी प्राणियों में होती है । भक्ष्य-अभक्ष्य सभी पहचानते हैं । अपने-पराये बच्चों की पहचान भी सभी कर लेते हैं ।
किससे उनको हानि हो सकती है, यह भी सभी जीव समझते हैं । पर विवेक तो दूरगामी परिणामों पर विचार करके तदनुसार निर्धारण को कहते हैं । मनुष्य ने प्रगति विवेक के आधार पर की है । साधना, अनुशासन, व्यवस्था, तंत्र-यह सब विवेक के आधार पर ही विकसित हुए हैं । तत्काल के आकर्षणों को छोड़कर अस्थायी लाभ इसी आधार पर मिल पाते हैं ।

हाथी समझदार बना 

एक हाथी था, बहुत बलवान और सुंदर । रहता तो वह जंगल में था पर वहाँ के निवासी सिद्ध पुरुषों की स्वेच्छापूर्वक सेवा-सहायता करता रहता । सूखी लकड़ियाँ ला देता, कभी पीठ पर
बिठा कर सैर करा लाता ।

योगी प्रसन्न होकर उससे वरदान मांगने की कहने लगा । हाथी ने सकुचाते हुए कहा-''गुरुदेव, आप प्रसन्न हैं तो मुझे मनुष्य जैसी बुद्धि दे दीजिए ।''

महात्मा जी ने उसे वैसा ही वरदान दे दिया और साथ ही उसका नाम वामदेव रख दिया । वामदेव वेद-शास्त्रों का पंडित हो गया और महात्मा जी के यहाँ जब विद्वानों की मंडली जमा होती तब वह भी उसमें सम्मिलित हो जाता । उपस्थित जनों में से जब कोई गलत बात कहता, उसी पर झुँझलाता, पर वाणी न होने से कुछ कह न सकता ।

मनुष्य जैसी बुद्धि मिल जाने से उसे अपने संबंध में और भी बहुत-सी बातें सूझने लगीं । सभ्यजनों जैसे कपड़े पहनने चाहिए। पर उसके लिए धोती, कुर्त्ता, पगड़ी, टोपी कौन लाता? अब उसे नंगा फिरने, जहाँ-तहाँ लीद करने में भी शर्म आने लगी, पर वह करता क्या? कहता किससे? लाता कहाँ से? कुढ़न और भी दूनी हो गयी ।

एक दिन वह मनुष्यों का व्यवहार देखने निकल पड़ा । वे कुर्सियों पर बैठे थे । प्याले से चाय पी रहे थे । सिनेमा देख रहे थे । वामदेव को भी वैसी इच्छा उठने लगी। पर बेचारे को साधन मिलते कहाँ से? कुढ़न जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे वह और भी दुर्बल होता चला गया ।

योगी ने वामदेव से पूछा-''वत्स, तुम्हारा मनचाहा वरदान मिल गया । अब क्या कष्ट है? जो दिन-दिन दुबले होते जाते हो?''

हाथी ने सूँड से स्वामी जी का चरण पकड़ते हुए कहा-''आपने जो वरदान दिया है, उसे वापस ले लीजिए ।'' उनने वैसा ही किया । अब हाथी पहले जैसा मस्त था । पेड़ों की कोमल टहनियाँ खाता और रात को चैन से सोता । उसने सोचा यह जीवन उस पूर्व वाले से लाख गुना अच्छा है जिसमें कम से कम बुद्धि से उपजने वाली पचासों परेशानियों की झंझट तो नहीं है ।

गिरगिट की पोल खुली 

सभी चतुष्पाद ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और उनमें से कौन वरिष्ठ है, यह पूछने लगे ।
ब्रह्मा जी ने इसके लिए दौड़ की प्रतिस्पर्धा लगाई और कहा-'' जो एक मील की दौड़ में सबसे आगे निर्धारित शिला पर जा पहुँचेगा उसी को वरिष्ठ माना जायगा ।'' 

जानवरों में छोटे-बडे़ सभी थे। उनमें एक धूर्त था-गिरगिट। प्रतिस्पर्धा में तो वह भी शामिल था। पर दौड़ कर आगे निकल जाने की विसात न थी । सो उसने धूर्तता से काम लिया और बाजी जीतने की ठानी।

मोटे बंदर के आगे निकल जाने की संभावना देखकर गिरगिट उसकी पूंछ से इस तरह चिपक गया कि एक नये साथी का उसे पता तक न चला ।

दौड़ पूरी हुई । चट्टान पर पहुँचकर पूँछ छोड़कर उछला और बंदर से पहले ही जा बैठा । बंदर ने बैठने की कोशिश की तो आँखें लाल-पीली करते हुए बोला-''देखते नहीं मैं पहले से ही यहाँ बैठा हूँ ।''

गिरगिट की जीत घोषित कर दी गई । पर जब ब्रह्माजी को वस्तुस्थिति का परिचय मिला, तो वे बहुत कुद्ध हुए और कहा-'' तुझे पीढ़ियों तक अप्रामाणिक ठहराया और तिरस्कृत किया जाता रहेगा । यहाँ तक कि धूर्तों को तेरी उपमा देकर अपमानित किया जाया करेगा ।'' रंग बदलते रहने वाले गिरगिट को अभी भी अविश्वस्त माना जाता है ।

नेपोलियन की दूरदृष्टि 

मध्य रात्रि में गहरी नींद सोते हुए नेपोलियन को सेनापति ने जगाया और दक्षिण मोर्चे पर शत्रु के अचानक आक्रमण का विवरण सुनाते हुए, क्या उपाय अपनाया जाय इसका निर्देशन पूछा ।

नेपोलियन आँख मलते हुए उठे और दीवार पर टँगे हुए ६४ नंबर नक्शे को उतारते हुए, उसमें बताया हुआ तरीका अपनाने का आदेश दिया ।

सेनापति चकित था कि जिनका उसे अनुमान तक न था, उस संभावना को नेपोलियन ने समय से पूर्व ही कैसे सोच लिया और कैसे उसका प्रतिकार खोज लिया ।

असमंजस तोड़ते हुए नेपोलियन ने कहा-'' विचारशील अच्छी से अच्छी आशा करते हैं; किन्तु बुरी से बुरी परिस्थितियों के लिए तैयार रहते हैं । मेरी मनःस्थिति सदा से ऐसी ही रही है । इसलिए विपत्ति टूटने से पहले भी उसका अनुमान लगाने और उपाय सोचने में मुझे कोई संकोच नहीं होता ।

दयालुता का प्रदर्शन 

राजा की दयालु कहलाने और दानवीर की प्रशंसा सुनने की ललक लगी । सो उसने एक दिन ऐसा निश्चय किया कि पक्षी पकड़ने वाले लोग दरबार में आयें और बंदी पक्षियों के मूल्य लेकर उन्हें स्वतंत्र कर दें।

राजा की दयालुता का यश फैला । निश्चित दिन पर हजारों पिंजड़े खाली होते और राज्यकोष से उन्हें धन मिलता । कीर्ति बढ़ गयी साथ-साथ पकड़े जाने वाले पक्षियों की संख्या भी ।

एक मुनि-मनीषी वहाँ पहुँचे । दृश्य देखा, तो बहुत दु:खी हुए । पक्षी-मुक्ति समारोह समाप्त होने पर मुनि ने राजा को समझाया-''आपकी यश-कामना इन निरीह पक्षियों को बहुत मंहगी पड़ती है । लालच की पूर्ति के लिए असंख्यों नये बहेलिये पैदा हो गए है और पकड़े जाने के कुचक्र में अगणित पक्षियों को त्रास मिलता है और प्राण है । यदि दयालुता का प्रदर्शन नहीं, पालन अभीष्ट है तो आप पक्षी पकड़ने पर प्रतिबंध लगायें ।''

राजा ने अपनी भूल समझी और दयालुता का प्रदर्शन छोड़कर वह नीति अपनायी जिससे वस्तुत: दया धर्म का पालन होता था ।

यवकीर्ति ने सस्ता रास्ता छोड़ा 

ज्ञान की गरिमा महर्षि रैक्य ने अपने पुत्र यवकीर्ति को भली प्रकार समझा दी थी । वह शास्त्र के इस वचन से पूर्ण आश्वस्त भी हो गया था कि सद्ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ संसार में और कुछ है नहीं । इतने पर भी छात्र के मन में यह भम्र बना ही रहा कि मनोयोगपूर्वक अध्यवसाय से ही ज्ञान-वैभव की उपलब्धि संभव है । वह कोई सरल मार्ग हथियाने के फेर में था । सोचा तप करने से जब बहुत सिद्धियाँ मिल सकती है, तो साधना द्वारा ही उसे क्यों न प्राप्त कर लिया जाय । लंबे समय तक पढ़ते रहने का झंझट क्यों उठाया जाय? वह अनुष्ठान तप करने लगा ।

पिता ने उसें समझाया कि ज्ञानाराधन भी तप है । मात्र ध्यान-तितिक्षा को ही तप नहीं कहते । अध्ययन में लगने वाला मनोयोग भी तप है । उद्देश्य के अनुरूप ही तप होना चाहिए ।

पिता का कथन पुत्र की समझ में तनिक भी नहीं आया । वह अपनी बात पर अंडा रहा और साधना से सिद्धि के सूत्र का गलत अर्थ लगा कर तितिक्षा से जल्दी लाभ पाने का हठ संजोये रहा ।

यवकीर्ति नदी स्नान के लिए जिस घाट पर जाया करता था, उस पर एक वृद्ध ब्राह्मण भी आने लगे । वे मुट्ठी भर-भर कर पानी में रेती डालते रहे । कई दिन तो ध्यान नहीं दिया; पर इस विचित्र चेष्टा को लगातार देखते रहने पर उनसे रहा न गया और ऐसा करने का कारण पूछा ।

वृद्ध ने कहा-''नदी पार जाने में कष्ट होता है और समय लगता है । इसलिए सोचा नदी में बालू डाल डालकर पार जाने के लिए बाँध क्यों न बना लूँ ।''

यवकीर्ति हँसने लगा । उसने कहा-'' भगवन ! हर काम रास्ते से होता है । उतावली में अपनायी अदूरदर्शिता
कहाँ सफल होती है । आप पार जाने के दूसरे संभव तरीके अपनायें और इस बाल-क्रीड़ा को छोड़ दें ।''

वृद्ध वस्तुत: इंद्र थे । अपने असली रूप में प्रकट हुए और बोले-''तात ! तुम अध्ययन की ध्यान साधना करो । यह सही मार्ग है । उतावली और अदूरदर्शिता के वशीभूत होकर सस्ता मार्ग ढूँढना व्यर्थ है।''

यवकीर्ति की समझ में बात आ गई और वे अनुष्ठान के स्थान पर अध्ययन में निरत हो गए ।

चार से पाँच बने 

यदि दूरदर्शिता हो तो मनुष्य समय रहते संभावित हानि से स्वयं को बचा सकता है। प्रत्यक्ष के आकर्षण से बचा गया या नहीं, परिणाम इसी पर निर्भर है ।

एक नगर मैं चार मित्र थे । एक बढ़ई, दूसरा दर्जी, तीसरा सुनार, चौथा ब्राह्मण । कहीं जाना होता तो चारों साथ-साथ जाते ।

एक बार उनका मन कहीं परदेश जाने का हुआ । चारों चल दिए । रास्ते में जगल पड़ा, सो वे एक बरगद के पेड़ के नीचे ठहर गए । निक्षय हुआ कि जंगल का क्षेत्र है, कोई हिंस्र पशु आ सकता है । सो एक-एक प्रहर चारों को जागना और पहरा देना चाहिए ।

पहला नंबर बढ़ई का था सो वह पहरा देने लगा, पर बेकार बैठे उसे ऊब आने लगी। पास में पड़ी एक सूखी लकड़ी उठाई और अपने औजारों से एक स्त्री की मूर्ति बना दी ।

दूसरा प्रहर आया । अब दर्जी की बारी थी। उसने मूर्ति देखी तो समय काटने के लिए उसके लिए कपड़े सिये और पहना दिए । तीसरा प्रहर स्वर्णकार का था सो उसने आभूषण गढ़े और प्रतिमा को सजा दिया ।

अंतिम प्रहर ब्राह्मण का था । उसे मंत्र विद्या आती थी सो पहरा देते हुए प्रयोग करने लगा और उस प्रतिमा को प्राणवान बना दिया । सबेरे चारों उठे तों एक सुंदर स्त्री समेत वे पाँच थे ।

उनने समझदारी से काम लिया । पारस्परिक तालमेल से एक ने उस स्त्री को माता, दूसरे ने बहन, तीसरे ने
पुत्री और चौथे ने पत्नी बना लिया । हँसते-हँसते पाँचों रास्ता पार करने लगे । सुंद-उपसुंद की तरह लड मरने की
मुसीबत से बच गए । यही दूरदर्शी विवेकशीलता ।
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