प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -3

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यथार्थत्यं: गंभीरत्वं यत्र तत्र समापतेत् ।
झञ्झावातोऽपि चेत्तर्हि सदाचारतरूर्दृढ: ।। १७ ।।
न भवेच्चलमूल: स स्थिरता तत्र पूर्ववत् ।
पारम्पर्येण संस्कारनिर्मितिर्युज्यते त्वत: ।। १८ ।।

टीका-जहाँ यथार्थता और गंभीरता होती है, वहाँ आँधी-तूफान आने पर भी सद्व्वहार रूपी परिपुष्ट वृक्ष की जड़ें हिलती नहीं । स्थिरता यथावत् बनी रहती है । अत: संस्कारों को पैदा करने की परंपरा बनाये रखनी चाहिए ।। १७-१८ ।।

अर्थ-संस्कारों को व्यवहार में समाविष्ट करके ही कोई व्यक्ति सुसंस्कृत कहलाया जा सकता है । महामानवों की यही रीति-नीति रही है । वे वास्तविकता एवं गंभीर आदर्शवाद में विश्वास रखते हैं । न तो स्वयं हवा में उड़ते हैं, न दूसरों को इसके ख्वाब दिखाते हैं । अंत: में दृढ़ता से जमे संस्कार व्यक्ति को प्रखर-तेजस्वी-मनस्वी बनाते हैं । ऐसे व्यक्ति जो कहते हैं, वह प्रभावकारी होता है । कथनी व करनी में अंतर न होने से वे सहज ही सभी के लिए अनुकरणीय बन जाते हैं । महामानव प्रगति का समापन किसी बिंदु विशेष को न मानकर सतत संस्कार अभिवर्द्धन की, आदर्शवादिता को अंत: में समाविष्ट करते रहने की अपनी परंपरा सतत चलाए रखते हैं । उनका जीवन जीती-जागती किताब बन जाता है । वह बताता है कि किसी को भी ऊँचा उठना हो तो उसे पहले अपनी जड़ें मजबूत बनाना चाहिए । उथलेपन की विडंबना से बचना चाहिए ।

मंत्री का चुनाव 

एक राजा को अपने मंत्री का चुनाव करना था । सभी दरबारी इकट्ठे किए गए ।

राजा ने दरबार में एक बोतल बंद करके पानी छिड़का दिया और सभी से पूछा-'' यह इत्र कन्नौज सेआया है । इसकी सुगंध कैसी है अपनी-अपनी सम्मति बताओ तो?''

राजा को खुश करने के लिए सभी दरबारी सुगंधि की भरपूर प्रशंसा करने लगे । अंत में दबी जबान से एक जमींदार ने कहा-'' सुगंधि तो जरा भी नहीं आती । कारण मेरी नाक खराब होना भी हो सकता ।'' राजा ने उस स्पष्ट वक्ता को मंत्री बनाया ।

अस्त-व्यस्त घोंसले 

कुसंस्कारी एवं अनपढ़ की स्थिति ऐसी ही होती है जैसी कि कबूतर के उदाहरण से प्रकट होती है । सब पक्षी अपने मजबूत घोंसले बनाते हैं और अंडे-बच्चों समेत उनमें गुजारा करते है । पर एक मूर्ख कबूतर ऐसा था जो लापरवाही से तिनके रखता और हवा का झोंका आते ही पर गँवा बैठता ।

उसने अन्य पक्षियों से कहा-'' वे उसे घोंसला बनाना सिखा दें ।'' उनने बनाकर दिखाया और समझाया । पर कृतघ्र कबूतर ने उन्हें दुतकारते हुए कहा-'' इसमें कौन बड़ी बात थी । आप लोग न बताते तो भी मैं ऐसा बना लेता ।''

पक्षी उसकी कृतध्रता, अनगढ़ता एवं अहमन्यता पर खिन्न होकर वापस लौट गए और फिर बुलाने पर भी न आए ।

कबूतर अभी भी औंधे-तिरछे घोंसले बनाता है और बार-बार घर उजड़ जाने का कष्ट उठाता है ।

जहाँ धर्म, वहाँ विजय 

महानता के संस्कारों का जीवन में, स्वभाव में आत्मसात हो जाना ही प्रवीणता है । महाभारत का घमासान युद्ध चल रहा था । दोनों पक्षों के असंख्य योद्धा घायल होते और मरते । रात्रि को युद्ध बंद रहने का नियम था । अँधेरा होते ही युधिष्ठिर वेष बदल कर निकलते और दोनों पक्ष के घायलों को चिकित्सालय पहुँचाने से लेकर पानी पिलाने जैसे उपचार में लगे रहते । दिन निकलने से पूर्व घर लौट आते ।

युद्ध समाप्त होने पर उनकी सेवा-सद्भावना का भेद खुला तो प्रजा ने उन्हें धर्मराज की उपाधि दी । उनमें
अपने-पराये में भेद न था । इस धर्म परायणता को अपनाने के कारण ही शक्ति की दृष्टि से हल्का पड़ने वाला पांडव पक्ष जीता और 'यतो धर्मस्ततो जय:' का उद्घोष गूँजा ।

प्रखर सिद्धांतवादी शिवप्रसाद गुप्त बनारस के एक बड़े जमींदार घरीन में श्री शिवप्रसाद गुप्त का जन्म हुआ । बड़ी जमींदारी होने के कारण पैसे की कमी न थी, पर उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी पैसे का सदुपयोग करने की प्रवृत्ति । उनके स्थायी निर्माणों में काशी विद्यापीठ, भारत भाता मंदिर, दैनिक आज, ज्ञानमंडल आदि हैं । राष्ट्रीय कार्यों में उनने खुले हाथों दान दिया । व्यक्तिगत रूप से दीन-दुखियों, पिछडे़ लोगों, विद्यार्थियों की वे सदा सहायता किया कुरते थे । सिद्धांतों की दृष्टि से वे बडे़ कट्टर थे । मोटरकार पर हिन्दी में नंबर प्लेट लगाने के कारण उन पर १) रुपये जुर्माना हुआ । उस मुकदमे को वे हाईकोर्ट तक लाये । चुनावों में खड़े
होने से उनने सदा इत्कार किया और कहा-'' सरकार के प्रति वफादारी की शपथ कैसे निभेगी?''

धनराशि का उपयोग सुसंस्कारिता अभिवर्द्धन में 

राजा रघु के दरबार में एक प्रश्न चल रहा था कि राज्यकोष का उपयोग किन प्रयोजनों के लिए किया जाय?

एक पक्ष था- सैन्य शक्ति बढ़ायी जाय ताकि न केवल सुरक्षा वरन् क्षेत्र-विस्तार की योजना भी आगे बड़े । इसमें जो खर्च पड़ेगा वह पराजित देशों से नए लाभ मिलने पर सहज पूरा हो सकेगा ।

दूसरा पक्ष था-प्रजाजनों का स्तर उठाने में राज्यकोष खाली कर दिया जाय । सुखी, संतुष्ट, साहसी और भावनाशील नागरिकों में से प्रत्येक एक दुर्ग होता है । उन्हें जीतना किसी शत्रु के लिए संभव नहीं । इसी-प्रकार युद्ध विजय से क्षेत्र जीतने की अपेक्षा मैत्री का विस्तार कहीं अधिक लाभदायक है । उससे स्वेच्छा, सहयोग और अपनत्व की ऐसी उपलब्धियाँ होती हैं, जिनके कारण छोटा देश भी चक्रवर्ती स्तर का बन सकता है ।

दोनों पक्षों के तर्क चलते रहे । निदान राजा ने निर्णय दिया-''युद्ध पीढ़ियों से लड़े जाते रहें हैं । उनके कड़वे-मीठे परिणाम भी स्मृति-पटल पर अंकित है । अब की बार युद्ध प्रयोजनों की उपेक्षा करके लोकमंगल की परिणति को परखा जाय और संचित कोष को सतवृत्ति संवर्द्धन एवं जन-जन में सुसंस्कारिता अभिवर्द्धन की योजनाओं में खर्च कर दिया जाय ।

वैसा ही किया गया । धीरे-धीरे प्रजाजन हर दृष्टि से समुन्नत हो गए । पड़ोसी राज्यों की समाचार मिले, तो उनके हौसले टूट गए । आक्रमणों की चर्चाएँ समाप्त हो गयीं । आदर्शनिष्ठा, सुख, शांति के समाचार पाकर अन्य देशों के समर्थ लोग वहाँ आकर बसने लगे । खाली भूमि सोना उगलने लगी और उत्साही प्रजाजनों ने अपने देश को ऐसा बना दिया जिसके कारण अयोध्या क्षेत्र में सतयुग दृष्टिगोचर होने लगा ।

जीवन भर सीखूँगा 

संस्कार अर्जन हेतु सत्पुरुषार्थ करना पड़ता है । वे अनायास आकर सदा के लिए नहीं जम जाते । ग्रीस के दार्शनिक प्लेटो से दूर-दूर के लोग कुछ सीखने आते थे । पर वे बताने के साथ-साथ उन बातों को उनसे भी पूछते थे जो उन्हें आती थीं ।

लोगों ने कहा-''जो आपसे पूछने आते हैं आप उनसे भी जानने का प्रयत्न करते हैं । इसमें आपकी इज्जत घटती है ।''

प्लेटो ने कहा-''मैं जीवन भर विद्यार्थी बना रहना चाहता हूँ । यह पदवी मुझे सबसे बड़ी लगती है ।''

सत्कार्य अभिनंदनीय होते है 

भारत की उत्तरी सीमा पर तक्षशिला एक राज्य था । उसका धर्मात्मा राजा आय का अधिकांश भाग वहाँ स्थापित विश्वविद्यालय में लगा देता था । सेना नाम मात्र की थी ।

सिकंदर ने मोर्चा सरल देखकर उस पर आक्रमण कर दिया । राजा ने सोचा प्रत्याक्रमण या प्रतिशोध से पहले विचार-विनिमय की नीति अपनानी चाहिए । उनने अपने आय-व्यय का ब्यौरा सिकंदर के सामने रखा । अपने यहाँ चल रही संस्कार संवर्द्धन की योजनाएँ बताई और स्वागत सम्मान में कुछ आभूषण भेंट किए ।

सिकंदर वस्तुस्थिति समझ गया । उसे भेंट में जो मिला था उससे दूनी राशि लौटा कर उसकी सज्जनता एवं आदर्शवादी कार्य विधियों को भूरि-भूरि सराहा । देव संस्कृति के प्रति उसके मन में आदर्शनिष्ठा की जो भावनाएँ बनी थीं वे और दृढ़ हो गयीं ।

सहायता-एक कर्तव्य 

हिन्दुस्तान की तरह इंग्लैंड में गली-चौराहों पर कुली नहीं मिलते । एक सज्जन के पास बिस्तर असबाब ज्यादा था । वह कुली को आवाज लगा रहे थे ।

एक सज्जन ने उनकी कठिनाई को समझा और असबाब बग्घी पर लदवा दिया । उन सज्जन ने कुली की मजूरी पूछी तो उनने अपना परिचय देते हुए कहा कि वे वहाँ की एक बैंक के मैनेजर हैं । उनकी कठिनाई देखकर अपनी गाड़ी एक ओर खड़ी करके सहायता के लिए आए हैं । 

''मजूरी आप से क्या वसूल की जा सकती
है ।'' इतना कहकर वे अपने काम पर चल दिए । भारतीय सज्जन ने ब्रिटिश समाज में दृढ़ता से जमें बैठे सुसंस्कारों की झलक एवं स्वावलंबन की महत्ता को उस दिन सही अर्थों में समझा ।

बचपन से डाले गए श्रेष्ठ संस्कार 

गुजरात के रविशंकर महाराज एक दिन बच्चों को गुड़ बाँट रहे थे । एक लड़की ने लेने से इन्कार कर दिया और कहा-''मेरी माता ने सिखाया है कि मुफ्त की किसी की चीज नहीं लेनी चाहिए ।'' महाराज लड़की के साथ गए और ऐसे संस्कार देने वाली उस माँ का बहुत-बहुत अभिवादन किया ।

सफलता के चार सूत्र 

मनुष्य जीवन में ऐसे ही लोग सफल होते हैं, भले ही उन्हें प्रारंभ में कठिनाइयाँ ही क्यों न आवें । कठिन परिस्थिति से जूझते हुए भारत के माने हुए इंजीनियर बनने में सफल हुए विश्वेश्वरैया ने अपनी आत्मकथा मे उन सिद्धांतों पर प्रकाश डाला है, जिनके कारण वे प्रगति पथ पर अग्रसर हो सके । पुस्तक का नाम है-''मेमायर्स आफ माई वर्किंग लाइफ ।'' 

वे लिखते है-''मैंने चार सिद्धांतों को आदि से अंत तक अपनाए रखा । जो मेरी ही तरह सफल जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें उन्हीं का स्मरण दिलाना चाहता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि इन्हें मेरी ही तरह अपनायें । वे सिद्धांत इस प्रकार हैं-

(१) लगन से काम करो । मेहनत से जी न चुराओ । आराम कड़ी मेहनत के उपरांत करने पर ही अच्छा
लगता है ।
(२) निर्धारित कामों के लिए निर्धारित समय नियत करो । समय पर काम करने की आदत डालने से काम
अधिक भी होता है और अच्छा भी ।
(३) यह सोचते रहो कि आज की अपेक्षा काम किस तरह अधिक अच्छा हो । जो सीख चुके हो उससे
अधिक सीखने का प्रयत्न करो । सोचो, योजना बनाओ, गुण-दोषों पर गंभीतरपूर्वक विचार करने के उपरांत काम में हाथ डालो ।
(४) अहंकारी न बनो । नम्रता का स्वभाव बनाओ । साथियों के साथ मिल-जुल कर काम करने की आदत
डालो ।''

इसके विपरीत येन-केन-प्रकारेण सफलता पा लेने वालों को तो एक दिन अपमान, असंतोष और असफलता का ही मुँह देखना पड़ता है ।

सम्बन्धे संस्कृतेरेतद् विद्यते साऽऽत्मनिर्भरा।
भवति स्वगरिम्णस्तु द्रष्टार: सम्मुखे स्थिता: ।। १९ ।।
नरा: किं कुर्वते नैतज्जातु पश्यन्ति कुत्रचित्।
अशुभेषु शभेष्वेते सन्ति कालेषु मानवै: ।। २० ।।
भिन्नप्रकृतिभियोंगे स्वौत्कृष्ट्यं प्रतिनिर्भरा: ।
झञ्झावाते न जायन्ते विक्षुब्धा गिरयश्चला: ।। २१ ।।

टीका-संकृति की यह विशेषता है कि यह आत्म-निर्भर होती है । अपनी गरिमा का बोध रखने वाले यह नहीं देखते कि सामने वाले क्या करते हैं । वे भले और बुरे अवसरों पर विपरीत प्रकृति के व्यक्तियों से
पाला पड़ने पर भी अपनी उतकृष्टता के संबंध में आत्मनिर्भर रहते हैं । बवंडर पर भी पर्वत न तो हिलते हैं और न विक्षुब्ध-विपन्न होते हैं ।। १९-२१ ।।

अर्थ-अनुकूलतायें-प्रतिकूलतायें जीवन में सदैव आती रहती हैं । किन्तु इन झंझावातों से अप्रभावित बने रहकर आदर्शनिष्ठ व्यक्ति प्रयास-पुरुषार्थ में सतत निरत रहते हैं । वे इन क्षणिक परिवर्तनों से विचलित नहीं होते । उन्हें अपने सुदृढ़ संस्कारों के कारण स्वयं पर, अपने श्रेष्ठता के समर्थक चिंतन पर विश्वास होता है एवं वही उन्हें सारी कठिनाइयों से उबार कर महानता के पथ पर ले जाता है ।

सिद्धांतप्रियता 

श्रीपति जी अकबर के, दरबारी कवियों में से एक थे । किसी की झूठी प्रशंसा करना उनको भाता नहीं था । अन्य दरबारी कवियों ने उनकी इस आदर्शनिष्ठा को तोड़ने का संकल्प ले लिया । सबने मिलकर एक ऐसे कवित्त-पाठ आयोजन का प्रस्ताव पारित करा लिया, जिसमें प्रत्येक कवित्त की अंतिम पंक्ति 'करौ मिलि आस अकबर की' से युक्त हो ।

सबने इस प्रकार अकबर की खूब प्रशंसा की । परंतु श्रीपति जी की जब बारी आयी तो उठकर गाया- 'जिनको हरि की कछु आस नहीं, सो करौ मिलि आस अकबर की ।' दरबार में सर्वत्र सन्नाटा छा गया था, परंतु अकबर श्रीपति जी की सिद्धांतप्रियता तथा आदर्शवादिता पर मुग्ध हुए बिना न रह सके ।

स्वयं पर दृढ़ विश्वास 

अल्बर्ट आइन्स्टीन को जर्मनी से निकल जाना पड़ा था-हिटलर, उसके नाजी प्रचार और यहूदियों के विरोध के कारण । जब आइन्स्टीन अमेरिका पहुँचे तो खबर मिली कि हिटलर ने सौ वैज्ञानिक तैनात किए हैं, यह सिद्ध करने को कि आइन्स्टीन की सारी खोजें गलत हैं । सौ वैज्ञलिकों ने बड़ी मेहनत भी की । आइन्स्टीन को जब खबर मिली तो उसने हँसकर कहा-''अगर मैं गलत हूँ तो एक वैज्ञानिक उसे सिद्ध करने को काफी है । सौ की कोई जरूरत नहीं और अगर मैं गलत नहीं हूँ, तो सारी दुनिया के वैज्ञानिकों को भी हिटलर इकट्ठा करे तो भी मैं गलत हो जाने वाला नहीं हूँ और हिटलर को सौ की आवश्यक्ता इसलिए पड़ रही है कि वह सत्य के एकाकी स्थिर रहने और जीतने की बात पर विश्वास नहीं करता । ''

सुसंस्कारिता आरंभ में कुछ कष्टप्रद तो हो सकती है, पर अंतत: महानता का पथ उसी से प्रशस्त होता है ।

लिंकन ने कीमत चुकाई 

बालक अब्राहम लिंकन को महापुरुषों के जीवन पढ़ने का बहुत शौक था । गरीबी के कारण पुस्तकें खरीद तो नहीं सकते थे; पर जहाँ-तहाँ से माँग कर लाते पढ़ते और अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करते थे ।

एक बार वे दस मील चलकर एक पुस्तक माँग कर लाये । रात को वर्षा हुई । छत टपकी और पुस्तक भीग गई । सुरक्षित लौटाने की शर्त कैसे निभेगी-लिंकन इस चिंता में डूबे जा रहे थे ।

नियत समय पर लौटाने पहुँचे पर साथ ही उसके खराब होने की बात भी कही । झंझट का फैसला यह हुआ कि लिंकन उन सजन के यहाँ इतने दिन मजदूरी करें, जितने में नई पुस्तक खरीदने जितना पैसा चुक जाय ।

लिंकन खुशी-खुशी तैयार हो गए और पैसे चुकाकर वापस लौटे ।

सारा जीवन अनाचार के आवरण में

अल्मोड़ा से बाईस मील दूर ताला ग्राम में बद्रीप्रसाद वैष्णव जन्मे । उनके पिता ज्योतिष का काम करते थे । ग्रह गणित देखकर उनने बालक को अभागा माना और थोड़ा समझदार होते ही इस पिता ने बालक को एक दूसरे पुरोहित के हाथों बेच दिया ।

बच्चे को इस अंधविश्वास पर बड़ा क्रोध आया । कहीं से मनचाही पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश हाथ लग गयी । वे अंधविश्वासों और कुरीतियों के प्रति मन में आक्रोश भरकर घर से निकल पड़े । कुछ दिन तीर्थयात्रा की, कुछ दिन फौज में नौकरी । इसके बाद उनने निश्चय क्रिया कि वे जीवन को अनाचार के विरोध में लगावेंगे । उनने कांग्रेस और आर्य समाज दोनों से संपर्क साधा और दोनों कें विचारों को समय के अनुरूप पाया । 

उन दिनों सन् १९२१ का कांग्रेस आदोलन चल पड़ा था । उनने कुमाऊँ के गाँव-गाँव में दौरा किया और इन दोनों संस्थाओं के समर्थक बनाए । समाज सुधार का क्रम तो चला ही, साथ ही इस क्षेत्र में कांग्रेस के सत्याग्रही समाज-सेवक भी बड़ी संख्या में मिले ।

अंग्रेजी सरकार ने उन्हें कई बार गिरफ्तार किया, जेल में डाला । पर वे मरते समय तक अपने निश्चत क्रम को पूरा करने में ही लगे रहे । वे जेल में रहे अथवा बाहर, महर्षि दयानंद की तरह आजीवन उस पाखंड के निवारण में लगे रहे, जिस कारण वे पिता द्वारा बिक्री के अनाचार का शिकार बने थे ।

नये भारत का निर्माता स्कंदगुप्त

आत्मावलंबन के बलबूते पर कितने ही व्यक्ति छोटे स्तर से ऊँचे उठकर प्रतिकूलताओं से जूझते प्रगति का पथ-प्रशस्त करते हैं ।

देश टुकड़ों मे बँटा था, सामंत व्यक्तिगत अहंकार और लिप्सा के कारण आए दिन लड़ते रहते थे । फलत: संगठित शक्ति केन्द्रित न हो पाने से विदेशी बर्बरों के आक्रमण अधिक से अधिकतम होने लगे ।

इन परिस्थितियों में मगध का एक प्रतापी स्कंदगुप्त जो कि था तो छोटे राज्य का राजा किंन्तु  उस प्रतिकूल समय में, अंधकार में एक प्रकाशवान नक्षत्र की तरह उदय हुआ । उसने देश के शासकों को जीता ही नहीं, वरन् एक सूत्र में बाँधा । साथ ही बर्बर आक्रमणकारियों पर उस संयुक्त शक्ति के सहारे आक्रमण किया ।

आक्रामकों की हेकड़ी धूल में मिल गयी । भारत का एक नए समर्थ राष्ट्र के रूप में उदय हुआ ।

अर्जुन की चरित्र निष्ठा 

महानता के पथगामी कभी मार्ग के आकर्षणों से विचलित नहीं होते । देवताओं की सहायता के लिए अर्जुन उनके यहाँ असुरों के विरुद्ध लड़ने गए । पराक्रम और सौंदर्य से प्रभावित उस लोक की वरिष्ठ सुंदरी उनके पास प्रणय निवेदन करने गई, बोली-''मुझे आप जैसी संतान चाहिए ।''

अर्जुन ने उसकी चरणरज मस्तक पर लगाते हुए कहा-''आप मुझे ही अपना पुत्र मान लें । संतान के रूप में मुझ जैसा पुत्र मिलेगा ही, इसका क्या भरोसा । प्रतीक्षा में बैठने की अपेक्षा यह क्या बुरा है कि तत्काल ही आपको पुत्र प्राप्ति हो जाय । मैं आपको सदा कुलीन माता के समतुल्य मानूँगा ।''

देवताओं ने इस विवरण को सुना तो अर्जुन की चरित्रनिष्ठा से अत्यंत प्रभावित हुए और दिव्य अस्त्र गांडीव उन्हें प्रदान किया ।

साहसी विस्मिल

मनुष्य जीवन एक संघर्ष है । जहाँ यह सच है, वहाँ सच यह भी है कि इस संघर्ष में जीतते वही है, जो आत्मबल संपन्न होते हैं। आत्मबल सच्चाई का दूसरा नाम है ।

क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल को जिस दिन फांसी लगनी थी, उस दिन सबेरे जल्दी उठकर वे व्यायाम कर रहे थे । जेल वार्डर ने पूछा-''आज तो आप को एक घंटे बाद फाँसी लगने वाली है, फिर व्यायाम करने से क्या लाभ?'' उनने उत्तर दिया-'' जीवन आदर्शों और नियमों में बंधा हुआ है । जब तक शरीर में साँस चलती है, तब तक व्यवस्था में अंतर आने देना उचित नहीं ।''

थोड़ी सी अड़चन सामने आ जाने पर जो लोग अपनी दिनचर्या और कार्यव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर देते हैं, उनको बिस्मिल जी मरते दम तक अपने आचरण द्वारा यह बता गए हैं कि समय का पालन, नियमितता एवं धैर्य ऐसे गुण हैं, जिनका व्यक्तिक्रम प्राण जाने जैसी स्थिति आने पर भी नहीं करना चाहिए ।

कर्मवीर राम मनोहर लोहिया 

राम मनोहर लोहिया का जीवन एक कठिन मार्ग पर चलते हुए बीता पर उन्हें अनेक प्रकार के कार्य करने पडे़ । कालेज जीवन में ही उनने निश्चय कर लिया कि देश के लिए जिएँगे और उसी के लिए मरेंगे । घर के लोग संपन्न थे और वे उनका विवाह करना चाहते थे । उनने स्पष्ट इन्कार कर दिया और कहा-''स्वराज्य के अतिरिक्त वे और किसी काम के लिए समय, श्रम नहीं
लगायेंगे और न ध्यान बँटायेंगे ।''

यूरोप के कई देशों की उनने अध्ययन व स्वतंत्रता का वातावरण बनाने के लिए यात्राएँ की । इसी अवधि में 'सत्याग्रह' पर शोध प्रबंध लिखकर उन्होंने डाक्टर की उपाधि प्राप्त की ।

देश में लौटते ही वे कांग्रेस आदोलन में जुट गए । उनकी देश की ऊँचे नेताओं में गणना थी । उनने कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना की और समाजवादी पत्र निकाला । उनने बंबई और कलकत्ता में कांग्रेस रेडियो स्टेशन बनाए । विभिन्न धाराओं के अंतर्गत उन्हें बार-बार जेल में ठूँसा जाता रहा ।

अंत में उन्हें पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के संबंध में शरीर त्यागना पड़ा । मरते समय अनेक डाक्टरों से घिरा देखकर उनने आश्चर्य से पूछा-''करोड़ों भारतीयों के लिए डाक्टरों का कोई प्रबंध नहीं और मेरे लिए इतने डाक्टर ?''
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