प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-2

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माहात्म्यं सहाकारस्य वंदन्तस्तेऽब्रुवञ्जनान् ।
प्राणी सामाजिको नूनं मानवोऽस्ति न संशय:॥१९॥
प्रगति: स्थैर्यमस्यास्ति सहकारसमाश्रिते।
समाजेन कुटूम्बेन शासनेनाऽपि सन्ततम् ॥२०॥
समूहवादिनीशिक्षा लभ्यते मानवेन तु ।
एकाकित्यं कीटकानां कृमीणां प्रकृतिर्मता ॥२१॥

टीका-सहकार की महिमा बताते हुए उन्होंने कहा-'मनुष्य सामाजिक प्राणी है ।' उसकी स्थिरता और प्रगति सहकार पर ही निर्भर करती है । परिवार, समाज और शासन के माध्यम से मनुष्य को समूहवादी बनने
की शिक्षा मिलती है । एकाकीपन कृमि-कीटकों का स्वभाव है ॥१९-२१॥

अर्थ-मनुष्य जन्म से लेकर बड़ा होने तक जिस आधार पर विकास करता है, उसके मूल में समाज के हर घटक का सहयोग-सहकार है । सभ्यता, सुसंस्कारिता, विवेकशीलता जैसे गुण भी पारिवारिकता के बल पर ही पनपते हैं । एकाकी कोई न जी सकता है न आगे बढ़ सकता है । वैभव को प्राप्त करने के बाद कोई
यह कहे कि यह उसका अकेले का पुरुषार्थ है तो इसे आत्मप्रवंचना ही कहा जाएगा ।

धनुष और बाण 

एक दिन धनुष बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था और अपनी शक्ति को बखान रहा था ।

एक दिन तीर अपनी शेखी-खोरी बहुत बघार रहा था । मैं जहाँ लगता हूँ, निशाना पार कर देता हूँ ।

आदमी ने दोनों की बात सुनी और कहा-"आप लोग बिना एकता किए व्यर्थ हैं । दोनों मिलकर ही कोई प्रयोजन पूरा कर सक ते है ।"
झगड़ा समाप्त हो गया । साथ ही उन दोनों की महत्ता भी बढ़ गयी ।

भट्टी और धौंकनी

लुहार की भट्टी और हवा भरने की धौंकनी में एक बार लड़ाई हो गयी ।

भट्टी ने आग-बबूला होकर कहा-"मरे जानवर की घृणित खाल से बनी कुरूप धौंकनी तेरी बदबू भरी साँस मुझे बहुत खलती है, हट मेरे सामने से।"

धौंकनी क्रुद्ध नहीं हुई । उसने शांत स्वर से कहा-"बहन, भूल गई कि तुम्हारे चेहरे की लालिमा मेरे ही निरंतर
श्वासोच्छ्वासों की परिणति है । मेरे विरत हो जाते ही तुम काली-कलूटी कोयले की राख बनकर रह जाओगी।" 

सामाजिक जीवन की भी यही नियति है । बहुत से लोग पांडित्य के अहंकार में तो डूबे रहते हैं; पर जन-श्रद्धा और स्नेह से वंचित रहने के कारण वे खीजते रहते है । वे इतना और सुधार कर लें तो फिर आनंद ही आ जाय।

अब मैं क्या करुँ?

एक धर्म प्रचारक संघ के अधिष्ठाता से शिकायत कर रहे थे-"इतने दिन उपदेश देते हो गए, पर लोग न मुझे समझ पाये, न मेरे अनुयायी बने । अब मैं क्या करूँ?"

अधिष्ठाता ने दूसरे दिन उनके साथ अन्य प्रचारकों को भी आया । दो बर्तन पानी भरकर रखे । सबको दिखाते हुए एक में तेल डाला और दूसरे में नमक। तेल ऊपर तैर रहा था और नमक पानी में घुल गया था।

तात्पर्य समझाते हुए अधिष्ठाता ने कहा-"तेल की तरह जनता के सिर पर छाने की कोशिश मत करो । नमक
की तरह जन-समुदाय के पानी में घुल जाओ, तो आत्मसात् होकर रहोगे ।"

प्रचारक मंडली ने अनुभव किया कि अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ने की अपेक्षा जनता के दु:ख, दर्द में
शामिल होना और उसके साथ घुल-जाना अधिक श्रेयस्कर है ।

दुनियाँ में समर्थ कहलाने वाले देश और जातियाँ वह हुई हैं, जिन्होंने सारे राष्ट्र को कुटुंब माना । बलिदान हो
गए, पर उन्होंने निजी सुख-सुविधा की अपेक्षा राष्ट्र की प्रगति से अपने आप को जोड़कर रखा ।

अजेय इटली

फ्रांस इटली में युद्ध चूल रहा था । इटली की छोटी 'नदी' थी । गहरी बहुत, चौड़ी कम । ग्रामीणों ने उसे पार करने के लिए दो खजूर के लट्ठे लगा रखे थे ।

फ्रांसीसी फौजें इसी पुल को पार कर इटली के भीतरी क्षेत्रों में प्रवेश करने की योजना बना रही थीं । ग्रामीणों
को पता चला, तो उनने लट्ठे काटकर नदी में गिरा देने का निश्चय किया । वे कुल्हाड़ी से काटने लगे ।

खबर फ्रांसीसी फौजों को लगी, तो वे काटना रोकने के लिए गोली चलाने लगीं । ग्रामीण बहादुर थे । उनने
हार नहीं मानी । काटना जारी रखा । गोलियों से छलनी होकर जब तक काटने वाला नदी में गिर नहीं जाता, तब तक वह रुकता नहीं था ।

इस प्रकार तीन सौ किसान मौत के घाट उतर गए । जवान सभी समाप्त हो गए । एक बुड्ढा बचा । उसने वहाँ
पहुँचकर स्थिति देखी, तो पाया कि पुल के लट्ठेअधिकांश कट चुके थे । जुडा हुआ स्थान थोड़ा सा ही था । बुड्ढा दौड़ता हुआ गया और उछल कर उस जुड़े हुए स्थान पर कूद पड़ा। झटके से लट्ठा टूट कर नदी में गिर गया, साथ ही बुड्ढा भी बह गया ।

गाँव के प्राय: सभी वयस्क इस प्रयास में खप गए । पर पुल टूटने से फ्रांसीसी सेना का हमला रुक गया
और आजादी बच गयी । यह होता है सहयोग-सहकार का चमत्कार, जो किसी भी समुदाय का गौरव बढाता, उसके कर्तृत्व को स्तुत्य बनाता है ।

अल्पं विकसिता ये तु पशव: पक्षिणोऽपि ते।
समूहे निवसन्त्येवं पालयन्त्यनुशासनम्॥२२॥
वल्मीककीटा यद्येते एताश्च मधुमक्षिका:।
पिपीलिकाश्च गृह्वन्ति सहकारं भवन्त्यपि॥२३॥
सुखिनोऽपेक्षयाऽन्येषामुन्नतस्थितिगास्तथा।
तिष्ठेयुर्मानवास्तर्हि कथं निम्नस्थितिस्थिता: ॥२४॥

टीका-थोड़ा सा विकास जिनका हुआ है, वे पशु-पक्षी भी समूह बनाकर रहते हैं और तदनुसार अनुशासन पालते हैं । जब दीमक, चींटी और मधुमक्खी जैसे प्राणी सहकारिता अपनाते और अपेक्षाकृत अधिक
सुखी-समुन्नत स्थिति में रहते हैं, तो मनुष्य को ही क्यों पीछें रहना चाहिए? ॥२२-२४॥

अर्थ-मनुष्य तो सृष्टि का सिरमौर है । पशु-पक्षी तो मूक होते हैं, उपलब्धियाँ भी उनकी गौण हैं, किन्तु सहकारिता कें अनुशासन में वे भी बँधे रहते एवं सतत् विकास करते हैं । उनके उदाहरण मनुष्य के लिए शिक्षा ग्रहण करने योग्य हैं ।

मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का आधार यही तो माना जाता है कि उसमें बुद्धि एवं विवेक का तत्व विशेष है । उसमें कर्तव्यपरायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहृदयता तथा संवेदनशीलता के गुण पाये जाते है; किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है, जब सृष्टि के अन्य प्राणियों मे इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्णरूप से क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करे। यदि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है?

राजहंसों का जीवन 

प्रिंस क्रोपिाटिन ने अपना सारा जीवन प्रकृति के अध्ययन में लगाया। उन्होंने जीव-जंतुओं के व्यवहार से जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन्हें 'संघर्ष नहीं सहयोग, पुस्तक में एकत्रित कर बताया है कि मनुष्य जाति की सुख-समुन्नति स्पर्द्धा में नहीं, भावनाओं के विकास में है । भावनाओं के विकास से वह अभावपूर्ण जीवन में आनंद और उल्लास, हँसी और खुशी प्राप्त कर सकता है । उन्होंने लिखा है-'ध्रुव प्रदेश के राजहंस परस्पर कितने प्रेम और विश्वास के साथ रहते है, उसे देखकर मानवीय बुद्धि पर तरस आता है और लगता है कि मनुष्य ने बुद्धिमान् होकर भी जीवन की गहराइयाँ पहचानी नहीं। कई बार कोई राजहसिनी अपने बच्चों को घमंड में या आवेश में ठुकरा देती है, तो उन पिता रहित बच्चों को बगल की मादा अपने साथ मिला लेती है, उसके अपने भी बच्चे होते हैं, पर वे सब बच्चे इस तरह घुल-मिल जाते हैं मानों वे दो पेट से पैदा हुए न होकर एक ही नर और मादा की संतान हों । मादा उन सबको समान दृष्टि से प्यार देती है और उनकी साज-संभाल तब तक रखती है, जब तक वे बड़े नहीं हो जाते ।' 


चालाक लोमडियाँ

प्रिंस क्रोपाटिन ने अपनी इसी पुस्तक में एक और मार्मिक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है । एक बार जंगल में रेलवे लाइन बिछाई जा रही थी । मजदूर अपना खाना रखकर काम पर चले जाते। पीछे लोमडियाँ आती और खाना खा जातीं। खाना पेड़ों की डालों पर लटकाया जाने लगा; पर वहाँ से भी पोटलियाँ गायब मिलतीं । अब एक ऊँचा खंभा बनाया गया । वहाँ खाना रखा गया । लोग यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि एक दिन लोमडियाँ सरकस की तरह एक के ऊपर एक चढती गई और उस ऊँचाई तक पहुँच कर खाना नीचे गिरा दिया और उसे उठाकर भाग गई ।

वन्य जीवन के सहचर

कभी भी देखा जा सकता है कि जब कोई पशु-पक्षी कहीं आहार का संग्रह देख लेता है, तो चुपचाप चोर की तरह खाने नहीं लगता, वह सबसे पहले अपनी भाषा में अपने सहचरों को बुला लेता है और तब सबके साथ मिलकर खाया करता है । आप कभी भी किसी स्थान पर दाने डालकर देख सकते हैं कि जहाँ एक पक्षी ने देखा कि उसने दूसरों को पुकारना शुरू किया और थोड़ी ही देर में पंडुका, गोरैया, तोते आदि न जाने कितने पक्षी वहाँ पर जमा हो जायेंगे । लोग बंदरों को चने अथवा गेहूँ डालते हैं । जहाँ एक बंदर ने देखा नहीं कि उसने ऊहऊह करके आवाज देना शुरू किया और क्षेत्र के सारे छोटे-बड़े बंदर आकर उसका लाभ उठाते हैं । खाते समय भी कोई सबल कदाचित् ही किसी निर्बल को भगाता हो । नर एवं मादा का भी उनमें कोई अंतर नहीं देखा जाता ।

टिटहरी समुद्र के निर्जन तटों पर अंडे देती है । वे मिल-जुलकर अंडे सेती हैं। अपने विराने का भेदभाव किए बिना सेती है । कोई मादा चारे की तलाश में उड़ जाय, तो कोई दूसरी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी । इसी प्रकार मिल-जुलकर अंडे-बच्चों की साज-संभाल में उन्हें बहुत सुविधा रहतीं है और आनंद भी खूब आता है।

तेंदुए की दुश्मन

अफ्रीका में एक मैना पाई जाती है जिसे जंगल का प्रत्येक जीव प्यार करता है । वह किसी भी जीव के साथ खेलती देखी जा सकती है ।

इसका कारण-यह मैना दिनभर तेंदुए के पीछे लगी रहती है और एक विलक्षण आवाज से सारे जंगली
जानवरों को तेंदुए के उधर आने की सूचना देती रहती है।

कई बार तो तेंदुआ इस हरकत से इतना खीज जाता है कि अपना सिर तक पटकने लगता है ।

परमार्थवादिनी मैना इसी कारण प्रत्येक जीव की स्नेहभाजन बन गई ।

योगी व तोते का स्नेह

एक तोता, योगी के दर्शन करने नित्य जाता और चोंच में एक छोटा बेर दबाकर उनके चरणों में रखता। योगी का आशीर्वाद पाकर तोता उछल-कूद करके अपनी प्रसन्नता व्यक्त करता ।

भक्तों ने पूछा-"क्या आप तोते से वार्तालाप करते और उसकी बोली बोलते हैं । योगी ने कहा-"संत फ्रांसिस भेड़ियों के बीच रहते और उनके साथ कुटुंबियों जैसा रिश्ता बनाने में सफल हुए थे, तो कोई कारण नहीं कि हम सभी परस्पर एक साथ हँसते-बोलते न रह सकें ।

मानवस्य समस्ताया: प्रगते: सर्वमेव हि।
रहस्यं सहकारस्य भावनायां स्थितं ध्रुवम्॥२५॥
अस्तव्यस्त स्थितैनैंव तृणै रज्जुविनिर्मिति: ।
संभवाऽस्ति न निर्मातुं शक्या सम्मार्जिनी दृढा ॥२६॥
शलाकाभिर्नरैरत्र पतिताभिरितस्तत: ।
इष्टिकाश्चेत्पृथक् स्युस्ता: कथं गृहविनिर्मिति: ॥२७॥
संभवा, मौक्तिकैर्माल्या ग्रथितैरेव जायते ।
समूह एव सैन्यानां शत्रून् विजयते ध्रुवम् ॥२८॥
सहकारस्वभावेन मर्त्यानां सुखदायिनी ।
कुटुम्बरचना जाता भुवि स्यर्गायिता नृणाम्॥२९॥
समाजो निर्मितोऽथाठपि राष्ट्रसंघटनं वरन् ।
जातं, संघटनानां च विविधनामिह ध्रुवम् ॥३०॥
माध्यमेन हि जातानि कार्याण्याशुमहान्त्यपि ।
राम: कृष्णोऽश्र बुद्धोऽयु: साफल्यं सहयोगिभि:॥३१॥

टीका-मनुष्य की प्रगति का सारा रहस्य उसकी सहकार भावना में सन्निहित है । बिखरे तिनकों से
रस्सा नहीं बटा जा सकता । बिखरी सीकों से बुहारी नहीं बनती । ईट अलग-अलग रहें, तो भवन कैसे बने?
मोतियों के मिलने से ही हार बनता है। सैनिकों का समूह ही शत्रु पर विजय प्राप्त करता है । मनुष्य के सहकार-स्वभाव से ही परिवारों की स्वर्गोपम सुखद-संरचना हुई है, समाज बना है, राष्ट्रों का गठन हुआ है । विभिन्न संगठनों के माध्यम से ही महत्वपूर्ण कार्य संपन्न हुए । राम, कृष्ण और बुद्ध ने सहयोगियों की सहायता
से ही आश्चर्यजनक सफलता पाई॥२५-३१॥ 

अर्थ-एकाकी प्रयत्नों से संसार का कोई भी आदमी नहीं बढ़ पाया, क्योकि सफलता का रहस्य मिल-जुलकर काम करने में है।

बात यों बनी 

सफलता में किसकी प्रमुखता है-इस प्रश्न पर बल, संकल्प और विवेक आपस में उलझ पड़े ।
निर्णय के लिए प्रजापति के पास पहुँचे। उनने फैसला करने के पूर्व प्रमाण प्रस्तुत करने का निश्चय किया। तीनों ने सामान्यजनों जैसे वेश बना लिए ।

एक बच्चा खेल रहा था । प्रजापति ने टेढी कील और हथौड़ा उसे थमाते हुए कहा-"इसे सीधी कर दो । भरपेट मिठाई मिलेगी ।"

बच्चा सहमत हो गया । पर हथौडा भारी था और कील बहुत टेड़ी । उसने हिम्मत छोड दी और कहा-"मेरे
हाथों में इतना बल कहाँ जो भारी हथौड़ा चला सकूँ ।" मंडली आगे बढ़ गयी ।

एक कारीगर लेटा था । मिस्त्री को सोते से जगाकर अध्यक्ष ने कहा-"लो कील और हथौड़ा, इसे सीधी कूर
दो पाँच रुपये मिलेंगे ।" रुपयों की बात सुनकर उसने करवट बदली, अँगड़ाई ली । हथौड़ा भी चलाया । पर नींद इतनी गहरी थी, कि बात बनी ही नहीं और झपकी फिर आ गयी। कील-हथौड़ा जहाँ के तहाँ पड़े रह गए।

आगे चलकर एक बुद्धिमान् इंजीनियर के पास पहुँचे और उसे कील सीधी करने के बदले पचास रुपया देने
का प्रस्ताव किया ।

इंजीनियर बीमार था । किसी कठिनाई से व्यस्त और व्यग्र भी । उसने सिर हिलाकर इन्कार कर दिया ।

अन्यत्र चलने का विचार छोड़कर प्रजापति ने बताया, आप तीनों के मिलने से ही सफलता मिलती है ।

अकेले रहने पर आप तीनों ही असफल रहेंगे ।

पंच तत्त्वों जका झगडा

पाँच तत्वों की मंडली, एक सुरम्य पर्वत पर पहुँची । चर्चा छिड़ी तो अपने-अपने बड़प्पन का
प्रसंग उभर आया ।

पृथ्वी बोली-"सारी दुनिया का बोझ मैं उठाती हूँ । सबका पेट भी मैं ही भरती हूँ ।"

जल ने कहा-"मेरे बिना जीवन ही नहीं। वनस्पति न प्राणी; सब कुछ सूखा दीखे और त्राहि-त्राहि मचे ।"

पवन बोला-"दीखता नहीं हूँ, तो क्या। मेरे बिना घुटन ही सबका गला न घोंट देगी?"

अग्नि ने कहा-"गर्मी-रोशनी के बिना इस लोक में शीत-निस्तब्धता के अतिरिक्त और क्या बचेगा?"

चारों का कथन पूरा हो गया फिर भी आकाश बोला नहीं । बार-बार पूछने पर उसने एक शब्द ही कहा-"आप सबके मिलने से ही यह संसार गतिशील है । न तो किसी के अकेले चलाने से यह चलेगा और न किसी
अकेले के रुठ जाने से, सब लोग मिल कर रहेंगे तो ही खुशहाली रहेगी।"
 
अलग हुए नीचे हुए

चील बहुत ऊपर आकाश में उड़ान भर रही थी । पतंग भी उड़ते-उड़ते सुदूर आकाश में पहुँच गई ।

उसने देखा चील स्वच्छंद उड रही थी। क्यों न हम भी स्वच्छंद विचरण करें । क्षणिक भावावेश में वह झटके से आगे बढ़ी और अपने को तागे से अलग कर लिया । मूल आधार की उपेक्षा कर वह उड़ न सकी और अगले ही क्षण जमीन पर आ गिरी ।
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