।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -3

।। अथ द्वितीयोऽध्याय: ।। धर्म-विवेचन प्रकरणम -4

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धर्मस्यैषां दशानां तु लक्षणानां हि विवृति:  
समन्वितेऽथ संक्षेपे वक्तुं पञ्चापि संभवा:  ।। ४३ ।। 
योगशास्त्र इमान्येव प्रकारान्तरतो बुधा: । 
यमादिनामतस्तत्र प्रोक्तान्यात्मशुभान्यलम्  ।। ४४ ।। 
स्वीकृत्येमानि सिद्धयेत् स संयमस्त्विन्द्रियोदित: । 
पञ्चानामपि तेषां च प्राणानां सिद्धयति स्वयम् । 
उपप्राणै: सहैवात्र विद्या पञ्चाग्रिशब्दिता  ।। ४५ ।। 

टीका-धर्म के इन दस लक्षणों की व्याख्या संक्षेप में और समन्वित रूप में करनी हो, तो उन्हें पाँच युग्म के रूप में भी माना जा सकता है । योग-शास्त्र में इन्हीं को प्रकारान्तर से पाँच यम और पाँच नियम कहा गया है, जो आत्म कल्याणकारी माने गए हैं । इन्हें अपनाने से पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच कर्मेन्द्रियों का संयम सधता 
है । इन्हें अपनाने के बाद ही पाँच-प्राणों, पाँच उपप्राणों की पञ्चाग्रि विद्या सम्पन्न होती है ।। ४३ -४५ ।। 

योगिनश्चैतदाश्रित्य कुर्वतेऽनावृतान् समान् । 
पञ्चकोषान् सिद्धयस्ता ऋद्धयक्षैभिरेवतु  ।। ४६ ।। 
संगता: सन्ति चैतानि योगान् पञ्चविधांस्तथा। 
साधितुं तानि पञ्चैव तपांस्यर्हन्ति च क्रमात्  ।। ४७ ।। 

टीका-योगी जन इन्हीं को अपनाकर पाँच कोषों का अनावरण करते हैं । पाँच ऋद्धियाँ और पाँच सिद्धियाँ-इन्हीं पाँचों गुणों के साथ जुड़ी हैं । यही पाँच योग और पाँच तप साधने की आवश्यकता पूर्ण 
करते हैं ।। ४६- ४७।। 

शिवस्याप्यथ रामस्य पञ्चायतनमुत्तमम् । 
बोधयन्तीदमेते च बराप्ता: पाण्डुपुत्रका: ।। ४८ ।। 
पञ्चगव्यं पापनाशि पुण्यं पञ्चामृतं तथा । 
इमान्येव यतस्ते द्वे चैतेषां पोषके ध्रुवम्  ।। ४२ ।। 

टीका-इन्हीं को गीता के पाँच पांडव, राम पंचायतन और शिव पंचायतन समझा जा सकता है । पापनाशक पंचगव्य और पुण्य संवर्द्धक पंचामृत भी इन्हीं को मानना चाहिए, क्योंकि वह इनके पोषक 
हैं ।। ४८ -४९ ।।  

पञ्चैव धर्मपुण्यानि जीवने व्यावहारिके । 
व्यवहर्त्तुं पर:प्रोक्त: पुरुषार्थो मनीषिभि:  ।। ५० ।। 
एतानि पालयन्त्यत्र जना ये प्रेरयन्त्यपि । 
पालितुं साधनान्येव वार्जयन्ति तथा शुभाम्  ।। ५१ ।।
वातावृतिं विनिर्मान्ति श्रेयों गच्छन्ति ले जना: । 
लोकेऽथ परलोकेऽपि कृतकृत्या भवन्त्यलम्  ।। ५२ ।। 

टीका-इन पाँच धर्म-पुण्यों को जीवन में उतारना मनीषियों द्वारा परम पुरुषार्थ माना गया है । जो इन्हें पालते हैं, पालने की प्रेरणा देते हैं, साधन जुटाते और वातावरण बनाते हैं, वे लोक और परलोक में श्रेय पाते तथा हर दृष्टि से कृत- कृत्य होते हैं  ।। ५० -५२ ।। 

अर्थ-जीवन की सार्थकता इसी में है कि कर्तव्य धर्म निबाहते हुए बहते निर्झर की तरह जिया जाय । जहाँ तक हो सके, दूसरों के लिए सार्थक एवं स्वयं को आत्मिक प्रगति की दृष्टि से ऊँचा उठाने वाला गरिमा भरा जीवन जीजा ही श्रेयस्कर एवं वरणीय है । महापुरुषों का जीवन क्रम इसकी साक्षी देता है कि उन्होंने धर्म के इन दस लक्षणों का परिपालन करके एक समग्र-सार्थक जिंदगी जी । वे न केवल स्वयं धन्य हुए, अन्य अनेक के लिए प्रेरणा के प्रकाश स्तंभ भी बने । 

प्रजाजनों की सुविधा को प्राथमिकता

युधिष्ठिर ने किले से नीचे रस्सी के सहारे एक घंटा बाँध रखा था । प्रजाजनों में से किसी को न्याय चाहिए तो वह घंटा बजाता। युधिष्ठिर उसे तुरंत बुलाते और उसका फैसला करते । पांडवों ने इस पर आपत्ति की तो युधिष्ठिर ने कहा-''राजा का धर्म है कि उसे अपनी सुविधा को 
प्राथमिकता न देकर उन प्रजाजनों की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए जिनके लिए वह सिंहासन की न्यायपीठ पर बैठा है ।'' 

संत सिपाई बंदा वैरागी

बंदा बैरागी भक्ति काल में ही जन्मे । बहुत दिन संतों के सत्संग में रहे । साथ ही उत्तर से निरंतरआने वाले आक्रमणकारियों का अनाचार भी देखते रहे । वे गंभीरतापूर्वक सोचने लगे । बंदा वैरागी द्यु को जनता में शौर्य, साहस, पराक्रम और प्रतिरोध की भावना भरी जानी चाहिए । देवताओं की प्रार्थना से सब दु:ख दूर हो सकते हैं, इस भ्रांत धारणा को हटाया जाना चाहिए अन्यथा प्रतिरोध के अभाव में आक्रमणकारियों के हौसले बढ़ते ही रहेंगे और वे भारत का जो भाग स्वतंत्र है, उसे भी पैरों तले रौंद डालेंगे । 

उनने सोचा संत लोग बेसमय बेतुकी शहनाई बजा रहे है और परोक्ष रूप से आक्रांताओं के प्रतिरोध का रास्ता 
रोककर आक्रांताओं के ही सहायक बन रहे हैं, बंदा वैरागी ने जितना अधिक विचार किया, उतना ही उन्हें यह तथ्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा । 

उनने अपनी विचार पद्धति और कार्य शैली बदली । अपने शिष्यों-साथियों को तथ्यों से अवगत कराया और आक्रांताओं के मुँह तोड़ने की तैयारी करने लगे । यद्यपि वे आक्रांताओं द्वारा पकड़े जाने पर मृत्युदंड के भागीदार बने; पर सभी विचारशीलों ने उन्हें सत्य के लिए शहीद हुआ संत सैनिक कहकर सराहा और उनके बलिदान से नई प्रेरणा ली। 

ईश्वरचंद विद्यासागर का त्याग 

ईश्वरचंद विद्यासागर कॉलेज में ऊँचे पद पर थे । उससे भी ऊँचे पद पर उनकी नियुक्ति होने जा रही थी । अफसर उनकी योग्यता और मेहनत दोनों से ही संतुष्ट थे। 
बात विद्यासागर जी के कान तक पहुँची, तो-उनने अफसरों को बड़ी नम्रतापूर्वक समझाया कि मुझसे भी अधिक विद्वान प्रफुल्लचंद राय इस समय खाली हैं । उन्हें इस पद पर नियुक्त किया जाय । मेरे लिए तो वर्तमान वेतन और पद ही पर्याप्त है।'' 

नियुक्ति उनके बताये हुए सज्जन की ही हुयी । वे इस सहायता के लिए जीवन भर कृतज्ञ रहे । अफसर भी उनके इस त्याग से चकित थे । 

सामान्य लगने वाले इस त्याग का प्रदर्शन संसार में कितने लोग कर पाते हैं ? इसीलिए धर्म-धारणा के यथार्थ स्वरूप को कठिन बताया गया है । उपासना जैसे सरल कृत्य मात्र धर्म नहीं हो सकते और न उतने से कोई महान बन सकता है । 

संत का गर्व 

योग साधनायें और सिद्धियाँ अर्जित न की जाये, सो बात नहीं । पर सामान्यतः  सिद्धियों का मानवीय पूर्णता में विक्षेप माना जाता है; क्योंकि उनसे अहंकार पैदा होता है, जबकि धर्म विशुद्ध 
निरहंकारिता को कहते हैं । 

एक संत के त्याग, तप और विद्या की राजा ने बड़ी प्रशंसा सुनी तो उसे राजमहल में आमंत्रित किया । जब उसने आना स्वीकार कर लिया, तो राजा ने स्वागत सत्कार की भारी तैयारी की । रास्ते में मूल्यवान कालीन बिछवा दिए । 

संत आये, तो उनके पैर कीचड़ में सने थे और उन्हीं से वे कालीन को गंदा करते हुए चले आये । 

मंत्री ने इसका कारण तो उत्तर मिला-'' गर्व मुझे बुरा लगता है । राजा के इस प्रदर्शन को मलीन करने के लिए मैंने कीचड़ में पैर साने है इन कालीनों का गर्व चूर कर रहा हूँ ।''

राजा ने विनम्र होकर पूछा-''भगवन् ! गर्व से गर्व कैसे चूर होगा ?'' 

संत हतप्रभ रह गए और उनने अपनी त्रुटि सुधारने के लिए वापस लौट चलना ही उचित समझा। 

पात्रता की परख 

महापुरुष सिद्धि-सामर्थ्य प्रदान करने से पहले ऐसी ही पात्रता की परख करते हैं । समर्थ गुरु रामदास शिवाजी को स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी का श्रेय देना चाहते थे, इसके निमित्त उन्हें कभी खाली न जाने वाली भवानी तलवार भी दुर्गा से दिलवाना' चाहते थे; पर अनुदान देने से पूर्व उनकी पात्रता परख लेना आवश्यक था । 

समर्थ ने एक दिन अचानक कहा उनके पेट में भयंकर शूल उठा है । प्राण बचाने का एक ही उपाय है कि सिंहनी का दूध मिले । गुरु भक्त और साहस के धनी शिवाजी उसे लाने के लिए तत्काल चल पड़े । माँद में सिंहनी बैठी बच्चों को दूध पिला रही थी । शिवाजी ने कहा-''माता आप मेरे उद्देश्य और संकल्प की उत्कृष्टता पर विश्वास करें, तो थोड़ा दूध दे दें । सिंहनी ने पैर चौड़े कर दिए और दूध निकाल लेने दिया । 

पात्रता की परख हो गयी । समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी की सफलता के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया । 

स्वामी विवेकानंद द्वारा गुरु परीक्षा 

उस समय की घटना है जब स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की ओर आकृष्ट हुए ही थे । तब उनका नाम नरेन्द्र दत्त था । रामकृष्ण परमहंस महान् संत थे । उन्हें धन-दौलत से एकदम घृणा थी । वे रुपये-पैसे सोना- चाँदी को छूते तक न थे । नरेन्द्रदत्त को इस पर विश्वास नहीं हुआ । वे सोच भी नहीं सकते थे कि ऐसा भी मनुष्य हो सकता है जो रुपये पैसे को छुए भी नहीं । उन्होंने गुरु की परीक्षा लेने का निश्चय किया । रामकृष्ण परमहंस बाहर गए हुए थे तो उन्होंने चुपचाप उनके बिस्तर के नीचे एक रुपया रख दिया । फिर आकर अन्य लोगों के बीच बैठ गए । 

रामकृष्णजी आए और बिस्तर पर बैठ गए। अचानक वह हड़बड़ाकर उठ बैठे । सभी लोग इधर-उधर देखने लगे कि वे इस प्रकार क्यों खड़े हो गए हैं । परंतु उनकी समझ में कुछ न आया । तब रामकृष्ण परमहंस ने बिस्तर हटाया । नीचे एक रुपया पड़ा था । सभी दंग रह गए । उधर नरेन्द्रदत्त सिर झुकाए गंभीर मुद्रा में बैठे थे । रामकृष्ण परमहंस उनकी शरारत समझ गए । वे मुस्कराकर बोले-''नरेन्द्र ! गुरु की परीक्षा ले रहे थे ? ठीक ही है । 

गुरु धारण करने से पहले गुरु की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए ।'' 

पिता-पुत्र का देश-प्रेम 

ऐसी एक घटना स्वतंत्रता- संग्राम के दिनों की है जब एक पिता ने अपने पुत्र को कसौटी पर परखा । क्रांतिकारी दल के सदस्यों में एक ऐसे भी थे, जिनके पिता ने उनकीं इस आकांक्षा का समर्थन भी किया और सहयोग भी दिया । आमतौर से परिवार के लोग अपनों को खतरे में पड़ने से रोकते हैं ।

शंभूनाथ अपने पिता के इकलौते बेटे थे । उनने क्रांतिकारी दल में जाने की जब अपने पिता से आज्ञा माँगी, तो उनने इतना ही कहा कि समझ-सोचकर कदम बढ़ाना । खतरों को पहले से ही ध्यान में रखो । उनके लायक हिम्मत हो, तो ही जाना । बीच में से लौटकर हँसी मत कराना । साथ ही उनने कहा-''बाहर से पैसा लूटने से पहले घर में जो कुछ है, उसे खत्म कर लो, ताकि कोई यह न कहे कि अपना बचाये फिरते है और दूसरों पर हाथ मारते हैं ।'' 

घर में जो पूँजी थी पिता ने वह खुशी- खुशी दे दी । जब बिल्कुल खाली हाथ हो गए, तब पार्टी के काम के लिए डकैती आदि दूसरे तरीकों से धन प्राप्त करने लगे।

शंभूनाथ पर कई मुकदमे चले । हाईकोर्ट ने उन्हें आजीवन कैद की सजा दी । जेल में जिन बंदियों से उनका संपर्क रहा उन्हें भी क्रांतिकारी बनाने में वे लगे रहे । 

मौद्गल्य उवाच- 

कृतकृत्या वयं देव ! खा धर्मस्य लक्षणम् । 
भवतः मूलभूत तज्जीवनं सर्वदेहिनाम्  ।। ५३ ।। 
प्रत्यक्षे जीवने किन्तु धर्मस्यार्थास्तु स्वेच्छया। 
प्रयोगाश्च कृता: कैञ्चिन्मूलाधारातिदूरगा:  ।। ५४ ।। 
स्थितावेवंविधायां च महत्तोपार्जनादिषु । 
धर्मधारोपयोग: स कथमत्र तु सम्भवेत्  ।। ५५ ।। 

टीका-मौद्गल्य जी बोले-हे देव ! अपने धर्म के मूलभूत लक्षण, जो प्राणिमात्र का जीवन हैं, समझकर हम कृत्य-कृत्य हुए हैं, किन्तु प्रत्यक्ष जीवन में धर्म के मनमाने अर्थ प्रयोग किए गए हैं 'जो इन मूल आधारों से बहुत दूर हो गए हैं । ऐसी स्थिति में महानता के उपार्जन में धर्म- धारणा का उपयोग कैसे संभव है?  ।। ५३ -५५ ।। 

आश्वलायन उवाच- 

धर्मध्वजनि एवं च समाश्रियत्य व्यधुर्बहुम् । 
अनाचारमपि स्वार्थधियाऽनर्थानपि व्यधु:  ।। ५६ ।।  

टीका-आश्वलायन जी बोले- लोगों ने धर्म की आड़ में अनाचार भी बरते हैं । उसके चित्र-विचित्र अर्थ भी लगाये हैं  ।। ५६ ।।

अर्थ-मनुष्य का सहज स्वभाव है कि स्वार्थ की पक्षधर ऐसी मान्यता जो उसको लाभ पहुँचाती हो, पुष्टि स्वयं करे, अन्यान्यों से कराए ताकि बहुमत उसके पक्ष में हो । ऐसा बहुधा होता तब है, जब सभी उसके जैसे ही चिंतन के व्यक्ति समाज में विद्यमान हों एवं प्रतिकार हेतु आने का किसी में कोई साहस न हो । 

नकली शेर 

साधु-संतों को देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है, पर उनकी अंत: परीक्षा से सर्वत्र ढोल की पोल दिखायी देती है । 

बात बहुत पुरानी है । उन दिनों अकाल पड़ा था । उस गाँव का एक मास्टर स्कूल बंद हो जाने से बेकार हो गया और भूखों मरने लगा । 

उन्हीं दिनों सरकस वाले उस रास्ते अपने सरंजाम समेत उधर होकर निकले । मास्टर ने गिड़गिड़ाकर कहा-''मुझे भी कोई नौकरी दे दें । आपके पास तो इतने आदमी है । जो काम बतायेंगे, सो ही कर लूँगा । 

सरकस वाले ने मास्टर को रख लिया । काम पूछा, तो मालिक ने कान में कहा- ''तुम्हें शेर का, चमड़ा पहनकर शेर बनना है और उसी का पार्ट करना है ।'' अभ्यास कराया गया, सो वह बताया हुआ पार्ट ठीक से करने लगा । 

एक दिन उस गाँव के समीप ही सरकस का खेल हुआ । मास्टर के विद्यार्थी और पड़ोसी भी बड़ी संख्या में उसे देखने पहुँचे । नकली शेर ने उन्हें देखा, तो हड़बड़ा गया । ये मुझे यह स्वांग करते देखेंगे, तो क्या कहेंगे । लज्जा और ग्लानि से पसीना छूटने लगा । शेर का जो पार्ट उसे रस्से पर चढ़कर करना था, सो उससे बना नहीं और हड़बड़ा कर नीचे गिर पड़ा। जहाँ गिरा, वहाँ इर्द-गिर्द चार और शेर पिंजड़े से निकाल कर लाये गए थे । उनके बीच अपने को पाकर उसे मौत दिखायी पड़ने लगी और 'बचाओ- बचाओ' का शोर बुरी तरह मचाने लगा। 

दर्शकों का कौतूहल दूना हो गया । वे सरकस की अलौकिकता पर तालियाँ बजाने लगे । शेर किस तरह मनुष्य की बोली बोलता है, इसे देखकर उनने इस तमाशे को भूरि-भूरि सराहा । रस्से पर से गिरने की असफलता पर उनने ध्यान तक न दिया । 

नकली शेर को इस प्रकार चीखते- चिल्लाते देखकर पिंजड़े में से निकाले गए असली शेर एक-एक करके उसके पास आये और बारी-बारी सांत्वना देते हुए अपने-अपने पिंजड़ों में जा बैठे । मास्टर ने चिल्लाना बंद करके संतोष की साँस ली और पाया कि वह अकेला ही नहीं, यहाँ पूरे सरकस के सभी शेर उसी की तरह नकली है । 

इन दिनों शेर जैसे मूर्धन्य दीखने वाले उच्चपदासीन लोग अपना प्रदर्शन तो बहुत करते हैं, पर भीतर से खोखले और बनावटी होने से परीक्षा की घड़ी में अपना संतुलन गँवा बैठते हैं । 

आज तो नकली खाल ओढ़कर बने साधु- संतों में ऐसी ही विडंबनायें दिखायी देती हैं। अपने-अपने स्वांग रचाकर वे किस तरह जन श्रद्धा का दोहन करते है, उसे देखकर ऐसे धर्म के प्रति घृणा पैदा हो जाती है । 

ठगों की चालाकी 

एक गाँव में तालाब के किनारे चार साधुओं ने अड्डा जमा रखा था । भूत-प्रेत उतारने का धंधा करते और बेचारे भोले गाँववासियों की उल्टे उस्तरे से हजामत बनाते । भूत का प्रकोप है या नहीं, इसकी पहचान यह रखी थी कि पास की भभूत तालाब में डालते ही अगर आग की ली उठने लगे, तो समझना चाहिए करामात सच्ची है । 

उसी गाँव के एक साइन्स अध्यापक कॉलेज की छुट्टी पर आये थे । उनने चालाकी ताड़ ली और उन ठगों को गाँव से भगाने का निश्चय किया । गाँव भर में घोषणा कर दी कि कल जगह-जगह तालाब में से आग निकलेगी और इन बाबाओं की देवी साक्षात् पधार कर पोल खोलेंगी । 

मास्टर साहब बाजार से सोडियम खरीद लाये । उसकी कई पुड़िया बना लीं । वे जहाँ भी फेंकी गयीं वहीं से आग निकलने लगी । 

बाबा लोग अपना फजीहत होने के डर से तुरंत बिस्तर गोल करके चले गए । 

बलवान भूत 

यह बात केवल अपने देश तक ही सीमित नहीं, धर्म के नाम पर संसार में ऐसे भ्रम फैले हैं । सन् १८५७ की बात है । फ्रांसीसी अल्जीरिया पर अधिकार जमाने के लिए लड़ाई के अलावा और तरकीब भी इस्तेमाल कर रहे थे । अल्जीरिया में भूत-प्रेतों पर बहुत विश्वास था । फ्रांसीसी यह सिद्ध करना चाहते थे कि उनके पास भूत-प्रेतों की बड़ी शक्ति है । 

उन्होंने एक छोटी सी लोहे की पेटी ले और कहा-''तुम लोगों में से जो सबसे बड़ा बलवान हो, उसे उठा कर दिखाये।"
 
उस छोटी-सी पेटी को एक ने उठाया । जब न उठी तो सबको मिलकर उठाने के लिए कहा गया, वह तब भी न उठी । 

फ्रांसीसियों ने कहा-''हमारे भूतों का बल देख अल्जीरियावासी डर गए और उनने हमारा आधिपत्य मान लिया । '' 

किया यह गया था कि नीचे एक चुम्बक की चट्टान थी, उस पर संदूकची रख दी गयी थी । 

विद्वान राहगीर और चीता 

इस तरह कीं हरकतों में किसी का भी भला नहीं । दूसरों को धोखा देने वाले स्वयं धोखा खाते है । 

एक बार एक विद्वान राहगीर घोड़े पर सवार होकर कहीं दूर जा रहा था । रास्ता घने बीहड़ों में होकर जाता था हिंस्र पशुओं के आक्रमण की आशंका थी, सो उसने बंदूक साथ ले ली । 

कितने ही कोस चल लेने पर उसे शौच जाने की आवश्यकता पड़ी, सो घोड़े को लंबी रस्सी से बाँध करं हरी घास चरने छोड़ दिया और वह एक जगह शौच के लिए बैठ गया । 

निवृत्त होकर जैसे ही वह उठा, कि सामने की झाड़ी में से एक चीता निकलते हुए दिखाई दिया । वह आक्रमण की मुद्रा में था । 

विद्वान घबराया । बंदूक घोड़े की पीठ पर बँधी थी, घोड़ा दूर था । 

चीते को निकट आते देखकर वह चिल्लाया-''मूर्ख, जानता नहीं , मेरे पास बंदूक है । वह तुझे क्षण भर में धराशायी बना देगी । विश्वास न हो तो यह देख बंदूक का लाइसेंस ।'' लाइसेंस उसकी जेब में रखा था । 

चीता पढ़ा-लिखा नहीं था और न उसे लाइसेंस तथा बंदूक का संबंध मालूम था । उसके कथन पर ध्यान नहीं दिया और घुड़सवार को देखते-देखते चीर- फाड़ डाला । 

धर्मशास्त्रों का लाइसेंस लिए कितने ही लोग फिरते है; पर उन्हें काम में लाने की ओर ध्यान नहीं देते । ऐसी विद्वत्ता किस काम की । 

युग दृष्टा रसेल 

फिर भी समय-समय पर मनीषी अवतरित होते रहते हैं एवं पारम्परिक मान्यताओं को बदल देने के लिए जनमानस को उद्वेलित कर देते हैं । ऐसे ही महामानवों में मौलिक चिंतन की दृष्टि से बर्ट्रेण्ड 
रसेल को इस युग का अद्भुत विचारक ही कहा जा सकता है । उनने यदि कोई और विषय अपनाया होता, तो उसमें भी वे पारंगत सिद्ध हुए होते । पर उनने एक ही विषय अपने लिए चुना-जीवन क्रम में आदर्श बलिदान का समावेश एवं चित्र- विचित्र मान्याताओं का भंडाफोड़ । उनका कहना था कि इसके बिना प्रतिभा और सम्पदा कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हो, वह अंतत: मनुष्य जाति के लिए विघातक ही सिद्ध होगी; जबकि दरिद्र, अशक्त और अस्वस्थ व्यक्ति भी जीवन क्रम में आदर्शों का समावेश करके समाज की महती सेवा कर सकते हैं । 

रसेल ने प्राय: ६० दार्शनिक ग्रंथ लिखे है। उनमें उनने हर वर्ग के लोगों को संबोधित करते हुए कहा है कि यदि वे मानवी गरिमा के अनुरूप अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार नहीं ढाल सकते, तो अपनी क्षमताओं का दुरुपयोग ही करेंगे और जो भी काम हाथ में लेंगे उसके पीछे छद्म जुड़ा होने से वातावरण को दूषित ही करेंगे । रसेल को निंदा-स्तुति की तनिक भी चिंता न रही । उनने आधुनिक एवं प्राचीन प्रचलनों में से अधिकांश की कड़ी तर्क सम्मत समीक्षा की है । 

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