प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-8

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तृष्णा: स्वाश्च वशीकुर्याद् यावदेव नर: स्वयम् ।
तावदेव स्वकर्तव्यपालनं सम्भवेद् भृशम् ।। ७६ ।।
संयमधारमाश्रित्य सञ्चितैर्विभवैर्नर: ।
साधनानि स्वकर्तव्यपालनस्यार्जितुं क्षम: ।। ७७ ।।
ब्राह्मणविप्रवृत्तेश्चाऽभ्यस्ता वै साधवो मतार ।
अस्यार्थश्चायमेवास्ति दुष्प्रवृत्तीरिमास्तथा ।। ७८ ।।
महत्वपूर्णाकांक्षाश्च नियम्मैव च सम्भवेत् ।
परोपकारो विप्राणां यश्च नैसर्गिकों गुण: ।। ७९।।

टीका-जो मनुष्य अपनी तृष्णाओं पर जितना अंकुश लगा सकेगा, उसके लिए उतनी ही तत्परता के साथ कर्तव्यपालन संभव हो सकेगा । संयम के आधार पर संभव हुई बचत से ही कर्तव्यपालन के आवश्यक साधनों को लगाया जा सकना संभव होता हैं । ब्राह्मण तथा ब्रह्मवृत्ति के व्यक्ति ही साधु बन सकते हैं । इसका
अर्थ है-महत्वाकांक्षाओं-त्रिविध दुष्प्रवृत्तियों का दमन करने के उपरांत ही परमार्थ-परायण हो सकना संभव है,
जो ब्राह्मणों का स्वाभाविक गुण देखा जाता है ।। ७६-७९ ।।

अर्थ-यहाँ ऋषि कहते हैं कि ब्राह्मण वह है जिसमें संयम की सहज वृत्ति है । जो आवश्यकतायें बढ़ाने में नहीं, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में गौरव समझता है । साधु का अर्थ है, सहज परमार्थ-परायण । जिसमें ब्राह्मणवृत्ति नहीं, उससे साधु के कर्तव्य-उत्तरदायित्व नहीं संभल सकेंगे ।

श्रेष्ठि दीन, भिक्षु तुष्ट 

श्रेष्ठि बेधारक ने तथागत से पूछा-'' आपकी मंडली के सभी सदस्यों की कठिन और कष्ट साध्य दिनचर्या है, कभी भोजन मिलता है, कभी नहीं, पैदल लंबी यात्राएँ करते है, जमीन पर सोते हैं, फिर
भी क्या करण है कि हमारा श्रेष्ठि समुदाय दुर्बल और उदास रहता है और आपके परिव्राजक कमल के फूल जैसे खिले और प्रसन्न दिखाई पड़ते है ।''

तथागत ने कारण बताया । साधुजन केवल आज के गुजारे पर संतुष्ट रहते हैं, उन्हें कल की चिंता नहीं रहती। जो भी इस तरह रहेगा, प्रसन्नतापूर्वक जियेगा ।

सिकंदर से संत ने कहा 

सिकंदर ने भारत में तत्वज्ञानी रहने की प्रशंसा सुनी थीं, सो उसने उनमें से एक को अपने देश ले चलने का विचार किया और वैसा कोई मिले इसकी तलाश करने लगा । किसी जंगल में एकं झोपड़ी में रहने वाले ब्रह्मज्ञानी का पता लगा, सो वह वहाँ जा पहुँचा । साधनों का सर्वथा अभाव रहते हुए भी प्रसन्नता और तेजस्विता फूटी पड़ रही थी । लगा यही उस वर्ग का व्यक्ति है जिसकी उसे तलाश थी ।

सिकंदर ने साधु को अपने साथ चलने और विपुल ऐश्वर्य भोगने का प्रलोभन दिया। साधु मुस्कुराये और बोले-''इन वस्तुओं की नश्वरता देखकर मैं विवेकपूर्वक बहुत समय पहले ही त्याग चुका हूँ । इन्हें  पाने के लिए प्रकृति
छोड़कर महलों की कैद में क्यों जकडूँ ?''

सिकंदर को इसमें अपना अपमान लगा और प्रताप का परिचय देते हुए तलवार म्यान सें निकाल ली, बोला-''कहना न माना तो सिर धड़ से अलग कर दूँगा ।''

ब्रह्मज्ञानी अबकी बार मुस्कराये नहीं, हँस पड़े, बोले-''आप काल से अधिक बली नहीं हैं, जो उसके विधान को मिटा सकें । जब तलवार से आज ही मरना हो, उस अमिट को निकट आया देखकर मैं डरूँगा क्यों? बंधन मुक्ति पर प्रसन्न क्यों नहीं हूँगा ।''

सिकंदर ने तत्वज्ञानी की मन स्थिति को लोभ और भय से ऊँचा उठा पाया और फिर बलपूर्वक अपने देश ले चलने का विचार छोड दिया ।

संतत्व पारस से भी बड़ा 

रैदास की निस्पृहता और कर्तव्यनिष्ठा से इंद्र बहुत प्रसन्न हुए, सोचने लगे इनकी दरिद्रता दूर करनी चाहिए, सो पारसमणि लेकर उनके पास पहुँचे और बोले-''इसे रखिए जब आवश्यकता हो, लोहे का इससे स्पर्श करायें और सोना बना लें । आपको किसी वस्तु का अभाव न होगा ।''

संत ने इंद्र का सत्कार किया और उनका अनुग्रह स्वीकार करते हुए किसी कोने में सुरक्षित रख दिया ।

बहुत दिन बीते इंद्र उधर से फिर निकले, सोचा रैदास की सम्पन्नता को देखते चलें । सो उनकी कुटिया में जा पहुँचे, देखा तो पहले जैसी ही अभावग्रस्त परिस्थितियाँ बनी हुई थीं । सम्पन्नता का वैभव रंचमात्र भी नहीं था ।

इंद्र ने पारस के उपयोग करने की बात का स्मरण दिलाया, तो उनने इतना ही कहा-''बिना परिश्रम की सम्पदा का उपयोग करने पर संतवृत्ति से हाथ धोना पड़ेगा । इतनी हानि उठाते मुझसे नहीं बन पड़ेगी ।''

कोने में से ढूँढ कर पारस इंद्र को लौटा दिया और वे सच्ची संतवृत्ति के प्रति नतमस्तक होकर वापस स्वर्ग चले गए।

धर्मस्याऽपरयुग्मस्य कर्तव्यसंयमाख्यो: ।
द्वयोरन्योऽन्यसम्बन्धे ज्ञाते ते तुतुषु: स्थिता: ।। ८० ।।
स्पृहानियमनान्नूनं बिना कर्तव्यपालनम् ।
सम्भवेन्नैव तथ्य च जना जानन्ति ये त्विदम् ।। ८१ ।।
समर्थास्ते नग एव धर्तुं धर्मस्य पावनम् । 
पादं तृतीयं येनेमे देवत्यं प्राप्नुयुर्धुवम् ।। ८२ ।।
प्रतिपादनमेतच्च ज्ञानगोष्ठयामभून्मतम् ।
समेषां कृतकृत्यांश्च मेनिरे स्थान् समे तत: ।। ८३ ।।
नियते समये सोऽयं समारोहो विसर्जित: ।
भ्रान्तेर्वात्या विधूता च यया लोको विखण्डित: ।। ८४ ।।

टीका-धर्म के दूसरे युग्म संयम और कर्तव्य का अन्योन्याश्रय संबंध समझने पर सभी उपस्थितजनों को बहुत संतोष हुआ। लिप्सा-नियमन के बिना कर्तव्य-धर्म का पालन नहीं बन सकता, इस तथ्य को जो लोग समझते हैं, वे ही धर्म के तीसरे चरण की अवधारणा करने में समर्थ होते हैं, जिससे सभी देवत्व को प्राप्त हो
सकते हैं । ज्ञानगोष्ठी में आज का प्रीतपादन सभी को बहुत भाया और उन्होंने अपने को इस प्रतिपादन से कृत-
कृत्य माना । नियत समय पर समारोह विधिवत् विसर्जित हुआ । भ्राँति का वातचक्र ध्वस्त हो गया, जिसने
मनुष्यों को खंड-खंड कर अलग-अलग फेंक दिया था ।। ८०-८४ ।।

इति श्रीमत्प्रज्ञापुटाणे ब्रह्मविद्याऽत्मयिद्ययो: युगदर्शनयुगसाधनाप्रकटीकरणयो:,
श्रीआश्वलायन-विदुथ ऋषिसम्वादे ''
संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता चे'' 
ति प्रकरणो नाम चतुर्थोऽध्याय: ।। ४ ।।


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