प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-6

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योगेषु कर्मयोगोऽतो विद्यते महतां महान् ।
गीता सर्वस्वमप्येतन्मूलं संसारसम्पदाम् ।। ५८ ।।
कर्तव्यपालनं नूनं सुलभं मोददं तथा ।
भूयो भूय इदं सर्वै: स्मर्तव्यं हि दिवानिशम् ।। ५९ ।।
व्यवधानं च तस्याऽत्राकरणे केवलं त्विदम् ।
दुष्प्रवृत्तीर्न मर्त्यास्तु क्षमन्ते रोद्धमात्मन: ।। ६० ।।
लाभे नियन्त्रणं नैव सम्भवत्यपि चैव हि ।
अन्धस्येव स्थितिर्मोहाज्जायते च नृणामिह ।। ६१ ।।

टीका-योगों में कर्मयोग की महत्ता महान् कही गयी है । यही गीता का सार व विश्व वैभव का मूल है । कर्तव्यपालन सुलभ भी है और आनंददायक भी, यह बात बार-बार दिन-रात याद रखनी चाहिए, किन्तु उसके न बन पड़ने में एक मात्र व्यवधान यही है कि लोग अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं रख पाते । लालच पर नियंत्रण करते नहीं बन पड़ता। मोह के अंधे जैसी स्थिति बन जाती है ।। ५८- ६१ ।।

अर्थ-जो कर्तव्य मानव होने के जाते सौंपा गया है, उसे पूरा करना ही मानव का सबसे बड़ा धर्म है । योगत्रयी की जीवन सधना में कर्मयोग को संर्वोपरि स्थान प्राप्त है । व्यावहारिक अध्यात्म की इस साधना से गीताकार के, व्यक्ति जीवन्मुक्ति की दिशा में सहज ही बढ़ता रह सकता है। मोक्ष निर्वाण संबंधी सारा ब्रह्मज्ञान अपने स्थान पर है एवं कर्मयोग की जीवन साधना अपनी जगह । जो इसकी उपेक्षा करता है वह इहलोक तो खोता ही है; परलोक को भी खो देता है । गीताकार कहते हैं- 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' । मनुष्य को कर्म साधना का उपदेश देते हुए कहा गया है कि वह फल के परिणाम की आकांशा किए बिना, उसमें लिप्त हुए बिना सतत कर्म करता रहे । यही सच्चा अध्यात्म है ।

कर्मयोग सुलभ होते हुए भी उसमें निरत न हो पाने का एक ही कारण रहै, चिंतन में सतत समाने वाली व्यामोह पैदा कर देने वाली दुष्प्रवृत्तियों का पनपते रहना, उन पर नियंत्रण न होना एवं विवेक को खोकर अपना लक्ष्य भूल जाना । यह मानव के साथ जुड़ी एक ऐसी विडंबना है जो उसे आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलने में सतत रोड़े अटकाती रहती है ।

कर्तव्य को मत त्यागो 

एक राजा ने संन्यासी से कहा-''राजकाज में बड़े झंझट हैं तथा संन्यास में निश्चिंतता। आप मुझे संन्यास की दीक्षा दे दीजिए ।''

संन्यासी ने प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी । पर पूछा-''राजकाज कौन करेगा ?'' उत्तर मिला-'' किसी को दान कर दूँगा और अपने निर्वाह के लिए कुछ मेहनत-मजूरी कर लूँगा ।''

संन्यासी ने कहा-'' राज मुझे दान कर दो। मेरे नौकर की तरह शासन की व्यवस्था चलाओ, कर्म से पलायन मत करो । वह तो अध्यात्म दर्शन का मूल है । तुम्हारे ऐसा करते रहने पर संन्यास भी सध जायगा और गुजारे के लिएगुरु का सौंपा हुआ काम करते हुए शांतिपूर्वक निर्वाह भी होता रहेगा । स्वामित्व को त्यागना और कर्तव्य को धर्म मानकर करते रहने से घर में रहकर भी सन्यास सध सकता है ।''

गुलाब और मधुमक्खी 

गुलाब से मधुमक्खी बोली-''तुम जानते हो कि एक-एक करके तुम्हारे सब पुष्प तोड़ लिए जाते हैं, फिर भी तुम पुष्प उत्पन्न करना बंद क्यों नहीं करते?'' गुलाब ने हँसकर कहा-''देवि ! मनुष्य क्या करता है, यह देखकर संसार को सुंदर बनाने के कर्तव्य से मैं क्यों गिरूँ? फिर तुम जैसी मधु संचय करने वालों की मदद भी तो करनी है । बहन, फूल टूटने का दु:ख कम हैं, दूसरों को प्रसन्नता बाँटने का संतोष अधिक महत्व का है ।''

कर्मयोग सर्वसुलभ 

जिज्ञासु कात्यायन ने देवर्षि नारद से पूछा-''भगवन्! आत्म-कल्याण के लिए विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न उपाय बताये हैं । गुरुजन भी अपनी-अपनी मति के अनुसार कितने ही साधन विधानों के माहात्म बताते हैं । जप, तप, त्याग, वैराग्य, योग, ज्ञान, स्वाध्याय, तीर्थ, व्रत, ध्यानं, धारणा, समाधि आदि के अनेक उपायों में से सभी को कर सकना एक के लिए संभव नहीं । फिर सामान्य जन यह भी निर्णय नहीं कर सकते कि इनमें से किसे चुना जाय? कृपया आप ही मेरा समाधान करें, कि सर्वसुलभ और सुनिश्चित मार्ग क्या है? अनेक मार्गों के भटकाव से निकाल कर मुझे सरल अवलंबन का निर्देश कीजिए ।''

उत्तर देते हुए नारद ने कात्यायन से कहा-''हे मुनि श्रेष्ठ । सुद्ज्ञान और भक्ति का एक ही लक्ष्य है कि मनुष्य
सत्कमों में प्रवृत्त हो । स्वयं संयमी रहे और अपनी सामथ्यों को गिरों को उठाने और उठों को उछालने में नियोजित करे । सतवृत्तियाँ ही सच्ची देवियाँ हैं । जिन्हें जो जितनी श्रद्धा के साथ सींचता है, वह उतनी ही विभूतियाँ अर्जित करता है । आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण की समन्वित साधना करने के लिए परोपकाररत रहना ही श्रेष्ठ है ।''

स्कंद पुराण के इस वार्ता प्रसंग में कात्यायन की तरह अन्यान्य जिज्ञासुओं का भी समाधान विद्यमान है ।

तिलक की कर्तव्यनिष्ठा 

पूना में उन दिनों भयंकर प्लेग फैला था । लोकमान्य तिलक का बड़ा पुत्र प्लेग से पीड़ित हो गया था । पुत्र की दशा चिंताजनक होने के बावजूद तिलक 'केसरी' के अंक का अधूरा काम पूरा करने के लिए कार्यालय जाने लगे । किसी ने उन्हें टोका-''लडका मौत से जूझ रहा है। अगर आप कार्यालय न जायें तो क्या काम न चलेगा ।''

गंभीर एवं संयत स्वर में तिलक ने उत्तर दिया-''सारा महाराष्ट्र 'केसरी' की प्रतीक्षा में बैठा है , तब कार्यालय न जाने से भला कैसे चलेगा?''

 मोह पर अंकुश लगाकर कर्तव्य पथ पर चल पड़ने के साहस ने ही उन्हें लोकमान्य का गौरव दिलाया ।

प्रकाश स्तम्भ का दीप न बुझा 

फ्रांस के कारडीनस प्रकाश स्तंभ की लालटेन घुमाने वाले चौकीदार को भयंकर बीमारी हो गई । पत्नी सेवा में लगी थी । दो छोटे बच्चे थे । मौसम उस दिन खराब था । लालटेन न घुमाने पर इस हालत में उधर से निकलने वाले जहाज के टकरा जाने या डूब जाने का खतरा था, क्या किया जाए? दोनों बच्चों को तट पर लालटेन घुमाने की जिम्मेदारी सौंपी गई । पत्नी कभी पति के पास, कभी बच्चों के पास चक्कर लगाती रही । उस भयंकर रात्रि में ही पति का देहांत हो गया । किन्तु उस परिवार ने पूरी निष्ठा के साथ अपना कर्तव्य निभाया ।

कार्यवाही चलती रही 

सरदार बल्लभ भाई पटेल तब नेता नहीं, वकील थे । एक मुकद्दमे में बहस कर रहे थे । इसी बीच चपरासी ने एक कागज हाथ में थमाया । पढ़ कर वे सन्न रह गए । पर दूसरे ही क्षण बहस आरंभ कर दी और कचहरी समाप्त होने तक काम चालू रखा ।

बहस बंद हुई तो सरदार की आँखों से आँसू टपक पड़े । अदालत समेत उपस्थित लोगों ने कारण पूछा तो पता चला कि चपरासी ने जो तार दिया था उसमें उनकी पत्नी की मृत्यु का समाचार था ।

बहस अधूरी छोड़ने से दोनों पक्षों का तथा अदालत का जो समय खराब होता उसे देखते हुए सरदार ने अपने पर अंकुश लगाना ही ठीक समझा ।

मात्र साहस के बलबूते 

मद्रास से निकलने वाले अंग्रेजी पत्र 'हिन्दू' की न केवल भारत में वरन् विदेशों में भी बड़ी ख्याति थी । देश की भाषाएं उपेक्षित और विदेशी भाषा को इतना मान मिले यह बात उसके संपादक अय्यर महोदय को बहुत अखरी । उन्होंने तमिल भाषा में दैनिक न सही साप्ताहिक तो निकालने का निश्चय कर ही डाला । मित्रों ने उसके न चल सकने का खतरा दिखाया। तों भी उनने अपने साहस के बलबूते 'स्वदेश मित्रम्' निकाल ही डाला । जो आगे चलकर दैनिक हो गया । अम्बर महोदय ने निरंतर अपना व्यक्तित्व खपाकर उसे मूर्धन्य पत्र बना दिया । व्यवधानों ने उन्हें विचलित नहीं किया ।

तिलक ने यश नहीं कर्तव्य चुना 

बंबई के चौपाटी मैदान में लोकमान्य तिलक का स्वतंत्रता के समर्थन में बड़ा विद्वत्तापूर्ण भाषण हुआ ।

उपस्थित लोगों में से कइयों ने कहा-'' आप जैसे विद्वान किसी अन्य विषय पर खोजपूर्ण लेख लिखों या भाषण दें तो उसका प्रतिफल कितना शानदार हो ।''

तिलक ने कहा-''स्वतंत्रता मिल गई तो मेरे जैसे कितने ही विद्वान लिखने और बोलने के लिए पैदा हो जाएँगे । अभी तो मुझे स्वतंत्रता के लिए काम करना चाहिए जिससे विद्वानों की कमी न रहे ।

अहंकारी भवत्येवोन्मादीवावेशतां गत: ।
सत्सु चैतेषु दोषेषु समीहा मानवस्य तु ।। ६२ ।।
आकांक्षा: केवलं ताश्च सदा पूरयितुं द्रुतम् ।
उच्छलन्ति स्वकर्तव्यपालने स्वुस्तथाऽक्षमा: ।। ६३ ।।
स्पृहास्तं तु नयन्त्येव यत्र कुत्राऽषि वै बलात् ।
स्मृहावात्यागृहीतश्च शान्तिं विन्दति नो मनाक् ।। ६४।।
त्यागोंऽप्यपेक्ष्यते नूनं कर्तव्यस्यात्र पालने ।
श्रमश्चाऽयि तथा सार्वभौमं पौरूषमप्यलम् ।। ६५ ।।
इमा: सर्वाविभूतीश्च लिप्सा सा पूर्वमेव हि ।
उदरस्था: करोत्येवं लुब्धोऽकिञ्चित्करो भवेत् ।। ६६ ।।

टीका-अहंकारी उन्मादी जैसा आवेशग्रस्त होता है । इन दोष-दुर्गुणों के रहतें मनुष्य की इच्छा मात्र महत्वाकांक्षाएँ पूर्ण करने के लिए ही उभरती रहती हैं । वह कर्तव्यपालन में समर्थ हो ही नहीं पाता । लिंप्साएँ उसे कहीं से कहीं घसीट ले जाती हैं । लिप्सापूर्ति के झंझावात में पड़ा हुआ व्यक्ति क्षण भर भी शांति प्राप्त नहीं कर पाता है । कर्तव्यपालन में त्याग भी करना पड़ता है और श्रम-पुरुषार्थ भी । इन सब विभूतियों को लिप्सा अपने पेट में पहले से ही उदरस्थ कर लेती है । ऐसी दशा में लोलुपों से कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता ।। ६३ - ६६ ।।

अर्थ-कर्तव्य के लिए आदर्शनिष्ठ उत्साह उमड़ना चाहिए । पर अहं के कारण महत्वाकांक्षाओं का उन्माद उमड़ता है तो फिर कर्तव्य किस के सहारे हो?

कर्तव्य में त्याग, श्रम, पुरुषार्थ लगाना पड़ता है पर लूट, खसोट, मौज, मजा की लिप्सा के रहते वे कहाँ पैदा हों, कहाँ रूकें?

शांत चित्त से कर्तव्य निर्धारण और विवेकपूर्वक प्रगति के चरण बनाए जाते हैं। महत्वाकांक्षा में लिप्त व्यक्ति को क्षण भर भी शांत चित्त से सोचने का अवसर ही नहीं मिलता ।

ऐसी स्थिति में कुछ कर न पाना ही नियति बन जाती है । जो सोचने, करने की स्थिति बनाए रह पाते हैं वे विपरीत स्थिति में भी करने योग्य कर ही लेते हैं ।

सबसे बड़ा मेरा 'मै' 

पाँचों तत्व देवता एकत्रित हुए और अपनी- अपनी महिमा बघारने लगे । वायु नेकहा-''मैं प्राण फूँकता हूँ ।'' आकाश बोला-''सब मेरे पेट में है ।'' धरती ने कहा-''मैं सबका वजन उठाती हूँ ।'' जल बोला-''शीतलता मैं बखेरता हूँ ।'' अग्नि ने कहा-''ऊर्जा मै ही तो हूँ ।''

इन पाँचों से मिलकर बने मनुष्य ने कहां-''मैं बहुत कुछ हूँ । जो तुम सब मिलकर करते हो । उससे हजार
गुना बड़ा है मेरा 'मैं' ।''

मेढक का अहंकार 

उस तालाब में एक बड़े आकार का पीला मेढक रहता था । अपने को इस तालाब का स्वामी बताता और छोटे जीव-जंतुओं को धमकाता रहता था ।

एक हाथी उधर से निकला और रास्ते में तालाब देखकर उसमें पानी पीने घुस गया।

इस पर पीले मेढक को ताव आया । उसने लात उठाकर हाथी को धमकाया और कहा-'' मूर्ख, जानता नहीं यहाँ मेरा साम्राज्य है । तेरी इतनी हिम्मत कैसे पड़ी जो बिना पूछे मेरे क्षेत्र में घुस आया । जानता नहीं, लात के मारे तेरा कचूमर निकाल दूँगा ।''

हाथी ने ध्यान न दिया वह पानी पीकर देर तक तालाब में नहाता रहा और बाहर निकल कर अपना रास्ता पकड़ा।

चरवाहे मेढक का कथन और हाथी की उपेक्षा देख रहे थे । वे हँसे और आपस में कहने लगे-''अनाड़ी का अहंकार किस हद तक जा सकता है देखा।''

'ला' और 'ले' का झंझट 

एक सेठ कुएँ में गिर पड़े । गड्डा गहरा नहीं था । सो वे निकलने के लिए चिल्लाने लगे । एक किसान ने सुना तौ पहुँचा और बोला- ''ला, अपना हाथ उसमें अपनी रस्सी बाँध कर ऊपर खींच लेंगे ।''
सेठ जी हाथ ऊपर करने और किसी के फंदे में फँसने को तैयार नहीं हो रहे थे ।

झंझट देखकर दूसरा समझदार आदमी वहाँ पहुँच गया और हुज्जत का कारण समझ गया । उसने कहा-''सेठजी, रस्सी लीजिए और इसे अपनी ओर खींचते हुए ऊपर चढ़ आइए ।''

बात उन्होंने मान ली और बाहर निकलने का उपाय बन गया ।

पहली बार किसान कह रहा था 'ला हाथ' । दूसरे समझदार ने कहा था- 'ले रस्सी' । 'ला' और 'ले' का झंझट था जिसके कारण कुएँ से निकलने में इतनी देर लगी । यह कशमकश कितनों को ही नष्ट कर डालती है । अहमन्यता के दुष्चक्र में फँसा व्यक्ति अपना हित भी समझ नहीं पाता ।

अहंकार एवं धैर्य 

अहंकार और धैर्य दो मित्र थे । साथ-साथ चला करते । एक का ताप दूसरे की शीतलता से संतुलित होता रहता।

एक दिन अहंकार ने कहा-''आपकी कायरता मुझे तनिक भी नहीं सुहाती । मेरे साथ मत रहा करो ।'' धैर्य ने उसका साथ समझदारीपूर्वक छोड़ दिया । कहते हैं तब से अहंकार अकेला फिरता है स्वयं जलता
और दूसरों को जलाता हुआ । 

कर्तव्य ने दुबारा पहुँचाया 

डॉ० विश्वेश्वरैया भारत के माने हुए इंजीनियर थे । एक गाँव से होकर गुजरे तो वहाँ के अध्यापकों ने स्कूली बच्चों के सामने कुछ भाषण करने को कहा । थोड़ी आनाकानी के पश्चात वे सहमत हो गए और
एक छोटा सा भाषण दे भी दिया ।

मार्ग में बिना तैयारी का अस्त-व्यस्त भाषण देने की भूल पर दु:खी हुए और अगले सप्ताह स्कूल में दुबारा भाषण देने की बात लिखी ।

अध्यापक गण पत्र पाकर आश्चर्य में थे कि इतने व्यस्त व्यक्ति दुबारा बिना बुलाए क्यों आ रहे है?

आने पर उनने अपना लिखा भाषण पड़ा और कहा आप लोग बच्चे हैं इससे क्या ? मुझे अपने भाषण का स्तर नहीं गिराना चाहिए था, अच्छी चीज तैयारी के बाद हीं बनती है । मुझे अपनी पिछली भूल का प्रायश्चित्त करने के लिए दुबारा आना पड़ा ।

डॉ० मेरी का पुरुषार्थ फला 

डॉ० मेरी नौकरी के आरंभिक दिनों में एक छोटे से देहात में भेजी गईं । कहने को तो वहाँ १५० प्रसूति वेड थी । पर भरती वहाँ मुश्किल से १५ प्रसूता थीं । दाइयाँ घर जाकर प्रजनन कराती थीं पुरूषार्थ फला रू ऊपरी आमदनी करती थीं । मेरी ने जनसंपर्क साधा और दाइयों को फटकारा तो १५० के स्थान पर पूरे ३०० पलंग भरे रहने लगे । मेरी की लगन के साथ ही उनकी पदोन्नति भी होती गई । अंतत: वे सर्जन जनरल के पद से रिटायर हुईं । उनके समय में अस्पताल ने असाधारण उन्नति की।

जो कर्तव्य नहीं वह व्यसन है 

चीन का एक अमीर च्याँग भेड़ पालने का धंधा करता था । एक बार उसने दो लड़के नौकर रखे और चराने के लिए भेड़ें बाँट दीं ।

देखने पर पता चला कि भेड़ें दुबली भी हो गईं और मर गईं । अमीर ने चरावाहों को जिम्मेदार ठहराया । जाँच की कि किस कारण इतनी हानि हुई ।

पता लगा कि दोनों अपने- अपने व्यसनों में लगे रहे । एक को जुआ खेलने की आदत थी, जब भी दाँव लगता जुए में जा बैठता । भेड़ें कहीं से कहीं पहुँचतीं और भूखी-प्यासी कष्ट पातीं । यही बात दूसरे की थी, वह पूजा-पाठ का व्यसनी था । भेखें पर ध्यान न देता और अपनी रुचि के काम में लगा रहता ।

दोनों पकड़े गए । न्याय के लिए कनफ्यूशियस के सामने प्रस्तुत किए गए । दोनों के कारणों में भेद था पर
कर्तव्यपालन की उपेक्षा करने के लिए दोनों समान रूप से दोषी थे ।

न्यायाधीश ने दोनों को समान रूप से दंड दिया और कहा-''कर्तव्य भाव के बिना जो किया जाता हैं वह व्यसन है, व्यसन में जुआ खेला या पूजा की । कर्तव्य की तो उपेक्षा की ही । उसी का दंड दिया गया है।''
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