प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -2

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शालीनतासमुद्भूतं द्वयमेवेति मन्यताम् ।
यदाऽऽदर्शान् प्रति त्वास्था सद्भाव: सद्विचारणाम् ।। ११ ।।
तत्रोदयं समायातो यत्रोत्कृष्टं च चिन्तनम् ।
अपरान् प्रति सम्मानभावना यत्र चात्मानि ।। १२ ।।
सौजन्यस्य समारोहस्तत्रैवैत्तु सम्भवेत् ।
कर्तव्यपालनं नूनं नागराणां न चान्यथा ।। १३ ।।
निर्वहेच्च सदाचारस्तत्र चाऽप्यनुशासनम् ।
व्यवहारे समागच्छेत् सभ्यताशव्दितं तु यत् ।। १४ ।।
संभवेच्छलयुक्तं न नाटकीयस्य वस्तुत: ।
सौजन्यस्य च पाखण्डं झटिति प्रकटं भवेत् ।। १५ ।।

टीका-दोनों ही शालीनता के उत्पादन हैं । जहाँ आदर्शों के प्रति आस्था होगी, वहाँ सद्भावना-सद्विचारणा पनपेगी । जहाँ उत्कुष्ट चिंतन चल रहा होगा, दूसरे के प्रति सम्मान का भाव होगा, अपने में सज्जनता का आरोपण रहा होगा, वहीं नागरिक कर्तव्यों का परिपालन बन सकेगा। वहीं शिष्टाचार निभेगा और सभ्यता
के रूप में जाना जाने वाला अनुशासन अपनाया जा सकेगा, यह छलपूर्वक नहीं हो सकता । नाटकीय सञ्जनता का पाखंड प्रकट होने में देर नहीं लगती ।। ११ -१५ ।।

अर्थ- सभ्यता का व्यवहार सुसंस्कारिता के बलबूते ही बन पड़ता है । जैसा अंतरंग होता है, वैसा ही बहिरंग में परिलक्षित होता है । कोई यह चाहे कि वह बाहर से साज-सज्जा एवं वेष-भूषा से स्वयं को सभ्य-सम्माननीय बना ले तो भी उसका अंतरंग उसके चिंतन के अनुरूप होने के कारण, वह व्यवहार में कहीं न कहीं अपनी झलक दिखा ही देगा । उच्चस्तरीय भावपरक चिंतन की परिणति सभ्य, अनुशासित व्यवहार के रूप में होती है । आदर्शनिष्ठा सदैव अच्छे आचरण, दूसरों के प्रति परमार्थ पुरायणता, परदु:खकातरता, एकात्मभाव के रूप में परिलक्षित होती है । अंत: की सुसंस्कारिता कभी भी अंत: तक ही सीमित होकर नहीं रह जाती । चिंतन श्रेष्ठ हो एवं व्यवहार में उसका कोई प्रतिबिंब
न झलके तो उस चिंतन से क्या लाभ? सुसंस्कारिता सदाचार, सभ्य व्यवहार, कर्तव्य परायणता को जन्म दे तो ही उसकी सार्थकता है । इस प्रकार संस्कृति व सभ्यता एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप
से संबद्ध हैं ।

शालीन व्यवहार से सद्गुरु प्राप्ति 

कबीर को सद्गुण की तलाश थी । निकट में स्वामी रामानंद के अतिरिक्त और कोई सूझता न था । अनुरोध को वे स्वीकार कर नहीं पा रहे थे । जुलाहे को दीक्षा देने में उन्हें अन्य शिष्यों के कुपित होने का भय था ।

कबीर ने रास्ता निकाल लिया । वे गंगाघाट में सीढ़ियों पर जा लेटे । वृद्ध स्वामी जी को कम दिखता था । भोर के अंधेरे में नियत रास्ते चलते हुए उनका पैर सीढ़ियों पर लेटे लड़के की छाती पर पड़ा। पता चलते ही वे राम-राम कहते हुए पीछे हट गए ।

कबीर उठकर चल दिए । चरण स्पर्श को उनने दीक्षा माना और राम-नाम उच्चारण को गुरु मंत्र । गुरु शिष्य का एक तत्व जैसा संबंध बन गया ।

कबीर कहते रहते थे-'शिष्य अपनी शालीनता, अपनी श्रद्धा के बल पर गुरु को और भक्त अपनी भावना के
बल पर भगवान को समर्थ बनाता है ।'

अहंकार त्यागें 

कबीर ने जो पाया वैसी विभूतियाँ प्रत्येक व्यक्ति में भरी होती हैं; पर एक ताला है, जिसे लगा देने पर सारी क्षमताएँ बंदिनी हो जाती हैं । वह लग जाता है तो कुछ भी हाथ नहीं आता ।

एक तपस्वी किसी धर्मात्मा राजा के महल में पहुँचे । राजा गद्गद् हो गए और कहा-'' आज मेरी इच्छा है कि आपको मुंह मांगा उपहार दूँ ।'' तपस्वी ने कहा-''आप ही अपने मन से सबसे अधिक प्रिय वस्तु दे दें, मैं क्या माँगूँ ।''

राजा ने कहा-''अपने राज्य का समर्पण कर दूँ ।'' तपस्वी बोले-''वह तो प्रजाजनों का है । आप तो संरक्षक मात्र हैं ।'' राजा ने बात मानी और दूसरी बात कही-'' महल, सवारी आदि तो मेरे हूँ, इन्हें ले लें।" तपस्वी हँस पडे़-''राजन् । आप भूल जाते हैं । यह सब भी प्रजा जनों का है । आपको कार्य की सुविधा के लिए दिया गया
है ।''

अबकी बार राजा ने अपना शरीर दान देने का विचार व्यक्त किया । उसके उत्तर में तपस्वी ने कहा-''यह भी आपके बाल-बच्चों का है, इसे कैसे दे पाएगें ।''

राजा को असमंजस में देखकर तपस्वी ने कहा-''आप अपने मन का अहंकार दान कर दें । अहंकार ही सबसे बड़ा बंधन है।" राजा दूसरे दिन से अनासक्त योगी की तरह रहने लगा । तपस्वी की इच्छा पूर्ण हो गई ।

बिना पात्रता के अनुदान स्वीकार नहीं

संस्कार यदि मन में दृढ़ हों तो श्रेष्ठ व्यक्ति अनुदान भी उस नाते अर्जित करते हैं । श्वेतकेतु ब्रह्म विद्या जानने के लिए बहुत दिन से गुरु गृह में निवास कर रहे थे, पर अभीष्ट अनुदान उन्हें मिला नहीं ।

गुरु की निष्ठुरता से खिन्न होकर एक दिन आश्रम की यज्ञाग्रि ने कहा-''तुम पर दया आती है । गुरु का पल्ला छोड़ो । वे जब तक लौट कर आयें तब तक मैं ही तुम्हें ब्रह्म विद्या बता दूँगी ।''

श्वेतकेतु ने अग्रि देव के अनुग्रह का बड़ा उपकार माना, साथ ही अत्यंत विनम्रतापूर्वक बोले-''सेवा किए
बिना, आपसे जो अनुदान मिलेगा वह बिना मूल्य मिलने के कारण फलेगा कहाँ? पात्रता विकसित किए बिना, अपने अंदर सुसंस्कारिता उपजाए बिना जो उपहार हाथ लगेगा वह टिकेगा कहाँ?''

अग्रिदेव लज्जित होकर अंतर्धान हो गए । श्वेतकेतु ने गुरु सेवा करके अपनी पात्रता परिपक्व की और नियत समय पर अभीष्ट अनुदान लेकर वापस लौटे ।

सब सौंप दिया, ढेरों पा लिया 

हसन ने राबिया से पूछा-''आपने खुदा को किस इबादत से पया?''

इस पर राबिया बोलीं-''मैंने अपनी हर चीज खुदा के तालाब में डुबो दी है और बदले में खुदा को पाया । जिसे पाना हो इसी तरह पाये । इसे इबादत के किस्सों में न ढूँढे़ ।''

दूसरों का उपकार न भूलें 

अहंकार वही लोग करते है जिन्हें औरों के उपकार याद नहीं आते । लोग उपकारों का स्मरण करना सीखें, तो दुष्ट भी अच्छे लगने लगेंगे ।

गुलाब के फूल ऊपर टहनी पर खिल रहे थे और सड़ा गोबर उसकी जड़ में सिर झुकाए पड़ा था । गुलाब ने अपने सौभाग्य से सड़े गोबर के दुर्भाग्य की तुलना करते हुए गर्वोक्ति की और व्यंग्य की हँसी हँस दी ।

माली उधर से निकला तो उसने यह सब देखा । उससे चुप न रहा गया । गुलाब के कान से मुँह सटा कर बोला-''तुम्हें इस स्थिति में पहुँचाने में, इन पिछड़े समझे जाने वाले कितनों का योगदान रहा है, तनिक इसे भी समझने का प्रयत्न करो । 

फूल का श्रेष्ठ चिंतन 

चिंतन मे वरिष्ठता हो तो वह आचरण एवं व्यवहार में भी प्रकट होती है ।

''काँटों के साथ जिंदगी काटना तुम्हें असह्य तो नहीं हो जाता ?''-चाँदनी ने गुलाब के फूल से पूछा ।'' 

फूल बोला-''भिन्न प्रकृति वाले फूलों के साथ रहने में जब काटों को कोई शिकायत नहीं, तो  सहिष्णुता का महत्व समझने वाले मुझ वरिष्ठ को क्यों कोई कठिनाई होगी?''

एक लौटा तो सारे गुण और आए 

राजा गहरी नींद में सोया हुआ था । उसने देखा राजमहल से एक देव पुरुष निकल कर जा रहे हैं और उसके पीछे तीन देवियाँ भी प्रयाण कर रही हैं ।

स्वप्न मे राजा ने देव पुरुष से पूछा-''आप कौन है और आपके पीछे जाने वाली यह तीन देवियाँ कौन हैं? आप सबके जाने का कारण क्या है?''

देव पुरुष ने कहा-''मेरा नाम है सुसंस्कार। विवेक इसी से जन्म लेता है । जहाँ विलास और अधर्म के पैर जमते है वहाँ मैं नहीं रहता और यह तीन देवियाँ भी मेरे साथ ही विदा हो जाती हैं । इनका नाम है- लक्ष्मी, कीर्ति और बुद्धि।''

राजा की आँख खुली । उसने यथार्थता पर विचार किया और पाया कि उनके क्षेत्र में विलास और अधर्म बढ़ रहा है । सुसंस्कारजन्य अन्यान्य प्रवृत्तियाँ घट रही हैं, अनाचार बढ़ रहा है । ऐसी दशा में इन विभूतियों का विदा होना स्वाभाविक ही है ।

राजा ने अपनी कार्य पद्धति में आमूल परिवर्तन कर दिया।

दूसरे दिन स्वप्न आया कि वे चारों ही लौट आए है । जहाँ विवेक रहता है, चिंतन में श्रेष्ठता रहती है, वहाँ सभी विभूतियाँ बनी रहती है ।

बीज तो महान् है 

एक बहेलिया जैन धर्म की दीक्षा लेने गया। श्रावक मुनि ने कहा-''अहिंसा व्रत पालन करने की शर्त पूरी करनी पड़ेगी ।'' उसने कहा-''यह कैसे हो सकेगा? मेरी आजीविका तो यही है ।''

श्रावक मुनि ने कहा-''अच्छा, तो निराश मत लौटो । कम से कम एक प्राणी के प्रति अहिंसा व्रत निर्वाह का प्रण करो ।'' बहुत सोच विचार के बाद उसने 'कौआ' न पकड़ने, न मारने का संकल्प लिया ।

अहिंसा की बात मस्तिष्क में घूमनी शुरू हुई तो उसने एक-एक करके सभी प्राणियों का वध छोड़ दिया और
वह स्वयं भी मुनि बन गया । छोटा शुभारंभ भी विकसित होते-होते उच्च स्थिति तक जा पहुँचता है । बीज यदि पुष्ट-प्रबल है तो परिणति भी महान होगी । शुभ संकल्प, आदर्शों के प्रति निष्ठा यदि दृढ़ है तो निश्चित ही कालांतर में उसके श्रेष्ठ परिणाम होंगे ।

प्रकृति देखो, परिस्थिति नहीं 

मार्ग चलते-चलते थक कर बुद्ध पेड़ के नीचे बैठ गए और आनंद से बोले-''सामने वाले झरने से पानी ले आओ ।''

आनंद जब पहुँचे तो उसी समय एक बैलगाड़ी पानी मैं होकर निकली और वह गंदला हो गया । आनंद लौट आए और बोले-''गंदला पानी लाने की अपेक्षा कहीं अन्यत्र से लेने जाता हूँ ।''

बुद्ध ने कहा-''उतावली न करो । झरने से ही पानी लाओ ।'' वह दुबारा पहुँचे तो गंदलापन बह चुका था । आनंद ने प्रसन्नतापूर्वक कमंडलु भर लिया ।

पीने के बाद तथागत ने कहा-''प्रकृति को देखो, परिस्थिति को नहीं । परिस्थिति बदल जाती है पर प्रकृति स्थिर रहती है।" आनंद ने उपदेश में निहित तत्व दर्शन समझा कि मूल प्रकृति मन:स्थिति ही है। यदि वहाँ श्रेष्ठता-सुसंस्कारिता है, सद्गुणों का समुच्चय है तो बहिरंग में दृश्यमान मलिनता सामयिक है । प्रकृति निश्चित ही प्रबल है, वह शीघ्र ही जोर मारेगी और श्रेष्ठता उभर कर आयेगी । तथागत ने मुस्कराकर आनंद के चिंतन से सहमति प्रकट की ।

बहुमत की अपनी शक्ति 

एक अनाड़ी ने कहीं से सुना-रुपया-रुपये को खींचता है । धन प्राप्त करने का यह तरीका उसे बहुत सरल लगा । सो एक रुपया लेकर राज्य कोषाध्यक्ष के पास गया और दूर से बार-बार अपना रुपया खजांची के रुपयों को दिखाने लगा ।

बार-बार ऐसा करने पर रुपया उसके हाथ से छूटकर खजांची के रुपयों में जा गिरा । अनाड़ी रोने लगा । खजांची के पूछने पर उसने सारी बात बता दी ।

खजांची हँसा और उसने कहा-''तुमने जो सुना था वह तो ठीक था पर इसमें इतनी कमी रह गई कि अधिक संख्या थोड़ी संख्या को अपनी ओर खींच लेती है । बहुमत की भी तो अपनी शक्ति है ।''

उस व्यक्ति ने उस दिन जाना कि जहाँ श्रेष्ठ व्यक्ति समाज में बहुतायत में रहते हैं, वहाँ स्वत: वह समाज भी सुसंस्कारी बन जाता है । जब कभी बहुमत अनाड़ियों, दुष्टों, दुष्प्रवृत्ति प्रधान व्यक्तियों का बढ़ता है, तब सारे समूह का चिंतन दिशाधारा व व्यवहार भी वैसे ही हो जाता है ।

सज्जनता का पाखण्ड 

मनुष्य का मन बड़ा वकील है । खरगोश अपने समर्थन में अनुचित को भी उचित ठहराने में बडा समर्थ है, पर याद रखना चाहिए उसका यह हल देर तक नहीं टिकता।

लोमडी और खरगोश पास-पास रहते थे । वह मास चरता और खेत को नुकसान न पहुँचाता ।

किसान भी उसकी इस सजनता से परिचित था । सो रहने के लिए एक कोने में जगह दे दी ।

एक दिन लोमड़ी उधर से आई और खरगोश से पूछने लगी-''मक्की पक रही है, कहो तो पेट भर लूँ ।''

खणोश ने कहा-''खेत से पूछ लो । वह जैसा कहे, वैसा करना ।'' लोमड़ी ने खेत से पूछा और फिर आवाज बदलकर खेत की ओर से कहा-''खा लो, खा लो ।''

इतने में किसान का पालतू कुत्ता आ गया। वह सब देख और सुन रहा था । उसने आते ही खेत से पूछा-''बताओ
तो इस धूर्त लोमडी को मजा चखा दूँ ।''
फिर उसने स्वर बदलकर कहा-''धूर्त लोमड़ी की टाँग तोड़ दो ।''

कुत्ते को झपटते देखकर लोमड़ी नौ दो ग्यारह हो गई । सज्जनता का व्यवहार छद्म युक्त होने के कारण आकर्षक तो लगता है पर उसकी पोल अंतत: खुल ही जाती है ।

प्रयासाऽऽसादितो यस्तु शिष्टाचार: स जायते ।
अल्पेडपि प्रतिकूल्ये तु विशीर्णत्वं स्वत: क्षणात् ।। १६ ।।

टीका-सीखा हुआ शिष्टाचार, तनिक सी प्रतिकूलता पड़ते ही अस्त-व्यस्त हो जाता है ।। १६ ।।

अर्थ- बाह्य जगत का लोकाचार जिस नीव पर टिका है वह है-आत्मानुशासन, संस्कारों की श्रेष्ठता, आदर्श निष्ठा । ऐसे लोकाचार में स्थिरता होती है । मात्र प्रदर्शन के लिए किए जाने वाले आडंबर तो क्षणिक होते हैं; थोड़ी सी चमक भर दिखाकर तिरोहित हो जाते हैं । दुनिया की यह रीति है कि यहाँ बहिरंग को अधिक प्रधानता दी जाती है । जो दूरदृष्टि संपन्न विवेकशील होते हैं वे मात्र बहिरंग के सभ्य व्यवहार को ही नहीं देखते, अंतरंग की सुसंस्कारिता को ही दृष्टि में रखकर व्यक्ति का तदनुसार मूल्यांकन करते हैं । यदि शिष्टाचार, शिक्षण द्धारा अभ्यास में आ भी गया तो भी उसकी जड़ें तब तक कमजोर ही हैं जब तक कि वह संस्कारों में समाविष्ट न हो जाए । यहाँ पर सत्राध्यक्ष ने स्पष्ट शब्दों में घोषण की है कि बाहर से थोपी सभ्यता-शिष्टता अस्थिर होती है एवं परिस्थितियाँ थोड़ी भी विरुद्ध होने पर गड़बड़ा जाती है । अंत: का यथार्थवादी स्वरूप दृष्टिगोचर हो जाता है ।

जादूगरी मात्र ढोंग 

ईरान में उन दिनों सामाजिक असंतुलन की पराकाष्ठा थी । लोगों के अज्ञान का लाभ उठाकर दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति जादू-टोने के सहारे मनमानी करते थे । जरथुस्त के पिता पौरुषस्य ने प्रतिष्ठित लोगों को अपने यहाँ आमंत्रित किया । उसमें दो दुष्टात्मा जादूगर भी थे जिनसे लोग भय के कारण कतराते तो थे पर आतंक के मारे कुछ कहते नहीं थे ।

जरथुस्त सबके बीच में ही, अपने पिता से पूछने खड़े हो गए । बोले-''पिताजी, जादूगरी करके लोगों को भ्रमित करना पाप माना गया है, आपने जादूगरों को सम्मानित व्यक्तियों के साथ क्यों बुलाया? ये सम्मान के योग्य नहीं हैं ।''

जादूगर उत्तेजित होकर उन्हें गालियाँ देने लगे, अपनी शक्ति का हवाला देकर भयभीत करने लगे । जरथुस्त शांत खड़े रहे, बोले-''मुझे तुम डरा नहीं सकते, गालियाँ देकर सबके सामने अपना स्तर उजागर करना चाहो तो करते रहो ।'' जादूगर शक्तियाँ तो नहीं दिखा सके, शर्मिंदा होकर चले गए ।

रंगा सियार 

बहुत पुराने जमाने की बात है कि गाँव के कुत्तों द्वारा खदेड़ा हुआ एक सियार रंगरेज की नाद में छिप गया । नाद में नीले रंग का पानी भरा था, सो उसमें वह रंग गया ।

कुत्ते चले गए, तो सियार वापस जंगल में लौटा । उसकी विचित्र काया देखकर सभी जानवर हतप्रभ रह गए और कोई विलक्षण प्राणी समझने लगे । इस अवसर का उसने लाभ उठाया और कहने लगा उसे देवताओं ने जंगल का राजा बना दिया है । कलेवर इसीलिए बदल गया है । सब लोग मेरा अनुशासन मानें ।

बातों ही बातों में सियार जंगल का राजा बन गया और बहुत दिनों तक गाड़ी इसी प्रकार चलती रही; पर एक दिन उधर से गुजर रहे सियारों का झुंड हुँआ-हुँआ चिल्लाया । पुरानी आदत ने जोर मारा और मस्ती में वह भी सुर में सुर मिलाने लगा ।

असलियत प्रकट हो गयी । सियार की धूर्तता पर क्रुद्ध सभी जानवर उससे लड़ने-मरने को आमादा हो गए ।
उसे दुम दबा कर भागते बना । वास्तविकता छिपाए नहीं छिपती ।

पुनर्मूषाकोभव 

किसी की कृपा, देवता के वरदान से कोई कुछ भी बन जाये तो भी संस्कार विकसित किए, पकाये बिना उस वरदान का लाभ नहीं ।

एक चूहा था । किसी तपस्वी की कुटी में रहता था । बिल्ली उथर से निकलती तो चूहा डर से काँपने लगता ।

महात्मा ने उससे भयातुरता का कारण और निवारण पूछा । चूहे ने कहा-''बिल्ली का भय सताता है । मुझे बिल्ली बना दीजिए, ताकि निर्भय रह सकूँ ।''

तपस्वी ने वैसा ही किया । चूहा बिल्ली बन गया और सिर उठाकर उस क्षेत्र में विचरण करने लगा ।

कुत्तों ने उसे देखा तो खदेड़ने लगे । बिल्ली पर फिर संकट छाया और फिर तपस्वी से अनुरोध किया-''इस बार भी संकट से छुडायें और कुत्ता बना दें । ''

दयालु महात्मा ने उसकी मनोकामना पूरी कर दी । बिल्ली अब कुत्ता बनकर भौंकने लगा ।

अधिक दिन बीतने न पाये थे कि जंगली भेड़ियों ने उसकी गंध पाई और मार खाने के लिए चक्कर लगाने लगे । कुत्ते का त्रास फिर लौट आया । डरे-घबराये कुत्ते ने महात्मा का फिर आँचल पकड़ा । नया वरदान माँगा जरक भेड़िया बन जाने का। इस बार की कामना भी पूर्ण हो गई ।

जरक भेड़िये को सिंह नहीं देख सकतें । वे उससे घोर शत्रुता मानते हैं । सिंह परिवार को सूचना मिली, तो वे
उस भेड़िये की जान लेने पर उतारू हो गए ।

जरक क्या करता । महात्मा ही उसे त्राण दिला सकते थे । सिंह बनकर निक्षित रहने की कामना जगी और गिड़गिड़ा कर किसी प्रकार अब की बार भी उसकी पूर्ति करा ली । अब उसका परिवर्तित रूप सिंह का था । दहाड़ से उसने सारा क्षेत्र गुँजाना आरंभ कर दिया ।

बहुत दिन नहीं बीते थे कि शिकारियों के एक दल ने उस क्षेत्र के सभी सिंह मार डाले थे । एक बचा था । उसी की तलाश करने वे महात्मा की कुटी वाले क्षेत्र में ढूँढ़-खोज चला रहे थे ।

वरदान से बने सिंह का पता चला, तो संकट की घड़ी सिर पर मँडराती दिखी । जाता कहाँ, तपस्वी के पास ही पूरा करने पहुँचता था । इस बार भी पहुँचा ।

अब की बार तपस्वी की मुद्रा बदली हुई थी । उन्होंने कमंडल से जल छिड़का और सिंह को फिर चूहा बना दिया । बोले-'' संकटों का सामना करने का जिसमें साहस-पराक्रम नहीं, उसके लिए दूसरों की सहायता से ही कब तक काम चल सकता है ।''

मगर की असलियत समय के रहते खुल गई 

जामुन के पेड़ पर बंदर रहता था । नीचे तालाब में मगर । दोनों में दोस्ती हो गई । बंदर ऊपर से फल तोड़कर डालता, मगर नीचे उन्हें खाता रहता । इसी प्रकार लंबा संमय बीत गया । एक दिन मगर के मन में कुटिलता आई । उसने बंदर से कहा-'' आज तुम्हारी भावज ने दावत रखी है । बहुत पकवान बनाए है और आपको आग्रहपूर्वक बुलाया है । थोड़ी आना-कानी के बाद बंदर सहमत हो गया । पीठ पर बैठकर उसके घर चलने की बात तय हुई।

बीच धार में पहुँचने पर मगर ने करवट बदलनी चाही तो बंदर ने पूछा-''यह क्या?'' मगर ने असली बात बताई । जो नित्य ही ऐसे स्वादिष्ट फल खाता है उसका कलेजा भी वैसा ही स्वादिष्ट होगा । सो तुम्हें खाने के लिए ही यह बहाना बनाया था ।''

बंदर मगर की धूर्तता देखकर आक्रोश से भर गया किन्तु घबड़ाया नहीं, उसने सूझ-बूझ से काम लिया और जोर से हँस पड़ा, बोला-''मूर्ख, इतनी सी बात थी तो कहा क्यों नहीं? मैं तो कलेजा पेड़ पर ही सूखता छोड़ आया । अब खायेगा क्या?''

वार्तालाप चला और नये सिरे से नया निर्धारण हुआ कि लौट चला जाय और कलेजा लेकर फिर वापस आया जाय ।

किनारे पर पहुँचकर बंदर उछल कर पेड़ पर जा बैठा और अपनी जान बचाई । उसने उस दिन यह सूत्र हृदयंगम किया कि जो भी बाह्य व्यवहार किसी का नजर आता है, कोई जरूरी नहीं कि वह अंत: से वैसा ही हो । प्रतिकूल परिस्थितियों में मगर के अंदर समाई कुटिलताओं का रहस्योद्घाटन हो जाने से उसने जीवन व्यापार के मर्म को भली-भाँति समझ लिया ।

हैसियत न भूलो 

विचारशील लोग जहाँ पर है, वहीं से आगे बढ़ने की बात सोचते हैं, दूसरों की नकल नहीं करते  ऊँट नदी के उस पार हो गया। इस पार खड़े गधे ने पूछा-'' पानी कितना है ।'' ऊँट ने कहा- तक बेखटके चले आओ ।''

गधे ने कहा-''पर मेरी तो पीठ पर से पानी ऊपर हो जायगा और मैं डूबे बिना न रहूँगा । आपकी नकल मैं कैसे करूँ? मुझे तो अपनी हैसियत देखकर चलना है।'' गधा बेवकूफी का पर्यायवाची रूप भले ही माना जाता हो पर इतनी समझ उसमें भी है कि वह अनुकरण सोच-समझ कर करता । 

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