जलचक्रे शरीरस्य चक्रेऽथ प्रकृतेरपि ।
आदानस्य प्रदानस्य पारम्पर्यं तु विद्यते ॥७१॥
दानं योऽवरूणद्धयत्र नैति सम्पन्नता क्वचित् ।
विपरीततया नश्येत् ग्लायति प्रतिवासरम् ॥७२॥
संकीर्णत्वं च भीरूत्यं कृपणत्वमथापि च ।
सृष्टिव्यवस्थितेरस्ति पूर्णतस्त्ववहेलनम् ॥७३॥
स्वीकृत्येमानि लाभस्य ये चाशां कुर्वते नरा: ।
अदूरदर्शिनो हानिं यान्ति शोचन्ति चान्तत: ॥७४॥
टीका-शरीर-चक्र, जल-चक्र और प्रकृति-चक्र में आदान-प्रदान की परंपरा है, जो देना बंद करता
है; वह संपन्न तो बनता नहीं, उल्टे सड़ता और नष्ट होता देखा जाता है। संकीर्णता, कृपणता और कायरता सृष्टि
व्यवस्था की अवहेलना है। इन्हें अपनाकर जो लाभ की बात सोचते हैं, वे अदूरदर्शी बहुत घाटा सहते और
अंतत: बुरी तरह पछताते हैं॥७१-७४॥
अर्थ-इकॉलोजी विज्ञान के वियम-अनुशासनों के अनुसार परस्पर आदान-प्रदान ही सृष्टि की सुव्यवस्था का प्राण है । शरीर के जीवकोष निरंतर झड़ते हैं, नए आते रहते हैं। शरीर नित्य आहार ग्रहण करता है एवं विसर्जन करता है । यह संतुलन जरूरी हैं । प्राणवायु ग्रहण करके मनुष्य विषाक्त वायु छोड़ता है, जिन्हें वृक्ष-वनस्पति ग्रहण करते व बदले में मनुष्य के लिए प्राणवायु प्रचुर मात्रा में देते हैं । वृक्ष-वनस्पतियों को अपने उपकार के बदले में मनुष्य व जीवधारियों से उर्वरक रूपी पोषण मिलता है । यह सारी व्यवस्था अन्योन्याश्रित संबंधों पर टिकी है ।
भगवान् की कृपा उधार में नहीं
एक बार ईसा अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे । उसी समय एक धनवान् दौड़ते हुए उनके पास आया और चरणों से लिपट कर बोला-"प्रभु! सच्चा जीवन जीते हुए परमात्मा के पास पहुँचने का क्या साधन हो सकता है?"
ईसा ने कहा-"नम्रता, प्रेम, दया, निरहंकारिता, सत्य, अहिंसा, त्याग- आदि परमात्मा को प्राप्त करने के साधन हैं ।"
धनी युवक ने कहा-"प्रभु, मैं तो बचपन से ही इन नियमों का पालन कर रहा हूँ ।"
ईसा यह सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और फिर बड़ी आत्मीयता के साथ बोले-" यह सब होते हुए भी तुझमें एक कमी है, जिसे मैं जानता हूँ । तुम अपने नियमों का तो हमेशा पालन करते रहो । एक बात और करो तुम्हारे पास जो जायदाद हो, उसे बेचकर उससे प्राप्त धन को गरीबों, निराश्रितों में वितरित कर दो। तुम्हारे पुरुषार्थ और भगवान् ने जो तुम्हें दिया उसे तुम जरूरतमंदों को दे दो । इस आदान-प्रदान के शाश्वत नियम का परिपालन करने से ही परमात्मा की
प्राप्ति हो सकती है ।"
इस आदेश का पालन करने में उस धनी युवक को बड़ी कठिनाई महसूस हुई और वह चुपचाप वहाँ से चलता बना ।
ईसा कुछ देर तक उस युवक की ओर देखते रहे । फिर शिष्यों को संबोधित करते हुए बोले-"देखा, धनी लोगों का परमात्मा के पास पहुँचना कितना कठिन है । वे केवल दोनों हाथों से बटोरना जानते है, देना नहीं।
आम्रफल की कृपणता
कृपणता की प्रवृत्ति मनुष्य को अंदर से खोखला और अपने सामाजिक परिकर में अकेला तथा दृष्टि में हेय बना कर छोड़ती है । हर दृष्टि से कृपण घाटे में ही रहते है ।
एक आम का पेड़ था । फलों में से एक बड़ा डरपोक था । जो पकते गए, वे धरती पर कूदते गए । कितनों को ही मालिक ने तोड़ लिया, पर वह एक पत्तों के झुरमुट में छिपा ही बैठा रहा।
उसकी उद्विग्रता और बड़ी । साथियों के चले जाने का मोह सताने लगा, फिर भी पेड़ से जकड़े रहने का
मोह छूटा नहीं । मन का संशय कीड़ा बना और उसने उसे खाकर सुखा डाला और कुरूप कर दिया। औधी के एक ही झोंके में उसे सूखे पत्तों के साथ तोड़कर एक खड्ड में फेंक दिया।
यही कृपणता एक दिन पककर जीवन का अंग, प्रारब्ध, संस्कार बन जाती है और जन्म-जन्मांतरों तक पीछा नहीं छोड़ती ।
चिंतन सही करें
दो आम के पेड़ पास-पास उगे । एक सूख गया, तो मालिक ने उस ठूँठ को भी काट डाला ।
कटते हुए उसने पड़ोसी पेड़ से शिकायत की । जिन्हें मैं जीवन भर सुविधा पहुँचाता रहा । उन्हें मेरा
अस्तित्व बना रहना भी सहन न हुआ। कितने स्वार्थी हैं ये लोग ।
हरे पेड़ ने समझाते हुए कहा-"दोस्त । चिंतन बदलो, और इस तरह सोचो कि अस्तित्व मिटते-मिटते भी मैं
लोगों को सूखी लकड़ी दे सकने का सौभाग्य अर्जित कर सका ।"
महापुरुषों का आत्म विकास औरों को देने की वृत्ति के धरातल पर होता है, इसे समझ लेने वाले कभी घाटे में
नहीं रहते ।
सितारें जगमगाते
समुद्र के बीचों-बीच टापुओं पर प्रकाशस्तंभ खड़े रहते हैं । वे उधर से निकलने वाले जलयानों को सचेत करने के लिए होते हैं, ताकि चट्टानों से टकरा कर दुर्घटना न कर बैठें । स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश देना इसी को कहते हैं । रात्रि में सितारे भी इसीलिए जगमगति हैं ।
किसान की तरह जो हमें के हित की बात सोचते है, भगवान् उनका घर अनायास ही भरते रहते हैं ।
देना व पाना
एक विद्वान् और जिज्ञासु राजा की सभा में हर समय विद्वानों का जमघट लगा रहता । एक रात राजा अपने शयन-कक्ष में लेटा था । ठीक सामने दीपक जल रहा था । सहसा राजा के मन में एक प्रश्न उठा, दीपक का प्रकाश कितना उजला है । न तेल काला है और न बाती काली है । फिर भी यह काजल उगल रहा है, ऐसा क्यों होता है?
प्रात: होते ही उसने यह समस्या विद्वानों के समक्ष रखी । विद्वानों ने अपने-अपने विचार रखे, पर राजा संतुष्ट न हुआ । अंत में राजा ने राज सभा में बैठे एक वृद्ध महात्मा से पूछा-"गुरुवर! जग को प्रकाश देने वाले दीपक के पास सिर्फ कालिमा ही क्यों रह जाती है?"
वृद्ध महात्मा बोले-"राजन्! पहले मेरे इस प्रश्न का उत्तर दें-"दीपक क्यों जलाया जाता है?"
"प्रकाश के लिए"-राजा ने कहा ।
"अर्थात् अंधकार को नष्ट करने के लिए, इसका अर्थ यह भी हुआ कि दीपक अंधकार खाता है । राजन्,
जो जैसा खाएगा, वह वैसा ही उगलेगा। तभी तो राजन् यह कहा जाता है, जो जैसा करता है, वैसा ही बदले में पाता है । जो देना बंद कर देता है, वह अंतत: नाश को प्राप्त होता है ।
श्रेष्ठता-दूसरों के लिए
किसान के खलिहान में एक ढेरी गेहूँ की थी, दूसरी कीड़ों की । किसान ने कीड़ों को अपने लिए रख लिया और गेहूँ बेच दिया ।
उस पर गेहूँ ने दु:ख मनाया कहा-" मुझे देश निकाला क्यों? किसान ने समझाया बेटी का कन्यादान करके दूसरों का घर सँभालने भेजते हैं, जबकि नौकरी-चाकरों को घर के काम आने के लिए ही रख
लेते हैं ।"
दूसरों को देने में किसी वस्तु का मूल्य और महत्व बढ़ता है, घटना नहीं । किसान स्वयं दूध पीता है और घी
दूसरों को बेच देता है ।
अपनी क्षति हो जाये तो कुछ हर्ज नहीं, किसी और का नुकसान न होने देने का स्वभाव ही संसार में शांति,
प्रगति और प्रसन्नता का राजमार्ग है।
नुकसान अपना करें, औरों का नहीं
राजा की सेना एक गाँव से होकर गुजरी । सेनापति ने गाँव के मुखिया को बुलाकर पूछा । धोडों को खिलाने लायक सबसे अच्छा खेत किसका है? मुखिया ने अपना खेत बता दिया । चारा काट लिया गया।
सेनापति ने पूछा-"यह खेत किसके थे?" मुखिया ने कहा-"मेरे । मुझे दूसरों की हानि कराने का क्या अधिकार है।"
सेनापति स्तब्ध रह गए । उनने मुआवजा चुका दिया ।
यह परंपरायें जहाँ चलती हैं वे देश, वह जातियाँ सदैव फलती-फूलती और समृद्ध रहती हैं ।
दुर्भिक्ष सज्जनों के देश में नहीं
माद्रि देश में भयंकर अकाल पडा। देवदूत यह तलाश करने आये कि ऐसे विषम समय में भी परमार्थ की परीक्षा में सफल होने वाले कुछ लोग इधर है क्या?
देवदूतों ने देखा, एक ने अपना घर-जेवर बेचकर भूखों के प्राण बचाए। एक जगह देखा, एक सम्पन्न व्यक्ति अपने परिवार को आधे पेट भोजन देता रहा, आधा पड़ोसियों को बाँटता रहा । एक किसान ने, वर्षा होने पर बोने के लिए अपना अन्न सज्जनों की समिति को दे दिया और स्वयं कहीं परदेश पेट पालने के लिए परिवार समेत चला गया । ऐसी ही अनेक घटनाएँ उस क्षेत्र में देखीं, तो देवदूतों को इन धर्मपरायणों को देखकर बड़ा संतोष हुआ ।
दुर्भिक्ष का दैत्य यह सब देख-सुन रहा था । उसने सोचा ऐसे पुण्यात्माओं के बीच मेरा रहना ठीक नहीं । वह चला गया। वर्षा हुई और सभी के लिए पेट भरने का सुयोग बन।
उदारात्मीयताऽऽएदानात्पराथैंकपरायणात् ।
दृष्ट्या व्यापकया चात्मा विकासं याति हर्षित:॥७५॥
वैभवं कृपणानां तु दुर्गतिग्रस्ततां व्रजेत् ।
यत्र तिष्ठेद् ग्लापंयेत्तत्तीक्ष्णाम्ल इव सन्ततम् ॥७६॥
नश्येद् येन समूलं तदुच्यतां औद्धिको भ्रम: ।
नृणामेष यदिच्छन्ति क्षमता सञ्चितां निजाम् ॥७७॥
लाभं तस्य च वाच्छन्ति दातुमल्पेथ्य एव तु ।
पार्श्वस्थेभ्यो मता मूर्खा: कुशला अपि चान्तत: ॥७८॥
टीका-आत्मा का विकास उदार आत्मीयता, परमार्थ-परायणता और व्यापक दृष्टिकोण अपनाये रहने
में है । कृपणों का वैभव दुर्गीतग्रस्त होता है और जहाँ भी वह ठहरता है, तेज अन्न की तरह उसे गला-जला
कर समाप्त कर देता है । इसे मतिभ्रम ही कहना चाहिए कि लोग अपनी क्षमता को संचित करके रखना चाहते हैं और उसका लाभ कुछ थोड़े से ही समीपवर्ती लोगों को देना चाहते हैं । इस नीति के अपनाने में चतुरता अनुभव करने वाले लोग अंतत: मूर्खो के समूह में गिने जाते हैं॥७५-७८॥
अर्थ-कृपण बुद्धि के संकीर्ण मन वाले व्यक्ति इहलोक एवं परलोक दोनों में ही अपयश पाते हैं । व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी उदार परमार्थपरायणता, सहकारिता एवं समष्टिगत पारिवारिकता की भावना के
आधार पर होता है । ऐसे व्यक्तियों की इस संसार में कमी नहीं है, जिन्होंने एषणा में लिप्त होकर शांत मन:
स्थिति में ही सारी जिंदगी काट दी एवं अंत में हाथ धुनते-पछताते कूच कर गए ।
हाथ ताबूत के बाहर
सिकंदर जब मरने लगा तो उसने अपनी सारी बहुमूल्य संपदा आँखों के सामने जमा करायी ।
मंत्रियों से कहा- "उसे मेरे साथ परलोक भिजवाने का प्रबंध करो ।"
यह असंभव था । वैभव संसार का अंग है । वह यहीं मिलता है और यहीं छूटता है । उसे परलोक साथ ले जा सकना संभव नहीं ।
सिकंदर फूट-फूट कर रोया। यदि यह सब यहीं पड़ा रहना था, तो मैंने व्यर्थ ही इसक लिए जीवन गँवाया ।
पेट भरना और तन ढंकना तो सहज संभव है । यदि यह बोध पहले जगा होता, तो परमार्थी महामानवों की तरह उपयोगी जीवन बिताता ।
समय निकल चुका था । भूल का सुधार संभव न था । सो उसने मंत्रियों से कहा-"जनाजे में उसके खुले
हाथ ताबूत के बाहर रखे जाँय, ताकि लोग समझें कि महाबली सिकंदर तक जब खाली हाथ चला गया, तो हम क्या साथ ले जा सकेंगे? जिन्हें यह बोध मिलेगा, वह मेरी जैसी मूर्खता न करेगा ।"
समझदारी इसमें है कि साधनों का अनुचित संग्रह कर समाज के लिए संकट उत्पन्न न करें । महापुरुषों के
जीवन की यह प्रेरणाएँ जन सामान्य अपने जीवन में उतार सकें, तो सारा संसार सुखी हो जाये । संतों के वचन सुनें भर नहीं, उनका अनुपालन भी आवश्यक है ।
दृष्टिकोण बदला
एक संत नदी के किनारे बैठ-बैठे छोटे-छोटे पत्थरों का ढेर जमा कर रहे थे । ढेर बढ़ा हो गया था, तो
भी उनका प्रयास रुका नहीं ।
एक राजा उधर निकला, पूछा-"यह पत्थर किसलिए जमा किए जा रहे हैं?"
संत ने कहा-"मरने के दिन नजदीक हैं । परेलोक में महल चिनाना है, तो साथ ले जाने के लिए पत्थर जमा
कर रहा हूँ ।"
राजा हँस पड़ा । परलोक में तो साथ कुछ नहीं जाता । यहाँ का सामान यहीं पड़ा रहता है ।
संत गंभीर हो गए । उनने राजा को पास बिठाते हुए, प्यार से कहा-"यदि यह ज्ञान आपने स्वयं अपनाया होता, तो वैभव बढ़ाने के बदले जीवन को उस पुण्य-परमार्थ में लगाया होता, जो मरने के बाद भी साथ जाता है ।"
राजा का दृष्टिकोण ही, नहीं कार्यक्रम भी बदल गया ।
परमार्थ और लोकोपकार में प्रदर्शन एक आत्म-प्रवंचना है, इस तथ्य को एक बार नहीं, हजार बार अनुभव
किया जाना चाहिए ।
समूह क्यों नष्ट होते हैं?
भीष्म शर-शैथ्या पर पड़े उत्तरायण सूर्य आने पर मरण की प्रतीक्षा कर रहे थे । पांडवों ने उपयुक्त समझा कि इस अवसर का और उनके ज्ञान अनुभव का लाभ उठाया जाय।
नकुल ने पूछा-"देव! राज्य क्यों नष्ट होते है और क्या फलते-फूलते है?" उसके उत्तर में पितामह ने कहा-" जिस समुदाय के लोग व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, क्षुद्रता, अहमन्यता के वशीभूत होकर अपने निजी लाभ की बात अधिक सोचते है, वे स्वयं भी नष्ट होते है और समूचे समुदाय को नष्ट करते है । फलते-फूलते वे वर्ग हैं,
जिन्हें सहयोग में आनंद आता है और सामूहिक उन्नति में गौरव लगता है ।
चक्की एवं रत्नराशी
रत्नराशी एक कोने में बैठी थी । पीसने की चक्की एक कोने में ।
रत्नराशि ने कहा-"मैं रानियों के कंठ और जौहरियों की तिजोरी में सज- धज के साथ रहती हूँ ।"
चक्की ने कहा-अपना-अपना भाग्य; पर यह तो बतायें कि आप कितनों की आजीविका का साधन बनती है और कितनी का पेट भरती हैं ।"
रत्नराशि से कुछ उत्तर न बन पड़ा ।
मित्र को भुलाया
संकीर्णता बुद्धि लो भ्रष्ट कर देती हैं एवं चिंतन को निकृष्ट बना देती है । दो बचपन के मित्रों में से एक
धनी हो गया और दूसरा निर्धन ही रहा। निर्धन ने बचपन की मित्रता को स्मरण करके धनी से मिलने की बात सोची, ताकि आजीविका का कोई साधन मिल सके ।
पहुँचा तो धनी ने निर्धन को पहचानते हुए भी बला टालने के लिए अनजान की तरह पूछा-"तुम कौन हो?
कहाँ से, किसलिए आये हो?"
निर्धन ने वस्तुस्थिति ताड़ ली और कहा-"मैंने सुना था कि बचपन का मेरा घनिष्ठ मित्र अंधा हो गया है, तो
सहानुभूतिवश देखने चला आया।" और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वापस घर लौट पड़ा ।
शरीर संपदा और धन संपदा की अहंता में अपने हितैषी मित्र अपनों को भी भुला बैठता है और अपने कर्तव्य
धर्म का निर्वाह करने में अनजान जैसे बहाने बनाता है ।
साधनों का संग्रह करना अनुचित नहीं है । कई बार तो अनुदान भी माँगने पड़ते हैं; पर जो मिले, उसे अपना
व्यक्तिगत न माने, समाज का माने, एक-एक पाई समाज के हित में लगाये; अपने लिए उतना ही ले, जितना किसी ब्राह्मण के लिए आवश्यक है ।
सुविधा भी-परमार्थ हेतु
गेरीवाल्डी ने अपने देश का स्वतंत्रता संग्राम जिस कुशलता और बहादुरी से लड़ा उसकी चर्चा उन दिनों दूर देशों तक फैली हुई थी और उन्हें बहुत कुछ माना जाता था तथा बहुत बड़ा भी ।
एक देश के सेनापति सैन्य संचालन संबंधी कुछ महत्वपूर्ण परामर्श करने उनके पास पहुँचे । इन दिनों वे एक मामूली डेरे में रहते थे । साज-सज्जा के सामान का अभाव था । उसी सादगी के वातावरण में सारगर्भित
वार्तालाप होता रहा ।
अंत में सेनापति को, एक गोपनीय नक्शा दिखाकर स्थानीय परिस्थितियों के संबंध में पूछताछ करनी थी; पर
कठिनाई यह थी कि लालटेन का कोई प्रबंध नहीं था । अस्तु, नक्शे को देखना-दिखाना संभव ही न हो सका।
गेरीवाल्डी जैसे विश्व-विख्यात व्यक्ति को इतनी सादगी, गरीबी और अभावग्रस्त स्थिति में देखकर सेनापति
को आश्चर्य मिश्रित दु:ख हुआ ।
दूसरे दिन प्रकाश होने पर जब नक्शे के संबंध में परामर्श करने के लिए सेनापति आये, तो उन्होंने बड़ी नम्रता और सम्मान के साथ पाँच हजार पौंड भेंट किए और कहा-"अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए मेरी यह नगण्य सी भेंट स्वीकार करने का अनुग्रह करें ।"
गेरीवाल्डी ने मुस्कराते हुए कहा- "वस्तुत: मुझे कभी इन चीजों की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई, जिन्हें आप अभाव समझ रहे हैं । इस पैसे की मुझे तनिक भी आवश्यकता नहीं है ।"
सेनापति का अत्यधिक आग्रह देखा और अस्वीकार करने पर उन्हें खिन्न पाया, तो फैसला यहाँ समाप्त किया
गया, कि सेनापति पाँच पौड वजन की मोमबत्तियाँ दे जाँय, ताकि भविष्य में रात्रि के समय कोई परामर्श करने आवे, तो उसके लिए सुविधा हो सके।
जिसने संपत्ति को अपना समझने की कोशिश की, देव, पितर, परमात्मा सभी उसके विपरीत हो जाते हैं और
दुर्भाग्य बरसाने में भी तरस नहीं खाते।
खजाने का अहंकार
खलीफा हारू रसीद नाव में सैर को निकले । उन्हें अपने राज्य और खजाने पर बड़ा घमंड था । सो उनने नदी से कहा-"मेरे राज्य में होकर बहती है, पर टैक्स नहीं देती । ला, दे टैक्स ।"
नदी के भंवर में से एक कटोरा उछला, उसमें कुछ रुपये थे । हाथ बढ़ा कर खलीफा ने उसे उठा
लिया । देखा तो कटोरा नहीं किसी आदमी का सिर था । उसी पर रुपयों की थैली बँधी थी ।
खलीफा असमंजस में पड़ गए । क्या मेरी भी खोपड़ी पर इसी तरह राज-खजाना लदेगा?
उनका अहंकार चूर हो गया । रुपयों की थैली उनने गरीबों को बाँट दी और खोपड़ी उसी पानी में बहा दी ।
नींव के पत्थर
हर श्रेष्ठ कार्य के मूल में उदार परमार्थी व्यक्तियों का समर्पण होता है जो उन्हें यश का भागी बनाता है । लोग भले ही उन्हें याद न रखें उनकी गरिमा अपने स्थान पर होती है ।
लोग किले के कँगूहे की शोभा देखकर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे और उसकी सुदृढ़ दीवारों को आश्चर्यपूर्वक
निहार रहे थे ।
मध्यवर्ती ईंट मुस्कराई और अपनी अनगढ़ भाषा में बोलीं-"अंधे दर्शकों! तुम उन नींव के पत्थरों की गरिमा
क्यों नहीं खोज पाते, जिनकी पीठ पर इस विशाल दुर्ग का ढाँचा खडा है और जिनने जान-बूझ कर ख्याति से मुँह मोड़ा है ।