प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ चतुर्थोऽध्याय: ।।संयमशीलता-कर्तव्यपरायणता प्रकरणम्-3

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जननेन्द्रियस्य जिह्वायाश्चाञ्चल्यमधिगत्य तु ।
नस बुद्धिं निजामत्रोदरं तद्दूषयन्त्यलम् ।। १९ ।।
शारीरिकैर्मानसैश्च रोगैर्ग्रस्तो भवन्त्यलम् ।
आलस्येन प्रमादेन समय यापयन्ति च ।। २० ।।
ते दरिद्रा विकासेन रहिता एव सर्वदा ।
तिष्ठन्ति मानसं चैषां शरीरं मलपीडितम् ।। २१ ।।
दोषजीर्णं जराग्रस्तमिवाशक्तं भवेत्तत: ।
सम्पदा समयोऽप्यास्ति प्रभुदत्ता नरश्च याम् ।। २२ ।।
श्रमे नियोजितां कृत्वा योग्यता: सम्पदा अपि ।
सर्वा एवार्जिता: कर्तुं सक्षमो नात्र संशय: ।। २३ ।।
श्रमपूर्वं च यावान् स काली व्यत्येति शोभने।
पुरूषार्थे जीवित तज्वीवनं मान्यतामिह ।। २४ ।।

टीका-जीभ और जननेन्द्रिय का चटोरापन अपनाकर लोग अपना पेट तथा मस्तिष्क खराब करते हैं और शारीरिक-मानसिक रोगों से ग्रसित होते हैं । समय को आलस्य-प्रमाद में बिताने वाले दरिद्री और
पिछड़ेपन से ग्रस्त बने रहते हैं । उनके शरीर और मन को जंग खा जाती है तथा वे जराग्रस्त की तरह अशक्त हो जाते हैं । समय भी ईश्वर प्रदत्त सम्पदा है । श्रम में उसे नियोजित रख कर हर प्रकार की योग्यताएँ तथा सम्पदाएँ अर्जित की जौ सकती हैं । जितना समय श्रमपूर्वक श्रेष्ठ पुरुषार्थ में व्यतीत हुआ है, उतना ही जीवन जिया मानना चाहिए ।। १९-२४ ।।

अर्थ-इंद्रिय शक्ति के सदुपयोग के सूत्र यहाँ ऋषि ने स्पष्ट किए हैं । एक है इन्द्रिय शक्ति को व्यसनों में बर्बाद न होने देना । दूसरा है उपयोगी श्रम में इन्हें लगाना । जितने समय इंद्रियों को श्रम में लगाया जायगा, उतनी ही योग्यता और संपन्नता बढ़ेगी ।

यह सत्य स्वीकार करले वाले खिलाड़ी लंबे समय तक अभ्यास का श्रम करते हैं । शिल्पी और व्यापारी लंबे समय अपने-अपने श्रम में लगाते हैं । कलाकार और संगीत साधक भी लंबी अवधि तक अपनी कला निखारने के श्रम करते हैं । इसी आधार पर संपन्नता और योग्यता पाते हैं । इसीलिए कहा है, जितना समय इस प्रकार श्रम पुरुषार्थ में लगा, उतना ही जीवन जिया समझा जाना चाहिए ।

स्वाद ने तप चाट लिया 

एक तपस्वी थे । वन में रहकर घोर तप करने लगे । इंद्र घबराया, इतना कठोर तप करने वाला इंद्रासन की हकदार बन सकता है । ऐसा उपाय करना चाहिए कि तपस्वी का व्रत खंडित हो । इंद्र ने फुसलाने के लिए अप्सरायें भेजी । डराने को राक्षस भेजे । पर तपस्वी ज्यों के त्यों रहे, वे जरा भी डगमगाये नहीं ।

अब की इंद्र को दूसरी सूझ सूझी । वे भक्त का रूप धारण कर पकवान, मिष्ठान्न लेकर पहुँचने लगे । तपस्वी ने पहले तो उपेक्षा दिखाई, पीछे उनकी जीभ चटोरी हो गयी । रोज उस भक्त की प्रतीक्षा करने लगे ।

एक दिन वनपरी अपने घर ५६ भोग पकवान खिलाने का निमंत्रण देने आयी । उसे खाकर तपस्वी बहुत प्रसन्न हुए । परी ने कहा-''आप मेरे घर ही निवास करें । इससे भी बढ़कर भोजन कराया करूँगी ।''

तपस्वी सहमत हो गए । रोज-रोज पकवान खाते थे । परी पर मुग्ध हो गए और उसके साथ गांधर्व विवाह करने पर सहमत हो गए ।

तप भ्रष्ट हुआ । इंद्र बहुत प्रसन्न हुए, बोले-''अन्य रस छोड़े जा सकते है पर स्वाद बड़ों-बड़ी की साधना चट कर जाता है ।''

गाँव में वैद्य जरूरी नहीं 

कोई राजा भटकता हुआ किसी गांव में जा पहुँचा । परिचय न होतें हुए भी ग्रामवासियों ने बहुत-बहुत अतिथि सत्कार किया । सज्जनता से प्रभावित होकर राजा ने उन गाँववासियों के लिए किसी विशेष सुविधा का प्रबंध करने की बात सोची ।

वहाँ एक साधन संपन्न अस्पताल बना दिया गया । आशा की जाती थी कि उस क्षेत्र के सभी लोग बहुत लाभ उठायेंगे ।

एक साल बीत गया । कोई भी मरीज नहीं आया । राजा को सूचना मिली तो वह कारण जानने स्वयं आये । उस सुविधा से लाभ न उठाने का कारण पूछा तो ग्रामीणों ने कहा-''हम लोग आहार का संयम बरतते हैं और कठोर परिश्रम करते हैं । इससे बीमारी एक तो आती ही नहीं । आती भी है तो पसीने के रास्ते तत्काल बाहर निकल  जाती है ।''

हृदय और जीभ 

जिज्ञासु ने ज्ञानी ने पूछा-''जीवन को अलंकृत करने वाले देवता कौन से है ?'' उत्तर मिला-''हृदय और जीभ ।''

दूसरा प्रश्न था-''जीवन को नष्ट करने वाले दो दैत्य कौन से हैं?'' उत्तर मिला-''हृदय और जीभ ।''

हृदय की निपूरता और सहजता व्यक्ति को पतित और महान बनाती है । जीभ के असंयम से मनुष्य स्वास्थ्य और सहयोग खो बैठता है । मधुर और उपयुक्त संभाषण से श्रेय और स्नेह की भरपूर मात्रा हस्तगत होती है ।

आहार का संयम 

एक तत्वज्ञानी उपस्थित लोगों को भोजन को सात्विक और स्वल्प मात्रा में, प्रकृति की मर्यादा में करने के लाभ समझा रहे थे।

सुनने वालों ने इसमें शंका की और ऐसे पहलवान का नाम बताया जो राजसिक भोजन बड़ी मात्रा में करता है । उसकी कुश्ती पछाड़ने में ख्याति भी बहुत थी ।

तत्वज्ञानी ने कहा-''पेटू लोग दूसरों को पछाड़ने वाली क्षमता तो पा सकते हैं, पर उठने और उठाने के लिए जिस स्तर की बलिष्ठता चाहिए वह आहार का संयम बरतने पर ही उपलब्ध होती है । दूसरों को पछाड़ना नहीं, जीवन में स्वयं उठना, दूसरों को उठाना ही श्रेष्ठता का परिचायक है ।''

ब्रह्मचर्य संयम और अंत:क्षेत्र 

स्वामी रामतीर्थ सें एक विदेशी छात्र ने पूछा-''स्वामी जी, आज का चिकित्सा विज्ञान ब्रह्मचर्य को उतना जरूरी नहीं मानता । वे मानते है कि मनुष्य अपनी वासना को रोके नहीं और पौष्टिक भोजन करके वीर्य की पूर्ति करता रहे तो ठीक है ।''

स्वामी जी ने समझाया-''बेटे, पौष्टिक भोजन वीर्य पैदा करता रह सकता है यह एक सीमा तक ठीक है । जैसे पानी आग पर चढ़ाने से भाप बनती रहती है । परंतु यदि भाप से इंजन चलाना है तो उसे एक निश्चित दबाव तक रोकना पड़ता है । उसके बिना चाहे जितनी भाप बनाई जाय इंजन चलेगा नहीं । उच्च आतंरिक शक्तियों के उभार के लिए ऊँचे दबाव, ऊँचे संयम से ही पैदा होते हँ । इसलिए हमारे यहाँ उसे महत्व दिया गया है । वासना का वेग न रोकें, यह ठीक है, पर साधक विचार परिष्कार द्वारा वासना उभरने ही नहीं देता । इसलिए उच्च संयम साध लेता है । ब्रह्मचर्य की महत्ता इसी कारण है ।

जंग लगा मनुष्य 

भगवान बुद्ध के पास श्रेष्ठि पुत्र सुमंत और श्रमिक पुत्र तरुण नें एक साथ प्रब्रज्या ली। दोनों भावनापूर्वक संधाराम के निर्देशों का पालन करने लगे। कुछ माह बाद प्रगति सूचना देते समय प्रधान भिक्षु ने बतलाया-''सुमंत तरुण की अपेक्षा स्वस्थ और अध्ययन की दृष्टि से अधिक आगे है। भावना भी उसकी कम नहीं है । परंतु कार्यो की उपलब्धियाँ तरुण की सुमंत से श्रेष्ठ रहती हैं, यह कारण समझ में नहीं आता ।''

तथागत बोले-''सुमंत अभी जंग लगा पुर्जा है, जंग छूटने में समय लगेगा ।'' प्रधान भिक्षु प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते रह गए । भगवान ने स्पष्ट किया-''उसका लंबा जीवन आलस्य-प्रमाद में बीता है, इससे मनुष्य जंग लगे औजार जैसा हो जाता है । तरुण ऐसा औजार है जिसमें जंग नहीं है । इसीलिए तुरंत फल पा रहा है । सुमंत की पर्याप्त साधना जंग छुड़ाने में लग जायगी तब वह ठीक प्रकार से प्रयुक्त हो सकेगा ।

दलदल में न फँसने की नसीहत 

अरस्तु अपने शिष्य सिकंदर को विश्व विजयी बनाना चाहते थे । इसके लिए आवश्यक था वह पराक्रमी कामुक न हो । सिकंदर का उठती उम्र में ही ऐक वेश्या के यहाँ आना-जाना चल पड़ा था । अरस्तू ऐसा उपाय सोच रहे थे कि सिकंदर स्वयं ही उस मार्ग से हटे । जहाँ मन लिप्त हो रहा हो वहाँ नसीहतें भी काम नहीं देतीं। क्रमश: उसकी इंद्रिय शक्ति नष्ट होने लगी, भावी प्रतिभा को जंग लगने लगी ।

पानी सिर से ऊपर निकलते देख अरस्तू ने एक तरकीब सोची । उस वेश्या सें उन्होने प्रणय निवेदन किया । उसने शर्त रखी कि चार घंटे आपको घोड़ा बनना पड़ेगा । उतनी देर तक मैं आप पर सवारी करूँगी । वे सहमत हो गए । वेश्या यह दिखाकर सिकंदर का मन गुरु से हटाना चाहती थी ।

अरस्तू नियत समय पर पहुँचे और घोडा बनकर वेश्या को पीठ पर लादकर उसके आँगन में फिरने लगे । धीमे चलते तो उनकी खबर ली जाती । नियत समय पर पहुँचे सिकंदर ने यह सारा दृश्य देखा । अरस्तू ने भी उसके पैर की आवाज सुनकर आगमन का पता लगा लिया ।

सिकंदर ने प्रकट होकर पूछा-''गुरुदेव । यह क्या?'' अरस्तू ने कहा-''जिस मार्ग पर कदम बढ़ाते ही मेरे जैसे ज्ञानवानों की यह दुर्गति हो रही है । मूर्ख, उस दलदल में फँसने पर तेरा तो निकलना ही असंभव हो जायेगा ।

सिकंदर ने वस्तुस्थिति समझी और पतन की ओर जाने वाला रास्ता बदल लिया । इसी नसीहत ने उन्हें सिकंदर महान बनाया ।

मन से निकाल न सके 

दो भिक्षु साथ-साथ जा रहे थे । रास्ते में नदी पड़ी । नाव थी नहीं । एक युवा महिला भी पार जाने का साधन ढूँढने के लिए प्रतीक्षा में बैठी थी ।

महिला ने साधुओं से कहा-''भाई जी, मुझें पार लगा दो ।'' एक साधु ने उसे कंधे पर बिठाकर पार लगा दिया । आगे चलकर दूसरे साधु ने कहा-''तुमने भला नहीं किया । युवती को कंधे पर नहीं बिठाना चाहिए था ।'' निकालने वाला साधु चुप हो गया । आगे चलकर साधु ने वही बात कही । वह चुप रहा । और आगे चलने पर
फिर साधु ने कहा-''तुम ने भला नहीं किया ।''

निकालने वाले साधु ने कहा-''मैंने तो कंधे पर रखकर उसको निकाल दिया था, पर तुम तो उसे सिर पर बिठाये फिर रहे हो । उसे निकाल नहीं सके ।''

सच है, वासना मन में बसी हो, विचार उसी में लिपटे हों तो भले ही कोई कृत्य प्रत्यक्षत: न किया गया हो, तो ब्रह्मचर्य टूटने के समान ही है । जबकि इसके विपरीत कोई कर्म उस भावना से न किया गया हो और न वैसे विचार मन में आये हों तो उसमें मर्यादा उल्लंघन नहीं माना जाता।

विषय विकारों का फेर 

एक अंधा था । किसी अपराध में आजीवन कारावास का भागी बना ।

बहुत दुःखी रहता । राजा को दया आई । वे दंडमुक्त तो नहीं कर सकते थे पर उतनी व्यवस्था कर दी गई कि यदि यह जेल द्वार से अनायास ही निकले तो कोई रोके नहीं ।

अंधा इतने से ही प्रसन्न हुआ । उसने जेल की दीवार पकड़ी और फाटक की तलाश में उसके सहारे चलने लगा ।

फाटक पर सुंदर उद्यान था और शीतल वातावरण भी ।

अंधे के सिर में खाज थी । ठंडक पाकर वह जोर से खुजलाने लगी । अंधे ने दीवार छोड़ दी और दोनों हाथों से सिर खुजलाने लगा । चलने से रुका नहीं और फाटक  निकल गया । वह फिर उस कुचक्र में परिभ्रमण करने लगा ।

हर बार यही हुआ । बार-बार फाटक आया और गंज खुजाने के कारण वह अंधा बार-बार उसी प्रकार भटकता रहा । बाहर निकलने का सुयोग पा नहीं सका ।

चौरासी लाख योनियों का परिभ्रमण एक कारावास है और जीव अंधा । वह चाहे तो मनुष्य जन्म के फाटक के बाहर निकल सकता है पर जब वह फाटक आता है तो विषय-विकारों की गंज खुजाने लगती है और जीव बार-बार फिर उसी कोल्हू में घूमता रहता है । यदि गंज खुजाने पर नियंत्रण कर सके तो पार होने का सहज सुयोग हाथ से क्यों जाये?

संयम और प्रयास 

यूनेस सेंडो बचपन से ही बीमार और दुबला था । एक दिन पिता के साथ पहलवानी का दंगल देखने गया । सुडौल शरीरों को देखकर बच्चे ने पिता से पूछा-''कोई ऐसा भी उपाय है क्या, जिसे अपनाकर मैं भी ऐसा ही बन सकूँ ।''

पिता ने विस्तारपूर्वक समझाया कि संयम और प्रयास पुरुषार्थ से कोई भी, कुछ भी उन्नति कर सकता है । स्वास्थ्य सुधारने में भी निजी प्रयास ही काम देते है । बाहर की सहायता से बात बनती नहीं । तुम भी वह बल अर्जित कर सकते हो जो तुम्हें अभीष्ट है ।

सेंडो ने दूसरे दिन से ही स्वास्थ्य सुधार के नियम कड़ाई से पालन करने शुरू कर दिए और उन प्रयासों में तत्परतापूर्वक जुट गया ।

सुविदित है कि बड़ा होने पर सेंडो संसार के मूर्धन्य पहलवानों में गिना गया ।

समय की कीमत 

जाय वर्नार्ड शा अपने आरंभिक जीवन में एक दुकान पर कर्मचारी बने । मालिक खुश था कि उनकी सूझ-बूझ से दुकान अच्छी चलती थी । पर शा असंतुष्ट थे क्योंकि उन्हें प्राय: आधा समय बेकार
बैठकर गँवाना पड़ता था ।

शा ने वह अधिक पैसें की नौकरी छोड़कर, दूसरी कम पैसे वाली नौकरी कर ली । कारण पूछने वालों को
उनने यही बताया कि मैं खाली रहकर अपनी आदत बिगाड़ना और अपनी आँखों में अपनी इज्जत गिराना नहीं चाहता ।

पुस्तक के साथ समय की कीमत 

उन दिनों बेंजामीन फ्रेंकलीन किताबों की दुकान चलाते थे । उनने एक काम का सिद्धांत अपनाया  था ताकि ग्राहक का मोल भाव करने में नष्ट होने वाला समय बचे और दुकानदार पर विश्वास बढे़ । दूध का जला छाछ को भी फूँक कर पीता है । एक ग्राहक ने पुस्तक का दाम पूछा, दुकानदार ने एक शिलिंग बतला दिया । वह दाम घटाने के लिए बार-बार आग्रह करने लगा ।
बेकार का समय खर्च कराने पर खीजते हुए कर्मचारी ने अब की बार कीमत सवा शिलिंग बढ़ा दी ।

निराश ग्राहक मालिक के पास पहुँचा और कर्मचारी के दाम बड़ा देने की शिकायत करने लगा । फ्रेंकलीन ने कहा-''अब वह आपको डेढ़ शिलिंग की मिलेगी, क्योकि उक्के साथ मेरे बर्बाद हुए समथ की भी कीमत जुड गयी है । ''

जितना जला उतना जिया 

एक समय एक लड़का दीपक लेकर जा रहा था । रास्ते में उसे महात्मा हुसेन बसराई मिले । उन्होंने बच्चे से पूछा-''अरे भाई ! यह दीपक कहाँ से लाये ?''

लड़का कुछ प्रत्युत्तर दे उसके पहले ही हवा का एक झोंका आया और दीपक बुझ गया । लड़के ने तुरंत प्रश्न किया-''मौलवी साहब ! पहले आप यह बताइये कि दीपक कहाँ गया? बाद में मैं बताऊंगा कि दीपक कहाँ से लाया था ?''

'शाबाश' उस लड़के को उत्तर देते हुए उस महान महात्मा को अल्लाह की दी हुई हिदायत और पूरी खल्क का ख्याल आ गया ।

मनुष्य का जीवन दीपक-सा ही है । उसे जलते और बुझते कितनी देर? जितनी देर उजाला किया वही मुख्य सार है । समय की महत्ता इसी में है कि एक क्षण भी व्यर्थ न गँवाया जाय ।

हाय ! अभागे हम 

सूफी संत महिला राबिया हँसती भी जाती थी और रोती भी । दोनों काम एक साथ करते देख कर उपस्थित लोगों ने आश्चर्य भी किया और कारण भी पूछा ।

राबिया ने कहा-''परमात्मा ने ऐसा सुंदर संसार शरीर बनाया । इस पर मैं हँसती हूँ। रोती इसलिए हूँ कि इन दोनों का, उपलब्ध समय का हम सही उपयोग नहीं कर पाते और अभागों की तरह हाथ मलते चले जाते है ।

उम्र कम-जीवन लम्बा 

आदि शंकराचार्य ३२ वर्ष की आयु में शरीर छोड़ गए । अंतिम समय उनके सहयोगी भक्त आस-पास थे। वे दुःख प्रकट करने लगे-''आप जैसों को जीवन लंबा मिलता तो हम सबका अधिक हित होता ।''

आचार्य शंकर गंभीर स्वर में बोले-''मैं कम उम्र लेकर आया था पर जीवन तो मैने लंबा जिया है । १०० वर्ष में जितना कुछ किया जा सकता था, मैंने उससे कम नहीं किया है । तुम सब यही मान कर चलो । कम उम्र में जाने का दुःख मनाने की अपेक्षा शानदार लंबे जीवन का लाभ लोगों तक पहुँचाने का प्रयास करो ।''

अपनी-अपनी दृष्टि लुकमान सौ वर्ष जिए। मरने लगे तो उनने दहशत से हाथ मले और कहा-''थोड़े दिन जीने का मौका मिला, अधिके जी सकते तो कितना अच्छा होता ।''
  
नूह हजार वर्ष जिये । फूस की झोपड़ी को पक्की बना देने के लिए उनके मित्रों ने कहा, तो वे बोले-'' जीना ही कितने दिन है जो बेकार का जंजाल जुटाएँ । अंतर जीवन सम्पदा संबंधी दृष्टिकोण का था ।

बलमान्तरिकं नूनं भिचारोऽयं तथैअ च ।
स यस्मिन् क्रापि लक्ष्ये तु तत्तथा विनियुज्यते ।। २५ ।।
प्रगतिस्तदनुरूपेण तत्र साफल्यमप्यलम् ।
जायते परमेनं तु लोकास्ते नाशयन्यपि ।। २६ ।।
कल्पनासु विनिक्षिप्य विकृतासु च तं नरा: ।
बाधा: प्रकृतिमार्गे च भावयन्ति सुकण्टका: ।। २७ ।।

टीका-विचार आंतीरक बल और पुरुषार्थ है, उसे जिस किसी भी लक्ष्य पर नियोजित किया जाता है, उसी में तदनुरूप प्रगति होती है और सफलता मिलती है । लोग अस्त-व्यस्त और विकृत कल्पनाओं में उलझाये रहकर उसे नष्ट भी करते हैं और विकृतियों में उलझा कर अपने लिए संकट भी उत्पन्न करते हैं ।। २५-२७ ।।

 अर्थ-विचार शक्ति के संबंध में बड़ा महत्वपूर्ण और व्यावहारिक तथ्य स्पष्ट किया गया है । लक्ष्य तक पहुँचने का पुरुषार्थ इंद्रिय शक्ति के माध्यम से ही करना पड़ता है और उसी आधार पर सफलताएँ प्राप्त होती हैं । पर  इंद्रिय शक्ति को पकड़ कर विशेष दिशा में लगा देने का पुरुषार्थ विचार बल द्धारा ही संभव
होता है । जो विचार दुर्बल हैं उस दिशा में इंद्रिय शक्ति कभी लग ही नहीं पाती और उपलब्धियाँ तो उसके बाद ही मिलती हैं ।

सही दिशा में इंद्रिय शक्ति न लग पाने से उपलब्धियाँ नहीं मिलतीं । बात यहीं तक सीमित नहीं, विचार बहकते हैं तो इंद्रियाँ भी बहकती हैं और हजार तरह की परेशानियों मनुष्य स्वयं पैदा कर लेता है ।

भर्तृहरि-जैसा चिंतन वैसा सृजन 

राजा भर्तृहरि का चिंतन प्रारंभिक दिनों में हास-विलास की तरफ ही चलता था । उस कारण उनकी काव्य प्रतिभा उसी दिशा में लगी और श्रृंगार शतक लिखा गया ।

दूसरे चरण में राजनैतिक उत्तरदायित्वों पर उनका चिंतन चलने लगा तो उनकी शक्ति उधर लगी, कुशल राजा तथा नीति शतक के रचयिता के रूप में ख्याति पायी ।

तीसरे चरण में चिंतन घूम गया अध्यात्म की ओर । तदनुरूप गुरु गोरखनाथ का अनुग्रह पाया तथा वैराग्य शतक के रचयिता कहलाये । तीन तरह की उपलब्धियाँ एक ही व्यक्ति को उसके चिंतन विचार शक्ति की दिशा धारा के आधार पर प्राप्त हुईं ।

कौन हूँ? क्या करूँ? 

कार्लाइल की ज्ञान गोष्ठी में अनेक दार्शनिक उपस्थित थे और इस प्रश्न पर विवाद चल रहा था कि मैं कौन हूँ?

कार्लाइल ने कहा-''इस व्यर्थ प्रश्न को छोड़िये और यह सोचिए कि हमें क्या करना है? और हमारी जिम्मेदारी क्या है? यह चिंतन अधिक हितकारी परिणाम लायेगा ।''

बात सच भी थी । हममें से कितने ही व्यक्ति इस अनावश्यक तत्व चर्चा में अपना तथा दूसरों का समय नष्ट
करते रहते हैं कि हम कौन हैं, हमें किसने भेजा है, वह कौन है? इत्यादि । यदि यही समय इस चिंतन में लगा होता कि हमें वस्तुत: क्या करना है ताकि यह जीवन सार्थक हो, उपलब्ध विभूतियों का सुनियोजन हो जाता, तो कितना कुछ
सृजनात्मक कार्य हमारे माध्यम से हो गया होता ।

यों सोचो मित्र 

जब तक मैं हरा था, मुझमें फूल लगते थे, फल आते थे तब तक यही लोग मेरे पास झोलियाँ लेकर आते थे, सेवा और सत्कार करते थे और आज जब में सूख गया हूँ तब देखो यही लोग कुल्हाडे़ लिए मुझे काटने आ रहे है । एक वृक्ष ने अपने साथी वृक्ष को दूर से आते हुए लोगों की ओर उँगली उठाकर कहा ।

दूसरे वृक्ष ने उत्तर दिया-''ऐसा सोचने की अपेक्षा''-आप यह सोचते कि मेरी तो मृत्यु भी सार्थक हुई जो अब भी मैं लोगों की आवश्यकताएँ पूरी कर सकता हूँ तो मित्र इस समय भी तुम्हें कितना संतोष मिलता?

बृहदारण्यक उपनिषद में उल्लेख है, हृदय ही प्रजापति है, मन ही प्रजापति है । प्रजापति अर्थात् प्रजा की सृष्टि करने वाला प्रजा का स्वामी ।

 देवता मनुष्य, असुर सभी उसकी प्रजा हैं। मन ही कहीं देवता कहीं मानवता कहीं असुरता का सृजन करता है, पालता है । सभी वृत्तियाँ उसी से समाधान चाहती हैं । कवि, कलाकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी मन की प्रजा हैं । इस प्रजापति को संभाला जाय तो सब संभल जाय । विचारों की संपदा इस प्रजापति का ही वैभव साम्राज्य है । इसे संभालना, सुनियोजन करना मनुष्य के ही हाथ में है ।

खरगोश की चिंता एवं शेष जीवों की निश्चिन्तता 

कुकल्पनाएँ भी क्या-क्या खेल दिखाती है। मनुष्य इसमें अपवाद नहीं है । एक बूढ़े खणोश ने वन्य जीवों को बुलाकर कहा-'' तुम निश्चिंत बैठे हो देखते नहीं, कभी भी मुसीबत आ सकती  है। आसमान गिर सकता है, धरती डगमगा सकती है और भोजन समाप्त हो सकता है कोई
भरोसा नहीं, आज की स्थिति के आधार पर कब तक रह सकेंगे । कोई उपाय सोचो ।

अन्य जानवर हँसते हुए चले गए कि जब मुसीबत आवेगी तब उपाय भी सोच लेंगे । पर तीन जानवरों के पेट में भय समा गया। टिटहरी रात को आसमान की ओर पैर करके सोती है । बंदर बार-बार पेड़ से
उतरकर देखता है कि धरती कहीं खिसक तो नहीं रही । केचुए ने मिट्टी खाना शुरू कर दिया कि जब भोजन निबट
जायगा तो वह इस प्रकार पेट भरेंगे ।

कहते हैं उस भय की कल्पना में खरगोश के तीन साथी ही रह गए हैं-टिटहरी, बंदर और केंचुआ । शेष को अपने पुरुषार्थ और विवेक पर विश्वास बना रहा सो उनकी निश्चिंतता में कमी नहीं आई ।

मनुष्य के बारे में भी चिंतकों-मनीषियों का यही मत है । अधिकांश मनुष्य चित्र-विचित्र कल्पनाओं के जाल में उलझे रहते हैं । अपनी मृत्यु, आसत्र विभीषिकाओं की चिंता से स्वयं कलपते एवं अन्यान्यों को त्रास देते है ।

रावण की भूल से बचना 

रावण का पराभव हुआ और विभीषण का राज्याभिषेक । राजा विभीषण भगवान राम के समक्ष कर्तव्य पालन संबंधी निर्देश प्राप्त करने की जिज्ञासा से खड़े हुए ।

भगवान राम बोले-''अपने बड़े भाई पंडित राज रावण के ज्ञान-विज्ञान का रक्षण और विकास करना पर अपना चिंतन क्रम हमारे भक्तों जैसा आदर्श निष्ठ तथा व्यवस्थित रखना ।''

विभीषण ने जानना चाहा कि रावण से चिंतन स्तर पर क्या भूल हुई तो करुणा निधि बोले-''उसने सत् पुरुषों का व्यवस्थित चिंतन छोड़ दिया, लोलुपों का अस्त-व्यस्त क्रम अपनाया । इसलिए अपने ज्ञान के ठोस लाभ समाज
को न दे सका । आदर्शनिष्ठ चिंतन छोड़कर, संकीर्ण स्वार्थगत चिंतन ने उसे हीन कमी में लगा दिया और दुर्गति करा
दी । उसकी रुचि के और संसार की आवश्यकता के ढेरों श्रेय कार्य प्रतीक्षा में ही रखे रह गए ।

दो यात्री 

एक था यात्री, दूर देश की यात्रा पर निकला था । वह अभी एक योजन ही चला था कि एक नदी आ गई, किनारे पर नाव लगी थी । उसने कहा-''यह मेरा क्या करेगी?'' पाल उसने बाँधा नहीं, डांड
उसने खोले नहीं, जाने कैसी जल्दी थी । मल्लाह को उसनें पुकारा नहीं । बादल गरज रहे थे । लहरें तूफान उठा रही
थीं । फिर भी वह माना नहीं, नाव को लंगर से खोल दिया और आप भी उसमें सवार हो गया ।

किनारा जैसे-तैसे निकल गया पर जैसे ही नाव मंझधार में आई वैसे ही भँवरों और उत्ताल-तरंगों ने आ घेरा । नाव एक बार ऊपर तक उछती और दूसरे ही क्षण यात्री को समेटे जल में समा गई ।

एक दूसरा यात्री आया । किनारे लगी नाव टूटी-फूटी थी, डांड कमजोर थे, पाल फटा हुआ था, तो भी उसने युक्ति से काम लिया । नाविक को बुलाया और कहा-'' मुझे उस पार तक पहुँचा दो ।'' नाविक यात्री को लेकर चल पड़ा । लहरों ने संघर्ष किया, तूफान टकराये, हवा ने पूरी ताकत लगाकर नाव को भटकाने का पूरा प्रयत्न किया पर नाविक उन सब कठिनाइयों से परिचित था, एक-एक को संभालता हुआ यात्री को सकुशल दूसरे पार तक ले आया ।

मनुष्य जीवन भी एक यात्रा है, जिसमें पग-पग पर कठिनाइयों के महासागर पार करने पडते हैं, जो नाव छोड़ने से पूर्व भगवान् को अपना नाविक नियुक्त कर लेते हैं, भगवान् उनकी यात्रा को सरल बना देते हैं, क्योंकि जीवन पथ की सभी कठिनाइयों के वही ज्ञाता और वही मनुष्य के सच्चे सहचर है । अपने अहंकार और अज्ञान में डूबे मनुष्यों की स्थिति तो उस पहले यात्री जैसी है जो नाव चलाना न जानने पर भी उसे तूफानों में छोड़ देता है और बीच में ही नष्ट हो जाता है ।

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