प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-2

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अस्ति सज्जनता नूनं गुण: प्रथमतां गत: ।
नम्रा विनयवन्तञ्च मधुरव्यवहारिण:॥१७॥ 
सभ्यताऽभ्याससम्पन्ना: सुसंस्कारयुता नरा: ।
उच्यन्ते सज्जना लोके सत्यपक्षानुगा: सदा॥१८॥
हेतो: सज्जनतायाश्च शोभा सा वर्धते नृणाम् ।
अशिष्टा दुष्टसंस्कारा नरा ये सन्त्यसंस्कृता:॥१९॥
सर्वे मानवतां ते तु कुर्वते हि, कलंकित्ताम्।
धूमकेतुसमास्ते तु जगत: श्रेयसां कृते॥२०॥
सज्जना: पुरूषै: सवैंर्व्यवहार शुभं सदा।
कुर्वते शत्रुभिक्षापि रोगों नाश्यो न रोगवान् ॥२१॥
प्रवृत्तेरपराधिन्या दमनेगृह्यतामपि ।
शल्यक्रियेव चाऽदत्ता चिकित्साकारिणेव च ॥२२॥
उपक्रमस्तु कर्तव्यो येन ले गलिता क्रमान् ।
अन्यानवयवान् कुर्यु: कदाचिद् गलितान्नहि॥२३॥
स्नेह सद्भावप्राधान्यं पक्षपातस्य न स्थिति:।
जायते तत्र सद्भाव: हितेच्छो बोधयत्यलम्॥२४॥

टीका-सज्जनता मनुष्य का आरंभिक गुण है । नम्र विनयशील, मधुर व्यवहार वाले, सभ्यता की परंपरा से अभ्यस्त, सुसंस्कारी, सत्य के पक्षपाती व्यक्तियों को सज्जन कहते हैं । सज्जनता से ही मनुष्य की शोभा बढ़ती है । अशिष्ट, अनगढ़, कुसंस्कारी तो मानवता को कलंकित करते हैं । वह विश्व-कल्याण के विनाश सूचक
धूमकेतु हैं । सज्जन हर किसी के साथ सद्व्यवहार करते हैं, शत्रु के साथ भी, अपराधी के साथ भीं । रोग को
मारा और रोगी को बचाया जाता है। अपराधी प्रवृत्ति का दमन करने में चिकित्सक द्वारा की गई शल्य चिकित्सा जैसा उपक्रम अपनाया जाना चाहिए, जो सड़े अवयव को इसलिए काटकर फेंक देता है कि उसके कारण होने वाली सड़न अन्य अवयवों को भी न गला डाले । सेह में पक्षपात नहीं, सद्भाव की प्रधानता होती है । सद्भाव का तात्पर्य हित कामना है॥१७-२४॥

अर्थ-व्यावहारिक अध्यात्म की शुरूआत सलनता से होती है । जिसके अंत: के संस्कार प्रखर होते हैं, वे किसी भी स्थिति में चाहे वे कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हों, धर्म को नहीं छोड़ते । सज्जनता की शोभा
सद्भाव जन्य सद्व्यवहार में है । वे पाप से घृणा करते हैं, पापी से नहीं । जहाँ अंत: में परहित की भावना होगी, वहाँ सामने वाला अपने कितना ही समीपवर्ती क्यों न हो, दृष्टि औचित्यपरक न्यायमूलक होगी । ऐसे
व्यक्ति का साथ धर्म भी कभी नहीं छोड़ता ।

सत्य न छोडा धर्म न छोडा

पुरन्ध्र एक सद्गृहस्थ था । परिवार के सभी सदस्य नीति, धर्म और कर्तव्य का पालन करते । घर में न कोई कमी थी, न शोक-संताप । सज्जनों के बीच उसकी अच्छी प्रतिष्ठा थी । पाप से यह न देखा गया । वह उस परिवार के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहा । किसी के मन में दुर्भावना पनपाये और किसी के आचरण में दुष्प्रवृत्ति बढ़ाये; पर सफलता न मिली । बहुत दिन उसे ऐसे ही बीत गए ।

प्रयत्नों की निष्फलता पर पाप देव खिन्न बैठे थे । दु:ख का कारण उनकी पत्नी दरिद्रता ने पूछा, तो व्यथा कह सुनाई। पत्नी ने पति की प्रसन्नता के लिए एक कुचक्र रचा और उनके कान में कह दिया । पाप की बांछें खिल गयीं । वे दूसरे दिन स्वयं ब्राह्मण और पत्नी को युवा कन्या का वेश बनाकर पुरन्ध के गृह की ओर चल पड़े ।

ब्राह्मण ने पुरन्ध्र से कहा-"मुझे तुरंत लंबी यात्रा पर जाना है । मार्ग भयंकर है । दिन-रात चलना पड़ेगा ।
आप कन्या को अपने पास रख लें । लौटने पर इसे ले जाऊँगा ।"

पुरन्ध ने अतिथि धर्म निबाहा और सहज स्वभाव उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया । कन्या परिवार के
सदस्यों की तरह रहने लगी ।

कन्या ने पुरन्ध से संपर्क बढाना आरंभ किया । वार्तालाप से लेकर समीप बैठने और कामों में हाथ बँटाने का
सिलसिला चल पड़ा । ब्राह्मण लौटा नहीं ।

कानाफूसी चली, संदेह पनपे, आक्षेप लगे। परिवार का स्नेह-सौजन्य घट, अश्रद्धा बढ़ गई । फलत: कुटुंब
में फूट पड़ी, सहयोग-सद्भाव की कमी से व्यवस्था लड़खड़ाने लगी।

पास-पड़ोस में प्रशंसा के स्थान पर निंदा होने लगी ।

पुरन्ध्र ने स्वप्न देखा कि सौभाग्य लक्ष्मी रुठ कर जा रही हैं । अनुनय-विनय उसने सुनी ही नहीं ।

कुछ समय बाद दूसरा स्वप्न आया-यश लक्ष्मी के विदा होने का । रोका तो; पर रुकी ही नहीं । तीसरी बार के स्वप्न में कुल लक्ष्मी ने भी बिस्तर बाँधा और वह भी विदा हो गयीं । जाने वाला रुकता भी कहाँ है ।

परिवार हर दृष्टि से जर्जर होता जा रहा था । पुरन्ध्र चिंतित रहने लगे; पर करते भी क्या? ब्राह्मण की धरोहर
को कहाँ फेंक दे । उनके मन में कोई पाप नहीं था । बालक हँसता हुआ पास आये, तो उसे झिड़का कैसे जाय? लोकोपवाद एक ओर, कर्तव्य दूसरी ओर । उनने सभी घाटे सहकर भी कर्तव्य धर्म के निर्वाह को उचित समझा और ब्राह्मण के न लौटने तक कन्या को घर में आश्रय दिए रहने का ही निश्चय रखा ।

एक रात को स्वप्न में धर्म को देखा और वे भी चलने की तैयारी में थे । अब पुरन्ध से न रहा गया । वे कड़क
कर बोले-"सौभाग्य लक्ष्मी, यश लक्ष्मी, कुल लक्ष्मी को मैंने इसलिए नहीं रोका कि धर्म मेरे साथ है, तो अकेले रहने पर भी मैं बहुत हूँ । वे भ्रमवश गईं; पर आप तो घट-घट के ज्ञाता हैं । मैँ कर्तव्य पर दृढ़ हूँ, तो आप किस कारण मुझे छोड़ते है ।"

धर्म के पैर एकाएक रुक गए । उनने जाने का विचार छोड़ दिया । ठीक है, तुमने मुझे नहीं छोडे तो मैं ही तुम्हें क्यों छोडूँगा? वे ठहर गए, तो कुल लक्ष्मी, भाग्य लक्ष्मी और यश लक्ष्मी भी लौट आयी ।

पाप परास्त हो गया । वह ब्राह्मण के रूप में आया और कन्या बनी हुई पत्नी को साथ लेकर वापस लौट गया । स्थिति फिर पूर्ववत् हो गई ।

महानता का यही लक्षण है कि महान पुरुषों द्वारा किए गए कार्य समस्त मनुष्य समुदाय के हित को ध्यान में
रखकर किए जाते हैं । उनके लिए कोई पराया नहीं होता । अंत:करण का इतना विकास कर लिया जाये तो हर कोई अपना हो जाता है ।

वसुधैव कुटुम्बकम्

स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका की भूमि पर पदार्पण किया । जहाज से उतरते-उतरते जेब बिल्कुल खाली हो गई थी । उस देश के लिए वे सर्वथा अजनबी थे । कोई परिचित सहायक भी वहाँ न था । एक व्यक्ति जहाज में स्वामी जी से ज्ञान-ध्यान की चर्चा करता रहता था । उतरते समय उसने सामान्य शिष्टाचार से पूछा-"आप कहाँ ठहरेंगे? आपके मेजबान का पता क्या है? समय मिला तो आपसे संपर्क का प्रयत्न करूँगा ।"

स्वामी जी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा-"अमेरिका में मेरा एक ही मित्र है और वह हैं- आप ।"
व्यक्ति चकित रह गया । साथ ही स्वामी जी के आत्मविश्वासपूर्ण सौजन्य से प्रभावित भी कम नहीं हुआ। उसने स्वामी जी को साथ ले लिया । अपने घर रखा और जब तक अमेरिका में ठहरे तब तक उनके लिए आवश्यक सामग्री जुटाता रहा ।

कई बार ऐसे क्षण आते हैं जब संत-सज्जनों को भी दुष्टों का सामना करना पड़ जाता है तो भी उनकी नीति
अपने को जोखिम में डालकर भी रोग को मारें, रोगी को नहीं की रहती है।

गाँधी जी का सत्याग्रह आंदोलन चल रहा था। ब्रिटिश सरकार भी गाँधी जी के नए-नए आदोलनों से तंग आ गई थी । एक अंग्रेज अधिकारी ने तो क्रोध में यहाँ तक कह दिया-"यदि मुझे गाँधी अभी कहीं मिल जाय तो मैं उसे गोली से उड़ा दूँ ।"

बात छिपने वाली न थी, गांधी जी को भी सुनने को मिल गई । वह दूसरे दिन सुबह ही उस अंग्रेज के बँगले
पर अकेले ही पहुँच गए । उस समय वह अंग्रेज सो रहा था, जगने पर गाँधी जी की भेंट हुई । उन्होंने कहा-"मैं गाँधी हूँ । आपने मुझे मारने की प्रतिज्ञा की है । आपकी प्रतिज्ञा आसानी से पूर्ण हो सके, अत: मैं यहाँ तक अकेला ही चलाआया हूँ ।  अब आपको अपना काम करने में सुविधा होगी ।" इतना सुनकर अंग्रेज पानी-पानी हो गया । मारने की कौन कहे उसके मुख से कोई अपशब्द तक न निकला । उसका हृदय उसी समय बदल गया था और बाद को तो वह गांधी जी का परम भक्त बन गया ।

महापुरुषों की दृष्टि में संसार में कोई बुरा नहीं होता । अधिकतर परिस्थितियाँ ही उन्हें पथभ्रष्ट है ।
उनमें भी महानता के बीज विद्यमान रहते हैं क्योंकि हर प्राणी ईश्वर का अंश है । उस अंश को उभार देने भर से दुष्ट व्यक्ति भी महान् बनते हैं ।

मरने से क्या डरना

सज्जनों के लिए शत्रु कोई नहीं होता । सब उनके अपने होते हैं । परहित में निरत वे मित्र-शत्रु में पक्षपात नहीं करते । उन दिनों कटक में जोरों का हैजा फैला था । उसका प्रकोप मुसलमानों की गरीब बस्ती डडिया बाजार में भी था । व्यक्ति कीड़े-मकोड़ों की भाँति मर रहे हैं । सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता में एक सेवा-दल संगठित हुआ । लोग बीमारों के पास जाते, उन्हें दवाइयाँ, पथ्य देकर अन्य सदस्यों को बीमारी से सुरक्षा के नियम बताकर उन्हें ढाँढस बँधाते थे । हैदर खाँ बेहद गुन्डई प्रकृति का था, उसी मोहल्ले में रहता
था । उसे अपने कारनामों पर कई बार जेल जाना पड़ा था । उसे दल का सेवा कार्य अच्छा न लगा । उसने दल के सदस्यों को धमकाया तथा मोहल्ले में इस बात का प्रचार किया कि यह सेवा-दल बाबू पांडे के व्यक्तियों का है। क्योंकि उस महिल्ले में वकील रहते हैं, वकीलों के कारण मुझे जेल काटनी पड़ी, इसलिए ये सब मेरे शत्रु हैं।

सुभाष बाबू को जब इस घटना का पता चला, तो उन्होंने सेवा दल के नवयुवकों से कहा-"देखना यह हैदर
एक दिन हमारा सबसे बड़ा सहयोगी बनेगा ।"

एक दिन हैदर के बडे़ लड़के को रोग ने अपने पंजों में दबोच लिया । हैदर को कोई भी डॉक्टर उपलब्ध न हो सका, क्योंकि सभी डॉक्टर रोगियों की सेवा में व्यस्त थे।

संध्या समय जब हैदर निराश होकर अपने मकान पर गया, तो उसने देखा सेवा दल के व्यक्ति उनके लड़के
की सेवा-सुश्रूषा तथा दवा देने में व्यस्त हैं । उसने सेवा दल के नवयुवकों से कहा-"आप मेरे घर क्यों आए?"
स्वयंसेवकों ने कहा-"यह हमारा भाई है, यदि हम न आते तो यह दुनियाँ से कूच कर जाता । हमारी शत्रुता आपसे हो सकती है इस बेगुनाह लड़के की जिंदगी से नहीं ।"

हैदर का सारा कलुष इन शब्दों में घुलकर आँखों में आ गया । उसने युवक से रोकर कहा-"मेरे बच्चो! मुझे
क्षमा करे ।"

उसे रोते देखकर सुभाष ने कहा-" रोइये मत, वह शीशी दीजिए, मुझे मरीज को दवा देनी है ।"

हैदर भी उन युवकों के कार्य में हाथ बँटाने लगा ।

संकल्पपूर्ति का साहस 

श्रावस्ती में अंगुलिमाल ने आत्म समर्पण किया। संचित समस्त संपदा को धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए समर्पित करके प्रायश्चित की पहली किश्त पहले ही चुका दी थी । दूसरी किश्त के रूप में अपना जीवन प्रव्रज्या के लिए समर्पित करना था । परिशोधन के लिए तप-साधना में प्रवेश पाने का आज संस्कार समारोह था ।

इस अवसर पर विशेष उत्सव का आयोजन हुआ । साथ ही कई चर्चाएँ चलती रहीं । एक प्रश्न उठा-इतने
बडे पापी को इतनी जल्दी किस कारण मूर्धन्य वर्ण में प्रवेश दिया गया । उसकी साधना आरंभ से ही क्यों न चलाई गई? चर्चा तथागत के कानों तक पहुँची । शिष्यों का समाधान करते हुए वे बोले-"संकल्पपूर्ति के लिए दृढ़ता अपनाए रहने की साधना का पूर्वार्द्ध अंगुलिमाल पहले ही पूरा कर चुका था। देवता पर प्रतिदिन पाँच उँगली काटकर न चढ़ा सकने की प्रतिज्ञा टूटते देखकर उसने एक दिन अपने बाँए हाथ की पाँच उँगलियाँ काटकर चढ़ाई थीं । क्या यह घटना आप सबको मालूम नहीं?"

"संकल्पपूर्ण करने के साहसी प्रकारांतर से अध्यात्म का पूर्वार्द्ध कर चुके होते हैं। उन्हें वाल्मीकि की तरह सरलतापूर्वक बदला-सुधारा जा सकता है । अंगुलिमाल की इसी विशेषता से उसे मूर्धन्य वर्ग में लिया गया है ।"

औदासीन्यमुपेक्षा च शोभते न परस्परम्।
भाव: स्वत्वपरत्वाख्यो नोपयुक्तो मतो नृणाम् ॥२५॥
हानिरेवैभिरत्रास्ति प्राष्यतेऽनादरात् सदा।
अनादरो मानलाभ: सहयोगस्य चाऽपि सः॥२६॥
लाभ: सद्व्यवहारेण जायते यत् आत्मन:।
पिपासा प्रेमसम्बद्धा जायते तस्य तर्पणम् ॥२७॥
आवश्यकं यथाऽऽहारो दीयते वपुषेऽपि सः ।
प्रतीयन्ते प्रियाश्चात्मभावादन्येऽपि मानवा: ॥२८॥
विस्तरेण प्रियस्यापि प्रसाद: प्राप्यते सदा ।
परित: स्वं स्वमान्यानां जनानां वासमान्यता॥२९॥
क्रियते तदनुसारं च व्यवहारे सुखावहा।
परिणतिर्दृश्यते तत्र तत्कालं मोदिनी नृणाम् ॥३०॥

टीका-एक दूसरे के प्रति उदासी-उपेक्षा परायेपन का भाव बरतना उपयुक्त नहीं । इससे हानि ही हानि होती है। अनादर के बदले अनादर मिलता है । सद्व्यवहार की प्रतिक्रिया भी सम्मान और सहयोग के रूप में उपलब्ध होती है । आत्मा को प्रेम की प्यास है । उसे तृप्त करना भी शरीर को भोजन देने की तरह ही आवश्यक है । दूसरों के प्रति आत्मीयता की भाव स्थापना करने पर वे प्रिय लगते हैं । प्रिय का विस्तार होने से प्रसन्नता बढ़ती है । अपने चारों ओर अपने लोग रहने की मान्यता बनाने और तदनुसार व्यवहार करने पर उसकी सुखद परिणति हाथों-हाथ दीखने लगती है, जो मानव-मात्र को
सुखद होती है॥२५-३०॥

अर्थ-जो दूसरों के साथ जैसा करता है, वैसा ही फल पाता है । जो भले होते हैं उन्हें बदले में सहयोग, समर्थन एवं सम्मान मिलता है । जो दूसरों का अपमान करते हैं, बदले में वही पाते भी हैं । अपने अंदर की दुनियाँ जिसकी जैसी भी है, वही बहिरंग में परिलक्षित लता है । मनुष्य स्वभावत: सद्भाव-स्नेह-प्रेम का प्यासा है । उसी से उसका अंतःकरण बना है और वही उसे दूसरों से अपेक्षित भी है । जब स्नेह के स्थान पर ईर्ष्या पनपने लगे तो स्वभावत: उसकी प्रतिक्रिया भी वैसी ही होती है ।

इसे विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि लोग रोग, शोक और पतन के कारण बाहर ढूँढ़ते, दूसरों पर थोपते हैं, पर सच बात यह है कि ये आंतरिक विग्रह के परिणाम होते हैं । बीमारियाँ मन से उपजती हैं । स्वस्थ रहना हो तो मन को ठीक रखना आवश्यक है ।

ईर्ष्या रोग 

पुरानी बात है । चीन में दो व्यक्तियों ने आमने-सामने दुकानें खोलीं । दोनों ही धड़ल्ले से चलने लगीं ।
ग्राहकों की भीड़ लगी रहती और कमाई भी खूब होती ।

इतने पर भी दोनों ही दुःखी रहते । उन्हें कितनी ही बीमारियों ने घेर लिया और सूख-सूख कर काँटा हो चले । इलाज कोई कारगर न हुआ तो मौत के दिन गिनने लगे।

समझदारों ने, सलाह दी कि कन्फ्यूशियस के परामर्श के लिए जाँय। कई बार दार्शनिक चिकित्सकों से अच्छा इलाज करते है ।

दोनों की अंतर्व्यथा कन्फ्यूशियस ने एकांत में सुनी । दोनों ईर्ष्या के मरीज थे । सामने वाले की बढ़ोत्तरी सहन
न कर पाते और मन ही मन कुढ़ते रहते । यही था उनकी बीमारी का मूलकारण । कन्फ्यूशियस ने इलाज बताया-वे दुकानों के काउंटर बदल लें। मालिक दूसरे को समझें और उनके गुमास्ते की तरह काम करते रहें ।

इस उपाय से ईर्ष्या से पिंड छूटा और कुछ ही समय में दोनों पूरी तरह नीरोग हो गए ।

प्राचीनकाल के मनीषियों ने इसी कारण आदर्शवादी उत्कृष्टता के जीवन में समावेश को आधक महत्व दिया
था । जो आत्म संतोष वैभव से नहीं मिल सकता वह सेवा-साधना से उलब्ध होता रहा है । यह तथ्य अभी तक यथावत् देखने को मिलता है ।

सेवा मार्ग

कुछ ही वर्ष पहले की बात है । पूना में प्लेग फैला । उसमें राघवदास का पूरा परिवार मर गया । ११ वर्ष का बालक इस आघात को सहन न कर सका और घर छोड़कर साधु बन जाने के लिए निकल पदा । साधु-महात्माओं के संपर्क में रहने पर भी उसे समाधान न मिला और सेवा धर्म अपनाया ।

एक दिन पड़ोस के गाँव में आग लग गई । सभी बुझाने को चिल्लाते तो थे, पर उस कार्य के लिए कोई आगे
न बढ़ता था । बाबा राघवदास गीला कंबल ओढ़कर घुस पड़े और कई जानें बचा कर निकाल लाये । बिहार के भूकंप और बाद पीड़ितों-की सेवा में महीनों लगे रहे । शिक्षा का प्रचार कार्य लगन से किया । पीछे स्वतंत्रता आंदोलन में जेल चले गए । रामायण को उन्होंने जनजागरण का माध्यम बनाया । उनने एक कुष्ठ आश्रम की भी स्थापना की । बाबा जी की ईश्वर भक्ति समाज सेवा थी ।

मन का कल्पना जगत्

शास्त्रकारों ने मन को ही शत्रु-मन को ही मित्र कहा है । मन को बदल लेने से बुरी से बुरी परिस्थितियाँ भी अनुकूल बनाई जा सकती हैं ।

एक लड़की को सपने में शेर दिखाई देता, वह बेतरह डर जाती । हालत बिगड़ते देखकर उसे मन:चिकित्सक के पास ले जाया गया।

सारी बात समझने के बाद मनोविज्ञानी ने लडकी से कहा-"वह शेर तो मुझे भी रोज दिखाई देता है । वह तो
बहुत भला है । काटता बिल्कुल नहीं । खिलाड़ी प्रकृति का होने के कारण वह साथी ढूँढ़ता है और इसीलिए सपने में आता है । अब की बार आवे तो तुम-उससे दोस्ती जोड़ना । फिर देखना कितना भला और हँसोड़ है वह।

लडकी का समाधान हो गया, वह प्रसन्न होकर लौटी । सपना तो अब भी आता, पर वह रात में हँसती-मुस्काने लगती । डर मन से बिल्कुल चला गया।

प्रतिकूलताओं को यदि दुश्मन न मान करं दोस्त मान लिया जाय और उनके कारण अपनी प्रतिभा निखारने का लाभ सोचा जाय, तो फिर वे डरावनी नहीं हँसाने वाली प्रतीत होंगी ।

आवारा लड़को को राह पर लाने वाले पादरी

जब चारों ओर सब अपने ही दीखने लगते है तो ऊँचे-पिछड़े, धनी-गरीब, काले-गोरे किसी तरह का भेद नहीं रहता । आत्मा दूसरों के हित के लिए छटपटाने लगती है एवं आत्मीय भाव विस्तृत होने लगता है।

नैपल्स मगर में आवारा लड़कों की भरमार थी । दरिद्र और पिछड़े लोगों के लड़के कुसंग में पड़कर अपने-अपने गिरोह बना लेते थे और चोरी, उठाईगीरी, ठगी के धंधे से अपना गुजारा करते थे । नशेबाजी जैसे अनेक दुर्व्यसन बढ़ जाने से वे अच्छे नागरिकों की तरह पढ़ना एवं आजीविका कमाना पसंद भी नहीं करते थे । यह आवारागर्दी यूरोप के अनेक देशों में बढ़ती जा रही थी । सभ्य नागरिकों का उनके मारे नाकों में
दम था ।

पादरी बोरोली का ध्यान इन लड़कों की ओर गया । उनने इनके सुधार का बीड़ा उठाया । सूखे उपदेशों को
वें सुनने तक को तैयार न होते थे । अस्तु बोरेली ने उनमें घुल-मिलकर रहने तथा मित्रता गाँठने का उपाय अपनाया । पादरी नई उम्र के थे और ठिगने कद के । इसलिए उन्हें उनमें घुल-मिल जाने में अधिक कठिनाई नहीं हुई ।

पादरी ने एक टूटा हुआ पुराना मकान किराये पर ले लिया । ऐसे लड़कों का न तो कहीं आश्रय था और न खाने-पीने का ठिकाना । बोरेली के इस घर में रात्रि को रहने की, शाम को ताजा खाना पकाकर खाने की सुविधा हुई तो सैकड़ों लड़के उस आवारा आश्रम में आने लगे । यही अवसर था जिसमें उन्हें पड़ाने, कमाने, खाने तथा कुटेव छोड़ने के लिए सहमत किया जा सका और इस योजना के अनुसार हजारों को सभ्य तथा स्वावलंबी बनाया जा सका । पादरी समुदाय ने अन्य स्थानों में भी यह योजना चलाई और बिगड़ों को सुधारने में आशाजनक सफलता पाई ।

व्यवहारो निजोऽभ्येति समीपे स्वस्य स तथा।
शब्दों वा कन्दुकश्चाऽपि सम्मुखस्थ गृहस्थ तु ॥३१॥
शिखरात् प्रतिहतौ तीव्रमायातस्तु यथा ध्रुवम् ।
स्नेहसौजन्य लाभश्चारम्भकर्त्रेऽधिको भवेत् ॥३२॥
अपेक्षा कृतं यं तु नरमुद्दिश्य तस्य तु ।
प्रत्यक्षं परिणाम: स सेवासद्भावजो मत: ॥३३॥
अतिरिक्ततया पुण्यं प्राप्यते वर्द्धते तथा ।
मानमाधारमेनं च समाश्रित्याप्यते च यत् ॥३४॥
प्रामाण्यं च वरिष्ठत्वं सहयोगो नृणां तत:।
प्राप्तु सा न्यूनता नैव काऽपि कुत्राऽपि दृश्यते ॥३५॥

टीका-अपना व्यवहार गुंबज की आवाज की तरह, फेंकी हुई गेंद की तरह, सामने वाले से टकराकर अपने पास ही लौट आता है । जिसके प्रति स्नेह, सौजन्य बरता गया है, उसे जितना लाभ होता है उसकी तुलना में उस शुभारंभ करने वाले को अधिक लाभ मिलता है । सेवा के बदले सेवा, सद्भाव के बदले सद्भाव, मिलने का परिणाम तो प्रत्यक्ष ही है । इसके अतिरिक्त पुण्यफल भी मिलता है, सम्मान बढ़ता है और इस आधार पर
प्रख्यात हुई प्रामाणिकता और वरिष्ठता पर जन-सहयोग मिलने में ही कमी नहीं रहती ॥३१-३५॥

अर्थ-यह बात छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अनिवार्य सत्य है । छोटे इसी आधार पर बड़े बनते तथा बड़े इसी आधार पर व्यापक सम्मान और श्रद्धा अर्जित करते हैं ।

पहली परख

जापान के महान संत मेइजी के जीवन की घटना है । एक बार परिचय-पत्र लेकर शिष्य धर्म गुरु केइचु मेइजी के पास गया और बिना कुछ कहे उनके हाथ में वह परिचय-पत्र थमा दिया । लिखा था-राज्धपाल किटागाकी-क्योटो राज्य ।

संत मेइजी ने कार्ड एक ओर रख दिया और बोले-"मुझे इन महाशय से कोई काम नहीं है, न ही उनसे मिलने की आवश्यकता है । जाओ, और उनसे कह दो कि आप यहाँ से जा सकते हैं।"
 
शिष्य ने वापस आकर संत के शब्द ज्यों के त्यों कह दिए । राज्यपाल किटागाकी एक बार तो अहंकारवश कुद्ध हो गए, पर पीछे उन्होंने विचार किया-महापुरुषों के पास श्रद्धा और विनीत भाव से जाना चाहिए । संत के न मिलने का कहीं यही कारण तो नहीं? अतएव उन्होंने दूसरा परिचय पत्र निकाला और उसके 'राज्यपाल क्योटो राज्य' शब्द पेंसिल से काट दिए और केवल अपना नाममात्र ही रहने दिया । कार्ड दुबारा शिष्य को देकर राज्यपाल ने कहा, एक बार और कष्ट कीजिए ।

शिष्य दुबारा परिचय-पत्र लेकर पहुँचा और आचार्य प्रवर को दे दिया । कार्ड पर दृष्टि डालते ही संत मेइजी बोले-" अच्छा, तो किटागाकी आया है । अरे, उससे मिलने की कब से इच्छा थी। जाओ, जल्दी आ लाओ ।"

राज्यपाल किटागाकी भीतर पहुँच कर, देर तक मंत्रणा कर जब चलने लगे, तो उनके हृदय में असीम प्रसन्नता थी। धर्म का प्रथम पाठ श्रद्धा और विनम्रता का अभ्यास उनके जीवन का संचालक अंग बन गया और उसने उनकी प्रतिष्ठा इतनी बढ़ा दी जितनी की किसी सम्राट् की ।

त्याग का सम्मान 

एक था कृपण, इतना कंजूस कि अपने आप पर भी धेला खर्च नहीं करता था। लाखों का स्वामी था; फटे कपडे़ पहने रहता । केवल एक अच्छी बात थी उसमें । वह सत्संग में जाता था । सबसे अंत में जूतों के पारस बैठ जाता कथा सुनता रहता । भोग पड़ने का दिन आया, तों भेंट चढाने के लिए सब कोई न कोई वस्तु लाए । वह कृपण भी मैले रूमाल में कुछ बाँध के लाया। सब लोग अपनी लायी वस्तु रखते गए, वह भी आगे बढ़ा अपना रूमाल खोल दिया उसने । उसमें अशर्फियाँ थीं; पौंड और सोना । इन्हें पंडित जी के समक्ष उँडे़लकर वह जाने लगा । पंडित जी ने कहा-"नहीं नहीं सेठ जी। वहाँ नहीं मेरे पास बैठो ।"

सेठ जी ने बैठते हुए कहा-"यह तो रुपयों का सम्मान है पंडित जी मेरा सम्मान तों नहीं?" पंडित जी ने
कहा-"भूलते हो सेठ जी । रुपये तो तुम्हारे पास पहले भी थे । यह तुम्हारे रुपये का नहीं, त्याग का सम्मान है । आगे भी ऐसा ही व्यवहार करोगे, तो बदले में यही पाओगे ।"

सच्ची इबादत कौन सी?

भगवान भी उन्हीं को अपना सच्च भक्त मानते हैं, जिनमें परदु:खकातरता है, दूसरों के लिए सम्मान हैं । एक बार एक थका-मांदा बूढ़ा हजरत इब्राहीम की कुटी में पहुँचा। वह रात भर वहाँ ठहरना चाहता था । हजरत ने उसका आतिथ्य किया और भोजन कराया ।

इसके बाद उनने पूछा-"आप खुदा की इबादत करते हैं न?" उसने कहा-"मैं तो अग्निपूजक हूँ और किसी खुदा को नहीं जानता ।"

इस पर इब्राहीम को तैश आया और धकेल कर झोंपड़े से बाहर कर दिया।

अमह ने पुकारा-"ऐ बंदे! जिसे मैंने जिंदगी भर निबाहा, उसे तू एक रात भी न निभा सका?"

गलती मानी गई और वृद्ध को एक रात रहने के लिए व्यवस्था कर दी गयी।

जन सेवा-परमार्थ और जन-जन के प्रति प्यार का जितना अधिक विस्तार होगा, प्रयत्नों का प्रतिफल उतने ही
व्यापक क्षेत्र को मिलेगा।

पापी के प्रति करुणा भाव 

ईसा ने उस दिन एक वेश्या का निमंत्रण स्वीकारा और उसके घर भोजन को गए । सारा शिष्य समुदाय भी साथ चला ।

चारों ओर काना-फूँसी चल पड़ी । यह कैसा भगवान का बेटा है । जो पापनी से घृणा तक नहीं करता। शिष्यों में से धनादय और मुसरसिमोन ने अपने मन की बात ईसा से कह भी दी । 'उद्धार करना है तो सज्जन ही क्या कम है, जो आप दुर्जनों के यहाँ जाते और बदनामी सहते है ।"

ईसा ने उलट कर पूछा-"सिमोन यदि तुम चिकित्सक होते तो किसी जुकाम पीडित और शस्त्रहत रोगी में से किसे प्राथमिकता देते? तुम्हारा विवेक ऐसी स्थिति में तुम्हें क्या करने को प्रेरित करता?"

सिमोन ने शस्त्राहत की प्राण रक्षा के लिए जुकाम पीड़ितों की तुलना में प्राथमिकता देने की बात कही ।

ईसा ने फिर पूछा-"यदि मैं अधिक पापी को सुधारने के लिए कम पापी की तुलना में प्राथमिकता देता हूँ,
तो उसमें भूल क्या हुई?"

सिमोन चुप हो गए । वेश्या ने यह प्रसंग सुना तो संत की करुणा पर भाव-विभोर हो गई । दूसरे दिन वह
वेश्या न रहकर संत हो गई । यह परिवर्तन जिसने भी सुना, ईसा के प्रति वह सहज ही श्रद्धावनत हो गया ।

अंधे गायक की सेवा-साधना

स्वीडन के एक अंधे गायक ने अंधों को स्वावलंबी बनाने के लिए गा-गाकर अपने देश से एक लाख रुपया एकत्रित किया । वह भारत आया और यहाँ उसने ऐसे उद्योगों का स्कूल खोला जिसमें अंधे पढ़ने के साथ-साथ रोटी कमा सकें और स्वावलंबी जीवन जी सकें । उस विद्यालय में आज २०० अंधे जीवनयापन करते हैं ।
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