प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ प्रथमोऽध्याय:॥ देवमानव- समीक्षा प्रकरणम्-3

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अस्या उत्कटलिप्साया: पूत्यैं गृह्णाति से तत: । 
कुकर्माचरणं तत्र प्रवृत्तीरासुरी: सदा ।।३२।। 
मार्गमेतंद् बिना ते च नरा नानुभवन्ति तु । 
वृत्त्या सरलतया स्यातां सात्विकत्वं च सौम्यता ।।३३।। 
श्रमस्तत्र विशेष: स धैर्यवत्ता तथैव च । अल्पलाभसुसन्तोषवृत्तिमत्ताऽप्यपेक्षिता ।।३४।। 
स्यीकुर्वन्ति नचेदं ते पुरुषा उद्धता इह । 
अन्यान् वञ्चयितुं लोकांस्तथा पातयितुं पुन: ।।३५।। 
शोषण पीडन नृणां कर्तुं नैव कदाचन । 
संकोच तेऽधिगच्छन्ति राक्षस: क्रुरतां गता: ।।३६।। 

टीका-इस उलट ललक-लिप्सा की पूर्ति के लिए उन्हें कुकर्म करने और अपराधी असुर प्रवृत्तियाँ अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नही रहता । सौम्यता, सात्विकता तो सादगी के साथ ही निभती है । उसमें आधिक परिश्रमी, धैर्यवान् और स्वल्पं संतोषी रहना पड़ता है । यह उन उद्धतों को स्वीकार्य नहीं होता । ऐसी दशा में दूसरों को ठगने, चूसने, गिराने और सताने में क्रुरता के धनी को कोई संकोच नहीं होता ।। ३२ -३६ ।। 

अर्थ-उद्धत स्थिति में ऐसे लोग कुकर्म और अपराधी मार्ग ही अपनाते हैं । उचित ढंग अपनाने का धैर्य न होने से वे शोषण की अनीति अपनाते हैं । सौम्यता की संपदा एकत्र नहीं कर पाने, से क्रुरता के धनी बनें जाते हैं, उसी कां उपयोग करते हैं ।

पुलस्त्य का नाती राक्षस 

ऋषि पुलस्त्य से उनके आश्रमवासियों ने पूछा-''रावण आपका नाती है, स्वयं भी शिव भक्त तथा विद्वान है, फिर भी दुष्टता क्यों बरतता है ।"ऋषि बोले-''उसे सोने की लंका बनाने का शौक जो लगा है । बिना शोषण के इतना धन जुटाता कैसे ? भक्त की सद्भावना तो दूसरों को बाँटती है, उस हालत में उसे सादगी निभानी पड़ती है। यह लिप्सा ही दुष्टता की जननी है ।'' 

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप 

हिरण्याक्ष को अपने प्रचुर वैभव से संतोष न हुआ । संसार की सारी सम्पत्ति अपने अधिकार में रखने के पागलपन ने उसे शोषण के लिए मजबूर किया और उसी कारण नष्ट हुआ । 
हिरण्यकश्यप को राज सम्मान था  परंतु सर्वशक्तिमान कहलाने के नशे में वह विवेक खो बैठा । अपने आपको परमात्मा कहने लगा । जिसने न कहा, उसे सताया । अपने पुत्र तक को अपनी यश लिप्सा के लिए नृशंस बनकर पीड़ित किया । लिप्सा जो न कराये, सो वही कम है । 

दान बना अभिशाप 

शिवजी ने संस्कारित-व्यक्तियों की ही भस्म खोजकर लाने के लिए एक स्नेह पात्र गण को नियुक्त-किया । वह निष्ठापूर्वक अपना कार्य समय पर पूरा करने लगा । 

एक बार उसने कहा-''प्रभु! आपके भक्त अधिकांश आप जैसे अलमस्त फक्कड़ होते हूँ । कई बार उनके दाह की भी व्यवस्था नहीं जुट पाती । उनका दाह करने के लिए ईंधन जुटाने, भस्म प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई होती है । शिवजी ने उसकी निष्ठा से प्रसन्न होकर वरदान दिया, कहा-''परेशान मत हुआ करो । अब से उसके ऊपर अपना दाहिना हाथ कर दिया करो, वह भस्म हो जाया करेगा ।'' 

वरदान ने काम को सुगम बना दिया । एक बार आत्म रक्षार्थ उस शक्ति का प्रयोग किया तो वह क्रम चल पड़ा । 
शक्ति का घमंड उभरा और वासनपूर्ति के लिए भी उसका प्रयोग होने लगा । निर्धारित कर्तव्य के लिए दी गयी शक्ति 
अकर्तव्य में लगाने से वह असुर कहलाया और स्वयं अपने सिर पर हाथ रखने के कारण भस्मीभूत हो गया । यदि कर्तव्य की मर्यादा में ही वह वरदान का उपयोग करता, तो शिवं के स्त्रेह और संस्कार के यश का भागीदार बनता । 

संसार से निकलें तो भगवान में मन लगे

गुरु ने शिष्य की एक  साथ दो ध्यान साथ-साथ करने का निर्देश दिया- एक गणेश का, दूसरा कुबेर का । 

शिष्य ने बहुत प्रयत्न किया पर दोनों एक बन पड़ते एक की छबि में तन्मयता 
आती, तो दूसरा विस्मृत हो, जाता । असफलता की स्थिति उसने गुरु को कह सुनाई ।

गुरु मुस्कराये और बोले-''स्वार्थ और परमार्थ दोनों एक साथ सधते नहीं हैं । संसार और भगवान में से एक 
ही हाथ लगता है । '' 

किसान का राजमहल 

सौम्यता का निर्वाह तो हमेशा सादगी के साथ ही होता है । किसान और उसकी पत्नी साथ-साथ खेत पर जा रहे थे । पत्नी राजमहल की शोभा देखती पीछे रह गई । किसान ने पुकारा-''व्यर्थ क्यों समय खराब करती है? इस महल से तो हमारा महल सौ गुना अच्छा है ।'' 

राजा ऊपर बैठा यह वार्तालाप' सुन रहा था । उसने दोनों को बुलाकर पूछा-'' भला तुम्हारा महल कहाँ है ?'' 
किसान ने कहा-''हरे-भरे खेतों का फला- फूला क्षेत्र ही हमारा महल है, जिससे असंख्यों का पेट भरता है । 
आपके महल में वह विशेषता कहाँ है?'' 

राजा का मस्तक नीचा हो गया । 

असुरा दानवा ह्रोते दैत्या नूनं नरा: समे। 
पिशाचानां च वगेंऽपि गण्यन्ते स्वार्थसौहृदा: ।। ३७ ।। 
जुगुप्स्यास्ते भयालोभाद्देवमत्यैं: कदाचन। 
अनुनेया: परं रोष: सर्वेषां ह्रदि तान् प्रति ।। ३८ ।। 
प्राप्यैवावसरं लोका: प्रतिशोधं भजन्ति च। 
मित्राण्यपि च शत्रुत्वं भजन्ते समये सति ।। ३९ ।। 
धिक्तैवैतेषु सर्वत्र वर्षतीह प्रताड़नाम् । 
सहन्ते ते लभन्ते च दण्ड राजसमाजयो ।। ४० ।। 
नारक्यस्ताड़नास्तेभ्य: परलोके सुनिश्चिता: । 
अशान्तास्ते परान् सर्वानशान्तानेव कुर्वते ।। ४१ ।। 

टीका-यह नर पिशाच वर्ग है । इन्हे असुर या दैत्य-दानव भी कहते हैं । उन पर घृणा बरसती है । भय या लोभ से ही कोई उनकी चापलूसी भले करे । भीतर ही भीतर सभी को रोष रहता है । दाँव लगते ही लोग प्रतिशोध लेते हैं । मित्र भी अवसर मिलने पर शत्रु जैसा आचरण करते हैं । सर्वत्र उन पर धिक्कार बरसती है । वे आत्म-प्रताड़ना सहते हैं । समाज दंड भी भुगतने पड़ते हैं । परलोक में उनके लिए नारकीय प्रताड़नाएँ सुनिश्चित ही हैं । वे सदा अशांत रहते हैं तथा औरों को भी अशांत बनाते हैं  ।। ३७- ४१ ।। 

अर्थ- दुष्टों को सहयोग, समर्थन भयवश मिलते हैं, भावनावश नहीं । इसीलिए मौका मिलते ही किसी अन्य भय या लोभ के कारण लोग उन्हें हानि पहुँचा देते हैं । उन्हें ऊपर दर्शाये कई रूपों में अपनी दुष्टता का दंड मिलता रहता है । 

नादिरशाह की क्रूरता 

ईरान का बादशाह नादिरशाह अत्यंत ही क्रूर एवं बर्बर शासक था । सन् १७३१ में उसने दिल्ली पर आक्रमण किया और बहुत मार-काट व लूट मचाई । लौटते वक्त वह बेशुमार वैभव व कीमती रत्न
मंडित मयूर सिंहासन (तख्ते ताऊस) भी साथ लेता गया । 

पक्षिमोत्तर के इस नृशंस शासक का पराभव भी अत्यंत दु:खांत  है । अपने तथाकथित 'नमक हलाल' अफसरों द्वारा ही उसका कत्ल हुआ । 

कंस का अंत 

द्वापर में, मथुरा में कंस का प्रभाव इतना अधिक था कि लगता था उसकी इच्छा के बिना पत्ता भी नही खड़क सकता; कहीं थोड़ी भी हल-चल होने पर उसे उसके वफादार उसकी सूचना 
दे देते थे । परंतु दुष्ट की दुष्टता से अंदर-अंदर सभी दु:खी थे । इसका प्रमाण तब मिला जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध करके सज्जन राजा उग्रसेन को पुन: सिंहासन पर बिठाया । कंस के मारे जाने का दु:ख किसी ने भी नहीं 
मनाया । 

चक्रवर्ती जरासंध 

अपने पौरुष के बल पर सम्राट की पदवी ले चुका था; परंतु उसके अपने निकट के साथी भी भीतर-भीतर  उसकी क्रूरता के कारण ऊब चुके थे , उससे मुक्ति पाने की प्रतीक्षा में थे । इसीलिए श्रीकृष्ण ने उससे सैन्य युद्ध टाला और एकाकी द्वंद्व से फैसला करने की राह चली । उसका भय हटते 
ही सभी सामंतों ने सुखं की साँस ली । 

दुर्योधन की न चली 

दुर्योधन ने राज्य अपने अधिकार में कर लिया था; परंतु जनता की आंतरिक सहानुभूति पांडवों के साथ थी । भयवश वे खुलकर तो सामने न आ सके; पर पांडवों की हर संभव सहायता होती रही। लाक्षागृह की योजना बड़ी गोपनीय थी; पर पांडवों को उसका भेद भी मिला था तथा निकलने की व्यवस्था भी बनी बनायी मिली । स्पष्ट था, दुर्योधन का समर्थन भीतर से कोई नहीं करता था । 

सिकंदर का पश्चाताप 

सिकंदर अपनी लिप्सा शांत करने के प्रयास में जीवन भर मार-काट करता रहा । विश्व विजेता भी कहलाया परंतु मरते समय जब उसने यह देखा कि जिसके लिए इतना अनाचार किया, वह सब एकाएक यूँ ही छूटा जा रहा है, तो उसे अत्यंत पश्चाताप हुआ; साथ जाने लायक संतोष कमाया नहीं था । सिकंदर फूट-फूट कर रोया और कहा- "मेरे खुले हाथ शव-यात्रा में बाहर निकाल देना, ताकि लोग यह देख लें कि सिकंदर खाली हाथ गया ।"

ऐसा ही पश्चाताप दुर्योधन को करना पड़ा था, जब उसकी जाँघ टूट चुकी थी, भगवान कृष्ण उसके पास पहुँचे, जब उसने स्वीकार किया था कि धर्म- अधर्म मैं पहचानता था; परंतु अपनी लिप्सा के कारण अधर्म से बच न सका, धर्म में प्रवृत्त न हो सका । अब पछताने से होता भी क्या । 

नरक दर्शन 

युधिष्ठिर को स्वर्ग ले जाते समय नर्क दिखाया गया था । उसमें सबसे भीषण पीड़ा के स्थल को देख कर वे सिहर उठे । पूछने पर पता लगा कि यहाँ वे जीव भेजे जाते है, जिन्होंने स्वार्थवश स्वयं पतन का रास्ता पकड़ा तथा अहंकारवश अपने प्रभाव से अनेक को पतन के लिए प्रेरित किया । दूतों ने बतलाया कि यातना के बाद 
उन्हें नया जन्म जब मिलता है, तो पीड़ित बनाकर भेजा जाता है, ताकि वे समझ सकें कि पीड़ा किसे कहते हैं । 

मिलावट की क्रूरता 

खाद्य पदार्थों में मिलावट के कुछ ऐसे प्रकरण प्रकट हुए है, जिन्हें देखकर आश्चर्य होता है कि मनुष्य पिशाच कैसे बन गया ?

एक संपन्न परिवार का इकलौता बच्चा सामान्य रोग से, सारे उपचारों के बावजूद मर गया । जाँच से पता चला कि जो दवाइयाँ और इंजेक्शन दिए गए, वे असली लेबिल में नकली थे । 

मसालों में धनिया के साथ पत्तियाँ ही नहीं, घोड़े की लीद भी मिली पाई गई । हल्दी में लैड क्रोमेट जैसे गंभीर विष की मिलावट पाई गई । मनुष्य की यह पैशाचिकता लिप्सा जन्य ही है । 


ब्रह्म राक्षस का उद्धार 

ब्रह्म ज्ञानी रामानुज उन दिनों धर्म प्रचार की पदयात्रा पर थे । रात्रि में जहाँ रुके वहाँ एक व्यक्ति प्रेत बाधा से पीड़ित मिला । वह स्वयं आवेशग्रस्त रहता और उन्माद कृत्य से सभी व्यक्तियों को भी 
दु:ख देता ।


लोग उसे रामानुज के पास लाये । उन्होंने प्रेत से पूछा-''वह पूर्व जन्म में कौन था और क्यों इन दिनों कष्ट 
सहता और कष्ट देता है । 

प्रेत ने कहा- '' वह विद्वान था; पर विद्या का लाभ केवल स्वार्थ पूर्ति में ही करता रहा । इस कारण ब्रह्म राक्षस 
बना और इस उद्विग्रता में जलने लगा।" 

रामानुज ने प्रेत का मार्गदर्शन किया, समाधान कराया और विद्यादान का एक केन्द्र स्थापित कराने के उपचार 
से सभी को उस विपत्ति से छुड़ाया । 

बिच्छू और केकड़ा  

एक नदी तट पर बिच्छू और केकड़ा पास- पास रहते थे । जान-पहचान मित्रता के रूप में बढ़ने लगी, मिल जाते तो पुल-घुल कर बातें करते । 


एक दिन बिच्छू बोला-''मित्र! तुम्हें पानी में तैरते देखता हूँ तो आनंद भी आता है और ईर्ष्या भी । आनंद इस बात का कि तैरते समय तुम्हें कितनी प्रसन्नता होती होगी । ईर्ष्या इस बात से कि मैं वैसा भाग्यशाली न बन पाया, जिससे कि तुम्हारी तरह तैरता और आनंद लेता।'' 

केकड़ा उसका प्रयोजन समझ गया, बोला-''पीठ पर बैठ कर सैर-करा देने में तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है; 
किन्तु दोस्त तुम स्वभाव न छोड़ोगे और डंक मार कर मेरे लिए प्राण- संकट खड़ा करोगे ।'' 

बिच्छू ने कहा-''मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, जो उपकारकर्त्ता को डंक मारूँ । आपके मरने पर मैं भी तो डूबूँगा ।'' 
केकड़े को विश्वास हो गया । उसने बिच्छू को पीठ पर बिठा कर तैरना आरंभ किया । बिच्छू को मस्ती आई 
तो शपथ की याद ही नहीं रही और डंक उसकी पीठ में चुभो दिया । 

केकड़ा तिलमिलाया । बेचैनी में पानी में डूबा और बिच्छू भी जल में डुबकी लेने लगा । मरते समय केकड़े को यह समझ आई कि दुष्ट को सज्जन बनाने का काम संतों पर छोड़कर साधारण लोगों को तो उनसे बचे रहने में ही 
खैर है । 

वर्गस्तृतीयोऽप्यत्रास्ति देवमानवरूपिणाम्। 
आकांक्षा लौकिकीस्त्यवत्वा सामान्यैर्नागरैरिव ।। ४२ ।।
जीवनं निर्वहन्त्यत्र परिवारं लघुं निजम् । 
स्वावलम्बिनमत्यर्थं कुर्वतेऽपि च संस्कृतम् ।। ४३ ।।
संग्रहेच्छां न गृह्णन्ति दर्पं नैव महत्वगम् । 
वाच्छन्त्येवं प्रियां विप्रवृत्तिं स्वीकुर्वतामिह ।। ४४ ।।  

टीका-तीसरा वर्ग देवमानवों का है । वे लौकिक महत्वाकांक्षाओं को विसर्जित करके औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार करते हैं । परिवार छोटा रखते और उसे स्वावलंबी-सुसंस्कारी बनाते हैं। संग्रह की लालसा नहीं रखते । बड़प्पन का दर्प दिखाने की भी इच्छा नहीं रखते और स्वेच्छा से ब्राह्मण वृत्ति 
अपना लेते हैं ।। ४२ - ४४ ।।

अर्थ-देव मानव साधारण मनुष्यों में से ही उठकर आते हैं । हर व्यक्ति भगवान की, सृष्टा की साकार प्रतिमा है । जब उसे यह बोध नहीं रहता कि वह क्या है व यहाँ क्यों आया है तो प्रभु उसे बोध भी करा देते हैं । मनोकामनाओं के बंधन से छुड़ाकर उसे नर-नारायण बना देते हैं । 

नर-नारायण का अवतार 

नर ने कठोर तप किया और वह अपने कषाय-कल्मषों से मुक्त होने 
ना । यह भगवान का एक अवतार है । कहते हैं कि नर-नारायण का नर पक्ष ही 
सर्वसाधारण को दीखता है । उसके अंतराल में विराजमान भगवान को ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है । 

महामानवों की ब्राह्मणवृत्ति 

जीवन के ऊँचे मूल्यों पर जिनकी आस्था आ जाती है, उन्हें लौकिक महत्वाकाक्षायें अपने स्तर से छोटी लगती हैं । इसलिए वे उनके बारे में सोचते तक नहीं । सादगी अपनाने तथा परिवार की संख्या तथा आवश्यकता न बढ़ने देने से व्यक्तिगत आवश्यकतायें घट जाती हैं । यही ब्राह्मण वृति है कि आवश्यकतायें न्यूनतम रखकर अपनी क्षमताओं को जनहित के लिए बचा लें और लगा दें । 

नमन से अहं गले 

तथागत बोधि वृक्ष को साष्टांग दंडवत् कर रहे थे । शिष्य ने साश्चर्य हो पूछा-'' आप तो पूर्ण हैं, फिर इस तुच्छ वृक्ष को इतना सम्मान क्यों दे रहे हैं । '' बुद्ध ने कहा-''आप सब को यह बोध कराने के 
लिए कि जो नमता है, सो बड़ा होता है। ऐसा न हो कि आप लोग अहंकारी बनकर नमन की परंपरा को भुला दें । ईश्वरीय मार्ग में इस प्रकार की बड़प्पन की महत्वाकांक्षायें पहले छोड़नी पड़ती है । यह संस्कार बराबर जागृत रखना चाहिए ।'' 

सादगी का सुख 

बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन बेल्जियम की महारानी के निमंत्रण पैर ब्रुसेल्स पहुँचे । महारानी ने अनेक उच्चाधिकारियों को उन्हें लेने के लिए स्टेशन भेजा; किन्तु सामान्य वेश- भूषा और सीधे से आइन्स्टीन को वे पहचान ही नहीं पाए और निराश हो लौट आए । 

आइन्स्टीन अपना बैग उठाये राजमहल पहुँचे और महारानी को अपने आने की सूचना भिजवायी । जब रानी ने अपने अधिकारियों की, अज्ञता के कारण हुई असुविधा के लिए खेद प्रगट किया, तो वे हँसते हुए बोले-''आप जरा सी बात के लिए दु:ख न करें, मुझे पैदल चलना बहुत अच्छा लगता है ।'' 

जिस राजसी सम्मान को पाने के लिए लोग जीवन भर एड़ी-चोटी का पसीना एक करते रहते हैं, वह सम्मान 
महामानवों को सादगी की तुलना में इतना छोटा लगता है कि उसकी चर्चा भी चलना निरर्थक समझते हैं । 

चरवाहे की सम्पत्ति 

ईरानी शाहंशाह अब्बास शिकार के लिए जंगल में भटक रहे थे । वहाँ उनकी भेंट एक चरवाहे बालक से हो गई । नाम था-मुहम्मद अलीवेग । चरवाहा होते हुए भी उसकी हाजिर जबावी तथा व्यक्तित्व से शाह बड़े प्रभावित हुए और लौटते समय उसे भी अपने साथ लेआए । 

मुहम्मद अलीवेग को राज्य का कोषाध्यक्ष बना दिया गया । यद्यपि वह एक निर्धन परिवार का था, फिर भी 
इतनी धन-दौलत को देखकर उसका मन तनिक भी विचलित न हुआ । वह अपने को कोषालय के समस्त धन का 
रक्षक मानता था । इतने बड़े पद पुर रहते हुए भी उसके जीवन में सादगी थी। शाह अब्बास के बाद उनका अल्प 
वयस्क पौत्र शाह सफी राज सिंहासन पर आसीन हुआ । किसी ने शाह के कान भर दिए कि मुहम्मद अली राज्य के धन का दुरुपयोग करता है । शाह ने उस प्रकरण को जाँच के लिए अपने पास रखा और एक दिन बिना सूचना के 
उसकी हवेली का निरीक्षण करने जा पहुँचे । 

शाह ने हवेली के सब कमरों का निरीक्षण किया । थोड़ी-सी वस्तुओं के अतिरिक्त वहाँ कुछ दिखाई ही न दे 
रहा था । शाह निराश होकर लौटने लगा, तो खोजियों के संकेत पर शाह की दृष्टि एक बंद कमरे की ओर गयी । उसमें तीन मजबूत ताले लटक रहे थे । अब शाह की शंका को कुछ आधार मिला था । उन्होंने पूछा-''इसमें क्या चीज है, जिसके लिए इतने मजबूत ताले लगाये हैं ।'' 

तुरंत ताले खोल दिए गए । शाह ने कक्ष के मध्य मेज पर एक लाठी, शीशे की सुराही आदि बर्तन तथा पोशाक और दो मोटे कंबल देखे । मुहम्मद ने कहा-'' जब स्वर्गीय शाह मुझे यहाँ लाए थे उस समय मेरे पास यही वस्तुएँ थीं और आज भी मेरे पास अपनी कहने को यही हैं । मैं इससे प्रेरणा ग्रहण करता और उसी स्तर के जीवन का अभ्यास बनाए रखता हूँ ।'' युवा बादशाह इस आदर्शनिष्ठा को देखकर नत-मस्तक हो गया । 

सच्चा जन नेता 

रुस के जन नेता लेनिन पर एक बार उनके शत्रुओं ने घातक आक्रमण किया और वे घायल रोग शय्या पर गिर पड़े । अभी ठीक तरह अच्छे भी नहीं हो पाये थे कि एक महत्वपूर्ण रेलवे लाइन टूट गई । उसकी तुरंत मरम्मत किया जाना आवश्यक था । काम बड़ा था फिर भी जल्दी पूरा हो गया । 

काम पूरा होने पर जब हर्षोत्सव हुआ तो देखा कि लेनिन मामूली कुली-मजदूरों की पंक्ति में बैठे हैं । रुग्णता के कारण दुर्बल रहते हुए भी लट्ठे ढोने का काम बराबर करते रहें और अपने साथियों में उत्साह की भावना पैदा करते रहे । 

आश्चर्यचकित लोगों ने पूछा-''आप जैसे जन-नेता को अपने स्वास्थ्य की चिंता करते हुए इतना कठिन काम नहीं करना चाहिए था ।'' लेनिन ने हँसते हुए कहा-"जो इतना भी नहीं कर सके उसे जन-नेता कौन कहेगा ?'' 

गांधी जी और उनकी सादगी 

गांधी जी उन दिनों उरुली कांचन में थे। साइमन कमीशन भारत आया तो उसने 
सर्वप्रथम गांधी जी से मिलना उचित समझा । गांधी जी ने वायुयान से न जाकर थर्ड क्लास में रेल से ही सफर किया और साथ में गए अन्य साथियों का किराया भी स्वयं ही दिया । गांधी जी ने ऊँचे क्लास में कभी सफर नहीं किया। भारत की गरीबी को देखते हुए यह उनका उचित निर्णय ही था । 

संत का गौरव 

कुछ दिनों विनोबा भावे प्रतिदिन अपने पवनार आश्रम से लगभग तीन मील दूर स्थित सुरगाँव जाते थे, एक फावड़ा कंधे पर रखकर । 

एक बार कमलनयन बजाज ने उनसे पूछा कि आप फावड़ा रोज इतनी दूर अपने साथ क्यों ले जाते है । उस गाँव में ही किसी के यहाँ आप फावड़ा क्यों नहीं छोड़ आते ? 

विनोबा जी बोले-''जिस काम के लिए मैं जाता हूँ, उसका औजार भी मेरे साथ ही होना चाहिए । फौज का सिपाही अपनी बंदूक या अन्य हथियार लेकर चलता है, उसी प्रकार एक 'सफैया' को भी अपने औजार सदा अपने साथ लेकर ही चलना चाहिए । सिपाही को अपने हथियार से मोह हो जाता है उसी तरह हमें भी अपने औजारों को अपने साथ ले जाने में आनंद और गौरव अनुभव होना चाहिए । 

लोकसेवा का आदर्श 

कुछ पत्रकारों को डा० श्यामाप्रसाद मुखर्जी से भेंट करनी थी । स्टेशन पर पहुँचे । जब उन्होंने डाक्टर साहब को तीसरी श्रेणी के डिब्बे में यात्रा करते देखा, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । एक 
पत्रकार तो उस विस्मय को छिपा नहीं सका और डा० मुखर्जी से पूछ ही बैठा- ''आप संभवत: जीवन में पहली बार तीसरी श्रेणी में यात्रा कर रहे है ?"

''नहीं, मैं अक्सर इसी में यात्रा करता हूँ ''-डा० मुखर्जी ने उत्तर दिया-''आप जानते हैं कि हमारी संस्था निर्धन है । इस बचत से संस्था को अन्य आवश्यक काम चलाने में सहायता मिलती है ।'' पत्रकार मुखर्जी की इस सहज सादगी से बड़े प्रभावित हुए । इस घटना में ही लोक-सेवक का सच्चा आदर्श, सच्चा मर्म छुपा पड़ा है । भक्त आराध्य भगवान से कभी ऊपर नहीं बैठता । तो फिर जनता को जनार्दन मानकर उसकी सेवा-साधना में निरत साधक को ही क्यों स्वयं  को जनता से अलग और पृथक वर्ग मानना चाहिए। 

कृष्ण की विनम्रता

पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया । उसमें सर्वोत्तम पद चुन लेने के लिए कृष्ण को कहा गया । उनने आगंतुकों के पैर धोकर सत्कार करने का काम अपने जिम्मे लिया । यह उनकी निरहंकारिता और विनम्रता थी । 

आदर्शनिष्ठ खलीफा 

बगदाद के खलीफा उन दिनों दैनिक तीन दिरम वेतन लेते थे और प्रजा का धन प्रजाहित में ही खर्च 
कर देते थे । 

एक दिन उनकी बेगम ने कहा-''तीन दिन का वेतन पेशगी मिल जाय, तो वे बच्चों के कपड़े बनवा लें ।'' 

खलीफा ने कहा-''क्या पता, तीन दिन जिए न जिए । मैं कर्जदार बनकर नहीं मरना चाहता । उनने उधार पैसा लिया ही नहीं । आवश्यकतायें सीमित रखने और परिवार की सुविधा से, सुसंस्कारों को अधिक महत्व देने की इस प्रवृत्ति से ही वे आदर्श लोकसेवी के रूप में उभरे और पूजे गए । 

दास चीरित्र एवं बुद्ध 

तथागत उन दिनों श्रावस्ती बिहार में थे। जैतवन की व्यवस्था अनाथ पिंडक संभालते थे । दक्षिण क्षेत्र की प्रव्रज्या से दास चीरित्र वापस लौटे और बड़े बिहार जैतवन में जा पहुँचे । 

दास चीरित्र की भाव-भंगिमा और विधि- व्यवस्था वैसी नहीं रह गई थी, जैसी कि जाते समय उन्हें अभ्यास कराया गया था। वे जहाँ भी गए बुद्धि की गरिमा और उनकी प्रतिभा का सम्मिश्रण चमत्कार दिखाता रहा । सम्मान बरसा, धन बरसा, प्रशंसा हुई, आतिथ्य की कमी न रही । 

पा लेना सरल है, पचा लेना कठिन । प्रतिष्ठा सबसे अधिक दुष्पाच्य है । उसे गरिष्ठ भोजन और विपुल वैभव की तुलना में पचा लेना और भी अधिक कठिन है । दास चीरित्र की भी स्थिति ऐसी ही हो रही । अपच उनकी मुखाकृति पर छाया हुआ था । 

अनाथ पिंडक ने पहले दिन तो आतिथ्य किया और दूसरे दिन हाथ में कुल्हाड़ी थमा दी, जंगल से ईंधन काट लाने के लिए । सभी आश्रमवासियों को दैनिक जीवन को कठोर श्रम से संजोना पड़ता था । अपवाद या छूट के पात्र रोगी या असमर्थ ही हो सकते थे । 

दास चीरित्र इतना सम्मान पाकर लौटे थे कि वे अपने को दूसरे अर्हत के रूप में प्रसिद्ध करते थे । कुल्हाड़ी उन्होंने एक कोने में रख दी । मुँह लटकाकर बैठ गए । श्रमिकों जैसा काम करना अब उन्हें भारी पड़ रहा था । यों आरंभ के साधन काल में यह अनुशासन उन्हें कूट-कूट कर सिखाया गया था । 

अनाथ पिंडक उस दिन तो चुप रहे । दूसरे दिन कहा-''अर्हत को तथागत के पास रहना चाहिए । यहाँ तो हम सभी श्रावक मात्र है ।'' 

दास चीरित्र चल पड़े और श्रावस्ती पहुँचे। बिहार में तथागत उपस्थित न थे। वे भिक्षाटन के लिए स्वयं गए 
हुए थे । तीसरे प्रहर लौटने की बात सुनकर उनको अधीरता भी हुई और आश्चर्य भी । इतने बड़े संघ के अधिपति द्वार-द्वार पर भटकें और भिक्षाटन से मान घटाएँ, यह उचित कैसे समझा जाय? 

बेचैनी ने उन्हें प्रतीक्षा न करने दी और वहाँ पहुँचे जहाँ तथागत भिक्षाटन कर रहे थे, साथ ही मार्ग में पड़े उपले भी दूसरी झोली में रख रहे थे, ताकि आश्रम के चूल्हे में उसका उपयोग हो सके । 

अभिवादन-उपचार पूरा भी न हो पाया था कि मन को जानने वाले बुद्ध ने दास चीरित्र से कहा-''अर्हत ही बनना हो तो अहंता गलानी और छोटे श्रम को भी गरिमा प्रदान करनी चाहिए । इसके बिना पाखंड बढ़ेगा और सत्य 
पाने का मध्यांतर बढ़ेगा ।'' समाधान हो गया । अहंता गली और श्रावक-व्रत फिर से निखर आया । 

न्यायाधीश की नीति-निष्ठा 

बंगाल के न्यायाधीश नीलम बंद्योपाध्याय ने एक बीमा एजेंट के फुसलाने पर पाँच हजार का बीमा करा लिया । मधुमेह की बीमारी होते हुए भी स्वास्थ्य विवरण में उस बात को छिपा दिया गया । लंबी बीमारी के बाद जब  बंद्योपाध्याय महोदय का अंतकाल निकट आया तो उनने बीमा एजेंट को बुला कर उसे बेईमानी का इकरारनामा लिखा और बीमे को रह करा दिया । बोले-'' जीवन भर बुराइयों से बचता रहा तो मरते समय यह पाप सिर पर लाद कर क्यों मरूँ ?'' 

बापू की वेदना 

बापू के पैरों में बिवाई फट गई थीं ।
''बा'' गरम पानी से उसको धो रही थीं । पानी बेकार न जाने पाये इसलिए बापू की हिदायत के अनुसार वे उसे इधर- उधर नहीं, पौधों में ही डालती थीं । 

उस दिन पानी ''बा'' ने गुलाब के पौधों में डाला । बापू बहुत देर तक गुलाबों को नाराजी की दृष्टि से देखते रहे । ''बा'' ने कारण पूछा, तो बापू ने कहा- ''सुंदर होते हुए भी यह फूल मुझे काँटों जैसे बुरे लगते हैं । इनके स्थान पर यदि शाक उगाये होते, तो उनसे हममें से किसी का पेट तो पलता । श्रम का कुछ सार्थक परिणाम तो हाथ लगता । 

राजेन्द्र बापू की सरलता 

बात सन् ११३५ की है । राजेन्द्र बाबू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे । उन्हें किसी काम से प्रयाग से निकलने वाले अंग्रेजी लीडर के संपादक श्रीचिंतामणि से मिलना था । 

चपरासी को कार्ड दिया । वह संपादक की मेज पर रखकर लौट आया और प्रतीक्षा करने के लिए कहा । 

राजेन्द्र बाबू के कपड़े वर्षा से भीग गए थे । समय खाली देखकर वे उधर बैठे मजदूरों की अँगीठी के पास खिसक गए और हाथ सेंकने तथा कपड़े सुखाने लगे। 

थोड़ी देर में कार्ड पर नजर गई तो संपादक जी हड़बड़ा गए और उनके स्वागत के लिए स्वयं ही दौड़े । पर 
राजेन्द्र बाबू कहीं नजर न आए । 

ढूँढ़ खोज हुई तो वे अँगीठी पर तापते और कपड़े सुखाते पाये गए । चिंतामणि जी ने देरी होने और कार्ड पर ध्यान न जाने के लिए माँफी माँगी । हँसते हुए राजेन्द्र बाबू ने कहा-''इससे क्या हुआ। कपड़े सुखाना भी एक काम था । इस बीच निपट गया तो अच्छा ही हुआ। 

फोर्ड जिनने अपनी कमाई परमार्थ में लगाई 

छोटे से घर में जन्म लेकर संपन्नता की पराकाष्ठा तक पहुँचने पर भी महापुरुष कभी बदलते नहीं । हेनरी फोर्ड अमेरिका के एक छोटे से ग्राम ग्रीन फील्ड में जन्मे । घर की आर्थिक 
स्थिति खराब होने से उन्हें बारह वर्ष की आयु से ही नौकरी, रात में पढ़ाई और मस्तिष्क में मशीनों का बनाना, सुधारना, इस प्रकार उनकी पूरी दिनचर्या उद्देश्यपूर्ण कार्यों में लग गई, 
लगाई जबकि दूसरे गरीब लड़के आवारागर्दी में लगे रहते । 

लगन की प्रचंड शक्ति ने हेनरी को स्वावलंबी, इंजीनियर एवं मैकेनिक बना दिया । उसने कई तरह की मशीनों को बनाया और सुधारा । स्थान उसे इस दिशा में निष्णात बनाती रही । फोर्ड ने मोटर बनाने का नया कार्य हाथ 
में लिया और वह बिगड़ते-सुधरते सफलता के स्तर तक पहुँच गया । उसने जलयान भी बनाये । 

अमेरिका में हेनरी फोर्ड का कारखाना प्रथम श्रेणी का है । उसमें ५० हजार व्यक्ति काम करते हैं और हर 
मिनट में एक मोटर तैयार होती है। श्रमिकों की सुविधा का उसने पूरा ध्यान रखा है । साथ ही जो कमाया उसका 
अधिकांश भाग जन कल्याण के कार्यों के लिए दान किया । उसके दान में किसी देश-जाति का कोई भेदभाव नहीं 
रखा गया । अब तक वे अरबों-खरबों दान कर चुके हैं । फोर्ड फाउंडेशन द्वारा अनेक परमार्थ-कार्य चलते हैं। 

परमहंस की विनम्रता और सादगी 

डा० महेन्द्रनाथ सरकार कलकत्ता के प्रख्यात और संपन्न चिकित्सक थे । वे रामकृष्ण परमहंस से मिलेने गए । परमहंस जी बगीचे में टहल रहे थे । उन्हें माली समझा गया और कहा-''ऐ 
माली, थोड़े से फूल तो लाकर दे । परमहंस जी को भेंट करने है ।'' 

उनने अच्छे अच्छे फूल तोड़कर उन्हें दे दिए । थोड़ी देर में परमहंस जी सत्संग स्थान पर पहुँचे । डा० सरकार उनकी विनम्रता पर चकित रह गए । जिसको माली समझा गया था वे ही परमहंस जी निकले । 

यह एक सबसे बड़ी विशेषता देव मानवों की होती है कि वे स्वयं जिस परमार्थ कार्य को हाथ में लेते हैं, यह 
देख लेते हैं कि उसका सुनियोजन होगा अथवा नहीं । सत्परामर्श द्वारा अपनी ब्राह्मण वृत्ति की शिक्षा अन्यान्यों को भी 
देकर सन्मार्ग का पथ प्रशस्त करते हैं । 

ईश्वरचंद्र विद्यासागर से एक लड़के ने एक पैसा माँगा जिससे वह अपना पेट भर ले । पूछा-''दो पैसा दूँ तो ?'' तब एक पैसे के चने अपनी स्त्री माता के लिए ले जाऊँगा ।'' फिर पूछा गया कि एक रुपया दूँ तो ?'' बच्चे ने कहा-''तब बाजार में घूम कर सामान बेचूँगा और स्वावलंबन पूर्वक आजीविका चलाऊँगा।"  विद्यासागर ने उसे एक 
रुपया दे दिया । 

बहुत दिनों बाद वे उधर से निकले तो देखा कि एक युवक छोटी दुकान चला रहा है । युवक ने उन्हें पहचान 
लिया और कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा-''यह आपके ही अनुदान का प्रभाव है कि भीख सदा के लिए छूट गई।'' 
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