प्रज्ञा पुराण भाग-2

।। अथ पञ्चमोऽध्याय: ।। अनुशासनानुबंधप्रकरणम् -5

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सृष्टिस्थितौ हि सर्वत्र व्यवहारोऽभिजायते ।
अनुशासनज: सर्वे निर्जीवा जीविनोऽथवा ।। २८ ।।
ग्रहा: पदार्था: पिण्डाद्या यनस्पतिसमा अपि ।
अनुशासनसम्बद्धाः स्थिरा: सन्त्यात्मसत्तया ।। २९ ।।
एषु येऽपि च गृह्णन्ति स्वेच्छाचारं व्रजन्ति ते ।
विनाशं स्वयमन्येभ्यो विपत्तीर्भावन्त्यपि ।। ३० ।।

टीका-सृष्टि व्यवस्था में सर्वत्र अनुशासन ही बरता जा रहा है । ग्रह-पिंड, पदार्थ, वनस्पति तथा सजीव-निर्जीव सभी सृष्टि व्यवस्था के अनुशासन में जकड़े रहकर ही अपनी सत्ता बनाए हुए हैं । इनमें से जो भी स्वेच्छाचार बरतता है, वह स्वयं तो नष्ट होता ही है, दूसरों के लिए भी विपत्ति खड़ी करता है ।। २८- ३० ।।

अर्थ- मनुष्य की काया से लेकर जीव-जंतु समुदाय तक, पदार्थो में दौड़ लगाते अणु-परमाणु समूहों से लेकर ब्रह्मांडव्यापी ग्रह-नक्षत्रों तक तथा विराट् प्रकृति के अनन्य घटक वृक्ष-वनस्पति समुदाय तक
में एक ही एकात्म भाव समाया हुआ है । वह है समष्टिगत अनुशासन का । कोई भी क्रिया-व्यापार अनुशासन की परिधि से बाहर नहीं है । यदि ऐसा न होता तो सारी सृष्टि में अराजकता की स्थिति आ गयी
होती एवं विधाता का सारा सिराजा बिखर गया होता । इसका दूसरा पक्ष भी उतना ही सही है । जो भी इस नियम को तोड़ता एवं प्रकृति व्यवस्था के प्रतिकूल आचरण करता है, उसे स्वयं दंड भुगतना पड़ता है।
बिगाड़ से अव्यवस्था उत्पन्न कर समूह के अन्य घटकों के लिए तो विपदा वह उत्पन्न कर ही जाता है ।

ब्रह्मांडव्यापी अनुशासन 

विश्व ब्रह्मांड के समस्त ग्रह-नक्षत्र अपनी सूत्र-संचालक आकाश-गंगाओं के साथ जुड़े हैं और आकाश-गंगाएँ महातत्व हिरण्यगर्भ की उँगलियों में बँधी हुई कठपुतलियाँ भर हैं । अगणित सौर मंडल भी एक-दूसरे का परिपोषण करते हुए अपना क्रिया-कलाप चला रहे हैं । सूर्य ही अपने ग्रहों को गुरुत्वाकर्षण में बाँधे हो और उन्हें ताप-प्रकाश देता हो सो बात नहीं है, बदले में ग्रह परिवार भी अपने शासनाध्यक्ष सूर्य का विविध आधारों पर पोषण करते हैं । सौर परिवार के ग्रह अपनी जगह से छिटक कर किसी अंतरिक्ष में अपना कोई और पथ बना लें तो फिर सूर्य का संतुलन भी बिगड़ जायेगा और वह आज की स्थिति में न रहकर किसी चित्र-विचित्र विभीषिका में उलझा हुआ दिखाई देगा ।

अपना सूर्य ही नहीं, इससे भी हजारों गुने बड़े सूर्य करोड़ों की संख्या में अपने सौर मंडलों सहित ब्रह्मांड में घूम रहे हैं । उन सबकी गरिमा का लेखा-जोखा कैसे लिया जाय? पर देखते हैं कि वे समस्त शक्ति केन्द्र अपने-अपने कार्य में नियमितता, व्यवस्था और मर्यादा लेकर चल रहे हैं । कहीं न उद्धतता है, न उच्छृंखलता । निर्धारित कर्तव्य-कर्म के अणु से लेकर महत् तक सभी पालन कर रहे हैं । यदि ऐसा न होता तो यह इतना बड़ा ब्रह्मांड-व्यवसाय एक क्षण में बिखर जाता । ग्रह-नक्षत्र आपस में टकरा जाते या शक्ति का व्यतिक्रम करके सारी ईश्वरीय व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करके रख देते ।

चिकित्सक का परामर्श 

राजमहिषी को क्षयरोग हो गया । चिकित्सा के लिए जीवक बुलाए गए । उनने कहा-'' एक महीने एक करवट से, दूसरे महीने दूसरे करवट से, तीसरे महीने ऊपर को मुँह करके लेटना पडे़गा । यदि यह शर्त स्वीकार हो तो मैं इलाज करूँगा ।'' रानी सहमत हो गई । जीवक ने कहा-''तो आपका निरोग होना निक्षित है ।'' रोगी यदि पथ्य सें रह सके, चिकित्सक का अनुशासन मान सके तो उसके रोग मुक्त होने में कोई संदेह नहीं । जो पथ्य से नहीं रहते उन्हीं का रोग असाध्य होता है ।

प्रकृति का दंड 

आस्ट्रिया के डाक्टर क्रिथ के दवाखाने में मरीजों की भीड़ लगी रहती, पर वे इस असमंजस में फँसे रहते कि आदमी कीमती आहार-विहार भोगने पर भी बार-बार बीमार क्यों होता है? दूसरा प्रश्न उनके मन में यह उठा कि पशु-पक्षी क्यों रोगग्रस्त नहीं होते?

इसका कारण तलाश करने पर वे इस नतीजे पर पहुँचे कि प्रकृति के अनुबंधों को तोड़ना, प्रकृति का अनुसरण न करना ही इसका एक मात्र कारण है । रोगी होने पर इलाज करने की अपेक्षा यह क्या बुरा है कि रोगी हुआ ही न जाय । उनने आहार-विहार का प्राकृतिक तरीका ढूँढ़ा और जो भी मरीज उनके यहाँ आते, उन्हें वही अपनाने के लिए कहते । फलत: मरीजों की संख्या तो घटी और जिनने उनकी शिक्षा मानी, वे बीमार पड़ने से सदा के लिए बच गए । वे कहते थे प्रकृति की ओर लौटो । इसका प्रयोग जिनने भी किया, वे बीमारियों से सदा के लिए बच गए ।

किसान की शिक्षा 

कुँए पर रहट चल रही थी । घुड़सवार ने घोड़े को पानी पिलाने के लिए इधर मोड़ा तो वह आवाज सुनकर बिदकने लगा । पीठे हटता, आगे न बढ़ता ।
इस पर सवार ने अकड़कर किसान से कहा-''आवाज बंद करो ।'' किसान ने रहट बंद कर दी ।

घोड़ा आगे तो बढ़ा पर तब तक नाली में पानी बहना ही बंद हो चुका था । सवार फिर अकडा-''पानी तो खोलो ।"

किसान ने नमता से कहा-''पानी तभी बहेगा, जब रहट चले । रहट चलेगी तो आवाज होगी ही । आप नीचे उतरें, घोड़े की लगाम थामें और उसे पानी पिला दें।''

पानी पी लेने के बाद किसान ने नम्रता से सवार को समझाया कि कुछ पाने के लिए अनुशासन का क, ख, ग, स्वयं से आरंभ करना पड़ता है ।

अनुशासनपराश्चात्र संयुक्तां सैनिका निजाम्।
परिचाययन्ति शक्तिं ते लोके मान्या भवन्ति च ।। ३१।।

टीका-सैनिक अनुशासन पालते अरि संयुक्त शक्ति का परिचय देते हैं, इसी से सभी पर उनकी धाक रहती है ।। ३१ ।।

अर्थ-जीवन क्षेत्र में भीं अनुशासन पालन करने वाले अपनी धाक जमाए और दूसरों पर छाए रहते हैं । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण गाँधी जी थे ।

फर्मे जलवा दिए 

गाँधी जी अनुशासन और प्रामाणिकता के कट्टर पक्षपाती थे । वे चाहते थे कोई काम अप्रामाणिक न हो और व्यक्ति अनुशासनहीनता न बरते ।

स्वर्गीय गोखले के लेखों और भाषणों का अनुवाद गुजराती में करने का कार्य एक सज्जन को सौंपा गया । वह छपने भी लगा। उसकी भूमिका गांधी जी को लिखनी थी । छपे फर्मे सामने आये और अनुवाद का स्तर देखा गया तो वह घटिया प्रतीत हुआ ।

गांधी जी ने कहा-''अप्रामाणिक वस्तु जनता को दूँ, यह मुझसे न हो सकेगा ।'' उन्होंने सारे छपे हुए फर्मे जलवा डाले, उन्हें रद्दी में भी नहीं बेचने दिया गया ।

सामान्य लोगों का कल्याण इसी में है कि वे ऐसे महापुरुषों के कथन की अनसुनी न करें, अपितु अनुगमन करें ।

पूर्वाग्रह छोडे़-समाधान पायें

मनुष्यों ने दु:खद परिस्थितियों के निवारण हेतु ब्रह्माजी से प्रार्थना की । उनने समाधान के लिए देवदूत भेजना स्वीकार कर लिया ।

स्वार्थ और अहंकार से घिरे मनुष्य अपनी मर्जी तो देवदूतों से पूरी कराना चाहते थे पर उनकी बात सुनने-मानने के लिए तैयार न थे । सो कोई बात बनते, रास्ता न निकलते देखकर देवदूत वापस चले गए।

स्थिति और भी अधिक बिगड़ती गई । देवताओं का अनुग्रह पाने के अतिरिक्त बचने का और कोई उपाय न देखकर मनुष्यों ने फिर ब्रह्मा जी से वही प्रार्थना की।

ब्रह्मा जी इसी शर्त पर भेजने को तैयार हुए कि वे अपनी कामना-मान्यता देवताओं पर न थोपें, वरन् उनको सुनें और जो कहा जाय उसे अपनायें ।

मनुष्य तैयार हुए तो देवदूत आये और गुत्थियों को सुलझा गए ।

पहले खुद तो अनुशासित बनो 

एक गृहस्थ अपनी पत्नी-बच्चों समेत लंबे प्रवास पर जा रहा था । रास्ते में एक पेड़ के नीचे टिके । बच्चों को भूख लगी । विचार हुआ आग जलाई जाय और कुछ पकाकर खाया जाय । बड़ा लड़का लकड़ी बीनने चला । मँझला भी दूसरी ओर चल पड़ा । तीसरे छोटे ने कहा कि मैं क्या ऐसे ही बैठा रहुँगा । मैं भी कुछ तो बीन कर ला ही सकता हूँ ।

तीनों छोटे-बड़े लकड़ियाँ बीनकर लाए । पेड़ पर एक भूत रहता था । उसने हँसकर कहा-''तुम्हारे पास पकाने-खाने को तो कुछ है नहीं । लकड़ियाँ जलाने भर से पेट कैसे भरेगा?''

तीनों बच्चों और दोनों अभिभावक । सबों ने मिलकर कहा-''तुझे पकाकर खाएँगे ।''

भूत डर गया । जिनमें इतनी एकता है, वे जरूर मुझे भी मार कर खा जाएँगे । उसने कहा-''मुझे न मारना मैं तुम्हें पास में गड़ा खजाना बताए देता हूँ । उसे खोद लेना और जिंदगी चैन से बिताना ।''

खजाना पाकर वे बहुत खुश हुए और हँसते हुए पर लौट गए ।

भूत द्वारा खजाना बताए जाने का कारण और विवरण पड़ोसियों ने सुना तो उनमें से एक वैसा ही नाटक करने के लिए उसी पेड़ के नीचे पहुँचा और रात को ठहर गया, लकड़ी बीनने का ड्रामा फिर होने लगा ।

तीनों लडके एक दूसरे को लकड़ी बीनने का हुक्म दे रहे थे पर स्वयं कोई जा नहीं रहा था । झगड़ा-झंझट न निपटा तो माँ-बाप ही किसी प्रकार आपस में लड़ते-झगड़ते लकड़ी बीन कर लाए और जलाने का उपाय करने लगें ।

भूत ने भी पिछले दिन की तरह ही पूछा-''मूर्खो । तुम्हारे पास कुछ पकाने को तो है नहीं, खाओगे क्या?'' उनमें से एक बोला-''तुझे खाएँगे ।''

भूत ने कहा-''मुझे खा सकने वाले कल आये थे जो खजाना लेकर चले गए । तुम्हें तो आपस में लड़ने-झगड़ने से ही असत नहीं, मुझे क्या खाओगे ।''

भूत विकराल वेश बनाकर उन्हें काटने दौड़ा तो वे पाँचों जान बचाकर मुट्ठी बाँधकर दौड़े और जैसे-तैसे खाली हाथ यर पहुँचे ।

लघव: कीरकास्ताश्च चीटिका मधुमक्षिका:।
वल्मीककृमयश्चाऽपि, तेऽनुशासनगौरवम् ।। ३२ ।।
जानन्ति मानवा एव ततः किं ज्ञानशीलताम्।
परित्यज्य हि स्यीकुर्युरौच्छंच्छृञ्यमनीप्सितम् ।। ३३ ।।
अपमानं गरिम्णो यत्तस्य नूनं च विद्यते ।
व्यवहारे नात्ममानी तत् कदाचिन्नियोजयेत् ।। ३४ ।।

टीका-चींटी, दीमक तथा मधुमक्खी जैसे छोटे कृमि-कीटक अनुशासन का महत्व समझते हैं, फिर मनुष्य ही क्यों अपनी विवेकशीलता खोकर अनभीष्ट उच्छृंखलता बरते । यह उसकी गरिमा का अपमान है, जिसे कभी भी आत्म-सम्मानी को अपने व्यवहार में सम्मिलित नहीं होने देना चाहिए ।। ३२-३४ ।।

अर्थ-यहाँ पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं के उदाहरणों द्धारा प्रकृतिगत अनुशासन की महत्ता बताते हुए मनुष्य के लिए तो उसे अनिवार्य बताया ही गया है । मनुष्य जीवधारी समुदाय में सर्वश्रेष्ठ बुद्धि संपन्न प्राणी माना जाता है । उससे तो विधाता की अपेक्षाएँ और भी अधिक हैं ।

बूँद को विलय न रुचा 

बूँद की समुद्र में अपनी सत्ता का विलय अच्छा न लगा । वह अपनी अहंता और पृथकता बनाये रखना चाहती थी । नदियों ने उसे इस आग्रह से विरत भी किया पर वह मानी नहीं । अलग ही बनी रही ।

कड़ाके की धूप निकली और वह भाप बनकर हवा में उड़ गई । बादलों के साथ मिलना उसे फिर पसंद नहीं आया ।

रात हुई और वह पत्तों पर ओस बनकर अलग- थलग पड़ी रही । धूप रोज निकलती, उसे ऊपर उठातीं पर
उसे नीचे ही गिरना पसंद जो था ।

सर्प ने उस ओस को चाटा और विष में बदल दिया ।

जो न समुद्र बनते है और न बादल, ऐसे उच्छृंखलों को विष बनकर रहना पड़ता है।

शक्ति प्रदर्शन नहीं, सेवा 

आँधी ने मंद वायु से कहा-''शक्तिवान बनने में ही गौरव है, मैं जब अपने वेग के साथ चलती हूँ तो पेड़ उखड़ जाते हैं, तालाबों का पानी उछलने लगता है, प्राणियों की मेरे सामने ठहरने की हिम्मत नहीं होती, सभी अपना बचाव करने के लिए छिपते फिरते हैं । जिंदगी ऐसी जीनी चाहिए कि लोग जिसका लोहा मानें और डरते रहें ।''

मंद वायु बोली-''दीदी, तुम सामर्थ्यवान हो, जो चाहो सो कर सकती हो, पर मुझे तो सेवा में आनंद आता है । धीमी चलती हूँ ताकि किसी को कष्ट न हो, निरंतर बहती हूँ ताकि सेवा के आनंद से क्षण भर के लिए भी वंचित न रहना पड़े । मुरझाये चेहरों पर शीतल सुगंधित पंखा झलते हुए जो संतोष प्राप्त होता है मेरे लिए वही बस है । तुम्हें शक्ति का हर्ष प्रिय लगता है पर मेरे लिए तो सेवायुक्त समर्पण ही सब कुछ है ।''

अशोक का सर्वमेध 

विधाता के अनुशासन को किसने अपने जीवन में कितना उतारा इसकी कसौटियाँ अलग-अलग हैं ।

उन दिनों धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए अधिक दान करने की प्रतिस्पर्धा समर्थों के बीच चल रही थी । तथागत ने लेखाध्यक्ष से पूछा-''इस वर्ष संबसे बड़ी राशि किसने प्रदान की?''

कोष पुस्तिका देखकर उनने बताया-''इस वर्ष के अनाथ पिंडक सबसे बड़े दानी हैं । उन्होंने सौ करोड़ मुद्राएँ संघाराम के लिए भेजी है ।''

सम्राद अशोक वहाँ सभा में मौजूद थे । सोचने लगे- 'जब सामान्य व्यक्ति इतना दान कर सकता है, तो वे ही क्यों पीछे रहें।' उनने घोषणा की कि राज्यकोष में जो है, सो अभी और शेष क्रमश: भेजते हुए वे भी सौ करोड़ मुद्राएँ दान करेंगे ।

क्रम चल पड़ा । राज्य कोष में जितना जुड़ता, उतना संघाराम के पास पहुँच जाता ।

लंबा समय बीता । अशोक का आयुष्य पूरा हो चला । रुग्ण शरीर मृत्यु के दिन गिन रहा था । उनने कोषाध्यक्ष को बुलाया और पूछा-''संकल्पित राशि संघाराम के पास पहुँची या नहीं?'' लेखा देखकर उनने
बताया-''अभी ९६ करोड़ ही पहुँचा है । चार करोड़ देने बाकी हैं ।''

समय निकट आया देखकर अशोक ने अपने निजी प्रयोग के सभी पात्र-उपकरण भेज दिए और स्वयं मृतिका पात्रों में खाने और भूमि पर सोने लगे । इतने पर भी राशि पूरी न हुई । मृत्यु का निमंत्रण आ पहुँचा ।

आशोक ने चारों ओर दृष्टि पसारी । जो शेष हो, उसे भी भेजा जाय । देखा तो सिरहाने आज के आहार में एक
सूखा आँवला सामने था । उन्होंने उसे उतया और बौद्ध-विहार भेजते हुए कहा-'' जो शेष था, जा रहा है । इसी से
संकल्प को पूर्ण कर लिया जाय ।''

सूखा आँवला पीसकर उस दिन के महाप्रसाद में मिला दिया गया । घोषित किया गया कि सर्वमेध की यह पूर्णाहुति दान संपदा में सर्वश्रेष्ठ मानी जाय । महत्व दान का नहीं, इस आत्मानुशासन का है जो सम्राट् ने जीवन की इस संधि वेला में अपने जीवन पर लागू किया ।

सम्मानं नृगरिम्ण: सा ह्यनुशासनसंसृति: ।
अनुशासिता: समर्था: स्युरन्यांश्चाप्यनुशासितान् ।। ३५ ।।

टीका-अनुशासन पालना मानवी गरिमा का सम्मान है । जो अनुशासन पालते हैं, वे ही दूसरों को अपने अनुशासन में रख सकने में समर्थ होते हैं ।। ३५ ।।

अर्थ-स्वयं अपने पर अनुशासन निभा पाने में ही वह समर्थता विकसित हो पाती है, जिसमें वह अन्य व्यक्तियों के लिए अनुकरणीय बनता है । जीवन की दैनंदिन गतिविधियों में इसका कितना समावेश
हुआ, इसी पर समर्थन-सहयोग एवं जब सम्मान निर्भर है।

निस्पृह तिलक 

लोकमान्या तिलक ने पूना में एक विद्यालय स्थापित किया । वे ही उसके व्यवस्थापक और प्रिंसपल थे । पूरे दिन लगे रहना पड़ता । वेतन मात्र तीस रुपया मासिक लेते ।

मित्रों ने कहा-''आपकी योग्यता तो इससे कहीं अधिक कमाने की है, फिर आपको अपने पद के अनुरूप शान से भी रहना चाहिए और भविष्य के लिए भी कुछ बचाना चाहिए । वेतन बड़ा क्यों नहीं लेते।" 

लोकमान्य ने कहा-''लोकसेवियों को भविष्य की चिंता ईश्वर पर छोड़ देनी चाहिए और खर्च के लिए औसत भारतीय स्तर पर ही निर्वाह रखना चाहिए । उतना मैं ले ही रहा हूँ । अधिक लेकर क्या करूँगा ।''

सादगी व आत्मानुशासन की गरिमा

सांस्कृतिक परंपराओं का प्रचलन जातीय जीवन को अनुशासनबद्ध रखने के लिए हुआ था । देखने में आता है कि आज लोग उसकी भी उपेक्षा करन लगे हैं पालन करने से अपना गौरव घटता नहीं बढ़ता है। 

भारत के प्रथम राष्ट्रपति स्व० श्री राजेन्द्र प्रसाद ने प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश लिया। सादगी  उनके व्यक्तित्व की अपनी एक महती विशेषता थी ।

जब पहले दिन वे कक्षा में गए तो अचकन, पाजामा और टोपी पहने हुए थे । शेष सब लड़के कोट, पतलून तथा टाई में थे ।

वे सब लड़कों को देखकर समझे कि इनमें अधिकांश एंग्लो इंडियन होंगे और उन्हें देखकर सब लड़कों ने ऐसा भाव व्यक्त किया जैसे पूछ रहे हों, 'कहाँ से रस्सा तुड़ाकर भाग आये हो' । बहुत मजाक बनाया सबने उनका ।

जब कक्षा में प्राध्यापक आये और सबका नाम व परिचय सबको मिला तो दोनों ही आश्चर्य में थे ।

राजेन्द्र बाबू इसलिए कि मालूम पड़ा कि सभी विद्यार्थी भारतीय ही थे । और शेष विद्यार्थी इसलिए कि राजेन्द्र बाबू ने जिन्हें वे निरा गँवार ही समझ रहे थे, विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था ।

विद्यार्थी अब आश्चर्यचकित थे उनकी सादगी तथा भारतीय वेषभूषा में छिपी ज्ञान गरिमा पर । उन्होंने फिर कभी मजाक नहीं बनाया । यही राजेन्द्र बाबू आगे चलकर भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने ।

नेपोलियन की सेना अजेय क्यों? 

कैसर (जर्मन का शासक) फ्रांस के शासक नेपोलियन का अतिथि था । उसने नेपोलियन से पूछा-''आपके पास कौन सी ताकत है? सेना की संख्या तथा युद्ध के साधन औरों के समान ही हैं । फिर ऐसी कौन सी शक्ति है, जो आप अजेय रहते हैं'?'' नेपोलियन ने कुछ दिन बाद
उत्तर देने का वायदा किया ।

एक दिन सबेरे कैसर समुद्र के किनारे टहल रहे थे । देखा सेना की एक टुकड़ी अपने टोप में पानी भरकर उसकी धार को जाँघ पर छोड़ते हुए उसे रस्सी की तरह बँटने का प्रयास कर रहे हैं । उनसे पूछा-''यह क्या कर रहे हो?'' सीधा सा उत्तर मिला-''जैसा हमारे नायक ने हुक्म दिया ।''

कैसर ने नायक से पूछा तो उसने भी कहा-''हमारे अफसर ने ऐसा ही करने को कहा था । '' कैसर खीझ कर बोले-''अजीब तुम्हारा अफसर और अजीब हो तुम । ऐसे बेवकूफी के काम में सैनिकों को लगा रखा है ।''

नायक की त्योरी चढ़ गयी । बोला-''सर, आप शाही मेहमान हैं, इसलिए सम्मानीय हैं । आप ऊपर तक हुक्म का कारण पूछ सकते हैं, लेकिन हमारे तंत्र को मूर्ख मत कहिए । जो बात एक बच्चा भी समझ सकता है, उतनी बात भी समझने की अक्ल जिसमें नहीं ऐसा आदमी अधिकारी तो क्या सैनिक भी नहीं बन सकता । हुक्म दिया गया है तो उसके पीछे कोई और वजह होगी जो न मैं जानता हूँ न आप ।''

कैसर नायक की निष्ठा और दृढता से प्रभावित हुए । उन्होंने कारण जानने का प्रयास किया । मुख्य सेनाधिकारी तक पहुँचने पर पता चला, यह हुक्म स्वयं सम्राट् नेपोलियन द्वारा दिया गया था । जिनसे भी बात की, सभी में नायक जैसी ही अनुशासन वृत्ति देखी गयी ।

दोपहर के भोजन के समय कैसर ने नेपोलियन से इस घटना की चर्चा की और पूछा कि आपने ऐसा हुक्म क्यों दिया? नेपोलियन मुस्कराये, बोले-''आपके प्रश्न का उत्तर जो देना था । मैने और मेरे अधिकारियों ने अपनी प्रामाणिकता और व्यवहार की ऐसी छाप अपने साथ वालों पर छोड़ी है कि वे हमारे निर्देश के बाहर कुछ सोचते ही नहीं । पूरी निष्ठा से जुट पड़ते हैं । यह जन विश्वास ही मेरी अजेय शक्ति है । मैंने अनुशासन में बाँधकर ही उन्हें वह मूल मंत्र दिया है, जिसके कारण वे पराक्रम दिखा पाने में समर्थ हो पाते हैं।" 

कर्तुमुच्छृंखला ये सु स्वयं ताहक् प्रतिक्रिया: ।
अयोग्या सम्मुखे तेषामुपयान्ति सुपीडका: ।। ३६ ।।
प्रकृतेरनिवार्येयं दण्डदानव्यवस्थिति: ।
श्रमं कर्तुं विशीर्णां तां नाह्वयेत्राशमात्मनः ।। ३७ ।।

टीका-उच्छृंखलता अपनाने वालों को बदले में वैसी ही अनुपयुक्त प्रीतक्रिया का सामना करना पड़ता है । प्रकृति की दंड व्यवस्था अपरिहार्य है । उसे अस्त-व्यस्त करने के प्रयत्न-अपना सर्वनाश करने की मूर्खता-किसी को नहीं करनी चाहिए ।। ३६- ३७ ।।

उच्छृंखलता न अपनायें 

जंगल का राजा शेर नदी किनारे बैठकर अपने मंत्रियों से पूछने लगा-''नदी का पानी आगे कहाँ जायेगा? 

मंत्रियों ने बताया-''वह अगले देश में जायेगा, जहाँ आपके शत्रु का राज्य है ।''

सिंह आग बबूला हो गया । जंगल के सब जानवरों को बुलाकर नदी को बाँधने का हुक्म दिया । बाँध बनते बनते बाढ़ आ गई और सिंह का सारा परिवार डूब कर मर गया ।

मंत्री ने बांध तुड़वाया और कहा-'' उच्छृंखलता अपनाने वालों की ऐसी ही दुर्गति होती है ।''

बेचारे साधक 

आज उपदेष्टा तो अगणित मिलेंगे, पर आचरण करने वाले तो ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते । यह ऐसा है, जैसे एक बार चार साधकों ने एक सप्ताह तक मौन व्रत पालन की प्रतिज्ञा ली और किसी एकांत आश्रम में साथ-साथ रहने लगे ।

दूसरे दिन दीपक का तेल चुकने लगा तो एक ने नौकर से कहा-''तेल डाल दो ।''

दूसरे ने यह देखा तो संकल्प तोड़ने का उलाहना देते हुए बोला-''प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हें बोलना नहीं चाहिए था ।''

तीसरे ने दोनों को डांटा और कहा-''व्रत निभाते हो या चेंचें करते हो ।''

इस पर चौथे से भी न रहा गया और बोला-''मैं ही अकेला हूँ जो बोल नहीं रहा।''

यही है आज की स्थिति । लोग दूसरों के दोष बताते हैं पर यह भूल जाते हैं, कि स्वयं भी तो वही गलती कर रहे हैं । 

जी हुजूरी नहीं 

अनुशासन का अर्थ जी हुजूरी नहीं, अपितु यथार्थ के प्रति सत्याग्रह और कर्तव्यनिष्ठा है । एक बस के नीचे एक लड़का दब गया । सामने से पंडित नेहरू की कार आ रही थी । वे बच्चे को अस्पताल ले जाने की तैयारी करने लगे । भीड़ को मालूम पड़ा कि पंडित नेहरू की कार है, तो वे जय-जयकार के नोर लगाने लगे । नेहरू जी भीड़ पर झल्ला पड़े कि आप लोगों को शर्म नहीं आती । बच्चे को गाड़ी में रखवाने की बजाय जय-जयकार के नारे लगा रहे हैं ।
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