एकदा नैमिषारण्ये ज्ञानसंगम उत्तम: ।
मनीषिणां मुनीनां च बभूव परमाद्भुत: ।।१।।
काश्या: पाटलिपुत्रस्य ब्रह्मावर्तस्य तस्य च ।
आर्यावर्तस्य सर्वस्य यानि क्षेत्राणि सति तु ।।२।।
कपिलवस्तोर्विशेषेण तेभ्य: सर्वेऽपि संगता:।
प्रज्ञापुरुषसंज्ञास्ते मूर्धन्या धन्यजीवना: ।।३।।
टीका-एक बार मुनि-मनीषियों का एक उत्तम ज्ञान संगम नैमिषारण्य क्षेत्र में हुआ, जो अपने आप में बड़ा अद्भुत था । आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त, काशी, कपिलवस्तु पाटलिपुत्र आदि समीपवर्ती क्षेत्रों के सभी मूर्धन्य उत्तम जीवनयापन करने वाले प्रज्ञा पुरुष उसमें एकत्रित हुए ।। १-३ ।।
अर्थ-ज्ञान संगम इस भूमि की, ऋषि युग की विशेषता रही है । ज्ञान की अनेक धाराएँ हैं । अपने-अपने विषयों के विशेषज्ञ उन्हें समयानुरूप विकसित करते रहते हैं । विकसित धाराओं का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। वह तभी सं भव है, जब भिन्न-भिन्न धाराओं में हुए विकास को जन आवश्यकता के अनुरूप मिलाकर जन साधारण तक पहुँचाने योग्य बनाया जाय। प्राचीन काल में अध्यात्म और इस युग में विज्ञान का विकास इसी ढंग से संभव हुआ है ।
ज्ञान धाराओं का संगम तब संभव हो पाता है, जब उन्हें समझने और अपनाने वाले मूर्धन्य श्रेष्ठ व्यक्ति उसमें रुचि लें । जिन्होंने उन्हें विकसित किया, ऐसे प्रज्ञा- पुरुष और जिन्होने उन्हें जीवन सिद्ध
बनाया, ऐसे उत्तम जीवन जीने वाले अग्रगामी, दोनों ही प्रकार के सत्युरुष इस संगम में एकत्रित हुए हैं।
औषधियाँ बनायी जाती हैं फिर उन्हें निशित क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है । सेना के लिए अस्त्र विकसित किए जाते हैं; कुशल व्यक्तियों द्वारा उनका प्रयोग- परीक्षण किया जाता है । उसके आधार पर विकसित करने वाले तथा प्रयोग करने वाले गंभीर परामर्श करते हैं, संशोधन करते हैं, तब वह संगम
बनता हैं, जिससे व्यापक स्तर पर उन उपलब्धियों को व्यवहार में' लाया जा सके ।
समागमा: पुराप्येवं समये जनबौधका: ।
काले काले भवन्ति स्म: सद्विचाराभिमन्थनै: ।। ४ ।।
बहुमूल्यानि रत्रानि यथा सागरमंथनै ।
यत्र दिव्यानि सर्वाणि प्रादुर्भूतानि संततम् ।। ५ ।।
मनीषिणोऽभिगच्छेयुर्मार्गदर्शनमुत्तमम् ।
शोचितुं कर्तुमेवाऽपिं सहैवाऽत्र जना: समे ।। ६ ।।
लभन्तां समय मुक्त्यै काठिन्यात् प्रगते: पथि ।
गन्तुं चाऽपि समारोह एतदुद्दिश्य निक्षित ।। ७ ।।
टीका-समागम पहले भी समय- समय पर होते रहते थे, ताकि विचार मंथन से समुद्र मंथन की तरह कोई बहुमूल्य रत्न निकलें; मनीषियों को अधिक सोचने अरि करने का सामयिक प्रकाश मिले; साथ ही जन समुदायों को कठिनाई से छूटने और प्रगति पथ पर अग्रसर होने का अवसर उपलब्ध होता रहें । इस बार का समारोह भी इसी प्रयोजन के लिए नियोजित किया गया था ।। ४- ७ ।।
अर्थ-समुद्र मंथन से विचार मंथन अधिक लोकोपयोगी है । समुद्र मंथन से रत्न एक बार ही निकले थे, पर विचार मंजन से रत्नों की प्राप्ति हर काल में होती रहती है । इसलिए मनीषी लोग विचार मंथन के लिए एकत्र होते रहते हैं। यों विचार मंथन अकेले भी होता है; पर जब कई मनीषी एक साथ बैठकर
विचार मंथन करते हैं, तो एक दूसरे के विचारों को उभारने वाली प्रेरणा से, स्फूर्ति से सामान्य की अपेक्षा अनेक सुना लाभ मिलता है ।
सभी उपनिषद्, दर्शन आदि ऋषियों के विचार मंथन से उपजे रन हैं । वे अनंत काल से अगणित व्यक्तियों को लाभ पहुँचाते आ रहें हैं । योग और चिकित्सा के सूत्र भी ऐसे ही विचार मंथन से विकसित हुए हैं । प्राचीनकाल में मंत्रि- परिषदें राज्य की, समाज की विभिन्न समस्याओं के समाधान इसी प्रकार विचार मंथन से निकालती थीं । ऋषिगण भी अपने-अपने आश्रमों-आरण्यकों में यह क्रम चलाते थे । जब तक यह
परिपाटी चली, तब तक समयानुकूल विचारों, आदर्शों की शोध होती रही, आचरण होते रहे और सामाजिक
उत्कर्ष का क्रम सतत् चलता रहा ।
जिज्ञासानां समाधानहेतोरत्र विशेषत: ।
व्यवस्था विहिता प्रातर्नित्यकर्मविनिर्वृतौ ।। ८ ।।
सत्संगो निश्चित: सवैंस्तत्र रम्ये तपोवने ।
क्रम: सप्ताहपर्यन्तं भविष्यत्यपि निश्चित: ।। १ ।।
तद्दिने विधिवत्तस्य शुभारम्भो बभूव च ।
अभूत्तत्र समाध्यक्ष आश्वलायन उत्तम: ।। १० ।।
सर्वे कुर्वन्ति प्रश्नान् स्वान् सभाध्यक्ष: क्रमादसौ ।
उत्तर दास्यतीत्येवं व्यवस्था तत्र निश्चिता ।। ११ ।।
टीका-जिज्ञासाओं के समाधान के लिए उस समागम में विशेष व्यवस्था की गई थी । प्रात: नित्य कर्म से निवृत्त होने पर सत्संग चलाने का निश्चय उस रमणीय तपोवन में हुआ । एक सप्ताह तक यह क्रम चलना था । सो उस दिन उसका विधिवत् शुभारंभ हुआ । सत्राध्यक्ष आश्वलायन थे । ऐसी व्यवस्था थी कि प्रश्न कोई भी कर सकते थे और उत्तर सत्राध्यक्ष ही देते थे ।। ८- ११ ।।
प्रथमे दिवसे तत्र जिज्ञासा प्रस्तुतां व्यधात्।
ऐतरेयो महर्षि: स श्रेष्ठ आचारवान् मुनि: ।। १२ ।।
देव लब्धा: समानास्ता: सुविधा मानवै: समै: ।
प्रभुदत्ता: परं तेषु मानवा: केचनात्र तु ।। १३ ।।
उदरम्भरितायां ते सन्तानोत्पत्तिकेऽथवा ।
सीमिताश्च सदैवांत्र तैलयन्त्रवृषा इव ।। १४।।
जीवन यापयज्येवं पशुतुल्यस्थितिं गता: ।
ताडिता: पतिता: किं वा जनै: सवैंस्तिरस्कृता: ।। २५ ।।
संकटानात्महेतोश्च भावयन्ति सदैव ते ।
पातयन्ति जनानन्यान् पीडयन्त्यपि सन्ततम् ।। २६।।
टीका-प्रथम प्रस्तुत हुए सदाचारी मुनि श्रेष्ठ ऐतरेय ने पूछा-''हे देव ! मनुष्य
को ईश्वर प्रदत्त सभी सुविधाएँ प्राय: समान मात्रा उपलब्ध हैं । पर उनमें कुछ तो पेट-प्रजनन भर तक सीमित
रहकर कोल्हू के बैल के समान मरते- खपते पशुओं की तरह साँसें पूरी कर लेते हैं । कुछ पतित-तिरस्कृत
बनते, प्रताड़नाएँ सहते दिन गुजारते हैं। अपने लिए संकट खड़े करते और दूसरों को सदा गिराते-सताते रहते हैं ।। १२- १६ ।।
ईडशा अपि सन्त्यत्र जना ये स्वयमुन्नता:।
भवन्त्यन्यान् यथाशक्ति सदैवोत्थापयन्त्यपि ।। १७ ।।
तारयन्ति स्वयं श्रेयो यश: सम्मानमेव च।
सहयोग महामर्त्या विन्दन्त्येते सुरोपमा: ।। १८।।
असंख्या: प्रेरणा तेभ्य: प्राप्नुवन्ति च
पुरावृत्तकरास्तेषां गाथा: स्वर्णाक्षरेषु च ।। १९ ।।
लिखन्त्यस्या भिन्नतापा: कारणं किं च विद्यते ।
उच्यतां भवता देव ! विषयेऽस्मिंस्तु विस्तरात् ।। २० ।।
टीका-किंतु कुछ ऐसे भी होते हैं, जो स्वयं ऊँचे उठते, दूसरों को उठाते, पार करते श्रेय प्राप्त करते हैं । ऐसे देवोपम महामानवों को यश-सम्मान औरसहयोग भी मिलता है । असंख्य उनसे प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं । इतिहासकार उनकी गुण-गाथाएँ स्वर्णाक्षरों में लिखते हैं ।। इस भिन्नता का कारण क्या है ? सो समझाकर कहिए ।। १७- २० ।।
अर्थ-प्रश्नकर्ता ऋषि ने मनुष्यों को तीन स्तरों में विभाजित किया है ।
(१) वे, जो मनुष्य जन्म का भी पशु- स्तर तक ही प्रयोग करते हैं । विचार, भावना एवं विशेष क्रिया
शक्ति का प्रयोग ही नहीं करते । ढर्रे का जीवन भर जीते हैं ।
(२) वे, जो मनुष्य को प्राप्त विशेषताओं के उपयोग के लिए लालायित तो रहते हैं, पर उन्हें उत्थान
की जगह पतन की उल्टी दिशा में लगा देते हैं ।
(३) तीसरे वे, जो मानवीय विशेषताओं का सही का- से प्रयोग करने में सफल हो जाते हैं । प्रश्नकर्ता यह जानना चाहते हैं कि एक ही योनि के प्राणी मनुष्य में इतना अन्तर कैसे और क्यों हो जाता है?
आश्वलायन उवाच-
तात ! मर्त्या: समाना वै निर्मित्ता: प्रभुणा समे ।
प्रिया: सर्वेऽपि तस्यात्र निर्विशेष दयानिधे: ।। २९ ।।
सर्वेभ्यो व्यतरत् सोऽत्र समाना सुविधा: प्रभु: ।
मार्ग चिन्वन्ति मर्त्याश्च स्वेच्छया मार्गमाश्रिता: ।। २२ ।।
यान्ति तत्रैव यत्रायं विराम मार्ग प्रति च ।
उच्यते स्वार्थिनस्त्वत्र पशवो नररूपिण: ।। २३ ।।
स्वार्थमेवानुगच्छन्ति नरास्ते तु प्रतिक्षणम्।
अन्येषां सुखसौविध्ये सहयोगं न कुर्वते ।। २४ ।।
प्राप्रुवन्ति यंदवैतद निगिरन्ति च पूर्णत: ।
कष्टे कस्यापि नोदेति भावना प्रत्यहं च ते ।। २५ ।।
साहाय्यस्यापि नोदेति भावना प्रत्यहं च ते।
अन्विषन्ति परत्रेह निजास्ता: सुविधा: नरा : ।। २६।।
सहानुभूतिमेतेऽपि नाप्रुवन्ति च कस्याचित ।
जीवन्तो नीरसं मृयोर्दिवसान पूरयन्ति ते ।। २७ ।।
टीका-आश्वलायन बोले-हे तात ! भगवान् ने सभी मनुष्य समान बनाये हैं। उस दयानिधि को सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं । सभी को उसने समान सुविधाएँ तथा परिस्थितियाँ भी प्रदान की हैं । लोग अपनी इच्छानुसार मार्ग चुनते हैं और जहाँ वह मार्ग जाता है, वहाँ जा पहुँचते हैं । स्वार्थ-परायणों को नर- पशु कहते हैं । वे अपने काम से काम रखते हैं । दूसरों की सुख-सुविधा मे हाथ नहीं बँटाते । जो पाते हैं, निगलते रहते
हैं । किसी के दु:ख में उन्हें सहानुभूति नहीं उपजती । सहायता करने की इच्छा भी नहीं होती । लोक और परलोक
में अपनी ही सुविधाएँ खोजते हैं । ऐसों की किसी को सहानुभूति भी नहीं मिलती । फलत: वे एकाकी-नीरस
जीवन जीते हुए मौत के दिन पूरे करते हैं ।। २१-२७ ।।
अर्थ-दयालु परमपिता प्यार के नाते विकास के अवसर सभी को देता है । विकास के अवसरों का लोभ उठाकर जो व्यक्ति योग्यता बढ़ा लेते हैं, उन्हें वह महत्वपूर्ण कार्य योग्यताओं के आधार पर सौंपता है । विकास के अवसर और सौंपे गए कार्य, इन दोनों में अंतर न कर पाने से मनुष्य समझता है कि भगवान किसी को अधिक अवसर देता है किसी को कम ।
मार्गों के लक्ष्य निश्चित हैं; पर मनुष्य चुनते समय मार्ग के लक्ष्य की अपेक्षा मार्गों की सुविधाओं को रुचि अनुसार चुन लेता है । जो मार्ग पकड़ लिया, उसी के गंतव्य पर पहुँचना पड़ता है; फिर यह चाह महत्व नहीं रखती कि कहाँ पहुँचना चाहते थे ।
जो स्वार्थ तक ही सीमित हैं, वे नर- पशु हैं । पशु अपने शरीर निर्वाह, अपनी रक्षा और अपने वंश विस्तार से अधिक सोच नहीं पाते । मनुष्य सोचने की क्षमता रखता तो है; पर स्वार्थवश पशुओं की सीमा से आगे बढ़ता नहीं, इसलिए नर पशु कहलाता है ।
स्वार्थी किसी अन्य से सहानुभूति नहीं बरत पाता इसीलिए उसे भी वह नहीं मिलती । वह नीरस, एकाकी जीवन जीता है ।
पांडव बनाम कौरव
भीष्म पितामह ने राजकुमारी को शिक्षा-दीक्षा के लिए एक जैसी सुविधाएँ उपलब्ध करायी थीं । पांडवों ने उनमें से शालीनता- सहयोग का मार्ग चुना, कौरवों ने उद्दंडता और द्वेष का । दोनों ने मार्ग के अनुसार गति पाई । भगवान् श्रीकृष्ण ने दोनों को चुनाव का समान अधिकार दिया था । एक ने
साधन- वैभव की चाह की, दूसरे ने मार्गदर्शन की । जो मार्ग चुना गया, अनुरूप गति मिली ।
स्वार्थी इक्कड़ की दुर्गति
एक हाल बड़ा स्वार्थी और अहंकारी था। दल के साथ रहने की अपेक्षा वह अकेला रहने लगा । अकेले में दुष्टता उपजती है, वे सब उसमें भी आ गयीं । एक बटेर ने छोटी झाड़ी में अंडे दिए । हाथियों का झुंड आते देखकर बटेर ने उसे नमन किया और दलपति से उसके अंडे बचा देने की प्रार्थना की । हाथी भला था । उसने चारों पैरों के बीच झाड़ी छुपा ली और झुंड को आगे बढ़ा दिया । अंडे तो बच गए परं उसने बटेर को चेतावनी दी कि एक इक्कड़ हाथी पीछे आता होगा, जो अकेला रहता है और दुष्ट हैं उसने अंडे बचाना तुम्हारा काम है । थोड़ी देर में वह आ ही पहुँचा। उसने बटेर की प्रार्थना अनसुनी करके जान- बूझ कर अंडे कुचल डाले।
बटेर ने सोचा कि दुष्ट को मजा न चखाया तो वह अन्य अनेक का अनर्थ करेगा । उसने अपने पड़ोसी कौवे
तथा मेढक से प्रार्थना की । आप लोग सहायता करें तो हाथी को नीचा दिखाया जा सकता है । योजना बन गई । कौवे
ने उड़-उड़ कर हाथी की आँखें फोड़ दी । वह प्यासा भी था । मेढक पहाड़ी की चोटी पर टर्राया । हाथी ने वहाँ पानी
होने का अनुमान लगाया और चढ़ गया । अब मेढक नीचे आ गया और वहाँ टर्राया । हाथी ने नीचे पानी होने का
अनुमान लगाया और नीचे को उतर चला । पैर फिसल जाने से वह खड्ड में गिरा और मर गया ।
एकाकी स्वार्थ-परायणों को इसी प्रकार नीचा देखना पड़ता है ।
चुहिया ने चुना चुहा
एक सिद्ध पुरुष नदी में जान कर रहे थे। एक चुहिया पानी में बहती आई । उनने उसे निकाल लिया । कुटिया में ले आये और वह वहीं पल कर बड़ी होने लगी । चुहिया सिद्ध सिद्ध पुरुष की करामातें देखती रही, सो उसके मन में भी कुछ वरदान पाने की इच्छा हुई ।
एक दिन अवसर पाकर बोली-''मैं बड़ी हो गई, किसी वर से मेरा विवाह करा दीजिए ।''
संत ने उसे खिड़की में से झाँकते सूरज को दिखाया और कहा-''इससे करा दें।'' चुहिया ने कहा-''यह तो
आग का गोला है । मुझे तो ठंडे स्वभाव का चाहिए ।'' संत ने बादल की बात कही-''वह ठंडा भी है, सूरज से बड़ा
भी । वह आता है, तो सूरज को अंचल में छिपा लेता है ।'' चुहिया को यह प्रस्ताव भी रुचा नहीं । वह इससे बड़ा
दूल्हा चाहती थी । संत ने पवन को बादल से बड़ा बताया, जो देखते- देखते उसे उड़ा ले जाता है । उससे बड़ा पर्वत बताया, जो हवा को रोक कर खड़ा ले जाता है । जब चुहिया ने इन दोनों को भी अस्वीकार कर दिया, तो- सिद्ध पुरुष ने पूरे जोश-खरोश के साथ पहाड़ में बिल बनाने का प्रयास करते चूहे को दिखाया । चुहिया ने उसे पसंद कर लिया, कहा-''चूहा पर्वत से भी श्रेष्ठ है; वह बिल बनाकर पर्वतों की जड़ खोखली करने और उसे इधर से उधर लुढ़का देने में समर्थ रहता है । एक मोटा चूहा बुलाकर संत ने चुहिया की शादी रचा दी । उपस्थित दर्शकों को संबोधित करते हुएसंत ने कहा-''मनुष्य को भी इसी तरह अच्छे से अच्छे अवसर दिए जाते हैं, पर वह अपनी मन:स्थिति के अनुरूप ही चुनाव करता है ।''
दुःखी आम
जगन्नाथ माहात्म्य कथा में एक मार्मिक प्रसंग है । भक्त भगवान के पास जा रहा था । मार्ग में जो मिलता था, भगवान के लिए अपना भी संदेश दे देता था । एक आम का वृक्ष मिला । उसके फलों में कीड़े लग जाते थे । कोई उपयोग नहीं कर पाता था । आम का दु:ख सुनकर भगवान ने कहा-'' यह पूर्व जन्म में स्वार्थी था । अपनी कोई वस्तु किसी के काम में नहीं आने देता था ।
वही स्वार्थ कीड़ा बनकर इसके साथ लगा है । न उसके फल किसी के लिए उपयोगी बन पाते है और न कोई उसके
पास जाता है । अपने स्वार्थवश यह एकाकी जीवन जी रहा है ।''
मलीन पोखरी
उसी कथा में प्रकरण है-दो छोटी- छोटी पोखरी थीं, इसका पानी उसमें, उसका पानी इसमें होता रहता था। कोई प्रयोग नहीं करता था । पानी में काई, कीड़े पड़ गए थे । उनका दु:ख सुनकर
भी प्रभु ने कहा-''पूर्व जन्म में यह सगी बहने भी थीं और देवरानी- जेठानी भी । दोनों ही स्वार्थिनें थीं । कोई दान-
पुण्य परमार्थ के लिए कहे तो बड़ी बहन, छोटी बहन को दान का सबसे श्रेष्ठ पात्र कहकर उसे दे आती थी । दोनों की स्वार्थ भावना अपने साधन अपने ही अधिकार क्षेत्र में रखने के ताने-बाने बुनती रहती थीं । वही प्रवृत्तिं उनके साथ अभी भी लगी है । पानी उनकी स्वार्थ भावना जैसा ही दुर्गंध युक्त हो गया है । एक दूसरे की सीमा में ही चक्कर काटती है । स्वार्थ के ऐसे ही परिणाम निकलते है ।