स्वसमाजानिवार्याणि वीक्ष्याभीष्टानि तत्र ते ।
मूर्धन्या: पुरूषास्तेषामाविर्भावं व्यधु: पृथक् ।। २८ ।।
कलेन् सह चैतेषु परिवर्तनमप्यलम् ।
जायते तत्र तत्रैव सम्प्रदायेषु तद्यत: ।। २९ ।।
परिष्कारकरा मर्त्या महामानवसंज्ञका: ।
उत्पद्यन्ते प्रकुर्वन्ति जीणोंद्धारमिवास्य ले ।। ३० ।।
यत्र यत्रानिवार्य: स्याद् वीक्ष्य तेषु च विक्रियाम् ।
वस्त्रगेहेष्विवायान्ति सम्प्रदायेषु विक्रिया: ।। ३१ ।।
जीर्णोद्धारश्चलत्येषां स्वच्छताऽपि तथैव च ।
समाजस्योपयोगाय तदैवार्हन्ति वस्तुत: ।। ३२ ।।
टीका-अपने-अपने समाज की आवश्यकता देखते हुए मूर्धन्य जनों ने उनका आविर्भाव एवं प्रचलन किया हैं । समय बदलने के साथ-साथ उनमें हेर- फेर और सुधार−परिवर्तन होता रहता है । हर धर्म-सम्प्रदाय में सुधारक उत्पन्न होते रहते हैं, जो, जब, जहाँ टूट-फूट और विकृति दीखती है, तब उसकी मरम्मत करते रहते हैं । वस्त्रों और मकानों की तरह सम्प्रदाय में भी विकृतियाँ प्रवेश करती हैं और उनकी सफाई मरम्मत
चलती रहती है । तभी वास्तव में ये समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं ॥२८-३२॥
अर्थ-देव संस्कृति की यह विशेषता रही है कि समय- समय पर मनीषी अवतरित होते रहे हैं एवं युगानुकूल परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए अपेक्षित सुधार-परिवर्तन धर्म-दर्शन में करते रहे हैं । वे यह
भली-भाँति जानते हैं कि मूल तत्व दर्शन एक होते हुए भी समय के अनुसार धर्म- सम्प्रदायों के कलेवर में परिवर्तन करना पड़ सकता है । रुका हुआ पानी सड़ता व कीचड़ बनकर दुर्गंध फैलाता है । यदि प्रवाह न बनाया जाए तो विकृतियाँ समाज के वातावरण को दूषित कर सख्ती हैं । समय-समय पर पुनर्निरीक्षण एवं तर्क, तथ्य, प्रमाणों के आधार पर विवेचन कर इसलिए संस्कृति का परिशोधन किया जाता रहा है । यही एक महत्वपूर्ण कारण है कि अनेक मत-मतांतर होते हुए भी देव संस्कृति अब भी एक बनी हुई है । पूर्वाग्रहों की विडंबना से वह सर्वथा मुक्त है ।
ऐसे प्रयास समय-समय पर विभिन्न सुधारक अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में करते रहे हैं ।
सुधारवादी राममोहन राय
भारतीय समाज सुधारकों में राजा राममोहन राय का नाम अग्रणी है। वे १९ वीं सदी के महान सुधारक थे । आरंभिक शिक्षा-दीक्षा पटना एवं बनारस में होने के बाद उनने वेद-वेदांतों का अध्ययन प्रारंभ किया । इससे उनमें वैचारिक प्रौढ़ता आयी और तत्कालीन भ्रष्ट समाज व्यवस्था की भ्रांत मान्यताओं, कुरीतियों एवं धार्मिक अंध परंपराओं के प्रति पहली बार उनका आक्रोश उभरा । अपने विचारों को पुस्तक बद्ध कर प्रचलित कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाकर जन चेतना उभारी।
उनका यह कार्य पिता रमाकांत राय को नागवार लगा । बंगाल में उनकी अच्छी पद- प्रतिष्ठा थी । वे नहीं चाहते थे कि पुत्र के इस कार्य से उनके मान सम्मान को ठेस पहुँचे, अत: आए दिन उनमें प्राय: वाद-विवाद होने लगा । विवाद जब कलह का रूप धारण करने लगा तो १६ वर्ष की अल्पायु में उनने गृह-त्याग कर दिया और घूम-घूम कर धार्मिक व सामाजिक सुधार- कार्य करते रहे । अनेक वर्षों तक बाहर रहने के उपरांत वे पुन: घर वापिस लौटे इसी बीच १८०६ में पिता का शरीरांत हो गया । अब वे घर पर ही रहने लगे ।
अभी कुछ ही समय गुजरा था कि बड़े भाई भी चल बसे । तब 'सती प्रथा' का दौर था । जबरदस्ती उनकी भाभी को भी जिंदा चिता को अर्पित कर दिया गया । इस घटना ने उन्हें झकझोर कर रख दिया। उसी दिन उन्होंने इस कुप्रथा का अंत करने का प्रण लिया और प्रयत्नशील हो गए । उन्हीं के प्रयासों से सन् १८११ में इसके विरुद्ध कानून बना और इस पर पाबंदी लगा दी गयी ।
इसके अतिरिक्त पर्दा प्रथा एवं बाल विवाह जैसी कुरीतियों के उन्मूलन में भी उनने सक्रिय भूमिका निभायीं । इस बीच उन्हें अनेक प्रकार की यंत्रणाएँ झेलनी पड़ीं, किन्तु उन्होंने अपने सुधार कार्य को विराम नहीं दिया ! इसी दौरान उनने 'ब्रह्म- समाज' की स्थापना की, बाद में चलकर यह संस्था भी पूर्णतः सुधारवादी बन गयी और राम मोहन राय के मरणोपरांत अनेक सुधार कार्य संपन्न किए ।
दार्शनिक टाइनवी
टाइनवी एक बड़े दार्शनिक हुए हैं, उनके लेखन और अध्ययन की उत्कृष्टता को सारे संसार में सराहा जाता है । यों विश्व इतिहास के विभिन्न पक्षों पर उनने प्रकाश डाला है, पर जोर इस बात पर दिया है
कि संसार की समस्याएँ धर्म के आधार पर ही हल होंगी । विश्व धर्म क्या हो सकता है, इस संबंध में वे भारतीय धर्म को अग्रणी बताते हुए आगे लिखते हैं कि जो समय-समय पर अपने दोषों को सुधार सकता है और आचरण की पवित्रता को प्रतिष्ठित रख सकता हो, वही सच्चा धर्म माना जाना चाहिए ।
खलील जिब्रान लेबनान के एक ईसाई परिवार में जन्मे थे । शिक्षा की सुविधा वहाँ न होने से वे अमेरिका चले गए । वहाँ उन्होंने साहित्य-साधना को अपना लक्ष्य बनाया । धर्म के नाम पर चलने वाले व्यवसाय और छद्म पर उनने करारे प्रहार किए । फिर भी ईसा के आदर्शों के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी । वे चाहते थे कि लोग गुणगान भर न करते रहे, बल्कि उनके आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में अपनाएँ गद्य में ही उनने कविता जैसा साहित्य सृजा है । उनकी बोध कथाओं का संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ है, जिनसे प्रेरणा लेकर अनेक ने धर्म के मर्म को समझा व स्वयं को धन्य बनाया है ।
धर्म की विडंबना मिटाने वाले लूथर
मार्टिन लूथर के पिता जर्मनी में एक लौह कारखाने के मालिक थे । उनकी इच्छा बड़े लड़के को वकील बनाने की थी । पर उस धंधे में छल-प्रपंचों को देखते हुए उन्होंने इन्कार कर दिया और धर्म प्रचारक बनने की इच्छा प्रकट की । पिता ने अनिच्छापूर्वक आज्ञा दी । वे चर्च के विश्वविद्यालय में भर्ती हुए । स्नातक बनने के उपरांत वे पादरी हो गए । उन्हें मिशन
संबंधी अन्य कई महत्वपूर्ण कार्य सौंपे गए।
लूथर ने तत्कालीन धर्म विडंबना को बारीकी से देखा । बड़े पादरियों का जमघट सामान्य लोगों से पैसा वसूल करके ईश्वर कृपा एवं स्वर्ग मुक्ति के टिकट बेचता था । इस धंधे में उन्हें करोड़ों की आमदनी थी । उस धन से
अय्याशी करते और गुलछर्रे उड़ाते । छोटे पादरी भी उनकी देखादेखी चरित्रभ्रष्ट हो चुके थे । वे धर्म कृत्य भर करते कराते, किन्तु आचरण की पवित्रता और सेवा साधना पर तनिक भी ध्यान न देते। लूथर इन कुकृत्यों से जल-भुन कर खाक हो गया । उसने विद्रोह का झंडा खड़ा किया और सैकड़ों शोध पुस्तिकाएँ छपायीं, जिनमें पाखंडों का विरोध और धर्म के सच्चे स्वरूप का प्रतिपादन था ।
पादरियों ने लूथर को देश निकाले की सजा दिलायी, पर उनके कथन में इतनी सचाई थी कि ईसाई समुदाय उनका पक्षधर हो गया और प्रोटेस्टेंट नाम से एक सुधारवादी सम्प्रदाय चलाया, भारत के आर्य समाज की तरह । आज भी वह उतना ही लोकप्रिय है एवं उदारता के कारण सुविख्यात भी ।
परम्परावाद का उन्माद
चौदहवीं शताब्दी की बात है । वैज्ञानिक ओडार्नो ब्रूसो ने अनेक तर्कों, प्रमाणों से यह सिद्ध कर दिया कि पृथ्वी चटाई की तरह चौरस नहीं है, वरन् गोल है ।
पुरानत पंथियों ने बाइबिल के मत को झुठलाने के अपराध में ओडार्नो ब्रूसो को जिंदा जला देने का मृत्यु दंड दिया । उन्मादी उसकी सफाई तक सुनने को तैयार न हुए । उन्होंने प्राण दे दिए, पर अपनी विचारधारा नहीं बदली । अंतत: आगे चलकर जन साधारण को उनकी बात स्वीकार करनी ही पड़ी । अपनी मान्यताओं के प्रति दुराग्रह की ऐसी ही दु:खद परिणतियाँ होती है ।
सम्प्रदायस्य धर्मस्य भेदोऽस्माभिस्तु पूर्णत:।
ज्ञेय उद्गम एतेषामेक इत्यनुभूयताम् ।। ३३ ।।
एकस्यैव समुद्रस्य लहर्यस्ता: सुविस्तृता: ।
सूंर्यस्यैकस्य विद्यन्ते किरणास्ते समेऽपि च ।। ३४ ।।
मेघवर्षोदिता नद्यो निर्झरा इव ते समे ।
तत्प्रवाहोऽभियात्यत्र जलधेर्दिशि सन्ततम् ।। ३५ ।।
टीका-हमें सम्प्रदाय और धर्म का अंतर समझना चाहिए । साथ ही यह भी अनुभव करना चाहिए कि उन सबका उद्गम एक है। वे एक ही समुद्र की अनेकानेक आकार-विस्तार वाली लहरें हैं । एक ही सूर्य की अनेक किरणें हैं । मेघ, वर्षा की एक ही प्रक्रिया से वे नदी-निर्झरों की तरह जन्मे हैं और उन सबका प्रवाह समुद्र में जा मिलने की दिशा में समान रूप से प्रवाहित हो रहा है ।।३३-३५।।
अर्थ-इस तथ्य को न समझने वाले अपनी अपनी श्रेष्ठता का दर्प दिखाते हुए झगड़ते रहते हें, पर सत्य तो कुछ और ही है ।
सूर्य और कमल
एक सरोवर में कमल खिला । उसने अपनी गरिमा को देखा और गर्व सहित बोला-''दिशाओ मेरा नमन करो । संसार में श्रेष्ठता सम्पन्न के अभिवादन का जो क्रम चला आ रहा है, क्या तुम उसे नहीं जानतीं ?''
कमल की गर्वोक्ति सूरज ने भी सुनी । वह आसमान से अकड़ कर चिल्लाया-'' दिशाओ ! इसके बहकावे में
मत आना वर्चस्व का स्रोत मैं हूँ । मेरे कारण ही तो यह विकसित हो सका है ।''
दिशाएँ हँस पड़ीं, उन्होंने दोनों पर व्यंग्य करते हुए कहा- '' घमंडियो ! वर्चस्व तुम्हारे पास नहीं, वह जहाँ है,
वहाँ चुपचाप अवस्थित है, इसे इस तरह अपनी गरिमा बखाननी नहीं पड़ती । '' सच्चे धर्म को अपना प्रतिपादन नहीं
करना पड़ता उसकी गरिमा को लोग स्वत: स्वीकारते हैं ।
दुराग्रही उन्माद
धर्म-सम्प्रदाय को अलग-अलग समझने वाले, परस्पर टकराते, शक्ति नष्ट करते एवं अपयश को प्राप्त होते हैं ।
एक छोटी नदी थी । पार जाने के लिए एक लट्ठा ऊपर रखा था । उस पर एक के निकलने जितनी जगह थी ।
एक दिन दो बकरे दो ओर से एक ही समय चल पड़े और बीच में आकर अड़ गए । न किसी ने पहले सोचा और न परिस्थिति की विषमता देखकर पीछे हटने का विवेक अपनाया ।
अड़े सो अड़े । हेठी कौन कराये ? घमंड कौन छोड़े ? पीछे हटने और जान बचाने की बात कौन सोचे ? लड़ने-मरने और दूसरे को नीचा दिखाने के उन्माद में परस्पर टकराने लगे । खल ठोकरों के बाद बड़ी लगीं और दोनों ही नदी के प्रवाह में पड़कर मौत के मुँह में चले गए । दुराग्रही उन्माद जो न कर गुजरे, सो कम ही है ।
धर्म का मूल अंत:श्रद्धा
धर्म का मूल है, अंत :श्रद्धा । जो आत्मतत्व के लिए स्थिर नहीं रह सकता, वह उसे पा भी नहीं सकता ।
शुकदेव ने अपने पिता और गुरु व्यास जी से धर्मतत्व के हस्तगत होने न होने का रहस्य पूछा । व्यास ने उन्हें जनक के पास जाने को कहा; क्योंकि वे ही उन दिनों सबसे बड़े ब्रह्मवेत्ता थे ।
शुकदेव पहुँचे । राजा को खबर दी गयी । उत्तर मिला सात दिन ठहरना होगा, बाद में भेंट संभव होगी । शुकदेव बिना आतिथ्य-आश्रय पाये जहाँ-तहाँ भटकते समय गुजारते रहे । न उन्हें खीज उपजी, न रोष-असंतोष उभरा । समय लगता है, तिरस्कार होता है और कष्ट होता है तो प्रयोजन पूरा करने की श्रद्धा बनी ही रहनी चाहिए । शुकदेव उन सात दिनों यही सोचते रहे ।
नियत समय पर बुलावा आया । समुचित आतिथ्य हुआ और सम्मान समेत जिज्ञासा का समाधान हुआ । चलते समय जनक ने कहा-''श्रद्धा की शिथिलता एवं प्रखरता ही धर्मतत्व के उपलब्ध होने न होने का प्रधान कारण है । आप जैसे श्रद्धालु ही खरे उतरते और अमृतत्व प्राप्त करते हैं ।
मौद्गल्य उवाच-
भवतः कृपया ज्ञात महाप्राज्ञ ! समैरपि ।
अस्माभिर्धर्म आधारो महामानवनिर्मितौ ।। ३६ ।।
स्पष्ट प्लातं च धर्मोऽस्ति व्यक्तिकर्तव्यगस्तथा ।
समाजोत्तरदायित्वस्थित आदर्शनिर्वह: ।। ३७ ।।
बोध्यतां लक्षणान्यत्र यान्यादाय सु साधक:।
तत्तद् धर्मदिनिष्ठोऽपि महतां जीवनेऽर्जयेत् ।। ३८ ।।
टीका-मौद्गल्य जी ने कहा-''हे महाप्राज्ञ ! आपकी कृपा से हमने समझा कि महामानव बनने में धर्म का आधार बनता है । यह भी स्पष्ट हुआ कि धर्म व्यक्तिगत कर्तव्यों और सामाजिक उत्तरदायित्वों के आदर्शीनष्ठ निर्वाह को कहते हैं । कृपया, यह और स्पष्ट करें, वे कौन से लक्षण हैं, जिन्हें किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का साधक
जीवन में अपनाकर अर्जित महानता कर सकता है ।।३६-३८।।
आश्वलायन उवाच-
लक्षणानि दशैवाऽस्य धर्मस्योक्तानि मूर्धगै:।
युग्मञ्चकरूपे च ज्ञातुं शक्या नरैस्तु ते ।। ३१ ।।
प्रथमें सत्यमेतत्तु विवेकक्ष्चापरे पुन: ।
कर्तव्यं संयमस्तत्र तृतिये त्वनुशासनम् ।। ४० ।।
व्रतधारणमेतस्मिंश्चतुर्थे च पराक्रम: ।
स्त्रेहसौजन्यमेवापि पञ्चमे सहकारिता ।। ४१ ।।
परमार्थश्च गणितुं स शक्य: शक्या दशैव च।
प्रहरित्वेन ते मर्त्यगरिम्णो गदितुं भृशम् ।। ४२ ।।
टीका-आश्वलायन ने कहा-मूधन्यों ने धर्म के दस प्रधान लक्षण बतलाये हैं । इन्हें पाँच युग्मों में भी जाना जाता है । प्रथम युग्म में आते हैं- सत्य और विवेक । द्वितीय में संयम और कर्तव्य, तृतीय में अनुशासन और व्रत धारण, चतुर्थ में स्रेह- सौजन्य और पराक्रम तथा पंचम में सहकार और परमार्थ को गिना जा सकता
है । दसों को मानवी गरिमा के प्रहरी दस दिक्पाल कहा जा सकता है ।।३९-४२।।
अर्थ- धर्म की परिभाषा को सत्राध्यदा ऋषि श्रेष्ठ आश्वलायन ने यहाँ जिन दस गुणों के रूप में स्पष्ट किया है; वह स्वयं में अद्भुत हैं । धर्म धारणा का मर्म समझने वाले सत्य, विवेक, संयम, कर्तव्य, अनुशासन, व्रतधारण, स्नेह- सौजन्य, पराक्रम, सहकार एवं परमार्थ जैसे मानवोचित गुणों को ही प्रधानता
देते एवं अन्यान्यों को इन्हें अपनाने की प्रेरणा देते हैं । अध्यात्म के नाम पर दुंदुभि बजाने वाले बहुसंख्यक व्यक्ति इस विद्या का क ख ग भी नहीं जानते एवं मात्र वेश- बाह्याडंबर तक स्वयं को सीमित रखकर
समयक्षेप तो करते ही हैं, अन्य भोले व्यक्तियों के मन में धर्म के प्रति अनास्था जमा देते हैं । समय-समय पर मनीषीगण इसीलिए अवतरित होते रहते हैं ताकि वे जनमानस में संव्याप्त भ्रांतियाँ मिटा सकें एवं उन्हें धर्म के सही तत्वदर्शन का पक्षधर बना सकें ।
भगवान का भोला भक्त
धर्म का अर्थ कोई मंत्रों का, आयतों का, प्रभु के वचनों का पाठ भर नहीं है । उन्हें भावपूर्वक हदय में उतारना ही अध्यात्म है।
उस दिन प्रायश्चित पर्व था । साथी भक्तगण प्रात:काल से ही निर्धारित पूजा- अर्चा कर रहे थे और प्रार्थना मंत्रों का उच्चारण कर रहे थे ।
अनपढ़ ग्रामीण एक तो उठा ही देर से । सकुचाते हुए पूजारत साथियों की पंक्ति में जा बैठा तो एक और असमंजस आड़े आया, उसे प्रार्थना का एक भी मंत्र याद न था ।
तो भी उसकी भक्ति-भावना उमड़ी पड़ रही थी । उसने वर्णमाला के सभी अक्षर क्रमश: गुनगुनाने शुरू करु दिए और परमेश्वर से निवेदन किया-''सभी मंत्र इन्हीं अक्षरों के योग से बनते है सो आपको जो प्रिय हो मंत्र बना लें ।'' जब तक पूजा विधान चलता रहा तब तक वह वर्णमाला ही बार-बार दुहराता रहा ।
रात्रि के समय में दिव्यदर्शी धर्मगुरु रबी ने उस अनपढ़ किसान को अग्रिम पंक्ति में बिठाकर सम्मानित किया और प्रार्थना परायणों से श्रेष्ठ घोषित किया ।
एक याजक ने कहा-''यह तो अनपढ़ है प्रार्थना के मंत्र तक नहीं जानता ।''
भाव भरे कंठ से धर्मगुरु ने कहा-''इसके पास शब्द नहीं हैं, तो क्या हुआ ? भाव तो हैं । परमेश्वर तो भाव का भूखा है । मंत्र तो हमारे-तुम्हारे लिए माध्यम रूप में सृजे गए हैं । भावनायें प्रगाढ़ हों तो फिर इस माध्यम की भी आवश्यकता नहीं रह जाती ।
धर्म के दस लक्षणों को मानवी गरिमा का रक्षण करने वाले इन प्रतीकों को भी उनके भावरूप में उनके मर्म के माध्यम से ही समझा जाना चाहिए ।
सिद्ध पुरन्ध्र का विवेक
सत्य क्या है, विवेक क्या है-अपने शिष्यों को यह बात समझाने के लिए आचार्य ने एक कथा सुनायी-
महाराज प्रघुम्र का स्वर्गवास हो गया । सारा परिवार बहुत दु:खी था । उन दिनों आचार्य पुरन्ध्र को सिद्ध पुरुषों में गिना जाता था । समझा जाता था कि वे मृत को भी अपने मंत्र बल से जीवित कर सकते है।
पुरन्ध्र को पालकी पर बिठा कर लाया गया। मृत को जिलाने का आग्रह लगा तो बेतुका; पर आतुरों का समाधान करने के लिए उनने सूझ-बूझ से काम लिया और कहा कि यदि मृतात्मा चाहेगी तो ही वे पुनर्जीवित करने का काम हाथ में लेंगे ।
कुटुंबी सहमत हो गए । पुरन्ध्र ने कहा-'' राजा ने अभी-अभी वट वृक्ष पर टिड्डे के रूप में जन्म लिया है । राजकुमार अनुरोधपूर्वक उन्हें पकड़े और लौट चलने के लिए सहमत करें ।''
वैसा ही किया गया । ज्येष्ठ राजकुमार को लेकर पुरन्ध्र वट वृक्ष पर पहुँचे और अंगुलि निर्देश करके एक टिड्डे को दिखाया । वे ही है स्वर्गीय सम्राट ।
राजकुमार टिड्डे को पकड़ने के लिए पेडू पर चढ़े; पर टिड्डा फुर्तीला था, मनुष्य को समीप आते देख कर छलांग लगाता, एक से दूसरी डाली पर जा पहुँचता ।राजकुमार वहा तक पहुँचते, तब तक वह उड़ कर अन्यत्र दिखाई पड़ता । इस आँख मिचौनी में सारा दिन गुजर गया, रात्रि हो गयी, दीखना बंद हुआ, तो राजकुमार निराश होकर वापस लौट आये ।
पुरन्ध्र ने समझाया-''राजा ने पुराने शरीर से मोह त्याग दिया है, अब उनका मन टिड्डे के शरीर में रम गया है । आप लोग उनकी इच्छा को समझें और निरर्थक मोह को छोड़े ।''
कुटुंबियों का मोह टूटा और मृत शरीर का दाह संस्कार कर दिया गया ।
गुरु ने बताया-''सत्य यह है कि हर प्राणी अपनी इच्छानुसार जीता, अपनी सृष्टि आप बनाता है और दोष देता है भाग्य को या परमात्मा को । सत्यं को जान लेने पर यथार्थ को ग्रहण करने का नाम ही विवेक है ।
पतितोद्धार सबसे बड़ा कर्तव्य
ईसा मसीह केपर नाम के नगर में पहुँचे । वे दुष्ट-दुराचारियों के मुहल्ले में ठहरे और वहीं रहना शुरू कर दिया ।
नगर के प्रतिष्ठित लोग ईसा के दर्शनों को पहुँचे, तो उनने आश्चर्य से पूछा-''भला इतने बड़े शहर में आपको सज्जनों के साथ रहने की जगह न मिली या आपने उनके बीच रहना पसंद नहीं किया ?''
हँसते हुए ईसा ने पूछा-''वैद्य मरीजों को देखने जाता है या चंगे लोगों को ? ईश्वर का पुत्र पीड़ितों और पतितों की सेवा के लिए आया है । उसका स्थान उन्हीं के बीच तो होगा ।''
मन को अनिश्चित कार्य में ही लगाकर पराभूतों को ऊपर उतना ही सच्ची सेवा और कर्तव्य परायणता है ।
आर्क विशप पोप की सहृदयता
मिलान के आर्क विशप पोप पाल उन दिनों आर्थिक तंगी का जीवन जी रहे थे ।
उन्हीं दिनों अकाल की भी स्थिति थी । एक दिन एक समाज सेवी व्यक्ति उनके पास पहुँचे और बोले-''अभी भी बहुत लोगों तक खाद्य सामग्री पहुँच नहीं पाई, जबकि कोष में एक भी पैसा नहीं बचा।"
पोप पाल ने कहा-''कोष रिक्त हो गया- ऐसा मत कहो, अभी मेरे पास बहुत सा फर्नीचर, सामान पड़ा है, इसे बेचकर काम चलाओ, कल की कल देखेंगे ।''
आज का काम भी रुका नहीं, कल आने तक उनकी यह पर दु:खकातरता दूसरे श्रीमंतों को खींच लाई और सहायता कार्य फिर द्रुतगति से चल पड़ा ।
भले ही कष्ट-कठिनाइयों को सहन करना पड़े; पर नियत मर्यादा का पालन करना अनुशासन और सौंपे हुए उत्तरदायित्व को पूरा करना ही व्रत धारण है ।
धनशाह की महानता
सहकार और परमार्थ का सच्चा स्वरूप इस घटना से समझा जा सकता है-कुछ समय पहले तक हरेकृष्ण बाबू का व्यापार ठीक चल रहा था; पर समय के फेर ने सब उल्टा कर दिया । वे एक-एक पैसे के लिए मुहताज हो गए । कर्जदारों का इतना बोझ था कि रास्ता निकलना मुश्किल हो रहा था ।
उन्हें स्मरण आया कि कुछ दिन पूर्व फर्म धनशाह गोपीशाह में उनने दो सौ रुपये अमानत जमा किए थे, वे मिल जायँ, तो एक महीने का काम चले । सो वे वहाँ माँगने पहुँचे । साथी की ऐसी दुर्गति देखकर उन्हें बड़ा दु:ख हुआ । अमानत लौटाने की बात कही, तो उनने मुनीम से तत्काल देने को कहा ।
मुनीम ने बही खाता देखकर कहा-''उनके नाम दो हजार का हिसाब है, चार सौ ब्याज के अलग । चौबीस सौ में से दो सौ काट क्यों न लिए जायँ । ''
फर्म के मालिक धनशाह ने कहा-''दोनों बातें अलग- अलग हैं । जब यह कर्जा चुकाने आये तब इनसे चौबीस सौ माँगना। अभी तो यह अपनी अमानत लौटाने के लिए कहने आये हैं, सो उनके दो सौ तुरंत वापस कर देने चाहिए ।
अनाथो के नाथ कनिंधम
कनिंधम की माता आहियो के ऐसे घने जंगल में रहती थी, जिसमें भेड़ियों की भरमार थी । माता बच्चे को बचाने के लिए कोठरी में बंद कर जाती । देखने में यह कठोर कार्य ही सौजन्यता है । लड़का थोड़ा समर्थ हो गया, तो माँ के साथ लकड़ी काटने जाने लगा । यहीं से
पुरुषार्थ प्रक्रिया प्रारंभ हुई । पढ़ने की इच्छा पूरी करने के लिए उसने एक पुस्तकालय में सफाई करने और कपड़े धोने का काम कर लिया । इसी प्रकार उसने एम०ए० कर लिया । कई छोटी- मोटी नौकरियों के बाद उसे नौसेना में
काम मिला । वेतन का कुछ रुपया जमा हो गया, तो उसने बिगड़े हुए लड़की को पढ़ाने और सुधारने का काम हाथ में लिया । आरंभ में थोड़े-से लड़के थे; पर जब ख्याति बड़ी, तो ८ हजार ५ सौ लड़के उसके अनाथाश्रय में भर्ती गए । उन्हें सुधारा ही नहीं गया, वरन् प्रगतिशील बनाकर सम्मानित और कमाऊ भी बनाया गया ।
समझने में सामान्य लगने वाले यह सिद्धांत ही मनुष्य जीवन को सामान्य सेर महान बनाते हैं ।
अंत: से उद्भूत करुणा
परमार्थ की भावना जब जागती है तो अपना सब कुछ देने को तत्पर हो जाती है। जीवनसाथी का सहयोग मिलने पर यह और भी स्तुत्य हो जाती है । माघ विद्वान भी थे, कवि भी, प्रतिभावान भी । अपनी अद्भुत काव्य शक्ति के बल पर उन्होंने कमाया भी बहुत । इतने पर भी वे कभी संपन्न न बन सके । जो हाथ आया वह अभावग्रस्तों, दु:खी-दरिद्रों की सहायता के लिए बखेर दिया ।
एक बार उस क्षेत्र में दुर्भिक्ष पड़ा । अपनी सम्पदा बेचकर वहाँ की दीन-दरिद्रों की अन्नपूर्ति के लिए लगा दिया । मात्र उनका नवरचित काव्य घर में शेष रह गया था । सोचने लगे इसके बदले कुछ पैसा मिल जाये तो उसे भी समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए लगा दिया जाय ।
काव्य का मूल्य कौन समझे ? गुण पारखी कहाँ से मिले ? याद आया कि इन दिनों राजा भोज ही ऐसे हैं, उन्हीं के पास चला जाय । पर इतनी दूर जाने के लिए मार्ग व्यय कहाँ से आये? दूसरा प्रश्न यह सामने था कि भोज उन्हें पहचान लेंगे तो उचित से अधिक मूल्य देने लगेंगे जो उन्हें स्वीकार न था । सोचा गया पत्नी के साथ चला जाय । ग्रंथ को अपरिचित महिला द्वारा प्रस्तुत किये जाने पर उतना ही मिलेगा जो उचित है ।
माघ और उनकी पत्नी पैदल ही चल पड़े । लंबी यात्रा तय करके राज दरबार में पहुँचे। एक अपरिचित महिला द्वारा काव्य बेचने या गिरवी रखने की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया । काव्य के कुछ पृष्ठ उलटते ही भोज दंग रह गए । उन्होंने मुक्त हस्त से उसका पुरस्कार दिया ।
जो मिला उसे लेकर माघ और उनकी पत्नी वापस लौटे । मार्ग में फिर वही दुर्भिक्ष ग्रस्त क्षेत्र मिला । वहीं से बाँटना आरंभ किया गया तो घर पहुँचते- पहुँचते सारी राशि समाप्त हो गई और ठीक वैसी ही अभावग्रस्त स्थिति में
वापस लौटे जैसी कि चलते समय थी । कहते हैं अन्य क्षुधार्थों की तरह इस दम्पत्ति का भी उसी दुर्भिक्ष के प्रकोप से देहावसान हो गया ।