प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥अथ सप्तमोऽध्याय:॥ सहकार-परमार्थ प्रकरणम्-4

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स्वस्मै वर्गविशेषाय स्वार्थबुद्धया च यानि तु ।
क्रियन्ते तानि कार्याणि मन्यन्ते स्वार्थगानि हि ॥४५॥
विचारयन्ति येषां स लाभस्ते पुरुषा: स्वयम् ।
श्रमं कुर्वन्तु किं तैश्च परेषां हि प्रयोजनम् ॥४६॥
परं न्यायस्य यत्राऽयमौचित्यस्य तथैव च।
साहाय्यस्यार्तिजानां च प्रश्न: सन्तिष्ठते पुर:॥४७॥
चित्तं तत्र समेषां हि योगदानाय सन्ततम् ।
समुत्सहत एवात्र सर्वकल्याणकाम्यया ॥४८॥ 
रीतिर्नीतिरिमेऽभूतां महतां भुवि सर्वथा ।
सहकारमहत्वं तैर्ज्ञातं सर्वसुखावहम् ॥४९॥
स्वभावं ते चरित्रं च योग्यं व्यक्तिगतं तथा ।
व्यधुस्तेषां च प्रामाण्ये विश्वसेयुर्जना: समे ॥५०॥
कार्याणि यानि तैरत्र हस्तगानि कृतानि तु ।
अभूवँस्तानि सर्वाणि नूनं लोक हितान्यलम् ॥५१॥

टीका-निजी अथवा वर्ग स्वार्थ के लिए जो काम किए जाते हैं, उन्हें लोग स्वार्थ प्रेरित मानते हैं और सोचते हैं, जिनका लाभ है, वे ही श्रम करें, अन्यों को उनसे क्या प्रयोजन? पर जहाँ न्याय का, औचित्य का, पीड़ितों की सहायता का प्रश्न आता है, वहाँ सभी का मन, सभी की कल्याण-कामना के लिए सुखकर सहकार का महत्व समझा है । व्यक्तिगत स्वभाव और चरित्र को इस योग्य बनाया है कि लोग उनकी प्रामाणिकता पर विश्वास
कर सकें । उनने जिन भी कामों में हाथ डाला, वे सभी ऐसे थे, जिनके साथ लोकहित जुड़ा रहा ॥४५-५१॥

अर्थ-मानव परहितकारी सहकारी भावना को विकसित करके ही महामानव बनते हैं । यह एक
प्रकार का आत्म-निर्माण का, प्रामाणिकता अर्जन करने का तप तो है ही, उनकी सेवा-साधना भी है, जो
उन्हें इतने ऊँचे पद पर पहुँचाती है। परमार्थ से ही स्वार्थ भी निभता है, व्यक्ति स्वयं भी लाभान्वित होता है,
इसमें रंच मात्र भी संदेह नहीं ।

प्रामाणिकता की पूँजी

अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन जब विद्यार्थी थे, तब घर की गरीबी के कारण पढ़ाई खर्च मेहनत-मजदूरी करके निकालते थे । एक दुकान पर उन्हें सेल्समैन का काम मिला । इसी बीच सौदा बेचते समय किसी महिला ग्राहक से भूल में एक रुपया अधिक वसूल हो गया । रात को हिसाब करते समय भूल का पता लगा, तो लिंकन कैशमेमो पर लिखे पते के आधार पर उसी समय पैदल चलकर उसके घर पहुँचे और क्षमा मांगते हुए पैसा लौटा कर बहुत रात गए घर लौटकर वापस आये ।

उनकी प्रामाणिकता सर्वप्रसिद्ध थी । यही कारण था कि उनके अनेक सच्चे मित्र थे । वे कहते रहते थे, कि
संपत्ति के नाम पर तो मेरे पास कुछ नहीं; पर सच्चे मित्रों के रूप में असाधारण वैभव का धनी हूँ ।

नौशेरवाँ का न्यायनिष्ठा

बादशाह नौशेरवाँ एक दिन शिकार खेलते हुए दूर निकल गया । दोपहर के समय एक गाँव के पास डेरा डालकर भोजन की व्यवस्था की गई । अकस्मात् मालूम हुआ कि नमक नहीं है । इस पर सेवक पास के घर जाकर थोड़ा-सा नमक ले आया । बादशाह ने उसे देखकर पूछा-"नमक के दाम दे आये ।" उसने उत्तर दिया-"इतने से नमक का दाम क्या दिया जाय?'' नौशेरवाँ ने फौरन कहा-"अब से आगे ऐसा मत करना और इस नमक की कीमत इसी समय जाकर दे आओ । तुम नहीं समझते कि अगर बादशाह किसी के बाग के बिना दाम दिए एक फल ले ले, तो उसके कर्मचारी बाग को ही उजाड़कर खा जाएँगे ।"
नौशेरवाँ की इसी न्यायशीलता ने उसके मध्य की जड़ जमा दी और आज भी शासकों के लिए उसका आचरण आदर्श स्वरूप माना जाता है।

परहित के लिए किए गए कार्य इसी प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरने के बाद अनुकरणीय बनते हैं ।

स्वार्थ से सर्वार्थ समझने वालों की दृष्टि में और महानता के पक्षधरों में इतना अंतर होता है कि एक अपने न्लिए लड़ता है, जबकि दूसरा व्यापक हित के लिए ।

रोम्याँ रोलाँ

फ्रांस के गण्यमान्य लेखकों में रोम्याँ रोलाँ की अपना विशेषता है । वे विचारक-दार्शनिक ही नहीं,
आंदोलनकारी भी थे । पहला विश्व युद्ध हो चुका था । उसमें जो विनाश हुआ था, वह सबके सामने था । वह समाप्त नहीं हो पाया था, कि दूसरे युद्ध के बीज बोए जा रहे थे । राजनेताओं के साथ साठ-गाँठ करके
बुद्धिजीवी अगले युद्ध के उन्माद पैदा कर रहे थे । इस प्रवाह के विरुद्ध रोम्याँ रोलाँ ने आवाज बुलंद की । खुद तो बहुत कुछ लिखा ही । यूरोप के बुद्धिजीवियों की उन्होंने दो कांफ्रेंसें भी बुलाई और अनुरोध किया कि युद्ध भड़काने का पाप न किया जाय । वे रोक तो न सके; पर उनकी आवाज इतनी बुलंद थी, जिसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकी । आलोचक भी उन्हें दूसरा गाँधी कहते थे । टाँलस्टाय से उनके घने संबंध थे । दूसरा युद्ध रुका तो नहीं; पर उसे रोकने के संबंध में सबसे ऊँची आवाज बुलंद करने वालों में रोम्याँ रोलाँ अकेले होते हुए भी अमर रहेंगे ।

नौकरी छोड़ दी

अमृतलाल ठक्कर इंजीनियर थे । वे जिस क्षेत्र में काम करते थे, वह अछूतों का था । गंदगी, बीमारी,
गरीबी के कारण उनकी दशा अत्यंत दयनीय थी । ठक्कर नौकरी से बचा समय उनकी सेवा में लगाते ।
इतने से ही उनकी स्थिति में भारी सुधार-परिवर्तन दीखने लगा । ठक्कर विचारने लगे-"क्यों न समूचा जीवन इसी पुनीत कार्य में रखा जाय ।"  उनने नौकरी छोड़ दी और सर्वतोभावेन हरिजनों की स्थिति सुधारने के काम में जुट गए । गाँधी जी के सहयोग से हरिजन सुधार आंदोलन को देश व्यापी बना सके । समाजसेवियों में उनका नाम
अविस्मरणीय रहेगा ।

महापुरुष ऐसे अवसरों पर आने वाले संकटों के लिए भी तैयार रहते हैं ।

स्पष्ट इन्कार

वैज्ञानिक जॉनसन ने गैलीलियो की कब्र के सामने प्रतिज्ञा की कि ऐसे आविष्कार न करूँगा, जिससे मानव जाति का अहित होता हो । उन्हें अणुबम बनाने के लिए कहा गया । उनने स्पष्ट इन्कार कर दिया । इस पर उन्हें भारी प्रताड़नाएँ दी गईं; पर मरते दम तक वे इन्कार ही करते रहे। वे नहीं चाहते थे, कि उनके प्रयासों से असंख्य निरीह व्यक्तियों के प्राण जाँय।

संसार में आज भी न्याय जीवित है । इसका कारण महापुरुषों द्वारा अभिव्यक्त यह साहसिकता ही प्रमुख है।

सत्याग्रह 

सन् १९३५ में इलाहाबाद का कुंभ पर्व था । जनता संगम पर नहाने पहुँची थी। थोडी सी बालू उठवा देने से सरकार की कई कठिनाइयाँ दूर हो सकती थीं; पर अफसरशाही सुनने को तैयार न थी । जिद बढ़ रही थी । इतने में एक युवक कूदा और सरकारी प्रतिबंधों को तोड़कर जनता को नहाने का उत्साह भरने लगा ।
निदान सरकार को जनता की बात माननी पड़ी । यह कूदने वाला युवक था जवाहर लाल नेहरू ।

गोली के शिकार 

अब्राहम लिंकन गरीबी की चरम सीमा में गुजारा करने वाले परिवार में जन्मे। अपनी लगन और प्रामाणिकता के आधार पर उन्नति की; एक के बाद दूसरी सीढ़ी पार करते गए । वे वकील बने । साथ ही राजनीति में भी प्रवेश किया । कई बार वे चुनाव हारे; पर जब जीत गए तो उनने घोषणा की कि दास प्रथा का कलंक अमेरिका के सिर पर से हटाकर रहेंगे । इस प्रश्न को लेकर उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में कटुता बढ़ी और संघर्ष हुआ । तो भी उनने अपनी दूरदृष्टि और सूझ-बूझ के आधार पर उस प्रश्न को हल कर ही लिया । उन्हें मानवी गुणों का भंडार कहा जाता है । शत्रुओं में से एक की गोली के वे शिकार हो गए ।

महापुरुष आज के लिए जीते हैं, अभी की बात सोचते हैं; भविष्य तो स्वत: उनके पद-चिह्नों पर चलता है ।

काठी-कफन की चिंता

लोकमान्य तिलक एक स्वस्थापित विद्यालय में ३०) रुपया मासिक की नौकरी करते थे । मित्रों ने कहा-" आप मरेंगे तो काठी-कफन के लिए भी न बचेगा ।" उसने कहा- "काठी-कफन की वे लोग चिंता करें, जिनके ऊपर इसकी जिम्मेदारी है । पेट भरने लायक तो मैं कमा ही लेता हूँ ।"

शांति-दूत

एक महायुद्ध हो चुका था, दूसरे की तैयारी चल रही थी । उन दिनों फ्रांस के वैरिस्टर फ्रैडरिक थसी ने पैसा कमाने की अपेक्षा अपनी सारी शक्ति युद्ध विरोधी वातावरण बनाने में लगा दी । उसका प्रभाव भी पड़ा । युद्ध रुका नहीं; पर कई वर्ष पीछे जरुर हट गया । उनने जन साधारण को इस बात को समझाने का प्रयत्न किया । हर
झगड़ा पंच फैसले से सुलझाया जाय । जनता से इस संदर्भ में सीधा संपर्क साधने के प्रयास में अथक प्रयास करने वालों में फ्रैडरिक का नाम सदा स्मरण किया जाता रहेगा और उन्हें शांति के लिए नोबुल पुरस्कार भी मिला ।

गीता ने ऐसों को ही निष्काम कर्मयोगी बताया है । वे सुख-दु:ख, लाभ-हानि, यश-अपयश दोनों में समान रहते है । न्याय-निष्ठ परमार्थी के लिए सम्मान की अहकारिता कोई महत्व नहीं रखती ।

छोटी वस्तु

ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक व्यक्ति के यहाँ टाट के बोरे पर बैठे थे । उसके पास यही सुविधा थी । एक बड़े आदमी बग्घी पर निकले और उन्हें साथ बिठाकर ले चले, साथ ही कहते रहे-"टाट के बोरे पर आपकी बेइज्जती होती है ।" उनने जबाव दिया-" इज्जत इतनी छोटी वस्तु नहीं है, जो बैठने के साधनों पर ही घटने-बढ़ने लगे ।"

महानता छोटे कार्यो से ही विकसित होती है । मूल बात यह है कि वह परमार्थ और परोपकार की भावना से
किए गए हों ।

औचित्य के पक्षधर

एक अजनवी अंग्रेज अस्पताल में अपने मित्र से मिलने जा रहे थे । टैक्सी वाले अजनवीपन का लाभ
उठाकर मनमाने दाम माँग रहे थे ।

एक जापानी सज्जन अपनी कार लेकर उधर से निकल रहे थे । उनने इशारा करके अंग्रेज को अपनी कार में बिठा लिया । अस्पताल का रास्ता मुश्किल से पाँच मिनट का था । उसके दरवाजे पर उनने छोड़ दिया । किराये की बात पूछााई, तो उनने कहा-"यह भाईचारे का तकाजा था, सों ही वसूल हो गया । अब लेना-देना कुछ नहीं है ।" टैक्सी वाले अजनवीपन का लाभ उठाकर बीस रुपया माँग रहे थे। 

जहाँ भी इस तरह की सहयोग भावना विद्यमान होगी, वहाँ के लोग खुशहाल हुए बिना नहीं रह सकते । यदि
जनसहयोग, जनश्रद्धा का अभाव दीखे तो समझना चाहिए कि कहीं कोई त्रुटि अवश्य है । श्रद्धा तो प्रामाणिकता  के पीछे दौड़ी चली आती है ।

श्रम की प्रेरणाएँ

हरि बाबा ने 'गँवा' गाँव के निकट गंगा पर बाँध बनवाने का निश्चय किया और उससे ग्रामवासियों को अवगत कराते हुए श्रमदान का अनुरोध किया, तो जितने मुँह उतनी बातें हुई ।-"सरकार तो बनवा न सकी, ये बनवा लेंगे।" "बाँध कोई खेल है।" -किसी ने मुँह पर ही मजाक किया । किन्तु संकल्प के धनी हरि बाबा ने उन बातों पर ध्यान नहीं दिया ।

निश्चित समय थोड़े ही श्रद्धालुओं के साथ उन्होंने कार्य आरंभ किया, बाकी लोग तमाशा देखते रहे । पर जब
कई दिन तक वे दृढ़तापूर्वक लगे रहे, तो तमाशा देखने वाले भी काम में आ जुटे । फिर श्रमदानियों की कमी न रही, न धन-दानियों की । सरकार ने भी सहायता दी और कुछ ही महीनों में बड़ा-सा बाँध बन गया । जिस बाँध को सरकार न बना सकी, उसे हरि बाबा की निष्ठा ने बनवा दिया ।

स्वार्थसिद्धयै दलानां च निर्मातारो भवन्त्यपि ।
दुरात्मानो दुराचारा दुष्टास्ते कूटयोधिन: ॥५२॥
षड्यन्त्राणि बहून्यत्र कर्तुं दुरभिसन्धका: ।
पार्श्वगां समितिं चण्डां कुटिलां स्थापयन्त्यपि॥५३॥
दु:सहन्ते तथैतेभ्य: म्रियन्ते घ्नन्ति चाऽपरान् ।
एताहशानां यत्रानामुदण्डाना विधीयते ॥५४॥
चर्चा यद्यपि सर्वत्र: शुद्धेन चेतसा ।
नैताञ्जना: प्रशंसन्ति न चैभि: सहयुञ्जते॥५५॥
अत एवंविधान्यत्र साफल्यानि नृणामपि।
सामान्यानां हि दृष्टौ तान्युपेक्षाण्येव सन्ति तु॥५६॥
साफल्यानि प्रशंसन्ति तानि नो केचिदत्र तु ।
एतादृश्यां दशायां ते गण्यन्ते खलनायका:॥५७॥
सदाचारयुता: सन्ति महामानवतां गता: ।
सतां सभां विनिर्मान्ति सम्मिलन्ति च तत्र या ॥५८॥
विचारयन्ति यच्चाऽपि कुर्वते यच्च, निश्चितम् ।
समाविष्टं भवेल्लोकहितं गहनमद्भूतम् ॥५९॥

टीका-स्वार्थ सिद्धि के लिए गिरोह बनाने वाले तो अनेक दुष्ट, दुरात्मा, कुचाली और कुचक्री भी होते हैं । वे षड्यंत्र रचने और दुरीभिसंधियाँ करने के लिए चांडाल-चौकडियाँ खड़ी करते रहते हैं, इसके लिए दुस्साहस भी करते हैं । मारने के साथ-साथ मरते भी हैं । ऐसे उद्दंड प्रयत्नों की चर्चा तो लोग भारी मन से करते हैं; पर उनकी कोई प्रशंसा नहीं करता, न कोई सधे मन से समर्थन करता, न कोई सच्चे मन से सहयोग ही देता है । अतएव इस स्तर की मिली हुई सफलताएँ भी सर्वसाधारण की दृष्टि में उपेक्षित ही बनी रहती है, उन्हें कोई सराहता नहीं। ऐसी दशा में कर्त्ताओं की खलनायकों में ही गणना होती है । महामानव चरित्रवान् होते हैं; सज्जनों
का संगठन खड़े करते या उनमें सम्मिलित रहते हैं; जो सोचते और करते हैं, उनमें अद्भुत लोकहित का समोवश रहता है॥५२-५९॥

अर्थ-तात्कालिक आवेश और आतताई सें भयभीत होकर आज अक्सर लोगों को दुष्टों का साथ देते देखा जाता है; पर दुष्टता की शक्ति बड़ी कमजोर होती है । शक्ति तो यथार्थ में वही है, जो किसी को ऊँचा उठाये, आगे बढ़ाये ।"

बड़ा, बिगाड़ने वाला नहीं

एक पादरी अपने शिष्यों की ईश्वर की सृष्टि को शैतान द्वारा बरगलाये और कुमार्ग पैर चलाने का वर्णन कर रहे थे। 

शिष्यों मे से एक ने पूछा-तब शैतान बड़ा हुआ, जो खुदा के लिए काम को सहज ही बिगाड़ देता है ।"

पादरी ने समझाया-"बिगाड़ने वाला बडा नहीं होता । एक मूर्तिकार बहुत समय मेहनत करंके मूर्ति बनाता है;
पर बिगाड़ने वाला उसे क्षण भर में बिगाड़ सकता हैं । बिगाड़ने वाला नहीं, बनाने वाला बडा होता है ।"

महापुरुषों की रीति-नीति इसी प्रकार की होती है । आस्तिकता को इसी कारण नैतिकता का पर्याय भी कहा गया है । वे तो अनिष्टकारी तत्वों में भी कल्याण की ही बात सोचते हैं ।

सीधा कर दीजिए

एक महात्मा नाव पर जा रहे थे । उसी में कुछ दुष्ट भी बैठे थे । महात्मा का सिर घुटा हुआ देखकर उनको मजाक सूझी । वे धड़ाधड़ उनकी खोपड़ी पर चंपत लगाने का मजा लूटने लगे ।

आकाश के देवता यह दृश्य देखकर बहुत कुद्ध हुए । महात्मा से पूछा-"कहो तो नाव उलट दें और इन
सभी को नदी में डुबो दें ।"

महात्मा ने हँसते हुए कहा-"उलटना और डुबोना तो सभी जानते हैं । आप देवता है, तो इन्हें उलटकर सीधा
कीजिए और डुबाने की अपेक्षा उबार दीजिए । "

निष्ठापूर्वक किए गए आदर्श और सबनोचित व्यवहार में दुष्टों को बदलने की शक्ति कभी भी देखी जा सकती है।

घोडा लौटा दिया

अरब के दो मित्र थे । नावेंर और वहेर। वहेर के पास बडा शानदार घोड़ा था । नावेर उसे किसी भी तरीके से प्राप्त करना चाहता था । कोई और उपाय न दीखा, तो एक दिन नावेर समुद्र के किनारे बीमार बुढिया का रूप बनाकर पड़ा रहा और रोने लगा। वहेर ने धोडा रोका और उस पर बीमार को बिठा कर खुद पैदल चलने लगा।

दाँव लग गया । बुढ़िया बने नावेर ने एड लगाई और घोड़े को ले भागा । वहेर को आश्चर्य भी हुआ और दुःख
भी । उसने जोर की आवाज लगाकर नावेर को खडा किया और पास जाकर कहा-"घोडा तुमने पा लिया, सो ठीक । पर इस घटना को किसी से न कहना, अन्यथा गरीब और बीमार सहायता से वंचित हो जायेंगे, उन्हें भी धूर्त माना जायगा ।

नावेर रास्ते भर दोस्त की बात पर विचार करता रहा और दूसरे दिन उसका घोड़ा लौटा दिया ।

इसके विपरीत अन्याय तत्काल भले ही विजयी घोषित हुआ हो; पर एक न एक दिन उसकी भर्त्सना अवश्य
हुई । इतिहास के पन्ने-पन्ने इन प्रमाणों से भरे पड़े हैं ।

नाले में डाला

'जोन आफ आर्क' को जला कर मारा गया था, सन् १४३१ में । इस घटना के पचास साल बाद उनके इस दंड से संबंधित कागज-पत्रों की फिर से जाँच हुई, तब यह पाया गया कि जिन अभियोगों के लिए जोन की हत्या की गयी थी, वे निराधार हैं । यह भी प्रमाणित हुआ कि धर्मांधों ने जोन को दंड देकर घोर अन्याय किया था । जो धर्माधिकारी जोन के हत्यारों में अगुआ थे, उनकी तब मृत्यु हो चुकी थी । इसलिए उनके शवों को ही कब्र से निकाल कर एक गंदे नाले में डाला गया ।

अनुचित व्यवहार कभी किसी से हँसी में भी नहीं करना चाहिए । तिरस्कृत आत्मा का अभिशाप बहुत भयंकर
होता है ।

परिहास न करें 

एक बार एक मुनि भ्रमण पर थे । कृष्ण के यादव परिवार के उच्छृंखल लड़कों ने उनसे परिहास किया । एक लड़के को गर्भवती वधू बनाकर लाये और पूछने लगे, कि बताइये इसके पेट में लड़का है या लडकी? पेट में लोहे की मूसली बाँध रखी थी ।

मुनि ने इस अपमान से क्षुब्ध होकर शाप दिया-"जो पेट से बँधी है, वही तुम्हारे समूचे वंश का नाश करेगी ।"
बात गंभीर हो गयी उस मूसली को चूरा बनाकर पानी में बहा दिया गया । फिर भी शापवश उसके अस्त्र-शस्त्र
बने। उन्हें से कृष्ण के सभी यादुवंशी मारे गए।
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