प्रज्ञा पुराण भाग-1

प्राक्कथन

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भारतीय इतिहास - पुराणों में ऐसे अगणित उपाख्यान है, जिनसे मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समास्याओं के समाधान विघमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थिति एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया है, जो युग समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरुप योगदान दे सकें।

सर्ववदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन- प्रतिपादन उन्हीं के गले उतरते है, जिनकी सुविकसित मनोभूमि है , परंतु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध , नर- नारी , शिक्षित अशिक्षित सभी की समझ में आते है और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहूँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।

कथा साहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल १८ पुराण लिखे गए। उनसे भी कान न चला तो १८ उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर १०, ०००, ००० श्लोक है, जबकी चारों वेदों में मात्र बीस हजार मंत्र है। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के एक पलड़े पर रखा जाय और अन्य साहित्य को दूसरे पर तो कथाएँ ही भरी पड़ेगी। फिल्मों की लोकप्रियता का कारण भी उनके कथानक ही है।

समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियों मान्यताएँ , प्रथाएँ, समस्याएँ एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती है। तदनुरुप ही उसके समाधान खोजने पड़ते है। इस शाश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है। जिसमें प्रस्तुत प्रसंगों से उपयुक्त प्रकाश एवं मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनुकानेक मन:स्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरुप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस ग्रंथ के सृजन का प्रयास किया गया है।

प्रथम किस्त में प्रज्ञा पुराण के पाँच खण्ड प्रकाशित किए जा रहे है। प्रथम संस्करण तो आज से चार वर्ष पूर्व प्रस्तुत किया गया था। तदुपरात उसकी आवृतियों प्रकासित हो चुकीं। अब चार खण्ड एक साथ प्रस्तुत किया गया था। तदुपरांत उसकी अनिकों आवृतियाँ प्रकाशित हो चुकीं। अब चार खण्ड एक साथ प्रस्तुत किए जा रहे है। इतने सुविस्तृत सृजन के लिए इन दिनों की एकांत साधना में अवकाश भी मिल गया था। भविष्य का हमारा कार्यक्रम एवं जीवन काल अनिश्चित है। लेखनी तो सतत् क्रियाशील रहेगी, चिन्तन हमारा कार्यक्रम एवं जीवन काल अनिश्चित है। लेखनी तो सतत क्रियाशील रहेगी, चिन्तन हमारा ही सक्रिया रहेगा, हाथ भले ही किन्हीं के भी हों। यदि अवसर मिल सका, तो और भी अनेकों खण्ड प्रकाशित होते चले जायेंगे।

इन पाँच खण्ड में समग्र मानव धर्म के अंतर्गत मान्यता प्राप्त इतिहास- पुराणों की कथाएँ है। इनमें अन्य धर्मावम्बियों के क्षेत्र में प्रचलित कथाओं का भी समावेश है, पर वह नगण्य सा ही है। बन पड़ा तो अगले दिनों अन्य धर्मो में प्रचलित कथानकों के भी संकलन इसी दृष्टि से चयन किए जायेंगे जैसे कि इस पहली पाँच खण्डों की प्रथम किस्त में किया गया है। कामना तो यह है कि युग पुराण के प्रज्ञा- पुराणों के भी पुरातन १८ पुराणों की तरह १८ खण्डों का सृजन बन पड़े।

संस्कृत श्लोकों तथा उसके अथों के उपनिषद् पक्ष के साथ उसकी व्याख्या एवं कथानकों के प्रयोजनों का स्पष्टीकरण करने का प्रयास इस पुराण में किया गया है।  वस्तुत;इसमें युग दर्शन का मर्म निहित
है। सिद्धांतों एवं तथ्यों को महत्व देने वालों के लिए यह अंग भी समाधानकारक होगा। जो संस्कृत नहीं जानते, उनके लिए अर्थ व उसकी व्याख्या पढ़ लेने से भी काम चल सकता है। इन श्लोकों की रचना नवीन है, पर जिन तथ्यों का समावेश किया गया है, वे शाश्वत है।

प्रस्तुत ग्रन्थ का पठन निजी स्वाध्याय के रूप में भी किया जा सकता है और सामूहिक सत्संग के रूप में भी। रात्रि के समय पारिवारिक लोक शिक्षण की दृष्टि से भी इसका उपयोग हो सकता है। बच्चे कथाऐं सुनने को उत्सुक रहते हैं। बड़ों को धर्म परम्पराऐं समझने की इच्छा रहती है। इनकी पूर्ति भी घर में इस आधार पर कथा क्रम और समय निर्धारित करके की जा सकती है।

कथा आयोजनों को एक सामूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में भी सम्पन्न किए जाने की परम्परा है। उस आधार पर भी इस कथावाचन का प्रयोग हो सकता है। आरम्भ का एक दिन देव पूजन, व्रत धारणा, माहात्म्य आदि के मंगलाचरण में लगाया जा सकता है। पाँच दिन पाँच खण्डों का सार संक्षेप, प्रात: और सायंकाल की दो बैठको में सुनाया जा सकता है। अन्तिम दिन पूर्णाहुति का समारोह हो। बन पड़े तो अमृताशन (उबले धान्य, खीर, खिचडी आदि) की व्यवस्था की जा सकती और विसर्जन शोभा यात्रा मिशन के बैनरों समेत निकाली जा सकती है। प्रीतिभोजों में प्रज्ञा मिशन की परम्परा अमृताशन की इसलिए रखी गयी है कि वह मात्र उबलने के कारण बनाने में सुगम, लागत में सस्ता तो है ही, साथ ही जाति- पाँति के आधार पर कच्ची- पक्की का जो भेदभाव चलता है, उसे भी निरस्त करते हुए मनुष्य मात्र को एक बिरादरी बनाने के लक्ष्य की ओर क्रमश: कदम बढ़ सकने का पथ- प्रशस्त होता है।

लोक शिक्षण के लिए गोष्ठियों- समारोहों में प्रवचनों- वक्तृताओं की आवश्यकता पड़ती है। उन्हें दार्शनिक पृष्ठभूमि पर कहना ही नहीं, सुनना- समझना भी कठिन पड़ता है। फिर उनका भण्डार जल्दी ही चुक जाने पर वक्ता को पलायन करना पड़ता है। उनकी कठिनाई का समाधान इस ग्रन्थ से ही हो सकता है। विवेचनों, प्रसंगों के साथ कथानकों का समन्वय करते चलने पर वक्ता के पास इतनी बड़ी निधि हो जाती है कि उसे महीनों कहता रहे। न कहने वाले पर भार पडे, न सुनने वाले ऊबें। इस दृष्टि से युग सुजेताओं के लिए लोक शिक्षण का एक उपयुक्त आधार उपलब्ध होता है। प्रज्ञा पीठों और प्रज्ञा संस्थानों में तो ऐसे कथा प्रसंग नियमित रूप से चलने ही चाहिए। ऐसे आयोजन एक स्थान पर या मुहल्ले में अदल- बदल के भी किए जा सकते हैं ताकि युग सन्देश को अधिकाधिक निकटवर्ती स्थान पर जाकर सरलतापूर्वक सुन सकें। ऐसे ही विचार इस सृजन के साथ- साथ मन में उठते रहे हैं, जिन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया है।

प्रथम खण्ड में युग समस्याओं के कारण उद्भूत आस्था संकट का विवरण है एवं उससे उबर कर प्रज्ञा युग लाने की प्रक्रिया रूपी अवतार सत्ता द्वारा प्रणीत सन्देश है। भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण से जूझने हेतु अध्यात्म दर्शन को किस तरह व्यावहारिक रूप से अपनाया जाना चाहिए, इसकी विस्तृत व्याख्या है एवं अन्त में महाप्रज्ञा के अवलम्बन से संभावित सतयुगी परिस्थितियों की झाँकी है।

इस समग्र प्रतिपादन में जहाँ कहीं अनुपयुक्तता, लेखन या मुद्रण की भूल दृष्टिगोचर हो, उन्हें बिज्ञजन सूचित करने का अनुग्रह करें, ताकि अगले संस्करणों में संशोधन किया जा सके।
 
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