प्रज्ञा पुराण भाग-2

॥ अथ षठोऽध्याय:॥ सौजन्य-पराक्रम प्रकरणम्-7

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कुविचारा भवन्त्येते घातकास्तु तथा यथा ।
कुकर्माणि कृतान्यत्र तस्मादेतान्न चिन्तयेत्॥६९॥
छुरिका जीर्णतां याति या हि नैवोपयुज्यते ।
नैष्कर्म्यं पुरुषो याति पशुर्वा चेष्टते न यः॥७०॥
स्वाभिर्विशेषताभिश्च हीनो भवति स क्रमात् ।
अभिशापैरतश्चैभित्मानं रक्षितुं नैर॥७१॥
उपयुगिश्रमेष्वेतच्छरीरमुपयुज्यतम् ।
स्वाध्यायै: सद्विचारैश्च सत्संगेन मनोऽपि च ॥७२॥
भवेत्कार्यरतं नित्यं मनोयोगेन कर्मणाम्।
कृतानां श्लाघ्यतां याति स्वरुपं स्वत:।
उपेक्षायाऽस्थिरेणाऽपि मनसा वा कृतानि तु।
कार्पण्यसंगतानीव जायन्ते नाऽपि स तथा॥७४॥
लाभ आसाद्यते यद्वन्मनोयोगकृतैर्भवेत्।
सामर्थ्याच्छ्रमशीलत्वं महत्वेनातिरिच्यते॥७५॥

टीका-कुविचार भी कुकर्मो की तरह ही घातक होते हैं, अत: इनका चिंतन नहीं करना चाहिए । बेकार पड़े चाकू को जंग खा जाती है । बैठा ठाला मनुष्य या पशु धीरे-धीरे निकम्मा बनता जाता है और अपनी सहज विशेषताओं से हाथ धो बैठता है। इन अभिशापों से बचने के लिए हर समझदार व्यक्ति को अपना शरीर उपयोगी श्रम में लगाये रहना चाहिए। मन को सद्विचारों से, स्वाध्याय और सत्संग के सहारे कार्यरत रखे रहना चाहिए । कामों को मनोयोगपूर्वक करने से उनका स्वरूप प्रशंसनीय बन जाता है, इसके विपरीत उपेक्षा और अन्यमनस्कतापूर्वक किए गए काम बेतुके होते हैं तथा उनसे वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा कि मनोयोगपूर्वक करने से मिल सकता था । क्षमता से अधिक महत्व श्रमशीलता का है॥६९-७५॥

अर्थ-मनुष्य के कर्तव्य का निर्धारण उसका चिंतन करता है। यह सही ही कहा गया है कि जो जैसा सोचता है, वैसा ही करता है व वैसा ही बन जाता है । इसीलिए व्यक्ति को सतत सत् चिंतन में स्वयं को नियोजित रखे रहने की महत्ता प्रतिपादित की जमी रही है।

साधु बनाम वेश्या

एक महात्मा दिन-रात भगवान का भजन करते थे । उनके सामने कोठे पर वेश्या रहती थी, जो दिन-रात राग-रंग में डूबी रहती ।

मृत्यु के बाद वेश्या तो स्वर्ग पहुँची, साधु नरक में । उनने शिकायत की-"भगवन् आपका यह कैसा न्याय है ।" चित्रगुप्त बुलाए गए, उनने बहीखाता खोलकर देखा, तो पता चला कि महात्मा दिन-रात उस वेश्या को कोसते, गाली देते रहते थे, जबकि वेश्या पश्चात्ताप के आँसू बहाती और कहती-"यह साधु कितने धन्य हैं, एक मैं हूँ, जो नर्क में डूबी हूँ ।"

प्रतिफल कर्म का नहीं विचारों का होता है । चित्रगुप्त ने जो किया सो ठीक ही है ।

साधुता का ढोंग

एक साधु और डाकू की एक ही दिन मृत्यु हुई । धर्मराज के दरबार में भी वे साथ-साथ ही पेश हुए ।

डाकू ने अपने दुष्कर्म कह सुनाए और यथोचित दंड पाने के लिए सिर झुकाकर खद्यू हो गया ।

साधु ने अपने पुण्य बखाने और स्वर्ग सुख का दावा प्रस्तुत किया ।

धर्मराज ने डाकू को दंड दिया कि आज से इस साधु की सेवा में संलग्न रही, ताकि जो सद्भाव तुम में जगा
हैं, वह सत्संगति से और अधिक निखरे । वह तैयार हो गया।

साधु ने आपत्ति की, कहा-"इसकी संगति से मैं भ्रष्ट हो जाऊँगा। मुझे स्वीकार नहीं ।"

धर्मराज ने अपना फैसला बदल दिया, उलटकर साधु को दंड दिया कि तुम डाकू की सेवा में निरत रही, ताकि
तुम्हारा अहंकार गल सके ।

सांसारिक महत्वाकांक्षाओं में कुढ़ते रहने वालों की यही अंतिम गति होती है । वे कितना ही तप क्यों न कर लें?

सियारों ने ऊँट खाया

एक आलसी ऊँट ने बहुत लंबे समय तक तप किया । देवतओ ने प्रसन्न होकर वरदान माँगने के लिए कहा।

आलसी ऊँट ने माँगा कि स्व जगह बैठे-बैठे ही दूर-दूर की घास चर लिया करे। अपनी गरदन को एक
मील लंबा कण लिया । सो बहुत प्रसन्न था ।

बरसात आई। उसने सिर छिपाने की कई जगह तलाश की । एक गुफा में सिर भर रख सका । इतने में दो
सियारों का जोड़ा उसमें घुस पड़ा । उनने ऊँट की गरदन काट डाली और महीनों उसका मृत मांस खाते रहे । वरदान भी बेकार चला गया ।

दीवारों को सुनाता हूँ 

सामान्यतया व्यक्ति सत्परामर्श, सद्विचारों के प्रति उपेक्षा ही बरतता है।

चीन के धर्मोपदेशक 'हुई वेग' दीवार की तरफ मुँह करके प्रवचन करते थे, श्रोताओं की तरफ उनकी पीठ रहती थी। 

पूछने पर वे कहते थे-"आप लोग दीवार की तरह है सफाचट । उनके भीतर प्रवेश करने के लिए खिड़की तक नहीं है । ऐसी दशा में यह आशा बंधती नहीं कि वे जो सुनेंगे, उसे समझने और समझाने को भी तैयार होंगे ।"

 
हुई का कथन था कि इतने पर भी मैं निराश नहीं हूँ । दीवार को सुनाता हूँ, ताकि मेरा अभ्यास बड़े और यदि
दीवार के कहीं कन हो, तो वे मेरी बात सुनें ।

फितूरी आदमी

मनुष्य बैठे-ठाले कुछ भी सोचता रहता है । चिंतन के सुनियोजन की अपेक्षा कुतर्कों में मस्तिष्कीय क्षमताएँ
नष्ट करता रहता है ।

ब्रह्मा जब सृष्टि रचने लगे, तो उन्हें भूल-चूक बताते चलने के लिए एक आलोचक की आवश्यकता पड़ी, सी
गढ़कर पास बैठा लिया ।

आलोचक ब्रह्मा जी के हर काम में कुछ न कुछ गलती बता देता, सतत् टोकता रहता इस पर झुँझलाकर ब्रह्मा
जी ने कहा-"बताओ, तुम्हें गढ़ने में मैंने क्या भूल की?" आलोचक बोला-"मेरे दिमाग में एक खिड़की रखनी चाहिए थी, जिससे कि आप जान सकते कि मेरे कथन और चिंतन में कितना अंतर है ।"

ब्रह्मा जी हैरान हो गए और पीछा छुड़ाने के लिए उसे शंकर जी के हवाले कर दिया । शंकर जी ने गणों में उसे शाक्ति कर वीरभद्र के जिम्मे अनुशासन शिक्षण हेतु सौप दिया ।

अपने को चालाक समझने वाले धूर्त अपने दुक्षिंतन के कारण अपनी कुल्हाड़ी से अपना ही पैर काटते पाये
जाते है ।

बंदर और भालू

बंदर का दोस्त था एक भालू । भालू की अकल नई-नई तरकीबें सोचती । एक दिन उसने तालाब से मछलियाँ पकडने में बंदर को साझीदार बनाया।

योजना बनी बंदर की पूँछ में आटा बाँध दिया जाय । मछलियाँ जैसे ही उसे खाने आवें, भालू उन्हें पकड़ लिया करेगा ।

मछलियाँ तो न आ पाईं, पर आटे की गंध पाकर मगर आ गया और बंदर की पूँछ पकड़कर उसे गहरे पानी में
घसीट ले गया । अदूरदर्शी योजनाएँ इसी प्रकार असफल रह जाती हैं ।

महापुरुष परिस्थितियों की समीक्षा करने से हिचकिचाते नहीं। बात अनर्थ की हो, तो उसे तत्काल बदल देने
वाले बुद्धिमान् कहलाते है ।

कार्य पद्धति बदलो 

राजा पर्यक सिंहासन दूसरों को सौंपकर ब्रह्म की खोज में चल पड़े । सत्संग किए और ध्यान-मनन में लगे रहे सुना-समझा तो बहुत, पर गले न उतरा और अतृप्ति निराशा की ओर बढ़ती गई ।

खिन्न मन पर्यंक तीर्थ यात्रा पर निकल पडे । एक दिन बहुत थके थे, भूखे भी। किसी किसान के खलिहान में जा पहुँचे और थके-मादे पेड़ की छाया में सुस्ताने लगे ।

किसान थके-माँदे पथिक को देखकर काम छोड़कर उसके समीप पहुँचा । थकान और भूख समझने में देर न
लगी । उसने चावल निकाला, हाँडी में डाला और आग पर रखते हुए कहा-"उठो, इसे पकाओ, पक जाय तब कहना । हम दोनों पेट भर लगें।"
 
राजा ने मंत्र-मुग्ध की तरह वैसा ही किया । भात पक गया तो किसान को बुलाया । दोनों ने भरपेट खाया ।
किसान काम में लग गया और राजा को गहरी नींद आ गई ।

स्वप्न में देखा कि एक दिव्य पुरुष सामने खडा है और कह रहा है-"मैं कर्म हूँ, मेरा आश्रय लिए बिना किसी
को शांति नहीं मिलती। तुम परमार्थ, पुरुषार्थ में लगो औंर लक्ष्य तक पहुँची।"

नींद खुलने पर राज्य ने अपनी कार्य-पद्धति बदली । अब वे ज्ञान चर्चा कम करते और सेवा-पुरुषार्थ में अधिक
संलग्न रहते ।

कुविचारी की दुनिया बुरी और जिसके मन में सद्विचार होते हैं, उसे सारा संसार ही सुंदर लगता है । अपनी
इसी मान्यता का लोग अच्छा-बुरा प्रतिफल भी पाते रहते है । जैसा चिंतन होता है, वैसी ही प्रतिक्रिया भी होती है ।

खाली या भरा कमंडल

मुनि कौत्स ने जल से आधा भरा कमंडल सामने प्रस्तुत करते हुए ब्रह्मचारियों से पूछा-"बताओ
यह भरा है या खाली?"

उत्तर देते हुए छात्रों में से किसी ने उसे आधा भरा बताया, किसी ने आधा खाली ।

मुनि ने समझाया-"तात, यही दृष्टिभ्रम संसार में संव्याप्त है । जो रिक्तता के अभाव को देखते सोचते हैं, वे दुखित-उद्विग्न रहते हैं और जिनने उपलब्धियों को समझा, उन्हें आज संतोष करने और कल की आशा रखने के लिए आधार मिल जायेगा ।"

कमंडल कितना खाली है, यह मत सोचो, यही देखो कि वह कितना अधिक भरा हुआ है ।

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि

एक साधु की कुटिया थी । एक राहगीर ने पूछा-"आपके गाँव के लोग कैसे हैं?" साधु ने उलटकर पुछा-"तुम्हारे गाँव के कैसे है?" राहगीर ने कहा-"बहुत बुरे ।" साधु ने कहा-"हमारे गाँव के और भी बुरे है।"

थोड़ी देर में एक और राहगीर आया । उसने भी वही प्रश्न किया । साधु ने उससे भी उलटकर पूछा-"तुम्हारे
गाँव के कैसे हैं?" राहगीर ने कहा-" बहुत अच्छे । '' अब साधु का जबाव था-'"बिल्कुल सज्जन ।"

कुटिया में बैठे एक आदमी ने साधु से दुहरे उत्तर का कारण पूछा-"आपने दो राहगीरों से दो तरह की बात क्यों कही ।

साधु ने कहा-"अपना दृष्टिकोण ही अन्यत्र दीखता है । इन राहगीरों का जैसा दृष्टिकोण है, हमें गाँव के लोग भी
उसी तरह दीखेंगे ।"

नजरें बदलीं तो परिस्थितियाँ बदलीं

खरगोशों ने हाथी से अपनी तुलना की और आकृति तथा दयनीय स्थिति पर बहुत दुःख मनाया। ऐसी जिंदगी से क्या लाभ? यह सोचकर वे तालाब में डूब कर आत्महत्या करने केलिए चल पड़े ।

तालाब पर पहुँचे ही थे कि किनारे पर बैठे मेंढकों में भगदड़ मच गयी । वे उछलकर पानी में कूदे और डुबकी लगाकर छुप गए ।

बूढ़े खरगोश ने अपने समुदाय को संबोधित करते हुए कहा-"हमसे भी छोटे मेंढक जैसे प्राणी इस संसार में हैं,
तो इस प्रकार निराश होकर मरने की क्या आवश्यकता?" वे वापस लौट गए।

बडों के साथ तुलना करने पर आदमी अपने को छोटा अनुभव करता है, पर जब अपने से छोटों को देखता है, तो उतना सौभाग्य भी कम संतोषप्रद नहीं रह जाता । व्यक्ति यदि अपना दृष्टिकोण बदल कर विधेयात्मक बना ले, तो वही संसार जो प्रतिकूल नजर आता था, अपना पक्षधर एवं परिस्थितियाँ अनुकूल नजर आती हैं।

अपने स्वभाव के प्रति सतर्कता की यही नीति जन साधारण को संत बना देती है ।

राबिया हँसी क्यों-रोई क्यों?

सूफी संत महिला राबिया हँसती भी जाती थीं और रो भी लेती । दोनों काम एक साथ करती देखकर
उपस्थित लोगों ने आश्चर्य भी किया और कारण भी पूछा।

राबिया ने कहा-"परमात्मा ने ऐसा सुंदर संसार और शरीर बनाया इस पर मैं हँसती हूँ । रोती इसलिए हूँ
कि इन दोनों का हम सही उपयोग नहीं कर पाते । गंदे कीचड़ में पड़कर अपना सौभाग्य भी गँवाते हैं और संसार को भी कलुषित-कुरूप बना जाते हैं । आत्म परिष्कार के लिए इसी कारण संतों की संगति को जीवन का सर्वोपरि सौभाग्य माना गया है ।

सत्संग की गंगा

रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी शारदामणि महिलाओं का अलग सत्संग चलाती थीं । उसमें अधिकांश
धार्मिक प्रकृति की तथा सभ्रांत घरों की महिलायें आती थीं ।

एक महिला सत्संग में ऐसी भी आने लगी, जो वेश्या के रूप में कुख्यात थी । इस पर अन्य महिलाएँ नाक-भी सिकोड़ने लगीं और उसे न आने देने के लिए माताजी से अनुग्रह करने लगीं।

इस पर माताजी ने कहा-"सत्संग गंगा है । वह मछली-मेंढकों के रहने पर भी अशुद्ध नहीं होती । तनिक
सी मलिनता से ही जो अशुद्ध हो जाय, वह गंगा कैसी? तुम लोग सत्संग की शक्ति को पहचानो और उसे गंगा के समतुल्य मानो ।"

साहसं तत्पराक्रमोऽष्याशायुक्तमन:स्थिति ।
पराक्रमोऽस्ति योग्याश्च नरास्ते साहसं विना ॥७६॥
न शवनुवन्ति कार्याणि कर्तुं तानि महान्ति ने ।
अविकासस्थितावेव तिष्ठज्यवसरेऽपि च ॥७७॥

टीका-साहस भी पराक्रम है । अशान्वित रहना पराक्रम है। अनेक सुयोग्य और समर्थ व्यक्ति साहस के
अभाव में बड़े काम नहीं कर पाते और अवसर रहते हुए भी पिछड़ेपन की स्थिति में पड़े रहते हैं॥७६-७७॥ 


अर्थ-साहस एवं विधेयात्मक दृष्टिकोण अध्यात्म का पहला पाठ है । संत का अर्थ यह नहीं कि अनुचित भी हो तो भी चुप रहें, सहते रहें । इस परिभाषा को मस्तिष्क से निकाल कर ही सच्चे अध्यात्म की उपलब्धि संभव है ।

डरो मत-भागो मत

ईसा के शत्रु उनकी जान के ग्राहक बने हुए थे । शिष्यों ने सलाह दी-हमें योरुशलम छोड़कर कहीं अन्यत्र चल देना चाहिए ।

ईसा सहमत नहीं हुए और कहा-"सत्य को न तो डरना चाहिए और न भागना। बलिदान के साथ में जुड़ जाने से तो वह और भी अधिक निखरता है ।" 

यह परंपरा सार्वभौम सत्य है । उसका न किसी देश से संबंध है और न वेश से । जाति-वंश का भी उससे कोई वास्ता नहीं । साहस, त्याग और पराक्रम अपनाने वाली हर जीवात्मा महानता का पद प्रतिष्ठित करती है।

लौह पुरुष स्टालिन

स्वलिन मोची का और उसकी माँ धोबी का काम करती थी । घर वाले उसे पादरी बनाना चाहते थे । पर जब
उसने आँखे खोलकर देश की परिस्थितियों को देखा । तो लगा कि उसका उचित स्थान राजनीति में ही है।
वह लेनिन का विश्वस्त सहयोगी बन गया । पाँच बार उसे साइबेरिया में बंदी बनाया गया, हर बार बड़ी
होशियारी से भाग आया । लेनिन के बाद उसे रूस का राष्ट्रध्यक्ष बनाया गया । वह कर्मचारियों के छोटे से क्वाटर में रहता था । जनता और अफसर दोनों के लिए ही वह बड़ा कठोर था । हरामखोरी और बदमाशी उसे सभी की नापसंद थी । उनके साथ
कडाई से पेश आता था । इसलिए लौह पुरुष के नाम से पुकार जाने लगा । उस्के जमाने में रूस ने असाधारण उन्नति की ।

भीतर का महापुरुष जग पड़े, तो अपने-पराये सभी सहयोग देने के लिए आ जुटते हैं । अपना भीतर वाला ही हारा हुआ हो, तो पराए क्या अपने ही साथ छोड़ देंगे । इसलिए किसी भी परिस्थिति में हार नहीं माननी चाहिए।

साहस के बल पर कुटिलता की पराजय

हिम्मत हो तो प्रतिकूल स्थिति में भी संतुलन से काम लिया जा सकता है। सुभाषचंद्र बोस प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहें थे । गाड़ी स्टेशन से चली ही थी कि एक अंग्रेज महिला डिब्बे में दाखिल हुई और उसने सुभाष बाबू को धमकी दी-"तुम्हारे पास जो कुछ भी है, मुँह सौप दो
वर्ना मैं शोर मचाकर तुम्हें बदनाम कर दूँगी ।" सुभाष बाबू को उसकी चाल समझते देर न लगी । वे बहरे बन गए तथा ऐसा अभिनय करने लगे, मानों उस महिला की परेशानी को समझ न पा रहे ही । संकेतों के आधार पर उन्होंने उसे समझाया कि मैडम! आप कृपया लिखकर अपना मंतव्य स्पष्ट करें कि आप चाहती क्या हैं?" अंग्रेज महिला ने आतुरतावश बिना-सोचे-समझे एक कागज पर लिखकर दे दिया । अब क्या था? सुभाष बाबू जोर से हँस पड़े । अब महिला चाहने पर भी चिल्ला नहीं सकती थी, क्योंकि उनके कागजात लूटने के षड्यंत्र का सबूत सुभाष बाबू के हाथ में आ गया था । उनकी प्रत्युत्पन्नमति ने उस महिला की कुटिलता को परास्त कर दिया।

प्रचण्ड साहसी भगतसिंह

असेंबली में बस फेंके जाने के पश्चात् सरदार भगतसिंह को गिरफ्तार लिया जेल में उन्हें था तथा उनके साथियों बहुत ही कष्ट साध्य जीवन बिताना पडा। इसके विरोध में भगतसिंह ने अनशन ने कर दिया और कहा-"जब तक सरकार क्रांतिक्रातियों के साथ उचित व्यवहार न करेगी, अनशन नहीं तोडे़गे।"

लोग समझते थे भगतसिंह लड़ने-झगड़ने में ही तेज हैं । अपनी आंतरिक कठिनाइयों से वे नहीं लड़
सकेंगे । दो-चार दिन में ही अनशन टूट जाएगा । पर एक-एक करके ११९ दिन बीत गए । लोग घबरा गए । सरकार को हार माननी पड़ी । उनकीं माँग को पूरा करना पड़ा ।

बिना पैरों का किसान

कोई आवश्यक नहीं कि साहस प्रदर्शन के लिए शरीर बलिष्ठ हो।
   
मिलिट्री से रिटायर होकर टोरेंटो के लारेन्स ने एक कृषि फार्म बनाने की ठानी । इसके लायक पैसा भी उनके पास था। विवाह किया तो ऐसी परिश्रमी और महत्वकांक्षी जीवनसंगिनी हो उसने ढूँढी। थोडे दिनों में लंबा-चौड़ा फार्म बनकर लहलहाने लगा । एक मुर्गी फार्म भी उसमें था । एक दिन भयंकर बर्फ पड़ रही थी, ट्रक बीच में  ही फँस गया । वह उसे एक मित्र की गैरिज में खड़ा करके एक मील का रास्ता पैदल पार करने के लिए चल पड़ा । बर्फीली आँधी में एक् बड़ा पेड़ ऊपर से गिरा और उसकी दोनों टाँगें दब गईं । ट्रक को देखकर लारेन्स की खोज दी गयी, तो उसे पेड़ के नीचे दबा पाया । अस्पताल में टाँगे बेकार पाई जाने से काट दी गयीं । तीन महीने बाद लौटा, तो उसे टाँगे जाने का गम नहीं था । अब वह उसी प्रकार भावी जीवन की योजना बनाने लगा । पहियेदार कुर्सी पर चलना सीखा और हाथों के सहारे ट्रक चलाने लगा । पत्नी ने पूरा सहयोग दिया । दूर-दूर से लोग देखने आते कि बिना पैरों फार्म पहले से भी अच्छा किस प्रकार चलाया जा रहा है ।

जिजीविषा ने असंभव भी करा दिया

परिवार के एक अंधे तिरसठ वर्षीय सदस्य को उस परिवार के लोगों ने किसी साधारण-सी बात पर अपमानित कर दिया । उस नेत्रहीन व्यक्ति के स्वाभिमान पर चोट पहुँची । उसने न्यूजीलैंड की एक डच बस्ती में उसी अवस्था में एक मकान बनाना प्रारंभ कर दिया । मकान का नक्शा अपने मस्तिष्क में जमाकर उसने कार्य प्रारंभ किया । स्वयं जौहरी होते हुए भी उसने बढ़ई का काम किया और ढाई वर्ष तक अनवरत श्रम करते हुए उसने एक ऐसी भव्य इमारत खड़ी कर दी, जिसमें तीन तल्ले, सात कमरे, स्नानघर तथा लंबी अटारियाँ थीं । इस मकान में लोहा, गार्डर, कोन आदि इस तरह लगाए गए कि जिसकी कल्पना कोई इंजीनियर भी नहीं कर सकता ।

देखने वाले आज भी दंग रह जाते हैं। अब यह मकान न्यूजीलैंड सरकार की संपत्ति है । उसने इसे सार्वजनिक प्रदर्शनी के रूप में सुरक्षित रख छोडा है । जो भी कोई वहाँ जाता है, उसके निर्माता के चरणों में अनायास ही श्रद्धाभिभूत होकर झुक जाता है। उस महान् कलाकार का नाम है-फ्रांसिस-ए वरडेट । स्वाभिमान पर चोट पहुँचने से वरडेट में कला का एक ऐसा स्रोत पड़ा कि वह महान् कलाकार के रूप में अमर बन गया ।

कठिनाइयों का प्रतिफल

कई बार अभावग्रस्तता और कठिनाइयाँ भी मनुष्य के दबे पौरुष को उभारने का काम करती हैं ।
दुर्बल मनोबल वाले ही उनके दबाव से हिम्मत हारते हैं ।

नैपोलियन नाटा था और गरीब घर में पैदा हुआ था । इन दोनों कारणों से उसे आरंभिक जीवन में उपहास और तिरस्कार सहने पडे़ । इस स्थिति के विरुद्ध विद्रोह उसे कितनी ही लड़ाइयाँ लड़ने और जीतने के लिए
उकसाता रहा तथा उसे चैन तब पडा, जब एक राजकुमारी से विवाह कर लिया । ब्रिटन के एक प्रधानमंत्री चर्चिल बचपन में तुतलाते थे । उन्होंने वाणी पर अधिकार करने का फैसला किया और घोर अध्यवसाय अपनाकर वे कुशल वक्ता बने । अमेरिका के राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट की एक आँख खराब थी । उपहास को विजय के रूप में परिणत करने के लिए
उनने गोली चलाने में विशेषता पाई और पक्के निशानेबाज बन गए । लार्ड वायरिन लँगड़े थे । वे अपने साथियों को पर्वतरोही सफलता पाते देखकर मन मसोसे रह गए, पर उनने हार नहीं मानी, उलट कर महत्व पाने की दृष्टि से उन्होंने दर्शन शास्त्र को अपना कार्य क्षेत्र चुना और विश्वविख्यात दार्शनिक की पंक्ति में जा बैठे ।

श्रेय की प्राप्ति सुविधाजनक हो-यह आवश्यक नहीं, उसके लिए परिपूर्ण संघर्ष करना आवश्यक है । सच पूछा जाय, तो साहस की कसौटी संघर्ष से ही होती है और उस स्थिति में अपनी हानि के लिए भी तैयार रहना आवश्यक होता है।

हारिए न हिम्मत

ईंग्लड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा० डाल्टन अपने प्रयोगों को अपने ऊपर ही करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचते ।
अन्य जीवों को त्रास देकर कोई निष्कर्ष निकालना उनने मानवता के विरुद्ध माना । अनेक जोखिम उठाकर
भी महत्वपूर्ण आविष्कार स्वयं किए । अमोनिया क्लोराइड जैसी हानिकारक वस्तु का प्रयोग अपने ऊपर करके उनने टिटनस का टीका इसी प्रकार निकाला । उनने भारी वजन लंबी दूरी तक स्वयं ढोया और सिद्ध किया कि छोटे-मोटे प्रयोगों से आदमी का कुछ बिगड़ नहीं सकता ।

उन्होंने मांसाहार का विरोध किया। फलत: उनका मजाक बनाने वाले बहुत हो गए । अंतत: वे भारत चले आये और उन महत्वपूर्ण प्रयोगों को यहीं रहकर करते रहें, जिनके कारण वे वैज्ञानिक में मूर्धन्य गिने जाते हैं। ऐसे पुरुषार्थी अनायास ही वह स्थिति प्राप्त कर लेते हैं, जिस अतिमानवीय सिद्धि या चमत्कार कुछ भी कहा जा सकता है ।

पुरुषार्थी को सिद्धि

जब संकल्प कोई जगा देता है, तो प्रगति का पथ स्वयमेव प्रशस्त हो जाता है ।

निर्विकल्प समाधि की साधना में जब सफलता न मिली, तो महर्षि उद्दालक ने सोचा-असफल होकर जीना क्या? निराहार रहक्त मृत्यु का वरण करना चाहिए । उन्होंने अन्न-जल त्याग कर मरण की साधना आरंभ करू दी ।

जिस वट वृक्ष के नीचे महर्षि का अनशन व्रत चल रहा था, उसके भीतर कोटर में वीरुध नामक एक का तोता रहता था । उसने ऋषि को संतप्त दृष्टि से देखा और सजल नेत्रों से कहा-"वाचालता क्षमा करें तो एक बात पूछूँ?'' उद्दालक ने आँखें खोली और तोते से बोले-"कहो, क्या कहना है ।" वीरुध बोला-"शरीर तो मरण- धर्मा है ही, उसकी मृत्यु-योजना करने में क्या पुरुषार्थ हुआ? मृत्यु को अमरता में बदलने के लिए ऐसा ही दृढ निश्चय किया और इतना ही त्याग किया जाय, तो क्या अमृत की प्राप्ति न होगी?"

उद्दालक बहुत देर तक सोचते रहे । शुक की वाणी उनके अंत:स्तल तक प्रवेश करती गयी । अनशन त्याग कर ऋषि ने अमृत की प्राप्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ आरंभ किया, तो निर्विकल्प समाधि भी उनके सामने आ उपस्थित हुई ।
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