नूतन भारत का भविष्य-युवाशक्ति

November 2003

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यौवन धधकती अग्नि के समान साहस एवं उसे दिशा देने वाले प्रचण्ड पराक्रम का नाम है। युवक वह है जिसके अन्तराल में आशा और उत्साह का दिव्य एवं दैवीय प्रकाश सघन होता है, जो विघ्न-बाधाओं, कठिनाइयों, समस्याओं को रौंदता-कुचलता हुआ निरन्तर कार्य और उन्नति पथ पर अग्रसर होता है। उसे अतीत पर क्षोभ नहीं, वह पीछे मुड़कर नहीं देखता, वह अपने उज्ज्वल भविष्य को निहारता है और वर्तमान का श्रेष्ठ सदुपयोग करता है। उसके नेत्रों में आशा की ज्योतिर्मय ज्योति जगमगाती रहती है। असम्भव को सम्भव बनाने, अमूर्त को मूर्त करने तथा अकल्पनीय को साकार करने का उद्दाम साहस है यौवन! और युवक उसका सच्चा प्रतिनिधि है। युवा राष्ट्र का मेरुदण्ड है। वह राष्ट्र का भविष्य है।

ऐसे युवाओं के सबल एवं मजबूत कन्धों पर राष्ट्र का सम्पूर्ण भार टिका रहता है। युवा राष्ट्र के धड़कन होते हैं। युवा राष्ट्र को प्रगति एवं विकास के पथ पर आरुढ़ करते हैं। किसी भी राष्ट्र की सच्ची समृद्धि एवं सम्पत्ति होते हैं वीर, चरित्रवान्, उदार एवं जांबाज युवा। युवा विहीन राष्ट्र मृत, मूर्छित एवं निस्तेज होता है। आज भारत की दशा भी कुछ ऐसी ही है। इसी कारण विशाल युवाशक्ति के होते हुए भी भारत अपने सनातन गौरव से वंचित है। इसी कारण भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, विस्मिल जैसे अनगिन और असंख्य जांबाज और शूरमाओं को पैदा करने वाली भारत माता की कोख आज सूनी की सूनी सी नजर आ रही है। इसी कारण लहूलुहान अपनी रोती कलपती मातृभूमि की दुर्दशा को देखते हुए भी युवाओं की धमनियों में उष्ण रक्त उबाल-उफान नहीं दे पा रहा है। इसी कारण ऋषियों की संतान होने का त्याग-तप भरा जीवट उसे महासाधना के लिए नहीं जगा पा रहा।

आज अपने राष्ट्र में सर्वत्र मरघट सा सन्नाटा छाया हुआ है। युवाओं में कहीं कोई राष्ट्र के प्रति न जवाबदेही है और न जिम्मेदारी। है तो केवल स्वयं का भुलाने, ऋषियों की विरासत महान् संस्कृति को मिटाने एवं इसके स्थान पर पाश्चात्य उपभोक्तावादी अपसंस्कृति को पनपाने एवं विकसित करने का तथ्यहीन, कुटिल कुतर्क। कहने में संकोच होता है परन्तु यथार्थ यही है कि राष्ट्र के अधिकतर कर्णधार युवा वर्ग असंयम, चारित्रिक पतन, अश्लीलता एवं आपराधिक दुष्प्रवृत्तियों के महादलदल में आकण्ठ डूबे हुये हैं। इसके दूरगामी परिणाम अब सामने एवं प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे हैं।

आज किशोरावस्था में ही युवावस्था की झलक-झाँकी देखने को मिलने लगी है। अपने देश में 10 से 19 वर्ष के किशोरों की आबादी 25 करोड़ है। परन्तु इन सुकोमल पौध की स्थिति अत्यन्त नाजुक एवं दिल दहलाने वाली है। आज के इन किशारों में मोटापा और मधुमेह से लेकर अवसाद तक उन सभी बीमारियों ने आक्रान्त कर दिया है जो कभी वयस्कों तक ही सीमित थीं। इससे समस्या और भी जटिल एवं दुष्कर प्रतीत हो रही है। एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार देश में हर तीसरे किशोर को दृष्टि दोष है। चैन्नई में हुए एक अध्ययन के अनुसार 30 फीसदी किशोर दाँतों के रोगी हैं, 17 फीसदी मोटापे के शिकार हैं। दिल्ली के स्कूलों में किया गया एक सर्वेक्षण बताता है कि 4 प्रतिशत किशोरों ने मोटापा घटाने की दवाएँ लेने और बार-बार उल्टियाँ करने जैसे कठोर उपायों का सहारा लिया। अनुमान है कि 20 प्रतिशत किशोर अवसाद का शिकार हैं। एक सरकारी कार्यदल की रिपोर्ट से पता चलता है कि 40 प्रतिशत युवाओं ने तेज घबराहट एवं तीव्र परेशानी की बात स्वीकारी है।

दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल ने किशोरों में मोटापा को महामारी की संज्ञा दी है। दिल्ली और चण्डीगढ़ में हर चौथा किशोर मोटापे का शिकार है। चैन्नई के स्कूलों में हुए अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि 18 प्रतिशत छात्र एवं 16 प्रतिशत छात्राएँ असामान्य वजन की हैं। अमेरिका में ऐसे किशोरों की संख्या 15 प्रतिशत से कम और ब्रिटेन में तो मात्र 7.3 प्रतिशत ही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में किये गये एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि 10 से 14 साल के बच्चों में से 53 प्रतिशत और 15 से 19 साल के बच्चों में से 45 प्रतिशत हर दिन जंक फूड लेते हैं। मैक्डॉनल्ड संस्कृति के बढ़ते प्रभाव तथा भारतीय मनोवृत्ति और आधुनिक जीवन शैली के बीच संक्रमण की वजह से यह दुर्वह दुर्दशा देखने को मिल रही है।

किशोरों में बढ़ता रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल अधिक चिंता का विषय है। दिल्ली में 50 किशोरों में से 19-25 अधिक कोलेस्ट्रॉल से ग्रस्त हैं और हर 15 वें किशोर में तो यह मात्रा खतरनाक स्तर तक जा पहुँची है। अपने देश में 80 फीसदी मोटे किशोर मोटापा ओढ़े हुए वयस्क की दहलीज तक पहुँचते हैं। जंक फूड (कम पोषक वाले खाद्य) ने तो जैसे दाँतों को उनके कर्त्तव्य से मुक्त कर दिया है। इसके कारण किशोरों को दाँतों में सड़न, मसूड़ों के रक्तस्राव, साँस में बदबू की शिकायत है। उनमें से 40 फीसदी के दूध के दाँत स्वाभाविक रूप से नहीं गिरते। एसी नीलसन के सर्वेक्षण के अनुसार अपने देश के करीब एक तिहाई किशोरवय युवा नेत्र रोग से ग्रस्त हैं। मुम्बई के एक मनोचिकित्सक के अनुसार देश के अधिकतर युवा फ्रायड की अवधारणा से ग्रस्त होकर ऑडियो-वीडियो पर उत्तेजक दृश्य देखने की लत से ग्रस्त हैं जिससे युवाओं का नींद चक्र ध्वस्त हो गया है। परिणाम स्वरूप पिछले 25 वर्षों में किशोर आत्महत्या के मामलों में तीन गुना वृद्धि हुई है। उनमें 40 प्रतिशत किशोर चिंता-तनाव से हैरान-परेशान हैं। वयस्कों में अधिकतर अवसाद किशोरावस्था की देन है।

ऊँची महत्त्वाकाँक्षाओं को जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है तो निराशा-हताशा का बादल गहरा जाता है। इससे उबरने के लिए किशोर नशीली दवाएँ लेने एवं धूम्रपान करने लग जाते हैं। नशीली दवाएँ लेने वालों में से 4.5 फीसदी तादाद 12-17 आयुवर्ग के किशोरों की है। इनमें से 66.8 फीसदी आपस में मारपीट आदि वारदातों को अंजाम दे चुके हैं। उन्मादी किशोरों में यौन समस्याएँ सामान्य बात हो गई है। मुम्बई और शोलापुर के कुछ अस्पतालों में गर्भपात कराने की जघन्य घटनाओं में 30 फीसदी 15 से कम उम्र की किशोरियाँ शामिल थीं। तिरुवनन्तपुरम में यौन रोगों की 24 फीसदी घटना 19 से 20 आयुवर्ग की थीं।

ये आंकड़े तो मात्र एक झलक-झाँकियाँ है, सच्चाई और वास्तविकता तो और भी कड़वी और आश्चर्यजनक है। जिस किशोरावस्था में भविष्य के भावी जीवन के स्वप्न सजते हैं, आज युवा बनने से पूर्व ही किशोर मुरझाकर कालचक्र के पद तले कुचलने के लिए अवश-विवश हो गये हैं। फ्रायड के उद्धृत काम विकार से उत्तेजित आज की युवा पीढ़ी दीन−हीन, खिन्न, अशान्त, आवेशग्रस्त होकर असमय बुढ़ापे को आमंत्रित कर बैठी है। व्यसनों तथा भोग विलासों के अंधे कुएँ में गिरकर अपने चरित्र एवं ओज-तेज को अपने ही हाथों लुटा चुके युवा वर्ग की निस्तेज पपरिली आँखों में भारत का सुनहरा भविष्य कभी नहीं दिख सकता । तमाम मान-मर्यादाओं, नीति-नियमों को धत्ता बनाकर विषय वासना में विदग्ध जवानी के जर्जर कंधों में राष्ट्र की उन्नति-प्रगति भला कैसे सम्भव हो सकती है। दिवा स्वप्न देखने में मशगूल युवाओं की विकारी आँखों को महान् भारत का दिव्य स्वप्न देखने का अवकाश कहाँ है? जिस युवा ऊर्जा के द्वारा राष्ट्र को विकासशील से विकसित देशों की पंक्ति में खड़ा होना चाहिए वह पथ भ्रमित-दिग्भ्रमित हो चुकी है।

यह गम्भीर आत्ममन्थन का समय है। समाधान का स्वर हमारे ही अन्दर विद्यमान है। कहीं बाहर तलाशने-भटकने की आवश्यकता नहीं है। हमें अपने ही अन्दर झाँकना होगा। अपने सोये हुए विश्वास को झकझोरना होगा। युवामन की धड़कन स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- उसे जगाओ और पहले की अपेक्षा और भी गौरवमण्डित और अभिनव शक्तिशाली बनाकर भक्तिभाव से उसे चिरन्तन सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो। जिससे उद्देश्य एवं लक्ष्य कार्य रूप में परिणित हो जाये, उसी के लिए प्रयत्न करो। मेरे साहसी, महान् सदाशय बच्चों! काम में प्राण-प्रण से लग जाओ। नाम, यश अथवा अन्य तुच्छ विषयों के लिए पीछे मत देखो। स्वार्थ को बिल्कुल त्याग दो और कार्य करो। आज्ञा पालन, विनम्रता, शिष्टता, सदाचार के गुणों का अनुशीलन-अनुपालन करो, परन्तु अपने आत्मविश्वास को कभी मत खोओ। बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रीभूत किये बिना कोई महान् कार्य नहीं हो सकता।

स्वामी जी युवाओं के लिए अमोघ मंत्र थे। वह युवाओं को आह्वान करते हैं-जो कुछ असत्य है, उसे पास न फटकने दो। सत्य पर डटे रहो, बस तभी हम सफल होंगे, शायद थोड़ा अधिक समय लगे पर सफल हम अवश्य होंगे। हमें जीवन का लक्ष्य एक दिन मिलकर ही रहेगा। इस तरह योजनाबद्ध एवं जिम्मेदारीपूर्वक काम करो कि मानो हममें से हरेक के ऊपर सारा बोझ आ पड़ा है। नीति परायण तथा साहसी बनो। चाँदी के चन्द सिक्कों के लिए अपना ईमान मत बेचो। लक्ष्य के लिए स्वयं को खपा दो, होम दो। पाप एवं अपवित्रता का विचार मन में मत लाओ। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी पापानुष्ठान नहीं करते। तुम वीर हो, वीरोचित कर्म करो। आगे बढ़ो। हमें अनन्त शक्ति, अनन्त उत्साह, अनन्त साहस तथा अनन्त धैर्य चाहिए, तभी महान् कार्य सम्पन्न होगा। मेरे बच्चों! जो मैं चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु जिनके भीतर ऐसा मन वास करता हो जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज।

स्वामी जी युवाओं को ललकारते हैं-तुम तो ईश्वर की संतान हो, अमर आनन्द के भागी हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। अतः तुम कैसे अपने को दीन-दुर्बल कहते हो। उठो! साहसी बनो!! वीर्यवान होओ! सब उत्तरदायित्व अपने कंधे पर लो! यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है। तुम्हारे अन्दर शक्ति का अथाह-अनन्त स्रोत है। उसे जगाओ। उठो और अपना पौरुष-पुरुषार्थ प्रकट करो। अपना आत्मविश्वास प्रदीप्त करो। अंधविश्वासों, भोगवादी अपसंस्कृति के प्रपंचों के सहारे पनपने वाले विकृत घातक अहंभाव से नहीं बल्कि सेवक की भावना के साथ दूसरों को ऊपर उठाकर! उठो! उठो! मानव और मानवता दुःख से जल रही है। क्या तुम सो सकते हो? अरे! मृत्यु जब अवश्यम्भावी है तो कीट-पतंगों की तरह मरने की बजाय वीर की तरह मरना अच्छा है। इस अनित्य संसार में दो दिन अधिक जीवित रहकर भी क्या लाभ? जराजीर्ण होकर थोड़ा-थोड़ा करके क्षीण होते हुए मरने के बजाय वीर की तरह दूसरों के अल्प कल्याण के लिए भी लड़कर उसी समय मर जाना क्या अच्छा नहीं है।

स्वामी जी कहते हैं-मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर हैं। मुझे आवश्यकता है वीर्यवान्, तेजस्वी, योद्धा समान और दृढ़विश्वासी, निष्कपट नवयुवकों की। वे सिंहविक्रम से अपने देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्याओं का समाधान करेंगे। ऐसे सौ मिल जायँ तो संसार का कायाकल्प हो जायेगा। भविष्य की पचास सदियाँ तुम्हारी ओर ताक रही हैं। भारत का भविष्य तुम पर निर्भर है। काम करते जाओ। विश्वास रखो कि तुम्हारा भविष्य अत्यन्त उज्ज्वल है। आइये हम सब राष्ट्र मंत्र से दीक्षित होकर संकल्पित हों-’उत्तिष्ठत् जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत्’ उठो जागो और तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।


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