प्रभु का सान्निध्य

November 2003

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समूचे जेतवन में एक अलौकिक सुगन्ध व्याप रही थी। यह अनूठी कमल गन्ध भगवान् तथागत की दिव्य देह से पल-पल झरती रहती थी। निरन्तर की तप साधना ने भगवान् की देह को हर तरह से दिव्य बना दिया था। प्रभु जहाँ भी रहते, वही स्थान सुगन्ध से सुवासित हो जाता। प्रकाश की प्रभा उस स्थान को सदा घेरे रहती। इस अनूठे प्रकाश में भगवान् के तप एवं ज्ञान की आभा छलकती रहती थी। इसके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति सदा-सदा के लिए अपना हो जाता। वह बरबस ही चाहे-अनचाहे भगवान् के प्रेम पाश में बन्ध जाता। उसे इस सत्य का सहज ही अनुभव हो जाता कि प्रभु ही उसके अपने हैं, उनसे अधिक उनका और कोई सच्चा हितैषी नहीं।

भगवान् की यह सहज करुणा, उनका अपरिमित प्यार, उन प्रभु का अनोखा वात्सल्य ही उनके व्यक्तित्व से सुगन्ध एवं प्रकाश की धाराएँ बनकर बहता था। अपने व्यक्तित्व से प्रभु हजार हाथों से लाखों-लाख अनुदान बाँटते रहते थे। उनकी उपस्थिति आशीष एवं कृपा की वर्षा बनकर प्रकट होती थी। जो इसमें भीगते थे, उनका सारा व्यक्तित्व ही धन्य-धन्य हो जाता। पर कुछ दुर्भाग्यशाली भी थे। जिनके कुसंस्कार उन्हें इससे वंचित रखते थे। उनकी दुष्प्रवृत्तियाँ अवरोध बनकर आड़े आती थी। अपनी ही वंचना उनको प्रभु की कृपा से वंचित करती रहती थी। कभी-कभी तो यह स्थिति इतनी दारुण एवं दुष्कर हो जाती कि ऐसे लोग भगवान् की उपस्थिति से ही ईर्ष्या करने लगते।

सम्यक् सम्बद्ध भगवान् तथागत का नाम ऐसे संकीर्ण साम्प्रदायिक चित्त के लोगों को भयाक्रान्त कर देता था। प्रभु का अस्तित्व मानव जीवन में आमूल क्रान्ति का पर्यायवाची था। अपने जीवन की क्षुद्रताओं को अपने से चिपटाए लोग भयभीत होकर उनसे दूर रहने में ही अपना कल्याण समझते थे। यही नहीं अपने बच्चों को भी प्रभु से दूर रखने की कोशिश करते। सच यही था कि बच्चों के लिए युवक-युवतियों के लिए उनका भय स्वभावतः और भी ज्यादा था। ऐसे लोगों ने अपने बच्चों को कह रखा था कि वे कभी बुद्ध की हवा में भी न जायें। उन सबने उन्हें कसमें दिला रखीं थीं कि वे कभी भी बुद्ध या बुद्ध के भिक्षुओं को प्रणाम न करें।

पर जेतवन की अलौकिक सुगन्ध वहाँ पास में रहने वाले बच्चों के सरल अन्तःकरण में अनजाने ही प्रवेश कर रही थी। उनके निष्कपट हृदय प्रभु के प्रकाश से अनायास ही भरते जा रहे थे। जब-तब उन्हें लगने लगता था कोई अदृश्य चेतना उन्हें जेतवन आने का आमंत्रण दे रही है। पर अपने अभिभावकों की आज्ञा से वे विवश थे। एक दिन एक किशोरवय के बालक ने अपने मित्रों को सुझाया कि हम सबके अभिभावकों ने जेतवन के अन्दर जाने से मना किया है, पर वहाँ आसपास बाहर खेलने में क्या बुराई है? बच्चों को यह बात औचित्यपूर्ण लगी और वे सब के सब जेतवन के बाहर खेलने लगे। काफी समय तक खेलते-खेलते उन्हें प्यास और थकान ने घेर लिया। इस थकान और प्यास में वे सब अपने माता-पिता एवं धर्मगुरुओं को दिये गये वचन भूल गये और पानी की तलाश में वे जेतवन में प्रवेश कर गये। सुखद संयोग कि जेतवन में प्रवेश के साथ ही भगवान् से उनका मिलना हो गया। भगवान् ने उन्हें अपने हाथों से पानी पिलाया। बड़े ही स्नेह से उन्हें कुछ मीठे पदार्थ खाने के लिए दिये। भगवान् की समीपता ने उन्हें जता दिया कि वही प्रभु अलौकिक प्रकाश एवं सुगन्ध का स्रोत है। करुणा तार तथागत की करुणा, प्रेम एवं वात्सल्य ने उन सबको मोह लिया।

प्रभु के वचनों से उनको गहरी तृप्ति मिली। तथागत द्वारा दिया गया पल भर का प्रेम उन्हें अपने अभिभावकों के वर्षों के पर भारी लगा। आनन्द विभोर और प्रेम विह्वल हो उठे वे सबके सब। ऐसा प्रेम तो उन्होंने कभी जाना ही न था। कभी सोचा भी न था, ऐसे चुम्बकीय आकर्षण के बारे में। कभी उन्होंने नहीं देखा था ऐसा चुम्बकीय आकर्षण, ऐसा अपूर्व सौंदर्य, ऐसा प्रसाद, ऐसी शान्ति, ऐसा अपूर्व उत्सव। वे सबके सब बच्चे अपना खेल आदि भूलकर दिनभर भगवान् के पास रहे। उनकी अन्तर्चेतना भगवान् की सुगन्ध में खोने लगी। वे भगवान् के अपूर्व रस से भीगने लगे। तथागत का अलौकिक रंग उन सरल बच्चों के हृदयों में लग गया।

अब तो उन्हें भगवान् के प्रेम का चस्का लग गया। वे जिस किसी तरह रोज ही प्रभु के पास पहुँचने लगे। धीरे-धीरे वे भगवान् के पास ध्यान के लिए भी बैठने लगे। देखते ही बनती थी उनकी सरल श्रद्धा। प्रभु पर न्यौछावर होने लगे उनके मन-प्राण। अब तो स्थिति यह बन आयी कि भले ही वे प्रभु के पास हों अथवा फिर घर पर परन्तु उनकी भाव चेतना सदा ही प्रभु के इर्द-गिर्द मँडराती रहती।

अन्ततः उनकी इस उन्मत्त अवस्था की खबर उनके अभिभावकों को लग गई। खबर लगते ही वे आग बबूला हो उठे। उनका क्रोध सारी सीमाएँ लाँघ गया। जिन बच्चों को वे अपने जिगर का टुकड़ा समझते थे, उन्हीं को बड़ी बेरहमी से मारा। उनके कुल पुरोहितों ने भी उन बच्चों को समझाया, डाँटा-डपटा, भय-लोभ, साम-दाम-दण्ड-भेद सबका उन छोटे-छोटे बच्चों पर प्रयोग किया गया। परन्तु भगवान् का अलौकिक प्रेम जो उनके हृदयों में उतर चुका था, वह किसी भी तरह नहीं मिटा। बुद्ध की जो छाप उनके निश्छल हृदयों में पड़ गयी थी सो पड़ गयी थी।

बच्चों के अभिभावक बहुत रोये और पछताये। उनकी नाराजगी बढ़ती गई। वे जिस किसी से अपना दुखड़ा सुनाते फिरते कि इस भ्रष्ट गौतम ने हमारे भोले-भाले बच्चों को भी भ्रष्ट कर दिया है। नाराजगी का यह उनका पागलपन ऐसा बढ़ा कि उन्होंने अपने बच्चों को भी त्याग देने की ठान ली और एक दिन वे उन बच्चों को सौंप देने के लिए बुद्ध के पास गये। चिढ़, गुस्सा एवं आक्रोश से भरे हुए वे ज्यों ही जेतवन पहुँचे, त्यों ही उन्हें प्रभु के प्रकाश, प्रेम एवं सुगन्ध ने घेर लिया। भगवान् की समीपता मात्र से उनके अँधेरे जीवन में ज्योति जला दी। अचरज में भरे हुए उन सब अभिभावकों से भगवान् ने ये धम्मगाथाएँ कहीं-

अवज्जे वज्जभतिनो वज्जे च वज्जदस्सिनो। मिच्छादिट्ठि समादाना सत्ता गच्छंति दुग्गतिं॥

वज्जञ्च वज्जतो ञत्वा अवज्जञ्च अवज्जतो। सम्मादिद्वि समादाना सत्ता गच्छाँत सुग्गतिं॥

जो अदोष में दोष बुद्धि रखने वाले और दोष में अदोष दृष्टि रखने वाले हैं, वे लोग मिथ्या दृष्टि को ग्रहण करके दुर्गति को प्राप्त होते हैं।

दोष को दोष, अदोष को अदोष जानकर लोग सम्यक् दृष्टि को धारण करके सुगति को प्राप्त होते हैं।

दो छोटे से ये सूत्र देकर प्रभु ने उन्हें सम्यक् दृष्टि दी। तब उन्होंने अनुभव किया कि भगवान् बुद्ध के पास पहुँच कर किस तरह अनायास ही अन्तर्भावनाएँ उन्हीं की हो जाती हैं।


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