दूसरों की सेवा से ही (kahani)

November 2003

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राजा विक्रमदेव एक बार जंगल में आखेट के लिए निकले। जंगल में भटक गए। साथी भी कहीं मार्ग में छूट गए।निविड वन में प्यास के कारण राजा का दम घुटने लगा। कही पानी दिखाई नहीं दे रहा था। सामने एक पर्णकुटी पर दृष्टि पड़ी। किसी तरह कुटी तक राजा पहुँचे। भीतर देखा ता एक साधु समाधिमग्न थे। इतने में राजा मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

मूर्च्छा दूर हुई तो महाराज विक्रमदेव ने देखा वही संत उनका मुँह धो रहे है तथा पंखा झल रहे हैं। होश में आते ही संत ने राजा को पानी पिलाया। राजा ने विस्मयवश पूछा “आपने मेरे लिए समाधि क्यों भंग की? अपनी उपासना क्यों बन्द कर दी?” संत मधुर वाणी में बोले, “वत्स! भगवान की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दुखी न रहे। उनकी इच्छा की पूर्ति आवश्यक है। दूसरों की सेवा से ही उपासना फलवती होती है।”


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