देवसंस्कृति की वेदना (kavita)

November 2003

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देवसंस्कृति वेदना अनुभव करे जो, वह तरुण पीढ़ी बुलाई जा रही है। कर सके गुरुदेव के संकल्प पूरे, बस वही विद्या पढ़ाई जा रही है॥

कई शिक्षा संस्थाएँ चल रही है, ‘भोगवादी’ व्यक्तियों को ढल रही है। लक्ष्य जिनका मात्र अर्थोपार्जन है, वासनाएँ, कामनाएँ पल रही है। आचरण में अनैतिकता घुस गई है, और नैतिकता भुलाई जा रही है॥

शिष्य आरुणि और नचिकेता कहाँ है, विवेकानन्द राष्ट्र के चेता कहाँ है। चंद्रगुप्त चाणक्य, शिवा समर्थ जैसे, राष्ट्र निर्माता व उद्गाता कहाँ है। शील, संयम,शौर्य, सेवा, समर्पण की, साधना क्यों कर भुलाई जा रही है॥

आक्रमण सुर संस्कृति पर हो रहे है, और हम अपसंस्कृति को ढो रहे है। तरुण पीढ़ी को अरे, क्या हो गया है, आत्मविस्मृति के तिमिर में खो रहे है। वेदना गुरुदेव की उनको उछाले, बस यही जीवट जगाई जा रही है।

आप आए है सुसुप्त देवत्व जगाने, बने बजरंग संस्कृति सीता बचाने। आपने व्यक्तित्व अपना ढल लिया तो, काम आएँ राष्ट्र को ऊँचा उठाने। हनुमान, अर्जुन, मैत्रेयी, लक्ष्मीबाई, की सुखद संभावना दिखला रही है।

ऊर्जा गुरुदेव के तप की यहाँ है, युग सृजन संकल्प के व्रत की यहाँ है। ईंट कच्ची रह गई व्यक्तित्व की यदि, पकाने की और फिर भट्ठी कहाँ है। नहीं कुछ भी असंभव संकल्प बल से, शिल्प की यह विधि बताई जा रही है। देवसंस्कृति वेदना अनुभव करे जो, वह तरुण पीढ़ी बुलाई जा रही है।

-मंगल विजय

*समाप्त*


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