पादौ ते देवि संश्रये

November 2003

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इतिहास में जितने भी संत और भक्त हुए हैं यह एक विलक्षण सत्य है कि उनमें से प्रायः सभी कवि, गीतकार और संगीतकार हुए है। उनकी रचनाओं में जितनी जीवन बोध और दर्शन है, उतनी ही इष्टदेव या उपास्य के प्रति भावविह्वलता है। इस विह्वलता में यद्यपि इष्ट के रूप, रंग, कर्तृत्व, समर्थ और संरक्षक स्वरूप का ही स्तवन मात्र होता है, किन्तु उसमें छलकने वाला भाव-प्रवाह इतना रसमय, स्फूर्तिदायक और हृदय को पुलकित करने वाला होता है कि सैकड़ों बार पढ़ लेने पर भी उसकी चिर नवीनता विद्यमान रहती है। स्तवन एक प्रकार की विरह पुकार है, जिसमें मिलन का सा सुख तृप्ति और आनंदानुभूति होती है। भक्ति साहित्य में इसी से स्तवनों को अत्याधिक प्रतिष्ठा प्रदान की गई है।

भगवती गायत्री माँ के प्रति श्रद्धा भाव विकसित करने में गायत्री स्तवनों का महत्व वैसा ही है। इनमें माँ के चरणों में श्रद्धा और अनुराग बढ़ता है। अतएव चलते फिरते एकाँत या समूह में इन स्तवनों की परंपरा चलती रहनी चाहिए। यहाँ ऐसा ही स्तुतिगान प्रस्तुत है :-

नमस्तेस्तु मातः श्रुति स्वरेशे, स्वमस्ते शुभस्तोमवतेअध्रिमूहे। श्रमः स्तान्नमे त्वज्जपादौ कृपालो। भ्रमोपि प्रमा स्यात प्रमेये दृशोत॥

समस्त वेदों की अधीश्वरी माँ! हम तुम्हें प्रणाम करते है। आपके अरविंद पुष्प सदृश चरणों को हम अपने मस्तक पर धारण करते है। हे दयालु! तेरी उपासना में मुझे श्रम न मालूम पड़े। यदि जप में मुझसे त्रुटि हो जाए तो अपनी कृपा से उसे सत्य में परिणत करें।

श्रुत्यन्तसंचारि विनोदकारि, विसारि धीरेक्षण सद्विलासैः। श्रुतमम्ब लीलानतनुषे त्वमेका। अमोघमंत्रा सकला स्वतंता।

हे वेदमाता! तू वेदाँत में संचार कर रही है। विनोदकारी, सर्वव्याप्त, सुख समृद्धि एवं अमोघ मंत्रों से युक्त सर्वथा स्वतंत्र हे माँ! आप ही विभिन्न रूपों में लीलाएँ कर रही है।

अम्बाअर्कविम्बान्तरूपेयुषि त्वाँ, विम्वोष्ठि कम्बु प्रतिविंव कंठि। स्तंबेरमास्यासुराभिवन्द्याम। जाम्बूनदालड करणेअवलम्बे॥

सूर्य बिंब में रहने वाली बिंवफल के समान ओठों वाली, शंख के समान मधुर ध्वनियुक्त, गणेश आदि देवताओं द्वारा पूजनीय, स्वर्णिम आभूषणों से युक्त हे माँ! मैं तेरी शरण में आया हूं।

साधना में जिस एकाग्रता की बात कही जाती है, वह सहज ही साधन को माँ की छवियुक्त आकृति के ध्यान से प्राप्त हो जाती है।

कान्त्ये वाअधः कृतं पदमं हेमपीठमधिष्ठिताम। अलंकरिष्ण श्रीमत्याः पादौ ते देवि संश्रये॥

हे माँ! तुम्हारे चरणों के नीचे सुवर्ण पीठ ऐसा जान पड़ता है, जैसे कि आपके पद सदृश्य चरणों की आभा द्वारा प्रपंच के सभी पदमपुष्प थककर तेरी शरण में आ गए हो तथा तेरी चरणसेवा के लिए आकर पादपीठ का रूप धारण किए है। तेरे उन अलंकृत चरणों को मैं नतमस्तक होता हूँ।

यदि भयमभविष्यदत्र मातः। सपदिशिवेअशमयिष्ट एव तन्मे। सुमहसि हृदिमेत्वयि प्रदीप्ते, प्रभवति किन्तुतमस्समीपमेतुम॥

हे मंगलकारिणी माँ! यदि हम भयग्रस्त होते है तो तू उसे शीघ्र दूर करने में सक्षम है। रत्नदीप के रूप में आप मेरे हृदय में प्रकाशित हो रही हो, फिर अंधकार को सामने आने का क्या साहस होगा।

वेदमाता गायत्री के प्रति इस प्रकार की समर्पण भावना से साधक का विवेक जाग्रत होता है, जिससे अज्ञानरूपी अंधकार में भटकने की संभावना नहीं रहती।

इस प्रकार भावयुक्त स्तुति से साधन की श्रद्धा एवं निष्ठा माँ के प्रति दृढ़ होती है, जो साधना की सफलता का आधार है।


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