यज्ञोपचार द्वारा रतिज रोगों की सरल चिकित्सा

November 2003

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यज्ञ चिकित्सा अपने आप में सर्वांगपूर्ण चिकित्सा पद्धति है। इस उपचार प्रक्रिया को अपनाने से न केवल शारीरिक मानसिक आधि व्याधियों का शमन होता है, वरन् यह जीवनीशक्ति का अभिवर्द्धन कर दोबारा रोगाणुओं के आक्रमण से भी व्यक्ति की रक्षा करती है। संक्रमणजन्य बीमारियों को दूर करने से यज्ञोपचार से आश्चर्यजनक रूप से लाभ मिलता है। विविध प्रकार के रोगाणु विषाणुजन्य बुखार, क्षयरोग, चेचक, प्लेग आदि से लेकर यौन संक्रमित रोगों का उपचार भी इस प्रक्रिया द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है और दीर्घायुष्य जीवन का आनंद उठाया जा सकता है। सोजाक, उपदंश, शैंकरायड एवं एड्स जैसी प्राणघातक एवं संसर्गज बीमारियों में यज्ञीय उपचार उपक्रम को अपनाया जाए तो अन्यान्य चिकित्सापद्धतियों की अपेक्षा यह अधिक कारगर सुरक्षित एवं हानिरहित सिद्ध होती है। प्रायः सभी संक्रमणजन्य बीमारियों का पूर्ण उपचार इससे संभव है।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में रतिज रोगों को संक्षेप में एसटीडी (सेक्सुअली ट्राँसमीटेड डिसिजेज) कहते है। इसमें जिन प्रमुख रोगों की गणना होती है उन्हें निम्न समूहों में बाँटा जा सकता है -(1) वायरसजन्य संक्रमण से होने वाले रतिज रोग, जैसे सायटोमिगोलो इन्फेक्शन एवं हरपीस वायरल इन्फेक्शन (2) प्रोटोजोआ वर्ग के एककोशीय जीवाणुओं से होने वाले रतिज रोग, जैसे ट्राइकोमोनिएसिस एवं शैंकरायड (3) क्लेमाइडियल इन्फेक्शन से होने वाले रोग ग्रेन्युलोमा इन्गुइनल आदि (4) फंगल इन्फेक्शन से उत्पन्न कैन्डिडिएसिसि एवं (5) बैक्टीरियाजन्य रतिज रोग गोनोरिया (सोजाक) एवं सिफलिस (उपदंश) आदि। एचआईवी अर्थात् एड्स की गणना भी यौन संक्रमित रोग के अंतर्गत आती है। यह वायरसजन्य संसर्गज रोग है जो व्यक्ति की प्रतिरक्षा प्रणाली ‘इम्यून सिस्टम’ पर सीधे प्रहार कर शीघ्रातिशीघ्र रोगी को मरणोन्मुख बना देता है।

यहाँ पर जिन रतिज रोगों का वर्णन किया जा रहा है, उनमें से दो प्रमुख है सोजाक एवं उपदंश यिफरंग रोग। सोजाक को अंगरेजी में ‘गोनोरिया’ एवं आयुर्वेद में पूयमेह, व्रणमेह, औपनसर्गिक मेह, आगंतुक मेह आदि नामों से जाना जाता है। इसे प्रमुख संक्रामक रोगों में गिना जाता है जिसके कारण विश्वभर में संक्रमित व्यक्तियों की संख्या निरंतर बढ़ती जाती है। यह स्वच्छंदता एवं असुरक्षित यौन व्यवहार के कारण पनपते वाला रोग है, जिससे नर नारी दोनों ही प्रभावित होते है। यह रोग एक वर्ग से दूसरे वर्ग में संसर्ग के द्वारा फैलता है। 15 से 30 वर्ष आयु के नर नारी प्रायः इस संक्रमण के शिकार होते हैं।

गोनोरिया शीघ्रता से फैलने वाला संक्रामक रोग है। इसका प्रमुख कारण कॉफी के बीज के आकार के सूक्ष्म गोनोकोकस नामक बैक्टीरिया होते है जिन्हें ‘नाइसेरिया गोनोरी’ कहते हैं। इसके जीवाणु मूत्रमार्ग एवं श्लेष्मल त्वचा से शरीर में प्रवेश करते है। इनका प्रमुख आक्रमण स्थल मूत्रजनन संस्थान एवं श्वेत रक्तकण होते हैं। समय पर चिकित्सा उपचार न होने से यह रोग अपना विषैला प्रभाव मूत्रनलिका से लेकर पौरुश ग्रंथि, शुक्रवाही संस्थान, गर्भाशय ग्रीवा आदि अंग अवयवों पर डालता है। परिणाम स्वरूप जलन, पेशाब का बार बार आना अर्थात् मूत्रकृच्छ, मवाद निकलना, सूजन आदि प्रमुख लक्षण प्रकट होते है। कई बार गोनोकोकस बैक्टीरिया से दूषित हाथ का स्पर्श नेत्र, नाक आदि अंगों पर होने से क्रमशः नेत्राभिष्यदं एवं नासाशोथ हो जाता है। रेक्टम व फैरिंग्स भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रहते।

यों तो आधुनिक चिकित्साविज्ञानी सोजाक के शमन के लिए पेनिसिलीन, स्ट्रेप्टोमाइसिन, टेट्रासाइक्लिन, सल्फोनामाइड जैसी तीव्र एंटीबायोटिक दवाइयों का प्रयोग करते है और प्रायः तीन सप्ताह तक इस क्रम को चलाते है। आयुर्वेद चिकित्सा में विष से विष को मारने ‘विषस्य विषमौषधम’ की प्रक्रिया अपनाई जाती है। कहा भी है -

औपदंशिक सौजाका व्रणा विष समुद्रभवाः। विषजातो यथा कीटो विषेणैव विपधते॥

उपदंश और सोजाक के व्रण या रोग विष से (विषाणुओं से) उत्पन्न होते है, अतः इन्हें नष्ट करने के लिए विषैला औषधियों का प्रयोग आवश्यक हो इसके लिए आयुर्वेद में सोमल (संखिया) रसकपूर (पारा) प्रभृति तत्वों को जिन्हें परम विष कहा जाता है, उनके विविध योग इन आगंतुक संक्रामक रोगों एवं उनसे उद्भूत विकारों को दूर करने में प्रयुक्त होते हैं। सोजाक से पूरी तरह निजात पाने के लिए यज्ञोपचार प्रक्रिया का आश्रय लेने से अन्यान्य चिकित्सापद्धतियों की अपेक्षा यह रोग आसानी से ठीक हो जाता है तथा प्राणशक्ति जीवनीशक्ति के अभिवर्द्धन के साथ-साथ दूसरे दुष्प्रभावों से रक्षा भी होती है।

(1) गोनोरिया (सोजाक) हेतु विशेष हवन सामग्री इसमें निम्नलिखित चीजें मिलाई जाती है-

(1) अनंतमूल (2) अपराजिता पंचाँग (3) चोपचीनी (4) कालीमिर्च (5) अतिबला (कंघी) पंचाँग (6) अपामार्ग (7) विलायती बबूल के पत्ते (अरिमेद) (8) आमवृक्ष की छाल (9) गोक्षुरु (10) पीपल की छाल (11) इमली के वृक्ष की छाल (12) आँवला (13) छोटी इलायची (14) कबावचीनी (शीतल चीनी) (15) कतीरा (16) कमरकस (समुद्रसोख) (17) काँटा चौलाई की जड़ (18) गंध बिरोजा (19) खिरेंजी (बला) के बीज (20) दारुहलदी (21) रसौत (22) गावजवाँ (23) इंद्र जौ (24) बिधारा (25) मकोय पंचाँग (26) मंजीष्ठ (27) सालवृक्ष की छाल (28) शीशम (29) शरपुँजा (30) सुँरजान (31) मोचरस (सेमर का गोंद) (32) सौंफ (33) र्स्वणक्षारी (सत्यानाशी) मूल (34) मुलहठी (35) रेवंदचीनी (36) चंदन सफेद (37) नीम छाल (38) माजूफल (39) जवासा (40) हरड (41) तृणपंचमूल (कुश, काँस खस, ईख, शरकंडे की जड़) (42) दुग्धिका (दूधीलाल) (43) शतावर (44) मेहंदी के पत्ते (45) कत्था या खैर की छाल।

उपर्युक्त सभी चीजों का बराबर मात्रा में लेकर कूट पीसकर उनका जौकुट पाउडर बना लेना चाहिए और उसे एक डिब्बे में सुरक्षित रख लेना चाहिए। साथ ही उस पर ‘सोजाक रोग की विशेष हवन सामग्री क्रमाँक (2)’ का लेबल चिपका देना चाहिए। हवन करने से पूर्व उसमें बराबर मात्रा में पहले से तैयार की गई काँमन हवन सामग्री क्रमाँक (1) को मिला लेते है। काँमन हवन सामग्री में अगर, तगर, देवदार, लाल चंदन, सफेद चंदन, जायफल, लौंग, गूगल, चिरायता एवं गिलोय समभाग में मिली होती है। हवन के लिए पलाश या आम की सूखी लकड़ी प्रयुक्त करनी चाहिए। हवन नित्य प्रायः सूर्य गायत्री मंत्र से करना चाहिए। सूर्य गायत्री का मंत्र इस प्रकार है ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विग्रहे, दिवाकराय धीमहि, तन्नः सूर्यो प्रचोदयात्। कम से कम चौबीस आहुतियाँ इस मंत्र से अवश्य देनी पड़ती है। अधिकतम इक्वायन या एक सौ आठ आहुतियाँ दी जा सकती है। हवन करने के साथ-साथ क्वाथ लेना अधिक लाभकारी सिद्ध होता है।

इसके लिए उपर्युक्त सभी 45 चीजों से बने जौकुट पाउडर (सोजाक रोग की विशेष हवन सामग्री 1-2) में से रोग की तीव्रता के अनुसार 5 से 10 चम्मच पाउडर लेकर उसे शाम को स्टील के एक भगोने में आधार लीटर पानी में भिगो देना चाहिए। सुबह मंद आँच पर पकाना चाहिए और चौथाई अंश बचे रहने पर उसे उतारकर ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लेना चाहिए। हवन करने के बाद क्वाथ की आधी मात्रा सुबह एवं आधी मात्रा शाम को रोगी को पिलाते रहना चाहिए। यहाँ ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि उपर्युक्त हवन सामग्री में क्रमाँक (2) में सम्मिलित कतीरा, कत्था, गंध बिरोजा, रसौत एवं मोचरस जैसी चीजों को न मिलाकर केवल क्वाथ वाले जौकुट पाउडर में मिलाकर भी सेवन किया जा सकता है।

गोनोरिया अर्थात् पूयमेह में निम्नाँकित औषधियों को मिलाकर बनाया गया चूर्ण भी बहुत फायदेमंद सिद्ध होता है। इसमें सम्मिलित है (1) चोपचीनी (2) रसौत (3) सफेद जीरा (4) मुलहठी (5) शीतल चीनी (6) गिलोय (7) चंदन (8) निशोथ (9) दारुहलदी (10) स्वर्णक्षीरी मूल की छाल प्रत्येक औषधि 6-6 ग्राम। (11) इंद्रजी (12) बंशलोचन (13) शुद्ध फिटकिरी (14) शुद्ध गंधक (15) राल चूर्ण (16) कत्था (17) शुद्ध गेरु (18) मंजीष्ठ (19) मेंहदी (20) कलमी शोरा (21) शुद्ध यवक्षार (22) गंध बिरोजा (23) छोटी इलायची (24) पलाश पुष्प (24) रेवंद चीनी (25) पाषाण भेद-प्रत्येक घटक औषधियाँ 3-3 ग्राम।

उपर्युक्त सभी घटक द्रव्यों को साफ शुद्ध करके कूट पीसकर एवं खरल करके एकरस कर लेना चाहिए और ठंडे पानी से दिन में तीन बार 2-2 ग्राम की मात्रा में रोगी को तब तक सेवन कराना चाहिए, जब कि रोग समूल नष्ट न हो जाए।

यज्ञोपचार एवं औषधि सेवनकाल में पथ्य परहेज का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए। गोनोरिया सोजाक के रोगी को रोगमुक्त होने तक संयम का पालन करना चाहिए। दौड़ धूप करना, नाचना, घोड़े की सवारी करना, साइकिल चलाना, स्त्री-संसर्ग आदि छोड़ देना चाहिए। चाय, कॉफी, माँस मछली, गरम मसाले, मद्यपान, खट्टे पदार्थ आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। कामोत्तेजक दृश्यों, विषयों, के दर्शन, भाषण, मनन चिंतन से बचना चाहिए। रोगी को पथ्य में शीघ्र पचने वाले हलके तथा ठंडे आहार देना चाहिए। जौ, गेहूँ का दलिया, मूँगदाल, पुराने चावल की खिचड़ी, पतली रोटी, डबल रोटी, हरा शाक, पालक, चौलाई बथुआ, तोरई घिया की सब्जी, बकरी या गाय का दूध, दूध की लस्सी, नींबू का शर्बत, नारियल के पानी का सेवन इस रोग में हितकारी है। पथ्य परहेज युक्त संयमित जीवनचर्या स्वास्थ्य रक्षा के स्वर्णिम सूत्र है, इन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।


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