आत्मसत्ता की गौरव गरिमा

November 2003

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इंद्र, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी देवताओं का ब्रह्मा ने आवाहन किया। उनके सामने एक तिनका रखा और कहा कि इसे उठाओ, जलाओ और उड़ाओ, पर एक नन्हे से तिनके को हस्ताँतरित करने में कोई भी समर्थ न हुआ। तब ब्रह्मा ने उस तिनके को उठाया, फूँक मारकर उड़ाया और जलाकर भी दिखा दिया। पराभूत देवताओं को उपदेश देते हुए केनोपनिषद में ब्रह्मा ने समझाया कि शक्ति का केन्द्र शरीर नहीं, आत्मचेतना है। शरीर तो जड़ है उसका अभिमान नहीं करना चाहिए।

इस आख्यायिका में बताया गया है कि मनुष्य के शरीर में विभिन्न पदार्थों की सम्मत शक्ति होने पर भी यदि चेतना नहीं है तो मात्र पिंड कुछ नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान चेतना है जड़ शरीर नहीं।वह चेतना, शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व है।

ऋग्वेद (1/117/3) में कहा गया है यह जीवात्मा अनेक मार्गों द्वारा शरीर में आता है (शरीर से पैदा नहीं होता) शरीर से पृथक होता है अविनाशी और इंद्रियों का रक्षक होता है। वह शरीर के साथ भी रहता है, शरीर को छोड़कर भी रहता है।

पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी कोई ऐसा प्रयोग नहीं कर पाए है, जिससे आत्मचेतना के अस्तित्व की पृथक अनुभूति की जा सके, पर योग साधनाओं द्वारा प्रमाण प्रत्यक्ष प्रदर्शनों द्वारा प्रस्तुत किए है, जिनसे पता चलता है कि आत्मा अज्ञानवश शरीर के व्यापार में आसक्त पड़ी रहे यह अलग बात है, पर वह है स्वशासी, अपनी नियंत्रक आप। अनेक वर्ष पूर्व सुप्रसिद्ध योगी देशबंधु की इस मान्यता को कुछ डाक्टरों ने अमान्य कर दिया, फलस्वरूप मुँबई मेडिकल यूनियन की ओर से श्री देशबंधु का प्रदर्शन कराया गया। उसे देखने के लिए मुँबई मेडिकल कॉलेज के छात्र, स्टाफ और अन्य विशिष्ट नागरिक भी एकत्र हुए। डॉ. बसंत रैले ने उनके शरीर परीक्षण के लिए नियुक्त किए गए। श्री देशबंधु से कहा गया कि यदि आप जानते है कि चेतना को शरीर से भिन्न किया जा सकता है तो आप दाहिने हाथ की शरीर क्रिया को शून्य करके दिखाइए।

श्री देशबंधु ने लंबी श्वास प्रश्वास क्रिया की। उसे कुछ देर तक जारी रखा, फिर दोनों हाथ बाहर निकाल दिए। श्री रैले ने देखा कि बाएँ हाथ की नाडी यथावत धकधक कर रही है, पर दाहिने हाथ की नाडी में संचालन की तनिक भी गति नहीं थी। दोबारा फिर वैसा ही करके उन्होंने दाहिने हाथ की नाडी चलाकर दिखादी और बाएँ हाथ की नाडी गति को शून्य कर दिया। दूसरी बार योगी देशबंधु ने विभिन्न प्राणायाम क्रियाओं द्वारा सारे शरीर को नाडी संस्थानों को तो गतिशील रखा किन्तु हृदय गति देकर मृतक को जिंदा कर दिया हो, जबकि प्रत्यक्ष उदाहरण यह था कि शेष शरीर जी रहा था और शरीर का इंजन हृदय रुका पड़ा था। श्री देशबंधु ने कहा ‘आत्मा स्वतंत्र तत्व है उस पर केंद्रस्थ होकर आश्चर्यजनक दीखने वाला एक काम संभव है।’

डॉक्टरों ने उस समय यह तर्क दिया कि संभव है, यह सब आपने हिप्नोटिज्म द्वारा लोगों को सम्मोहित करके दिखाया हो। इस पर उन्होंने दोबारा प्रदर्शन किया। इस बार कार्डियोग्राम द्वारा विधिवत हृदय गति की जाँच की गई, तो भी परिणाम ज्यों का त्यों रहा। श्री देशबंधु ने इसे महज खेल बताते हुए कहा ‘आत्मचेतना नाडी संस्थानों द्वारा इस शरीर से संबद्ध है। ये क्रियाएँ और कुछ नहीं, मात्र वेगस नर्व’ के नियंत्रण का परिणाम है। भली भाँति नियंत्रित आत्मचेतना से दूरगमन, दूरश्रवण, परकाया प्रवेश ईशित्व, वशित्व, अणिमा, महिमा आदि विलक्षण सिद्धियाँ और सामर्थ्य अर्जित की जा सकती है। अणु से विराट बनने का श्रेय इन साधनाओं द्वारा ही समुलब्ध होता है।

योग मार्ग न सही, ऐसे अनुभव पाश्चात्य लोगों ने भी किए है और माना ही कि शरीर की मुख्य चेतना अपने स्वतंत्र अस्तित्व में रह जाती है। इसकी अनुभूति द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अगस्त, सन 1944 को एक फौजी अफसर को हुई। वह ऑफिसर एक कार द्वारा जा रहा था, तभी जर्मनी की एक एंटी तोपों का सीधा प्रहार हुआ। ऑफिसर की गाड़ी में और भी विस्फोट पदार्थ भरे हुए थे,उसमें भी विस्फोट हो गया। उस समय की स्थिति का वर्णन करते हुए ऑफिसर ने द्वितीय विश्वयुद्ध के मित्र राष्ट्र गजेटियर में लिखा है जैसे ही विस्फोट हुआ, मैं लगभग 7 मीटर दूर जा गिरा। ऐसा लगा कि मैं दो भागों में विभक्त हो गया हूँ। मेरा स्थूल शरीर नीचे जमीन में पड़ा तड़प रहा था उसके कपड़ों में आग लगी थी, जबकि दूसरा शरीर इस शरीर के ऊपर आकाश में गुब्बारे की तरह तैर रहा था। मैं अपने रूप को स्वयं पहचानने में असमर्थ था, यद्यपि वहाँ की हर वस्तु, सड़क के पार का युद्ध दृश्य झाड़ियां जलती कार, मैं सब कुछ स्पष्ट देख रहा था। मेरे भीतर से इसी बीच एक अंतःप्रेरणा उठी कि जल्दी जल्दी शरीर को जमीन से रगड़ो, ताकि आग बुझ जाए। शरीर ने ऐसा ही किया। वह लुढ़ककर बगल की खाई में जा गिरा। खाई में कुछ नमी थी। आग बुझ गई और मुझे ऐसा लगा जैसे एक पक्षी द्वारा घोंसले में प्रवेश की तरह मैं फिर उसी शरीर में आ गया। अब मुझे शरीर की पीड़ा का भान होने लगा, जबकि थोड़ी देर पूर्व यही दृश्य मैं मात्र दर्शक बना देख रहा था।

यह उदाहरण विवेक-चूड़ामणि की इस सत्यता का ही बोध कराता है :-

असंडोअहमनमलिडोअहमभंगुरः। प्रशान्तोअहमनन्तोअहं चिरन्तनः॥490॥

मैं (आत्मचेतना) असंग हूँ, मेरा कोई संग नहीं, मेरा नाश नहीं होता, अत्यंत शाँत, अनंत, अताँत और चिरंतन हूँ। मेरा कोई आदि अंत नहीं।

भारतीय दर्शन के इन गूढ रहस्यों का मर्म रामकृष्ण परमहंस बहुत सीधे सादे उदाहरण से समझाया करते थे, कहा करते थे-जिस तरह प्याज की गाँठ का छिलका उतार दो, दूसरा छिलका आ जाता है। छिलके उतारते जाओ, अंत में उसका बीज मात्र रह जाता है। उसी प्रकार शरीर के पदार्थ की समीक्षा और विश्लेषण करते जाओ तो समस्त स्थूल पदार्थों के बाद जो शेष बचेगा, वह आत्म चेतना ही होगी।

इसकी विधिवत अनुभूति लंबी योग साधनाओं से संभव है पर कई बार आकस्मिक घटना भी आत्मचेतना के पृथक अस्तित्व का बोध करा देती है। जम्मू में शिक्षा विभाग के एक मध्यम श्रेणी कर्मचारी श्री गोपीकृष्ण थे। उनके किसी पुस्तक में पढ़ रखा था कि मस्तिष्क मध्य ज्योतिर्लिंग का ध्यान करने से परमात्मा की अनुभूति होती है। एक दिन वे इसी तरह ध्यान कर रहे थे। जिज्ञासा की प्रखरता में बड़ी प्रबल शक्ति ही मन की चंचलता के कारण ध्यान का जो लाभ कुछ लोग वर्षों अभ्यास के बाद भी नहीं ले पाते, वह उनकी तीव्र जिज्ञासा के क्षणभर में प्रदान कर दिया। उन्हें सहस्रार की स्पष्ट अनुभूति अकस्मात हो गई। वे समझ न सके, यह क्या हुआ। वे एक दिव्य लोक में खोए रहने लगे।

एक दिन वे तवी पुल पार कर रहे थे, तभी एक प्रकार के बोध के साथ ही उनके मस्तिष्क में बहुत ही दिव्य भाव छंदबद्ध काव्य के रूप में उदित हुए। साधारण शिक्षित व्यक्ति में असाधारण कवित्व शक्ति का उदय उनके लिए एक आश्चर्य बन गया। वे कविताएँ लिखने लगे। आश्चर्य तब और भी गहरा हो गया, जब उनके मुख से जर्मन, फ्रेंच, अरबी, संस्कृत आदि भाषाओं में काव्य धाराएँ फूटने लगी, जिनका कि उन्हें ज्ञान तक न था। उन रचनाओं की जाँच की गई तो पाया गया कि वे व्याकरण की मर्यादा के अंतर्गत है और उनमें प्रस्तुत विचार शृंखलाबद्ध नियमित और स्पष्ट है। रहस्य को न समझने पर भी सबने माना कि श्री गोपीकृष्ण के शरीर में किसी ऐसी सत्ता का विकास हो गया है, जो शरीर और मन की पहुँच से बहुत व्यापक पहुँच वाली है। ये विलक्षण घटनाएँ देखकर योगवासिष्ठ के ये कथन याद आते है।आत्मा का शरीर से कोई संबंध नहीं। अंधकार और प्रकाश की तरह दोनों दो विलक्षण पदार्थ है। (6/16/6) सोना कीचड़ में गिर जाने से उस पर कीचड़ का आवरण चढ़ गया जान पड़ता है तथापि सोने के कणों की शुद्धता में कोई अंतर नहीं आता। उसी प्रकार शरीर में आ जाने पर भी आत्मा के अस्तित्व में किसी प्रकार का अंतर नहीं आता। (5/5/25)


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