बणिक बुद्धि बनाम भाव जगत

November 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ऋषि ने पुकारा है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’। हे प्रभु! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, असत से सत की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर। देखना है कि यह अमृत कहाँ है? सत कहाँ है और ज्योति कहाँ है? उन तक कैसे पहुँचा जा सकता है? इन तीनों देव विभूतियों को पाकर किस प्रकार कृतकृत्य हुआ जा सकता है? ये तीनों हृदय गुफा में अवस्थित है और अंतर्मुखी होकर इस रत्नराशि को कोई भी विवेकशील व्यक्ति सरलतापूर्वक बटोर सकता है।

गुफा निवास एक बात है और गुफा की उपलब्धि दूसरी। भौतिक क्षेत्र की पर्वतीय प्रदेशों की जगह जगह पाई जाती है। वे प्रकृति की संरचनाएँ है। उनमें वन्य पशु अपने आश्रय बनाते है और अपना विश्रामकाल उन्हीं में बिताते है। प्राचीनकाल में आत्मचिंतन, अंत क्षेत्र के अनुसंधान के लिए ऐसा वातावरण अधिक उपयोगी माना जाता था। तब उसमें स्थान स्थान पर अनेक योगी यती रहते थे। उनका आत्मबल ऐसा होता था कि शरीर निर्वाह के साधन भी अनायास ही मिल जाते थे और सुरक्षा संकट उत्पन्न नहीं होता था।

अब वैसी स्थिति नहीं रही, तो भी लोग नकल बनाने में ही अपनी महत्ता समझते हैं। असली राजा या ऋषि बनना यदि संभव न हो तो लोग रंगमंचों पर उन्हीं वेशों के वस्त्र विन्यास के आधार पर मुखौटे लगाकर वैसा ही प्रदर्शन करते है। इमारतों की तरह तहखाने के डिजाइन भी बना लेते है और उसी को गुफा कहते है। उसमें बैठे बैठे समय गंवाते हुए सोचते है कि वे भी पुरातनकाल के ऋषियों जैसी सिद्धियाँ प्राप्त कर रहे है। वे भूल जाते है कि चिंतन और लक्ष्य में जमीन आसमान जितना अंतर रहते हुए भी असली और नकली की एक जैसी स्थिति कैसे हो सकती है? यदि गुफा में रहने से ही सिद्धियाँ मिली होती तो सभी चूहे सिद्धपुरुष हो गए होते। शीत आतप का जहाँ अधिक दबाव होता है या दृष्टि से बचने की आवश्यकता होती है वहाँ वन्य पशु प्रायः गुफाओं में रहते है या उसे अपने पंजों से खोदकर बना लेते है। नेवला, गोह साँप आदि का अधिकाँश जीवन गुफाओं में ही समय काटते हुए बीतता है।

अध्यात्म क्षेत्र में वातावरण की महत्ता तो है ही पर उस दिशा में प्रगति करने के लिए इतने भर से काम नहीं चल जाता। इससे अधिक भी कुछ करना होता है अन्यथा वातावरण का लाभ शारीरिक स्वस्थता तक ही सीमित होकर रह जाता है।

तत्वदर्शियों ने हृदयक्षेत्र को ‘गुफा’ कहा है। यहाँ हृदय के भौतिक और आत्मिक पक्ष के अंतर को समझना होगा। भौतिक हृदय सीने में बांयी ओर नाशपाती जैसे आकार की एक छोटी सी माँसल संरचना है जो अपने रचना प्रयोजन के अनुसार धमनियों और छोटी नलिकाओं द्वारा निरंतर रक्त फेंकती और खींचती रहती है। इसकी धड़कन उस स्थान पर हाथ रखकर आसानी से पहचानी जा सकती है। इसी पर रक्तचाप की न्यूनाधिकता का प्रभाव पड़ता है और क्रियाकलाप थोड़ी देर रुकते ही प्राणाँत हो जाता है।

अध्यात्म क्षेत्र की हृदय गुफा इससे भिन्न है। वह मेरुदंड में अनाहत चक्र के समीप है। पंचकोश गणना में यही विज्ञानमयकोश है। इसे भौतिक हृदय की सीध में तनिक पीछे हटकर अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रहने वाला माना गया है। संक्षेप में यही अंतराल या अंतःकरण है - भाव संवेदनाओं का केंद्र। कविता में किसी को दिल दे बैठना उस पर निछावर होने को कहते है। उर्दू का एक शेर है ‘दिल के आइने में है तस्वीरें यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली’। यह आइने जैसी दिल रक्तसंचार ग्रंथि से सर्वथा भिन्न है। हिम्मत, साहस, बहादुरी आदि के संदर्भ में भी उसी आत्मिक हृदय का उल्लेख किया जाता है।

भावनाओं का तो केंद्र ही यह है। यहाँ भावनाओं से तात्पर्य आदर्शवादी पुण्य परोपकार से मिश्रित भावसंवेदनाओं से है। यह कार्य बुद्धि नहीं कर सकती। बुद्धि का आधार प्रत्यक्ष लाभ हानि है। घाटा पड़ने पर उसे झटका लगता है और लाभ होने पर गर्व का उभार आता है। किसी वृद्धजन के मर जाने पर खुशी मनाई जाती उसकी अरथी को सजाया जाता है। मृत्युभोज में पैसा खरचा जाता है मानो कोई आकस्मिक लाभ हुआ हो। बुद्धि का यह निर्णय ठीक ही है कि बेकार आदमी घर घेरे हुए था, पैसा खरच कराता था और आएदिन सेवा सहायता की माँग करता था। ऐसी झंझटों से पीछा छूटा तो अच्छा ही हुआ। उस घटना पर खुशी होनी चाहिए, किन्तु उसकी धर्मपत्नी को बिछोहजन्य जो दुःख होता है उसे वही जानती है। यह भावना है।

बुद्धि को तर्क के आधार पर प्रभावित किया जा सकता है और प्रलोभन या दबाव से उसकी दिशा बदली जा सकती है। किन्तु वह लुढ़केगी सदा स्वार्थ साधना की दिशा में ही।उसे मोड़ना इसी पक्ष में संभव है। घाटे का सौदा वह नहीं करना चाहती। इसीलिए ऐसे उच्च आदर्शों के परिपालन में उसे कटिबद्ध नहीं किया जा सकता, जिससे प्रत्यक्ष घाटा पड़ता हो कारण कि बुद्धिवादी धर्मोपदेशक आदर्शों की बड़ी बड़ी बातें तो कहते है उनके भाषण बड़े लच्छेदार होते है पर जब उस कथन को निजी जीवन में कार्यान्वित करने के अवसर आते है तो पीछे हट जाते है। इसका कारण एक ही है कि उन्होंने धर्मचर्चा को बुद्धिक्षेत्र में अपनाया है पर अंतःकरण में, भावना क्षेत्र में स्थान नहीं दिया।

संसार में अनेक व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो आदर्शों को प्रमुखता देते है। उनकी भावनाएँ उस रंग में रंग जाती है और उस उत्कृष्टता को अपनाने में वे बड़े से बड़ा जोखिम उठाते हैं। शारीरिक कष्ट पैसे की हानि, विरोधियों द्वारा हास उपहास आदि की घटनाएं उनके सामने आती है। यहाँ तक कि अपने पिछले कुसंस्कारों को उलटा पुलटा करते देखा गया है। किसी के तनिक से बहकाने पर बहक जाते है। स्वार्थ त्यागने, परमार्थ अपनाने का श्रेय तो लेना चाहिए, पर उसके लिए जो त्याग बलिदान करना पड़ता है उसके लिए कदम बढ़ाने का साहस नहीं करते। करते है तो कुछ ही दिनों में क्षणिक उत्साह का बबूला फूटते ही पीछे लौट जाते है। इस लौटने में अपनी कमजोरी स्वीकार न करके किसी न किसी अन्य पर दोषारोपण करते है। परिस्थितियों की मजबूरी बताते है। यह भावनाओं का अधूरापन ही है।

इसके विपरीत महापुरुषों, महामानवों का अंतःकरण उच्चस्तरीय आदर्शवादिता से, दया करुणा से लबालब भरा होता है। इसलिए वे सत्साहयुक्त श्रेष्ठ और उदात्त कार्य करने में सफल होते है जबकि सर्वसाधारण ऐसा नहीं कर पाते, क्योंकि वे बुद्धि के आश्रित होते है और बुद्धि द्वारा ऐसे कार्यों का मूल्याँकन करते है। जहाँ नफा नुकसान का वणिक व्यापार हो वहाँ बुद्धि भावनाओं पर हावी हो जाती है, इस कारण कोई उच्च आदर्शवादी कार्य नहीं हो पाता। किसी रोगी से, किसी वृद्ध एवं मुरदे से किसी को क्या लेना-देना। वे तो आएदिन की घटनाएं है किन्तु इन्हीं को देखकर किसी बुद्ध को वैराग्य हो जाता है। वह घर द्वार और ऐश आराम को लात मारकर इनके समाधान के लिए निकल पड़ता है। ऐसा कोई बुद्ध ही कर सकता है साधारण आदमी नहीं। ये अंतराल से जुड़ी बातें है। इनमें समाज की सुख−सुविधा और समाधान प्रमुख है। महर्षि रमण कोढ़ियों की सेवा करते थे और उन्हें अपना भगवान बताते थे। जिसका भाव इतना उच्च हो, वहाँ तो सेवा होनी ही है। अन्यत्र जहाँ ऐसा कार्य दीख पड़े, वहाँ पीछे धनबल प्रधान होता है, परमार्थ भावना नहीं।

भाव संवेदना का क्षेत्र यदि समुन्नत सुसंस्कृत हो तो उसमें सच्ची सहानुभूति उपजती है। दूसरों के लिए कष्ट बंटा लेने और अपनी सुविधाओं को बाँट देने के लिए मन करता है मन ही नहीं करता, साहस भी उभरता है और वे तथाकथित मित्र स्वजनों के असहमत होते हुए भी वैसा आदर्शवादी साहस कर गुजरते है। यही है ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय असतो मा सद्गमय मृत्योर्माअमतं गमय’ के पीछे का वास्तविक तत्वदर्शन।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118