उच्च भावभूमि से होता है विचार संप्रेषण

November 2003

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यदा कदा व्यक्ति को ऐसी सद्प्रेरणाएं मिल जाती है जिनसे उनका कोई बड़ा नुकसान टल जाता है। प्रियजन अथवा स्वयं उसकी आत्मरक्षा हो जाती है। इसे वह बड़ा चमत्कार मानने लगता है और तरह तरह के संज्ञा संबोधन देने लगता है। कभी भगवान की अहैतुकी कृपा मान बैठता है, पर इस बात को भुला देता है कि जिसे वह अचम्भा मान बैठा है वस्तुतः इसमें वैसा कुछ है नहीं। परिष्कृत अंतःकरण ही वह कारण है जिसकी उपलब्धि बन पड़ने पर ऐसी घटनाएँ घटने लगती है। तनिक उच्च भावभूमि की उपलब्धि हो जाने पर ये घटनाएँ सामान्य जीवनक्रम का अभिन्न अंग बन जाती है और फिर व्यक्ति अनवरत रूप से ऐसी सूक्ष्म तरंगों से संबंध बनाए रह सकता है।

आएदिन ऐसी घटनाएँ घटती ही रहती है। एक घटना साउथ बेट, कैलिफोर्निया की है। वहाँ के एक समाजसेवी थी आर. एल. बेजेडिक्ट अपनी एक सहयोगिनी श्रीमती एम बी जीन के साथ फिलाडेल्फिया के लिए अपनी कार में यात्रा कर रहे थे। कुछ खराबी के कारण एक स्थान पर कार खड़ी करनी पड़ी। कार पार्किंग के लिए वहाँ विशाल क्षेत्र था। श्रीमती जीन कार खड़ी कर रही थी तभी अचानक श्री बेनेडिक्ट के अंतःकरण में एक प्रवाह आया और वे कहने लगे कि कृपया गाड़ी यहाँ खड़ी न करें कुछ अनर्थ हो सकता है। जीन उस पर विश्वास करती थी। उनने स्थान बदल दिया। सभी उतरकर आवश्यक वस्तुएँ खरीदने लगे। इसमें काफी समय लग गया। जब वे लोग लौटे तो दृश्य देखकर आश्चर्य का ठिकाना न रहा। जिस स्थान पर कार खड़ी करने से मना किया था उसी स्थान पर खड़ी दूसरी कार मकान गिरने से चकनाचूर हो गई थी। उनकी कार सुरक्षित बच गई। यह दैवी प्रेरणा ही थी।

दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए श्री आर एल बेनेडिक्ट बताते हैं कि हम सभी परिवार के सदस्यगण यात्रा कर रहे थे और एक ऊँची पहाड़ युक्त घनघोर जंगल से गुजर रहे थे। उनका छोटा लड़का कार चला रहा था। अचानक उन्हें ऐसी अनुभूति हुई कि कोई दुर्घटना होने वाली है। वे जोर से चिल्लाए मिक, कार की गति तुरंत कम करो, ऐसा न करने पर कोई बड़ी दुर्घटना होने वाली है। इसके कारणों की व्याख्या करने के लिए समय नहीं है।” तुरंत ही मिक ने आज्ञा का पालन किया और गति कम कर दी। अगले मोड़ पर सामने ही हिरणों का झुँड गुजर रहा था। यदि गति कम नहीं की जाती तो सुनिश्चित तौर पर दुर्घटना घटती। ब्रेक लगाने पर कुछ इंच पर गाड़ी जाकर रुकी ओर एक बड़ी दुर्घटना टल गई।

प्रेरणाएँ दिव्य अंतःकरण से प्रस्फुटित होता है। जहाँ कषाय कल्मषों का घनीभूत आवरण है वहाँ उनका प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है इसलिए सर्वसाधारण के लिए लोग इस दैवी प्रवाह का लाभ नहीं उठा पाते। जो अंतराल की इस अपरिष्कृति को घटाने मिटाने में सफल होते है समझना चाहिए उनने आत्मदेव को प्रसन्न कर लिया। इसके अतिरिक्त यह अंतःकरण इतना सामर्थ्य है कि वह दूसरों को भी प्रेरणा मार्गदर्शन दे सकता है। इसी आधार पर ऋषि मनीषी अपने परिकर से जुड़े लोगों को वैचारिक दबाव देकर सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते थे। इसी को विचार संप्रेषण कहा जाता है। इसे अब पूर्णतः विज्ञानसम्मत माना गया है।

एरलिंगटन, टेक्सास की श्रीमती बी एन केन्योन अपने जीवन में घटी घटनाओं से इसकी पुष्टि करती है। वे लिखती है कि मेरे पति मानसिक तनाव से गुजर रहे थे। उन्हें एक बार बैंक से लोन लेना पड़ा जिसको समय परा चुका देने के लिए उनके बड़े भाई ने आश्वासन दिया था किन्तु समय पर उसने चुका पाने के कारण बैंक से दबाव पड़ने लगा। परिस्थिति इतनी बिगड़ गई कि मेरे पति को कुछ सूझ ही नहीं पड़ता था। वे रात्रि के देर तक काम करते रहे और फिर कमरे से बाहर चले गए किन्तु उनका यह व्यवहार मुझे विचित्र नहीं लगा, क्योंकि वे प्रायः ऐसा किया करते थे। रात्रि में टहलने के लिए पास के पार्क में चले जाया करते थे, किन्तु उस रात जब पुत्र सो गया तो मुझे ऐसा लगने लगा कि कुछ अनर्थ होने वाला है। मैं उठ बैठी और जोर से कहने लगी?, ‘टोबी! ऐसा मत करो,’ मुझ पर दया करो। अचानक उठने वाले ये भाव अत्यंत गहराते चले गए और अपना विचार प्रवाह उन तक पहुँचाने की मनः स्थिति बनाकर कहने लगी, ‘टोबी! जल्दी घर आओ, हमें इस तरह छोड़कर न जाओ। अपने बच्चों के बारे में सोचो। ऐसा मत करो। जिससे मुझे उम्रभर दुःख भोगना पड़े। मुझे तुम्हारी आवश्यकता है। जल्दी घर आओ।’ मैं भाव जगत में गहरे उतरकर इसी तरह उन्हें बुलाने लगी।

अचानक तभी दरवाजा खुला और उनके आते ही मैं बोल पड़ी, कृपया वादा करें कि फिर ऐसा कभी नहीं करने की सोचेंगे। उन्हें आश्चर्य हुआ, पूछा ‘तुम कैसे जानती हो?’ तुम्हें कैसे मालूम कि तुमसे दूर मैं क्या योजना बना रहा था? मैंने उनसे कहा मैं नहीं जानती कि मुझे कैसे भान हुआ, पर कुछ अनिष्ट होने वाला है, इसकी स्पष्ट अनुभूति हो रही थी, उन्होंने बताया कि उनकी टेबल की दराज में पिस्तौल थी और वे योजना बना रहे थे कि इससे आत्महत्या की जाए किन्तु अचानक एक तीव्र प्रवाह आया और ऐसा लगा, मानो कोई उन्हें खींच रहा है इस तीव्रता से कि उनसे रुकते ही नहीं बना और वे घर की ओर चल पड़े।

ऐसी ही एक घटना का उल्लेख ‘बियॉण्ड मिरैकल’ नामक ग्रंथ में फ्रैंकल इरा प्रोगाफ ने किया है। वे लिखते है कि एक बार वे अपने मित्र के साथ कार में सैर के लिए निकले। भ्रमण के लिए जो रास्ता चुना गया, वह एकदम सुनसान था। रोड के दोनों ओर सघन वन था। गाड़ी पूरी गति से दौड़ी चली जा रही थी तभी अचानक सामने कुछ जंगली भैंसे आ गए। प्रोगाफ गति नियंत्रित कर पाते इसके पूर्व ही कार पूरे वेग से भैंसों से जा टकराई। कई भैंसे घायल हुए। एक वहीं रोड पर गिर पड़ा और तड़पने लगा। कुछ समय पश्चात उसने दम तोड़ दिया। उधर कार उछलकर बगल की खाई में जा गिरी। खाई इतनी संकरी थी कि वह उसमें ऐसे समाई कि उसके दोनों ओर अटक गए। दोनों से लाख कोशिश की, पर खोल नहीं पाए। परिणामस्वरूप उन्हें अंदर ही बंद रहना पड़ा। दोनों को काफी चोटें आई। वहाँ से निकलने का कोई मार्ग न देख उनने एस ओ एस संदेश देना शुरू किया। मानसिक स्तर पर प्रसारित इस संदेश से प्रोगाफ के भाई को बेचैनी होने लगी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसका भाई संकट में है। बार बार उसके मन में यही विचार आने लगा। अंततः उसने उसकी खोज कर निकलने का फैसला किया। वह अपने तीन मित्रों के साथ एक कार में निकल पड़ा। संयोग ऐसा कि वे उसी ओर उसी सड़क पर बढ़ने लगे जिस पर प्रोगाफ दुर्घटनाग्रस्त हुआ सहायता की प्रतीक्षा कर रहा था। सामने रोड पर भैंसे को मरा हुआ देखकर उन्हें कुछ संदेह हुआ। वे सब गाड़ी से उतर पड़े और बगल की खाई में झाँकने लगे, तभी प्रोगाफ और उसके मित्र के चिल्लाने की आवाजें आई। तीनों से खाई में उतरकर मुश्किल से कार के गेट को खोला और उन्हें बाहर निकला।

इन घटनाओं से स्पष्ट है कि मनुष्य चाहे तो दूसरों तक अपना विचार प्रवाह संप्रेषित कर उन्हें आवश्यक प्रेरणा मार्गदर्शन दे सकता है एवं स्वयं मौका पड़ने पर इस तरह की विचार तरंगें ग्रहण कर सकता है। यह क्षमता हर व्यक्ति में सन्निहित है पर भाव संस्थान अनगढ़ होने के कारण वह उस क्षमता का लाभ नहीं उठा पाता। यदि वह अपनी भावनाओं को तनिक उच्चस्तरीय बना ले तो फिर अनायास ही उसे इस प्रकार के सूक्ष्म मार्गदर्शन एवं प्रेरणाएँ मिलती रह सकती हैं। इतना बन पड़ने पर वह न सिर्फ दूरस्थ व्यक्ति से संपर्क साधने में समर्थ हो सकेगा, वरन् आस पास उमड़ते घुमड़ते उन समस्त श्रेष्ठ विचार प्रवाहों के अतिरिक्त ब्राह्मीचेतना से भी तादात्म्य स्थापित करने में सफल हो सकेगा, जो उसके आत्मिक विकास में सहायक हो सके।


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