एक बार पाँच असमर्थ और अपंग इकट्ठे हुए। अंधा बोला, “मेरी आँखें होती तो जो कुछ अनुपयुक्त दिखाई देता, उसे ठीक करता।” लँगड़ा बोला, “मैं तो दौड़-दौड़कर लोगों की भलाई करता।” निर्बल बोला, “मेरे पास बल होता तो दीन-दुखियों की सेवा करता।” निर्धन ने कहा, “मैं धनी होता तो किसी को भूखा न रहने देता।” मूर्ख बोला, “मैं पंडित डडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडडड इच्छाएँ उन्होंने पूरी कर दीं। पर अब तो अंधा सौंदर्य दर्शन में ही लीन रहने लगा। लँगड़ा सैर-सपाटे के लिए निकल पड़ा। निर्धन धन के नशे में डूब गया। निर्बल दूसरों को सताने लगा और मूर्ख अपनी ही शेखी बघारने लगा। वरुणदेव ने यह देखा तो उन्हें बड़ा दुख हुआ। उन्होंने अपनी शक्तियाँ छीन लीं।
मनुष्य के लिए उचित है कि वह अपनी गरिमा के अनुरूप सदैव उत्थान की ओर बढ़े। अन्यों को भी साथ ले। इस तथ्य को मनुष्य समझ नहीं पाता और अपनी ही रची नारकीय सृष्टि से दूर भागने का विफल प्रयास करता है।