सबीज समाधि से मन की समाप्ति की ओर

November 2003

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अन्तर्यात्रा का विज्ञान योग साधकों के लिए स्नेह भरा निमंत्रण है। इसमें उनके लिए आह्वान है जो अन्तर्यात्रा करने के लिए उत्सुक हैं, जिज्ञासु हैं। जिनमें महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव की योग अनुभूतियों का साझीदार बनने की निष्कपट चाहत है। इसकी प्रत्येक पंक्ति में उठ रही पुकार उनके लिए है, जो अध्यात्म विद्या के वैज्ञानिक बनना चाहते हैं। अगर ऐसा कुछ आपमें है, तो इसे सुनिश्चित सत्य मानें कि महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि गुरुदेव आपकी अंगुली थामकर आपको कदम दर कदम इस अन्तर्यात्रा पथ पर आपको आगे बढ़ायेंगे। बस आपको केवल उठकर खड़ा होना होगा। इसके लिए इस योग कथा की प्रत्येक पंक्ति के प्रत्येक शब्द पर गहनता से मनन करना होगा। यदि आप ऐसा कर रहे हैं तो निश्चित मानिये कि आपके अपने जीवन में योग अनुभूतियों के द्वार बस खुलने ही वाले हैं।

जिनके जीवन में यह सुखद सम्भावना साकार हो चुकी है, वे अन्तर्यात्रा के महत्त्व को सहज ही अनुभव कर रहे हैं। ऐसों को प्रतीक्षा रहती है, सर्वथा एक कदम की, एक नये प्रकाश लोक की। यह धारावाहिक योग कथा अपनी हर नयी कड़ी में उन्हें यह अनुभव प्रदान करती है। ऐसे श्रद्धालु साधकों के लिए अन्तर्यात्रा विज्ञान की प्रत्येक कड़ी उनकी साधना कड़ी बन चुकी है। इस योग कथा की पिछली कड़ी में सम्प्रज्ञात समाधि की चर्चा की गयी थी। महर्षि के अनुसार यह वैराग्य का सहज परिणाम है। निर्मल चित्त की सहज अवस्था है। महर्षि कहते हैं कि सम्प्रज्ञात समाधि वह समाधि है, जो वितर्क विचार, आनन्द और अस्मिता के भाव से संयुक्त होती है। इस भाव दशा में चेतन मन अपनी शुद्धतम अवस्था में होता है। परन्तु इसकी उपस्थिति बनी रहती है। इसकी विलीनता चित्त की असम्प्रज्ञात भावदशा में सम्भव बन पड़ती है।

असम्प्रज्ञात समाधि क्या है? इस जिज्ञासा के समाधान में महर्षि का कथन है-

विराम प्रत्ययाभ्यास पूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः॥ 1/18॥

शब्दार्थ- विराम प्रत्ययाभ्यास पूर्वः= विराम-प्रत्यय का अभ्यास जिसकी पूर्व अवस्था है और संस्कारशेषः = जिसमें चित्त का स्वरूप ‘संस्कार’ मात्र ही शेष रहता है, वह योग, अन्य-अन्य है।

अर्थात् असम्प्रज्ञात समाधि में सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है ओर मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है।

सम्प्रज्ञात समाधि का पहला चरण पूरा करने के बाद ही योग साधक को असम्प्रज्ञात अवस्था सुलभ होती है। पहला चरण है शुद्धता का और दूसरा चरण है- विलीनता का। हालाँकि ये दोनों ही क्रियायें मन की ऊपरी सतह पर ही सम्पन्न होती हैं। भीतरी सतह यानि कि अचेतन मन में पूर्व जन्मों के संस्कार जस के तस बने रहते हैं। इनका नाश अभी भी नहीं होता है। हालाँकि ये अप्रकट रहते हैं। फिर भी इनकी उपस्थिति बरकरार रहती है।

परम पूज्य गुरुदेव इस भाव सत्य को अपने वचनों में कुछ यूँ प्रकट करते थे। वह कहते थे कि निष्काम कर्म करते हुए मन शुद्ध हो जाता है। विचार और भावनायें धुल जाती हैं तो सम्प्रज्ञात समाधि की झलक मिलती है। लेकिन इस शुद्धतम अवस्था में भी मन तो बना ही रहता है, लेकिन यह जब मन ही विलीन हो जाता है तो समझो कि असम्प्रज्ञात समाधि उपलब्ध हो गयी। पहली अवस्था में काँटे हट जाते हैं, छट जाते हैं तो दूसरी अवस्था में फूल भी गायब हो जाते हैं।

असम्प्रज्ञात समाधि की यह भाव दशा बड़ी अजब-गजब है। साधारण तौर पर सामान्य मनुष्य तो इसकी कल्पना ही नहीं कर सकता। मनोलय, मनोनाश की कल्पना करना, इसमें निहित सच्चाई की अनुभूति करना अतिदुर्लभ है, क्योंकि साधारण तौर पर तो सारी की सारी जिन्दगी मन के चक्कर काटते, मन की उलझनों में उलझते बीतती है। एक विचार, एक कल्पना से पीछा नहीं छूटता कि दूसरी आ धमकती है। यही सिलसिला चलता रहता है। अनवरत-निरन्तर यही प्रक्रिया गतिशील रहती है। हाँ यह जरूर होता है कि कभी अच्छी कल्पनायें, अच्छे विचार उपजते हैं तो कभी बुरे विचार और बुरी कल्पनायें सताती हैं।

पहली समाधि की दशा जिसे सम्प्रज्ञात कहते हैं, उसमें बुराई गिर जाती है। मन की सारी अशुद्धता तिरोहित हो जाती है। दूसरी अवस्था में असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था में अच्छाई भी गिर जाती है। यहाँ तक कि अच्छाई या शुद्ध अवस्था को धारण करने वाला मन भी समाप्त हो जाता है। मन की यह समाप्ति प्रकारान्तर से देह बोध की समाप्ति है। इस अवस्था में देह के पृथक होने का अहसास होता है। अभी हम कितना ही कहते रहें कि मैं अलग और मेरी देह अलग। परन्तु यह बात होती निरी सैद्धान्तिक है। अनुभूति के धरातल पर इसकी कोई कीमत नहीं है। जब तक मन रहता है, तब तक हम सदा देह से चिपके रहते हैं। देह की चाहतें, देह के सुख, दुःख हमें लुभाते या परेशान करते रहते हैं।

लेकिन मन के गिरने के बाद, असम्प्रज्ञात दशा में देह और दैहिक व्यवहार का संचालन मन की गहरी परत में, चित्त में दबे हुए अप्रकट संस्कार करते हैं। अतीत के कर्मबीज, विगत जन्मों का प्रारब्ध-बस इसी के द्वारा जीवन की सारी गतिविधियाँ चलती रहती हैं। ध्यान रहे इस असम्प्रज्ञात भाव दशा में नये कर्म बीज नहीं इकट्ठे होते, क्योंकि इनको इकट्ठा करने वाला मन ही जब नहीं रहा तो फिर ये किस तरह इकट्ठा होंगे। अब तो बस जो कुछ अतीत का लेन-देन है, उसी का समाप्त होना बाकी रह जाता है। कुछ भी नये की कोई गुँजाइश या उम्मीद नहीं रहती है।

इस सत्य को हम इस तरह भी अनुभव कर सकते हैं कि हम असम्प्रज्ञात समाधि द्वारा वृक्ष तो मिटा देते हैं। यहाँ तक कि उसकी जड़ें भी खोद देते हैं। फिर भी जो बीज धरती पर पड़े रह गये हैं वे तो अभी फूटेंगे। ज्यों-ज्यों उनका मौसम आयेगा, वे अंकुरित होते चलेंगे। असम्प्रज्ञात समाधि के बावजूद जीवन और मरण का चक्र तो बना ही रहता है। हाँ यह जरूर है कि जीवन की गुणवत्ता भिन्न होती है। लेकिन जन्म तो लेना ही पड़ेगा क्योंकि बीज अभी जले नहीं है। जो व्यक्त था, वह तो कट चुका, परन्तु जो अव्यक्त है वह तो अभी भी बाकी है। असम्प्रज्ञात समाधि सबीज समाधि है। इन बीजों के कारण योग साधक का जन्म होता है। हालाँकि यह जन्म अद्भुत होता है। ऐसे योगियों को विदेह एवं प्रकृतिलय अवस्थाएँ सहज ही प्राप्ति होती हैं। इसी के कारण ये योगीजन समाधि की अन्तिम अवस्था की ओर बढ़ चलते हैं। विदेह एवं प्रकृतिलय की अवस्था क्या है? इसे योग साधक अखण्ड ज्योति के आगामी अंक में पढ़ सकेंगे।


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