जीवन जीने की कला

November 2003

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जीवन-जीने की कला में है। जिस किसी भी तरह अनगढ़ तौर-तरीकों से जीते रहने का नाम जीवन नहीं है। दरअसल जो जीने की कला जानते हैं, केवल वही यथार्थ में जीवन जीते हैं। जीवन का क्या अर्थ है? क्या है हमारे होने का अभिप्राय? क्या है मकसद? हम क्या होना और क्या पाना चाहते हैं? इन सवालों के ठीक-ठीक उत्तर में ही जिन्दगी का रहस्य समाया है।

यदि जीवन में गन्तव्य का बोध न हो तो भला गति सही कैसे हो सकती है और यदि कहीं पहुँचना ही न हो तो संतुष्टि कैसे पायी जा सकती है? जिसके पास सम्पूर्ण जीवन के अर्थ का विचार नहीं है, उसकी दशा उस माली की तरह है, जिसके पास फूल तो हैं और वह उनकी माला भी बनाना चाहता है, लेकिन उसके पास ऐसा धागा नहीं है जो उन्हें जोड़ सके, एक कर सके। आखिरकार वह कभी भी अपने फूलों की माला नहीं बना पायेगा।

जो जीवन जीने की कला से वंचित है, समझना चाहिए कि उनके जीवन में न दिशा है और न कोई एकता है। उनके समस्त अनुभव निरे आणविक रह जाते हैं। उनसे कभी भी उस ऊर्जा का जन्म नहीं हो पाता, जो कि ज्ञान बनकर प्रकट होती है। जीने की कला से वंचित व्यक्ति जीवन के उस समग्र अनुभव से सदा के लिए वंचित रह जाता है, जिसके अभाव में जीना और न जीना बराबर ही हो जाता है।

ऐसे व्यक्ति का जीवन उस वृक्ष की भाँति है, जिसमें न तो कभी फूल लग सकते हैं और न कभी फल। ऐसा व्यक्ति सुख-दुःख तो जानता है, पर उसे कभी भी आनन्द की अनुभूति नहीं होती। क्योंकि आनन्द की अनुभूति तो जीवन को कलात्मक ढंग से जीने पर उसे समग्रता में अनुभव करने पर होती है। जीवन में यदि आनन्द पाना है, तो जीवन को फूलों की माला बनना होगा। जीवन के समस्त अनुभवों को एक लक्ष्य के धागे में कलात्मक रीति से गूँथना होगा। जो जीने की इस कला को नहीं जानते हैं, वे सदा के लिए जिन्दगी की सार्थकता एवं कृतार्थता से वंचित रह जाते हैं।


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