एक संत के पास एक व्यक्ति दुखी होकर आया। “मैं अभागा हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है। ऐसा जीवन जीने से तो अच्छा है, स्वयं को समाप्त कर लिया जाए।” संत ने कहा, “तुम्हें अपने पास छिपी विभूतियों की जानकारी है? यदि न हो तो मैं देता हूँ। तुम अपनी एक आँख, एक हाथ व एक पैर के बदले में क्या लेने को तैयार हो? प्रत्येक के लिए मैं एक-एक लाख स्वर्णमुद्राएं देता हूँ।” व्यक्ति बोला, “भगवन्? ये तो मैं दे नहीं सकता। इनके बिना मैं जीऊँगा कैसे?” तब संत बोले, “रे मूर्ख? करोड़ों को संपदा तो अपने साथ लिए धूम रहा है व रोना यह रोता है कि मेरे पास कुछ भी नहीं है।”
मधुवर्त नामक वैश्य महाराज समुद्रदत्त के यहाँ नौकरी करता था। जितना मिलता था, उसमें घर का अच्छा गुजर-बसर चलता था। बालक-बच्चे सभी सुखी थे। एक दिन मधुवर्त जंगल से गुजर रहा था तो एक पीपल से आवाज आई, “सात घड़ा धन लोगे?” मधुवर्त लालच में आ गया। उसने “हाँ” कर दी। अदृश्य आवाज ने कहा, “जाओ तुम्हारे घर पहुँचा दिए जाएँगे।” मधुवर्त घर लौटा तो पत्नी ने बताया, “सातों घड़े आ गए हैं।” उसने सातों देखे। छह तो भरे थे। एक आधा खाली था। मधुवर्त को उसे पूरा करने की चिंता सताने लगी। अब उसने अपना, बच्चों का सभी का पेट काटना शुरू कर दिया। फलतः स्वयं हो चला दुर्बल, बच्चे करने लगे उत्पात, पत्नी कभी उसकी तरफ, कभी बच्चों की तरफ। घर में हाहाकार मच गया। एक दिन इसी शोक में डूबे मधुवर्त को देखकर महाराज समुद्रदत्त ने पूछा, “कहीं तुम्हें यक्ष के सात घड़े तो नहीं मिल गए?” मधुवर्त ने कहा “हाँ महाराज।” वे हँसकर बोले, “तुम्हारे दुखों का यही कारण है, सुख चाहो तो उन्हें लौटा दो।” गलती समझ में आई तो मधुवर्त ने घड़े लौटाए और जितना भी कुछ अपने पास था, उसी में गुजारा करने लगे।