हरीतिमा-संवर्द्धन से ही शाँति होगी उद्विग्न मनः स्थिति

November 2003

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भारतीय संस्कृति में प्रकृति और पर्यावरण की अर्चना एवं आराधना की पुण्य भावना सन्निहित है। इसमें अन्तःकरण और पर्यावरण के घनिष्ठ सम्बन्धों की बड़ी ही साँकेतिक एवं अलंकृत शैली में विवेचना की गयी है। प्राच्य ऋषियों ने मनुष्य की पराप्रकृति अर्थात् जीवसत्ता एवं अपराप्रकृति अर्थात् प्रकृति परिवेश के सूक्ष्म एवं स्थूल सम्बन्धों पर व्यापक चिंतन करके प्रकृति के विकासक्रम को पूर्ण करके इससे उर्ध्व स्तरों पर आरोहण का निर्देश किया है। भारतीय संस्कृति में जीवन को मूर्त एवं अमूर्त रूप में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र, नदी, निर्झर, उपवन, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के साहचर्य एवं सहयोग के रूप में देखा गया है। अतः पर्यावरण का संरक्षण यहाँ का धर्म कर्त्तव्य रहा है।

पर्यावरण शब्द का तात्पर्य है-हमारा चारों ओर का आवरण। इसके अंतर्गत पंचमहाभूत आते हैं। जबकि परिवेश में आसपास की वस्तुएँ आती हैं। एक ही परिवेश में भिन्न-भिन्न वातावरण हो सकते हैं। वातावरण में विचारों एवं भावनाओं का चुम्बकत्व घुला-मिला होता है। पर्यावरण का दायरा परिवेश बड़ा एवं विस्तृत होता है। पर्यावरण का संतुलन इनमें विद्यमान पंचमहाभूतों के संतुलन पर निर्भर करता है। इनके समुचित समन्वय एवं संतुलन से ही पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है। आर्य ऋषि-मनीषी पर्यावरण संरक्षण के इस तत्त्व को बड़े ही सूक्ष्म एवं बारीकी से जानते-समझते थे। उन्हें पर्यावरण और प्राणियों के मध्य विद्यमान अंतर्संबंधों का स्पष्ट ज्ञान था। यही कारण है कि भारतीय चिंतन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है, जितना मानव जाति का इतिहास।

भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण का भाव अति प्राचीन एवं पुरातन है और यह इतना ही नवीन व सामयिक भी है। प्राचीन काल में इसका स्वरूप भिन्न था। यह मानव जीवन के नियमित क्रियाकलापों एवं गतिविधियों से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। इसी कारण वेदों, उपनिषदों से लेकर कालिदास, दाण्डी, पन्त, प्रसाद आदि सभी के काव्य में इसका व्यापक, विस्तृत व रोचक वर्णन किया गया है। वैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं-’पृथ्वी, जल, औषधि एवं वनस्पतियाँ हमारे लिए शुभ एवं लाभप्रद हों।’ इनके अभाव में मानव जीवन की सुख-शान्ति की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। उपनिषद् के द्रष्ट भावभरे शब्दों में स्तुति करते हैं- हे अस्वरूपधारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन हैं, नदियाँ तुम्हारी नाड़ियाँ हैं, पर्वत-पहाड़ तुम्हारे हृदयखण्ड हैं, समग्र वृक्ष-वनस्पतियाँ एवं औषधियाँ तुम्हारे रोम सदृश हैं। ये सभी हमारे लिए शिव हों, कल्याणकारी हों। हम नदी, वृक्षादि को तुम्हारे अंग स्वरूप समझकर इनका सम्मान और संरक्षण करते हैं। ये उदात्त विचार भाव पर्यावरण के प्रति हमारे गम्भीर एवं गहन दृष्टिकोण से अवगत कराते है।

पर्यावरण के प्रति आदर एवं संरक्षण का यह भाव यहीं तक सीमित एवं आबद्ध नहीं रहा, बल्कि पुराणकाल तक संचरित हुआ है। समुद्र मन्थन से वृक्ष के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना एवं देवताओं द्वारा उसे संरक्षण-सम्मान प्रदान करना इसके जीवन्त उदाहरण हैं। मत्स्यपुराण में भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, गर्ग, विशालाक्ष आदि अट्ठारह ऋषियोँ-मनीषियों का उल्लेख मिलता है जिन्हें पर्यावरण एवं प्राणियों के सम्बन्धों का गहरा ज्ञान था। अग्निपुराण, मत्स्यपुराण एवं भविष्यपुराण में भी इसी प्रकार का विवेचन-विश्लेषण हुआ है। भगवान् कृष्ण की गोवर्धन पूजा का लौकिक पक्ष यह स्पष्ट करता है कि जन सामान्य, मिट्टी, पर्वत, वृक्ष एवं वनस्पति का आदर व सम्मान करना सीखे। भगवान् कृष्ण वे स्वयं को ऋतु स्वरूप, वृक्ष स्वरूप, नदी स्वरूप एवं पर्वत स्वरूप कहकर इनके महत्त्व एवं विशेषता को इसलिए रेखाँकित किया है कि हमें इनकी अभ्यर्थना करना आना चाहिए।

भारतीय विचारधारा में जीवन का विभाजन भी प्रकृति पर ही आधारित-आश्रित था। आश्रम व्यवस्था के रूप में जीवन के इस विभाजन में चार में से तीन आश्रम तो पूरी तरह से प्रकृति के साथ ही व्यतीत होते थे। विद्याध्ययन हेतु गुरु गृह में प्रवेश कराने वाला ब्रह्मचर्य आश्रम के लिए गुरुकुल सदैव वन-प्रदेश एवं नदी तट पर हुआ करते थे। यहाँ आकर बालक प्रकृति के आँचल में पलता-बढ़ता एवं विद्यार्जन करता था। आचार्य उसे विद्या के साथ-साथ प्रकृति के साथ तालमेल एवं सामंजस्य का सूत्र भी सिखाते थे। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति वन-प्रान्तरों में रहकर आत्मचिंतन तथा जनकल्याण का कार्य करता था। संन्यास आश्रम में तो समग्र उत्तरदायित्वों एवं जिम्मेदारियों को भावी पीढ़ी को समर्पित-अर्पित कर निर्जन वन एवं गिरि-कन्दराओं में रहकर आत्मकल्याण हेतु तप करने का विधान तय किया गया था।

गृहस्थाश्रम भी प्रकृति से अनछुआ एवं अछूता नहीं रहा है। इसमें वृक्ष-वनस्पतियों को पूजन-अर्चन के रूप में लिया गया है। धार्मिक कार्यों में इनके महत्त्व का दृष्टिगोचर होते हैं। धार्मिक मान्यताओं में पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है। भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है तथा बिल्व वृक्ष को भगवान् शंकर से जोड़ा गया है। दाक्, पलाश, दूर्वा, कुश आदि को नवग्रह पूजा आदि के पुण्य कार्यों में सम्मिलित किया गया है। पूजा के कलश में सात नदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना नदी व भूमि को पवित्र बनाये रखने की भावना संचरित करता था। सिंधु सभ्यता की मोहरों पर वृक्षों का मुद्रण करना, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएँ एवं जलाशय खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मँगवाना आदि तात्कालिक प्रयास-पुरुषार्थ पर्यावरण के प्रति गहन प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।

इस तरह भारतीय चिंतन में पर्यावरण के प्रति उच्चस्तरीय भाव सन्निहित थे। पश्चिम का दार्शनिक चिंतन उर्ध्व स्तरों की चर्चा न कर मात्र मानव तथा प्रकृति के सम्बन्धों को सूक्ष्म व स्थूल स्तर पर लेता है, जबकि आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन में इन सम्बन्धों का दायरा केवल स्थूल स्तर तक सीमित व सिमट कर रह गया है। अध्ययन के आधार पर प्राप्त तथ्यों की विवेचना-व्याख्या करने पर पता चलता है कि प्राच्य ऋषियों का उद्देश्य बाह्य प्रकृति से अन्तःप्रकृति में प्रवेश कर तथा उससे परे व पार जाकर आनन्द पाना था। पश्चिमी दार्शनिकों में से अधिकाँश का लक्ष्य बाह्य प्रकृति के साथ अन्तःप्रकृति का सम्बन्ध सूत्र स्थापित कर अन्तरंग में रमणकर सुख की उपलब्धि थी। जबकि आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन में यह लक्ष्य बाह्य प्रकृति से अधिकाधिक प्राप्त कर मात्र उसका उपभोग करना रह गया है।

वैज्ञानिक चिंतन प्रकृति-पर्यावरण और मानव के बीच के सूक्ष्म व संवेदनशील सम्बन्धों को पूरी तरह भुला देने के कारण ही प्रकृति का घनघोर दोहन-शोषण की स्वार्थमयी घृणित प्रक्रिया चल पड़ी है। आज हम अपनी ही प्रकृति माता का चीरहरण करने का अक्षम्य अपराध करते चले जा रहे हैं। इसलिए प्रकृति भी सिंहनी की तरह उठ खड़ी हुई है। पर्यावरण और अन्तःकरण के विघटन एवं टूटन से ही विभिन्न प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग पनप रहे हैं। आज इस तथ्य की पुष्टि करते हुए व्यवहार विज्ञानी, मनोवैज्ञानिक एवं पर्यावरणविद् स्वीकारने लगे हैं कि व्यक्ति के अन्तःकरण की संरचना तथा मनःस्थिति निकटस्थ पर्यावरण के विघटन की स्थिति पर निर्भर करती है। आज के पर्यावरणविद् को यह मानने में कोई संकोच नहीं हो रहा है कि संक्रामक रोग की तरह जनमानस में फैल रहा विघटन फ्रायड द्वारा बनाई गई कामुक वासनाओं के दमन के कारण नहीं, अपितु पर्यावरण तथा अन्तःकरण के सम्बन्धों को विस्मृत करने तथा पर्यावरण में विघटन उत्पन्न करने के कारण है।

पर्यावरण असंतुलन के परिणाम स्वरूप उत्पन्न उन्मादग्रस्त मनःस्थिति की विडम्बना से मुक्ति पाने के लिए उन मधुर सम्बन्धों को वृक्षारोपण, हरीतिमा संवर्धन आदि के माध्यम से पुनः स्थापित करना होगा। इस पुण्य परम्परा के प्रति पुनः सजगता एवं सक्रियता का भावबोध उत्पन्न करना होगा। इसके लिए ऐसे वृक्षों का चुनाव करना चाहिए जो छायादार शीघ्र पनपने वाले तथा आर्थिक मूल्य वाले हों, जो वृक्ष मनभावन, सुन्दर एवं गृह उद्योग, कुटीर उद्योग के लिए उपयुक्त हों, उनका वृक्षारोपण में प्रयुक्त करना चाहिए। ऐसे वृक्षों में गुलमोहर, अशोक, अमलतास, कचनार, सैंजना, जकरण्डा, ढाक, केशिया, सामिया, बकायन आदि प्रजातियाँ को सड़क किनारे या किसी उपर्युक्त स्थल पर रोपित किया जा सकता है।

सदाबहार गुलमोहर छायादार एवं सदा हरा रहने वाला वृक्ष है। इनके नारंगी तथा गहरी लाली लिये हुए फूल गुच्छों में बड़े मनभावन लुभावने एवं आकर्षण होते हैं। इसमें अप्रैल से जुलाई तक फूल आते हैं, बीज बोने के चार-पाँच वर्ष पश्चात् ही इसमें फूल आने प्रारम्भ हो जाते हैं। इसकी एक और प्रजाति होती है, जिसमें सफेदी लिए पीले तथा क्रीम रंग के फूल फरवरी से मार्च तक आते हैं। ढाक के सुन्दर फूलों ने कवियों को आकर्षित किया है। ढाक एक छोटा एवं मध्यम आकार वाला झुरमुट वृक्ष है, जो पथरीली, पहाड़ी, मैदानी एवं कम उपजाऊ भूमि पर उगता है। ये हरे और भूरे रंग के होते हैं और तेज गर्मी में अप्रैल से जून तक की अवधि में हरे-भरे रहते हैं। इसमें मार्च में लाल-काले, गहरे भूरे, पीलापन लिए हुए चमकीले विभिन्न रंगों से युक्त फूल आते हैं। इसका वृक्ष कई प्रकार से उपयोगी है।

जकराण्डा खुले छत्रवाला मध्यम आकार का सुन्दर वृक्ष है। यह मार्च से मई तक नीले छोटे-छोटे सुन्दर फूलों से ढँका रहता है। इसकी लकड़ी कठोर एवं अच्छी प्रकार की होती है। गधाप्लाश लघु आकार का शीघ्र पनपने वाला वृक्ष है। इसके गुलाबी, पीले फूल बहुत ही मनभावन एवं आकर्षण होते हैं, जो समूह में फरवरी से अप्रैल तक खिले हुए रहते हैं। इसकी लकड़ी से आकर्षण वस्तुएँ से बनायी जाती हैं। अशोक धार्मिक मान्यता प्राप्त मंगलकारी वृक्ष है। धार्मिक अनुष्ठान के समय इसके पत्तों से घर को सजाया-सँवारा जाता है। अशोक सदा हरा रहने वाला आकर्षक एवं सुडौल वृक्ष है। इसकी शाखाएँ चहुँओर सघन पत्तियों से फैलने वाली होती है। शृंगारिक वृक्ष कचनार सुन्दर आकार का सदाबहार वृक्ष है। इसकी शाखाएँ सघन होती हैं। इसका शिखर गोल होता है। इस वृक्ष का महाकवि कालिदास ने रोचक वर्णन किया है। इसमें गुलाबी फूल नवम्बर से फरवरी तक खिलते हैं।

अमलतास खुले छत्रवाला मध्यम आकार का पर्णपाती वृक्ष है। जनवरी से मार्च तक यह वृक्ष सुनहरे पीले फूलों के गुच्छों से प्राच्छादित होता है। इसकी फल्ली औषधि में प्रयोग होती है। शहदमी सुगन्ध बिखेरने वाला, सैंजना मध्यम एवं छोटे आकर में तेजी से बढ़ने वाला वृक्ष है। यह बहुआयामी गुणों वाला वृक्ष है, जिसके जड़ से बीज तक सभी अंग उपयोगी होते हैं। इसमें फरवरी से अप्रैल तक सफेद सुगन्धित फूल आते हैं।इस प्रकार अनेक और भी सुन्दर उपयोगी एवं आकर्षक वृक्ष हो सकते हैं,जिन्हें रोपणकर पर्यावरण को समृद्ध एवं संरक्षित किया जा सकता है।

हरीतिमा संवर्धन से अशान्त, उद्विग्न मनःस्थिति को शान्त किया जा सकता है तथा संवेदना भावना को निखारा-उभारा जा सकता है। हरे-भरे वृक्ष, आकर्षक पुष्प, नदी-नाले, झरनों से मन प्रसन्न एवं भावना उल्लसित हो उठती है। ऐसे में मानवीय अन्तःकरण चारों ओर के पर्यावरण से जुड़कर एकत्व की अनुभूति करता है, इस अनुभूति में ही व्यक्तित्व के विघटन एवं बिखराव को रोकने और मानवीय चेतना के आरोहण एवं विकास के सूत्र निहित हैं। अतः पर्यावरण संरक्षण एवं सम्मान के प्रति सजग-सतर्क होना हम सबका पावन कर्त्तव्य है।


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