सूक्ष्मरूपधारी गुरुसत्ता की महिमा भरे दृष्टाँत

November 2003

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दैवी शक्तिसंपन्न महापुरुष चमत्कार दिखाने में विश्वास नहीं रखते। वे अपने शिष्य का हित देखते है एवं तदनुसार ही प्रकृति के नियमों में फेरबदल करते है। आकाश से अँगूठी निकालकर दिखाना चित्र के फ्रेम से भस्म निकालने लगना, भूत भविष्य बता देना, किसी को भी भवितव्यता बताकर डराना, प्रलोभन हेतु कोई प्रदर्शन करना यह महापुरुषों की शैली नहीं है। वे तो साधन को स्वयं को निर्मल बनाने, सद्बुद्धि को धारण करने एवं सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते रहते हैं। अष्टसिद्धि नवनिधि से सुसज्जित सदगुरु की सत्ता छोटे मोटे प्रदर्शनात्मक चुटकुलों में विश्वास नहीं करती। ऐसे सदगुरु जीवित अवस्था में भी तथा शरीर छोड़ने पर सूक्ष्म व कारणशरीर से यही काम करते है कि उनके बताए मार्ग पर चलने वाला आगे आध्यात्मिक पथ पर बढ़ने की प्रेरणा पा सकें।

परमपूज्य गुरुदेव प श्रीराम शर्मा आचार्य स्वयं गायत्री रूप थे (नमोअस्तु गुरवै तस्मै गायत्रीरूपिणे सदा) माँ गायत्री सविता देवता की शक्ति उनके कण कण में संव्याप्त थी। जीवन भर उन्होंने कई साधकों को श्रेष्ठता के पथ पर चलाया। तंत्र विज्ञान पर उनकी पक्की पकड़ थी। फिर भी उन्होंने प्रदर्शन हेतु चमत्कारी प्रदर्शन पर विश्वास नहीं किया। ये तो स्वतः हो जाते है एवं उन्हें इसकी अनुभूति होती है। वह स्वयं को सौभाग्यशाली मानते है। एक साथ कई स्थानों पर सूक्ष्मशरीर को स्थूल रूप देकर अगणित व्यक्तियों की सहायता हमारे गुरुदेव ने की है। व्यक्ति के प्रारम्भ के अनुरूप उसे गुरु का संरक्षण मिला है। प्रारब्ध प्रबल हो तो गुरु उसे हलका जरूर कर देता है एवं मामूली कष्ट के माध्यम से उसका भी हिसाब किताब कर साधक को जीवनमुक्त बना देता है। अगणित व्यक्तियों की अनुभूतियाँ हमारे पास सुरक्षित है, जिनमें एक लाख से ज्यादा लोगों ने चुनौती के साथ कहा कि जिन दिनों गुरुदेव किसी से नहीं मिलते थे, तब वे मिलकर आए एवं दो ढाई घंटे बैठकर उनका सान्निध्य पाया। ये अनुभूत तथ्य सही हो सकते हैं, पर स्थूल जगत में इनके प्रमाण खोजे तो पता चलता है कि ऐसा कुछ हुआ नहीं था। जनसामान्य के लिए वे अनुपलब्ध थे, पर उनकी लीला ही थी कि उन्होंने अपने प्रिय परिजनों के लिए स्वयं की उपलब्ध बना लिया।

भाँति भाँति के पत्र हम इस स्तंभ में प्रकाशित कर रहे है, जो पूज्यवर ने अपने शिष्य शिष्याओं को लिखे। ये तो प्रत्यक्ष प्रमाण है कि सूक्ष्मशरीर से यात्रा कर कितने ही लाखों व्यक्तियों की जीवनशैली में उन्होंने फेरबदल किया, जिसे कुछ ना था, एवं सत्प्रेरणा देकर कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। ऐसे ही कुछ पत्र प्रस्तुत है :-

13 मई, 1955 को एक साधक को लिखे पत्र में पूज्यवर लिखते है -

“हमारे आत्मस्वरूप, पत्र मिला। विवाह का विस्तृत समाचार जाना। ये सब समाचार पूर्ण रूप से हमें मालूम है, क्योंकि हमारा सूक्ष्मशरीर उस समय चौकीदार की तरह वहीं अड़ा रहा है और विघ्नों को टालने के लिए, शत्रुओं को नरम करने के लिए, आपत्तियों को हटाने के लिए जो कुछ बन पड़ता है, सो बराबर करते रहे है। फिर भी आपके पत्र से सब बातें भली प्रकार विदित हो गई।”

पत्र बड़ा स्पष्ट है एवं अपने शिष्य के यहाँ संपन्न हुए विवाह में गुरुसत्ता ने सूक्ष्मशरीर से अपनी उपस्थिति की सुनिश्चितता सिद्ध की हैं पत्र से सब समाचार मिले तो उनकी भी स्वीकारोक्ति की है, किन्तु सबसे बड़ी बात वह आश्वासन कि सूक्ष्म संरक्षण सदैव साथ रहेगा, यदि शिष्य का परिपूर्ण समर्पण किया। इसी तरह का एक और पत्र है जो द्रष्टव्य है। दानाभाई मेघजी जबलपुर के बहुत संपन्न ठेकेदार थे। बड़े ही समर्पित शिष्य भी। गायत्री तपोभूमि, मथुरा एवं शाँतिकुँज, हरिद्वार में उनके द्वारा किए गए कार्य, उनका अंशदान सदैव याद किया जाता रहेगा। अब पति पत्नी दोनों इस संसार में नहीं है। पत्र के रूप में स्मृति है, जो हम यहाँ दे रहे है :-

“हमारे आत्मस्वरूप आपका पत्र मिला। आपकी धर्मपत्नी की तबियत अब सुधर रही है, यह जानकर संतोष होता है। उनकी हमें बहुत चिंता रहती है। उस दिन हमारी आत्मा उन्हें देखने और साँत्वना देने गई थी। वही दृश्य उन्होंने सपने में देखा होगा। अब उनकी तबियत जल्दी ठीक हो जाएगी, ऐसी आशा है।”

लक्ष्मी बेन दानाभाई मेघजी गुरुदेव के लिए पुत्री से भी बढ़कर थी। उधर उन्होंने स्वप्नावस्था में रोगशैया पर लेटे हुए गुरुसत्ता का दर्शन किया, पतिदेव से चर्चा की एवं उन्होंने पत्र पूज्य गुरुदेव को लिखा। बड़ा स्पष्ट आश्वासन आया है कि स्वप्न में आकर सूक्ष्मशरीर का सान्निध्य देकर उन्होंने अपनी पुत्री का संकट मिटा दिया है। आश्वासन भी बड़ा स्पष्ट है “अब इनकी तबियत जल्दी ठीक हो जाएगी।” इतना स्पष्ट लिखित तथ्य होते हुए भी हम अपनी गुरुसत्ता के स्वरूप को समझ क्यों नहीं पाते?

एक पत्र अपने प्रिय शिष्य को 15-7-1966 को लिखा गया, जिसमें गुरु की ओर से शिष्य को सतत संरक्षण का आश्वासन है।

पूज्यवर लिखते है :-

“तुम्हें हम पूर्वजन्मों के अनुरूप इस जन्म में भी छोटा बालक ही समझते है। साँसारिक हलचलों में अभी हम यथासंभव सहायता करते रहते है। आगे तुम्हारी आत्मिक प्रगति में भी भरसक सहयोग करेंगे। मनुष्य (योनि में) के अवतरित होने का लक्ष्य भी तुम्हें इसी जन्म में प्राप्त होगा। ता. 6 को जो स्वप्न तुमने देखा, वह अपने स्वजनों की देख भाल के लिए सूक्ष्मशरीर से जाया करते है। उस दिन तुम्हारे पास भी अपना वात्सल्य प्रकट करने गए थे। सो ही तुमने देखा।”

यह पत्र प्रथम दो पत्रों की तरह से ही स्वप्न में दर्शन व गुरुवर का संरक्षण, इसी भाव को लेकर है। इस घटनाक्रम को आचार्य श्री ‘वात्सल्य प्रकट करने’ की बात कहकर निपटा देते है। न जाने कितनों ने यह वात्सल्य, सुनिश्चित संरक्षण का आश्वासन, भविष्य संबंधी नीति निर्धारण ध्यान या स्वप्नावस्था में पाया है।

अक्सर परिजन मोहवश अपने संबंधियों के स्वास्थ्य संबंधी बातों के साथ उनकी आयु लंबी करने का निवेदन भी कर देते थे। ऐसी स्थिति में उनकी राय बड़ी स्पष्ट होती थी। जहाँ सुनिश्चितता थी, वहाँ पात्रता के अनुरूप वरदान मिल जाता था पर जहाँ संभव नहीं था, वहाँ वे वस्तुस्थिति बता देते थे। एक पत्र 21-7-1957 का है -

“आपके नानाजी का वास्तविक आयु अब लगभग समाप्तप्रायः है। एक वर्ष वे ठहर सकते है। उनकी अपनी आयु इतनी ही है। किसी दूसरे की आयु काटकर किसी में नहीं जोड़ी जा सकती। ऐसा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है। यदि ऐसा संभव रहा होता तो कौशल्या आदि ने अपनी आयु देकर दशरथ को अवश्य दीर्घजीवी किया होता।”

प्रकृति के नियमों का हवाला देकर एक सदगुरु उसमें हस्तक्षेप न करने की बात भी कहता है एवं एक उदाहरण द्वारा समझाता भी है। हम ही है कि मोहवश शरीरधारी संबंधियों से चिपके रहते है। आशीर्वाद भी माँगते है कि हमारे वयोवृद्ध संबंधी शतायु हो, हमें सतत प्यार करते रहे, परंतु गुरुवर यही रुक नहीं जाते। आगे लिखते है -

“आपके नानाजी के प्राण में जितना प्राण घोल सकता संभव है, उतना हम घोल रहे है। हमने पिछले पत्र में कहीं नहीं लिखा है कि हमारे प्रयत्न निष्फल हो गए है या अब आयु बढ़ने की कोई आशा नहीं है। ऐसा अनुमान आपने किस आधार पर लगा लिया?”

यह सिद्ध स्तर के महापुरुषों के ही बस की बात है कि वे अपने प्राण संप्रेषित कर सामने वाले के आयुष्य को भी बढ़ा दे, उनके कष्ट को भी कम कर दें अथवा उनकी जीवनरक्षा कर बीमारी को भी निर्मूल कर दें।

इसी प्रकार का एक विलक्षण चमत्कारी स्वरूप एक अन्य पत्र से देखने को मिलता है, जिसमें वे लिखते है -

“हमारे आत्मस्वरूप पत्र मिला। पढ़कर प्रसन्नता हुई।सरस्वती बेटी का बालक कन्या से बदलकर पुत्र किया गया है। उसकी छवि में कुछ झलक कन्या की सी होगी।यह बालक अभी बहुत दुर्बल होगा। इसको दीर्घजीवी बनाने की एक बड़ी समस्या हमारे सामने है।”

बड़े ही अपवाद रूप से पूज्यवर ने यह किया होगा। सदगुरु सब कुछ करने में सक्षम है। परंतु वे तो पिता−पुत्री में कोई भेद नहीं मानते थे। यहाँ लेने वाले की पात्रता, विधि के विधान एवं आध्यात्मिक पुरुषार्थ की चरमावस्था की बात आ जाती है। अत्यधिक आग्रह आने पर पूज्यवर ने सूक्ष्म में झाँका,एक संभावना सी लगी और गर्भस्थ बालक का लिंग बदल दिया। क्या चिकित्सा जगत इसकी कोई व्याख्या कर सकता है? संभवतः नहीं। अध्यात्म पूर्णतः विज्ञानसम्मत है एवं यदि इस विज्ञान को कोई गहराई से समझ सके तो अनेकानेक विभूतियाँ हस्तगत हो सकती है। अपनी गुरुसत्ता के जीवन उनके सत्परामर्शों कर्तृत्व के माध्यम से हम उस परोक्ष जगत को झरोखे द्वारा देख सकते है, जो अविज्ञात है। सही साधना परमार्थ हेतु इसका नियोजन व नियमित गायत्री उपासना किसी भी व्यक्ति को सिद्धि संपन्न बना सकती है।


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