महात्मा गाँधी के जीवन की एक घटना है। एक बार एक परिषद् की कार्रवाई आरंभ करने में उन्हें 45 मिनट की प्रतीक्षा करनी पड़ी। कारण था एक अन्य नेताजी, जिन्हें कार्यक्रम की अध्यक्षता करनी थी, उनका देरी से आना। उनके मंच पर आते ही गाँधी जी कह उठे, “यदि हमारे अग्रगामी नेतागणों की यही स्थिति रही तो स्वराज्य भी 45 मिनट देरी से आएगा।” समय के पाबंद, कर्त्तव्यनिष्ठ बापू की यह अभिव्यक्ति उनके अंतःकरण से सहज ही स्फुरित हुई थी।
महर्षि दयानंद की बीकानेर महाराज से मित्रता थी। वे अक्सर स्वामी जी से अपने ब्रह्मचर्य की शक्ति के प्रदर्शन की बात कहा करते थे, पर स्वामी जी उसे हँसकर टाल देते थे। एक दिन महाराज चार घोड़ों की बग्घी जोतकर प्रातः भ्रमण के लिए तैयार हुए। कोचवान ने घोड़ों को चलने के लिए बहुतेरा चाबुक फटकारा। घोड़े पूरी ताकत लगाकर बढ़े, किंतु एक इंच भी आगे न बढ़ सके। बात क्या है, यह देखने के लिए नरेश ने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि महर्षि ने एक हाथ से बग्घी पकड़ रखी है। वे संयम की इतनी शक्ति देखकर आश्चर्यचकित रह गए।
एक रोगी राजवैद्य शार्गधर के समक्ष अपनी गाया सुना रहा था। अपच, बेचैनी, अनिद्रा, दुर्बलता जैसे अनेक कष्ट व उपचार में ढेरों राशि नष्ट कर कोई लाभ न मिलने के कारण ही वह राजवैद्य शार्गधर के पास आया था। वैद्यराज ने उसे संयमयुक्त जीवन जीने व आहार-विहार के नियमों का पालन करने को कहा। रोगी बोला, “यह सब तो मैं कर चुका हूँ। आप तो मुझे कोई औषधि दीजिए, ताकि मैं कमजोरी पर नियंत्रण पा सकूँ। पौष्टिक आहार आदि भी बना सकें तो ले लूँगा, पर आप मुझे फिर वैसा ही समर्थ बना दीजिए।” वैद्यराज बोले, “वत्स! तुमने संयम अपनाया होता तो मेरे पास आने
की स्थिति ही नहीं आती। तुमने जीवनरस ही नहीं, जीने की सामर्थ्य एवं धन-संपदा भी इसी कारण खोई है। बाह्योपचारों से, पौष्टिक आहार आदि से ही स्वस्थ बना जा सका होता तो
विलासी-समर्थों में कोई भी मधुमेह-अपच आदि का रोगी न होता। मूल कारण तुम्हारे अंदर है, बाहर नहीं। पहले अपने छिद्र बंद करो, अमृत का संचय करो और देखो वह शरीर निर्माण में किस प्रकार जुट जाएगा।” रोगी ने सही दृष्टि पाई और जीवन को नए साँचे में ढाला। अपने बहिरंग व अंतरंग की अपव्ययी वृत्तियों पर रोक-थाम की और कुछ ही माह में स्वस्थ-समर्थ हो गया।