साकार होगा आध्यात्मिक साम्यवाद का स्वप्न

November 2003

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भारत माता ग्रामवासिनी है। इस सत्य से हम सभी परिचित हैं। यहाँ के 72 प्रतिशत लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। और कृषि के सहारे जीवनयापन करते हैं। हालाँकि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि का योगदान 27-28 प्रतिशत ही है लेकिन 60 प्रतिशत लोग उससे सीधे जुड़े हुए हैं। कृषि जैसे महत्त्वपूर्ण उद्योग से जुड़े रहकर भी इन 60 प्रतिशत लोगों की आय इतनी अपर्याप्त है कि वे अपने दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पाते।

इस ग्रामीण जनसंख्या में 28 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहते हैं। इसमें सीमाँत किसान, खेतिहर मजदूर, ग्रामीण कारीगर आदि आते हैं। इनकी पारिवारिक आय प्रतिवर्ष औसतन 14 हजार रुपये से कम बैठती है। 250 रुपया प्रतिमाह से भी कम पाने वाले लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। शहरी क्षेत्रों में यह 320 रुपया के आसपास बैठती है। इतनी कम आमदनी से गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले लोग किस तरह अपनी जीविका निर्वाह करते होंगे इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

इस स्थिति को बदलने के लिए सर्वप्रथम रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे। यह स्थिति सदैव कायम नहीं रखी जा सकती। हमें यह याद रखना होगा कि आय का सम्बन्ध रोजगार से होता है और रोजगार के अवसर पिछली पाँच शताब्दियों में जितने बढ़ने चाहिए थे उतने नहीं बढ़े। दूसरी तरफ जनसंख्या बढ़कर आज 103 करोड़ के ऊपर हो गई है। दसवीं योजना (2001-02) में अनुमान लगाया गया है कि कोई 70 से 80 लाख नये लोग रोजगार के बाजार में प्रवेश करेंगे। इस बड़ी संख्या में पूर्व से चले आ रहे बेरोजगार शामिल नहीं हैं। दसवीं योजना के पूरी होने पर यदि योजनानुसार रोजगार के अवसर बन गये तब बेरोजगारों की संख्या 6 करोड़ के ऊपर होगी। उसमें से लगभग 70 प्रतिशत अर्थात् 4 करोड़ 20 लाख लोग ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगार होंगे। कृषि में भी इन्हें खपाने की कोई गुंजाइश नहीं है।

कृषि प्रधान देश होते हुए भी यहाँ खेती सामान्यतः छोटे-पैमाने पर होती है। जिनसे किसानों को अपर्याप्त आय होती है। यदि लगातार एक-दो वर्ष तक प्रकृति नाराज रहे अर्थात् सूखा या अधिक वर्षा हो जाये तो आय की कमी अपना भयंकर रूप ले लेती है। किसान कर्ज में आकंठ डूब कर यह साबित करने लगता है कि भारतीय किसान कर्ज में जन्म लेता है और कर्ज में ही मर जाता है। ऐसे में यह अत्यन्त आवश्यक है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सहायक पूरक तथा प्रतिस्थापक उद्योग में कृषि को मुख्य उद्यम मानते हुए उससे उत्पन्न वस्तु को अन्तिम उपयोग की वस्तु बनाने के उद्योग जैसे-दाल, चावल, खाद्य तेल आदि की स्थापना होनी चाहिए। पूरक उद्यम में खेती के काम में आने वाली वस्तुओं का निर्माण होना चाहिए, जैसे-हल, पारी का पंप इसके अतिरिक्त पशुपालन और मुर्गी पालन आदि भी सम्मिलित किये जा सकते हैं। कोई किसान खेती के साथ-साथ उक्त उद्यमों में से तीनों या दो अथवा एक को अपनाकर अपनी कम आमदनी को बढ़ाने का प्रयास कर सकता है।

यह उन लोगों की आयपूर्ति की एक आवश्यकता है जो खेती कर रहे हैं। जिनके पास खेती और काम नहीं है उन्हें तो उन उद्यमों को अपनाना ही होगा जिनसे वे वस्तु बनाकर और विक्रय कर अपनी आय स्रोत बनाये रख सकें। इनमें कृषि श्रमिक और ग्रामीण कारीगर तथा अन्य लोग आते हैं। सवाल उठता है कि किस प्रकार के काम किये जाने चाहिए? निश्चित रूप से उत्पादन के कार्यों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। फिर सेवा व संरचना के कार्य आते हैं। उत्पादन के क्षेत्र में सर्वप्रथम ग्रामोद्योग को लिया जाना चाहिए, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोगों को काम मिल सके और उनके द्वारा निर्मित वस्तुएँ ग्रामीण बाजारों में ही उपलब्ध हो सके। सेवा में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल, विद्युत प्रदाय संचार सेवा आदि हैं जिनका उपयोग कुशलता तथा उत्पादकता निर्माण करने और उनको बढ़ाने में किया जाना चाहिए। निर्मित वस्तुओं को बाजार तक पहुँचाने और बाजार से आवश्यक उपभोग की वस्तु लाने के निमित्त सड़क व अन्य यातायात के साधन आवश्यक हैं। यदि हम रोजगार प्राप्तकर आय निर्माण करते हुए इसे बढ़ाने की दृष्टि से विवेचना करें तो पाते हैं कि ग्रामोद्योग को छोड़कर अन्य क्षेत्रों ने स्थाई व निरन्तर रोजगार प्रदान नहीं किये हैं। जो रोजगार उपलब्ध कराये हैं, वे तात्कालिक ही रहे हैं। व्यवस्थित एवं सुप्रबन्धित बाजार के अभाव में संकट की स्थिति बनी रही। ‘सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना’ ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना’ ‘स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना’ आदि पर गत तीन वर्षों में क्रमशः 9260, 9205 तथा 10270 करोड़ रुपये व्यय किये गये हैं। परन्तु फिर भी स्थाई कार्य उपलब्ध करवाने की समस्या यथावत विद्यमान है।

ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामोद्योगी कार्यक्रम अवश्य स्थाई रोजगार देने में कुछ सक्षम हुए हैं। नवीं योजना के आँकड़ों को देखें तो पाँच वर्षों यानि कि 1997-97, 1998-99, 1999-2000, 2000-2001 और 2001-2002 खादी ग्रामोद्योग में क्रमशः 56.50, 58.29, 59.23, 60.08, 62.40 लाख लोगों को रोजगार मिला था। इस प्रकार पाँच वर्षों में लगभग 56 लाख से बढ़कर यह संख्या 63 लाख अर्थात् 7 लाख अधिक लोग खादी ग्रामोद्योग में काम पा सके हैं। रोजगार की व्यापक आवश्यकता में इस वृद्धि को सिर्फ प्रतीकात्मक रोजगार निर्माण ही माना जा सकता है।

भारतीय नियोजन में लघु तथा ग्रामोद्योगों के लिए एक मद रहती आयी है। तीसरी से नवीं योजना के बीच इस मद में आबंटित राशि 240.8 करोड़ से बढ़कर 14194.01 करोड़ रुपये हो गई थी किन्तु व्यवहार में अब तक सरकार द्वारा यह स्पष्ट ही नहीं हो पाया कि दोनों में भेद क्या है? दोनों का अन्तिम स्वरूप क्या होगा? 1956 में स्थापित ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग‘ का ही स्वरूप कुछ हद तक स्पष्ट हो पाया है। यह आयोग तीन उद्देश्यों को लेकर कार्यरत है। रोजगार प्रदान करना, बिक्री योग्य वस्तुओं को उत्पादित करना, लोगों के बीच आत्मावलम्बन को गति देना। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आयोग ने उपयुक्त संस्थानों एवं एजेन्सियों को वित्त प्रदान किया है। खादी ग्रामोद्योग के कार्यक्रम के लिए अनुसंधान करने के साथ-साथ खादी ग्रामोद्योग की वस्तुओं के विपणन को भी बढ़ावा दिया है। इन सब के बाद भी खादी के उपभोक्ताओं की संख्या में निरन्तर कमी आती जा रही है।

आज के उपभोक्ताओं में तड़क-भड़क व प्रदर्शनकारी वस्तुओं की चाह बढ़ती जा रही है। ऐसे में उनके मध्य ग्रामोद्योगी वस्तुओं जिनमें प्रदर्शन कम उपयोगिता अधिक है की जानकारी से ही काम बन सकता है। प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उत्पादन में गुणवत्ता व विविधता भी होनी चाहिए। इसके लिए नई तकनीक अपनाने की आवश्यकता है जिससे गुणवत्ता में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन लागत में कमी आये। वैश्वीकरण के हाल ही के वर्षों में न केवल देशी वस्तुओं में वरन् विदेशी वस्तुओं में भी प्रतियोगिता बढ़ती जा रही है। ऐसे में गुणवत्ता में सुधार ही एक मार्ग है। उपभोक्ता चाहे जो हो भावना से नहीं बल्कि मूल्य व गुणवत्ता के आधार पर वस्तु क्रय करता है।

औद्योगीकरण के दौर में ग्रामोद्योग को भावनात्मक संरक्षण के साथ-साथ सशक्त अनुदान की भी आवश्यकता है। कर नीति में ग्रामोद्योगी वस्तुएँ कर मुक्त रखी जानी चाहिए। उत्पान का क्षेत्र भी निश्चित कर दिया जाये ताकि कुछ वस्तुएँ सिर्फ ग्रामोद्योग में ही निर्मित हो। उन्हें अन्य उद्योग उत्पादित न करें। योजना आयोग की ग्रामोद्योगों की ऋण देने की अनुसंशा तभी सार्थक हो सकती है जब ग्रामोद्योगी वस्तुओं के बाजार निर्माण व व्यापार की शर्तें उनके पक्ष में हो।

उत्पादन एवं वितरण के व्यतिक्रम का ही परिणाम है कि एक ओर धन-सम्पदा का अथाह भण्डार भरता जा रहा है दूसरी ओर लोग रोटी के टुकड़े के लिए तरस रहे हैं। इस रीति-नीति एवं संकीर्ण स्वार्थपरता को बदलना ही होगा। ग्रामीण जीवन की सर्वांगीण उन्नति को सर्वाधिक महत्व दिया जाये तभी व्यक्ति एवं समाज का स्वस्थ विकास सम्भव हो पायेगा। परम पूज्य गुरुदेव ने जिस आध्यात्मिक साम्यवाद की परिकल्पना की थी वह भी तभी साकार हो पायेगी।


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