योगारुढ़ होकर ही मन को शान्त किया जा सकता है

November 2003

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(आत्मसंयम योग नाम श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय की युगानुकूल व्याख्या द्वितीय किस्त)

विगत अंक में छठे अध्याय का शुभारम्भ विगत पाँच अध्यायों की एक संक्षिप्त विवेचना के साथ किया गया था। प्रथम छहों अध्याय कर्मयोग प्रधान हैं, पर उनमें संयम साधना का महत्व कितना है यह इन छह अध्यायों में में एक पूरा अध्याय इसी के लिए सुनियोजित किये जाने पर समझा जा सकता है। इस अध्याय का शुभारम्भ प्रथम श्लोक की व्याख्या के साथ किया गया था। उसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को सच्चे संन्यासी का स्वरूप बताते है। जो निष्काम भाव से कर्म करते है। वे भले ही संन्यासी का वेश न धरें, सही अर्थों में संन्यासी है। जो अग्नि का त्याग कर उसका मात्र ढोंग करते है। परोपकार के कार्य भी नहीं करते, वे संन्यासी मानने योग्य नहीं है। श्रीकृष्ण की यह व्याख्या अर्जुन की दुविधा को देखकर की गई है, जिसमें वह युद्ध की तुलना में संन्यास को उचित मानता है। श्रीकृष्ण उसे पलायनवादी कहकर समझा रहे है। अगले श्लोक में इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते है कि जिसने संकल्पों का त्याग कर दिया हो, वही सच्चा योगी है। यहाँ संकल्पों से उनका आशय है महत्वकाँक्षाएं-कामनाएँ। इन्हें छोड़कर निष्काम भाव से जो कर्म करें, वही दिव्यकर्मी है। ऐसा योगी अपने अहं के ढाँचे को गिराकर ही सच्चा योगी बनता है। भावी सुख की इच्छाओं-कल्पनाओं में तल्लीन बने रहना संकल्प क्रीडा कहा गया है। भगवान इसीलिए मन को शाँत करने का यह उपाय बताते है। अब आगे।

पूर्व भूमिका

सच्चे संन्यासी कर्मयोगी एवं मात्र आडम्बर रचने वाले तथाकथित वेशधारियों के मध्य अन्तर हम समझ सकें तथा आकाँक्षाओं कामनाओं का त्याग कर सही अर्थों में योगी बनें, यह मर्म प्रथम दो श्लोकों का है। योग में आरुढ होने की यह पूर्व भूमिका है। बिना योग में आरुढ हुए कोई संन्यस्थ नहीं हो सकता। बार-बार पैदा होते रहने वाली इच्छाओं से मनोकामनाओं से मुक्ति मिले तो योगी बनने हेतु मनःस्थिति बने। हमारा संकल्प एक ही हो कि हमारे व ईश्वर के संकल्प मिल जाए। दोनों मिलकर एक हो जाए। ईश्वर का, नवयुग के प्रज्ञावतार का, हमारे इष्ट-आराध्य का एक ही संकल्प है युग-परिवर्तन। यदि हम आत्मनिर्माण से युग के नवनिर्माण की दिशाधारा से इतर सोच रहे है, तो फिर हम ईश्वरीय धारा से अलग चल रहे है। परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर एक ही बात कही कि तुम हमें मानते हो तो हमारे संकल्प से जुड़ जाओ। हमारा संकल्प अर्थात् ईश्वरीय संकल्प युग निर्माण योजना प्रज्ञा, अभियान, युग परिवर्तन, इक्कीसवीं सदी में नारीशक्ति का, संवेदना का अभ्युदय, सतयुग का आगमन। हर श्वास हम इसी संकल्प की पूर्ति हेतु जिए।

यदि हम गुरुसत्तारूपी भगवान के प्रमुख पार्षद के एक छोटे से अंश है तो हम अपनी जिम्मेदारी समझ सकते है। यदि हम अपनी गुरुसत्ता को भगवान की कम्पनी का मैनेजिंग डायरेक्टर मान लें तो स्वयं को उस कम्पनी का एक छोटा मोटा कारिंदा गुमाश्ता तो मान ही सकते है। वैसे ही यदि बन जाये अपने संकल्पों को गुरुसत्ता के संकल्पों के साथ जोड़ लें तो हमें अपना युगधर्म समझ में आ जाए। आज के युग का धर्म है-समग्र समाज का अभिनव निर्माण, सारे समाज का आध्यात्मीकरण, विश्व वसुधा को गायत्रीमय बना देना। इसके लिए कर्मयोगी बनकर अपनी सारी आसक्ति को, सुखों की चाह को आकाँक्षाओं को, मनोकामनाओं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर जीना होगा। हर क्षण यही भाव रहे कि हम परमात्मा के लिए कह रहे है, अपने लिए नहीं। हमारे संकल्प भगवान को अर्पित हो जाए। यही प्रभु चाहते है। हम निष्काम कर्मयोगी बन जाए।

हर गुरु प्रभु-समर्पित कर्म चाहता है

भगवान अर्जुन से यह अपेक्षा क्यों रख रहे हैं, बार-बार यह बात क्यों कह रहे हैं? इसलिए बार-बार जोर दे रहे हैं कि अर्जुन के प्रारब्ध कट जाए। हर गुरु अपने अपने समय में अपने शिष्य के हित हेतु ऐसा कहता व करता है। प्रारब्ध व्यक्ति को काटने ही पड़ते है। कष्ट भोगने ही पड़ते है किन्तु अच्छे कर्म करके, सतयुगी पुरुषार्थ में भागीदारी करके जल्दी काटे जा सकते है। जो कर्म हम कर चुके और जो अभी पके नहीं, जिनका अभी प्रारब्ध व संचित के रूप में संस्कार नहीं बना, उनको तो निष्काम कर्म करके प्रारब्ध बनने से रोका जा सकता है। इसलिए सद्गुरु कहते है, योगेश्वर कहते है निष्काम कर्म करता चल। तेरे संचित और क्रियमाण कर्म कटते चले जाएंगे। तेरा यह लोक भी, परलोक भी सुधर जाएगा।

जीवन जीने के क्रम में हमें भाँति-भाँति के दुःखों कष्टों से गुजरना होता है। उच्चस्तरीय, सद्गुरु स्तर की सत्ताएँ जानती है कि विगत जीवन में, विगत जन्मों में किए गये कर्मों की विधि व्यवस्था के कारण यह शरीर मिला है, कष्ट भोगना तो पड़ेगा ही। परमपूज्य गुरुदेव ने हम सबसे कहा था कि अपने तप व आशीर्वाद से हम तुम्हारे पापों का, प्रारब्ध का जखीरा नष्ट कर देंगे। यह गुरु का सदैव शिष्य को आश्वासन है, पर है यह एक शर्त पर, वह यह कि हम इसके बदले गुरु का कार्य करें, युगधर्म में स्वयं को नियोजित करें, कुछ कष्ट सहना पड़े तो उसे तप मान लें। वैसे न जाने कितना भोगना पड़ जाता। पर हमारा सौभाग्य कि हम सद्गुरु से जुड़े। हमारे कष्ट थोड़े में टल जाएँगे। प्रारब्ध भी कट जाएँगे। दिव्यकर्मी होने के कारण संचित-क्रियमाण का अनुपात घटेगा। पाप होंगे ही नहीं तो मोक्ष सुनिश्चित है। कर्म का यह विधान समझना, निष्काम कर्मयोगी बनना एवं अच्छे कर्मों का अपना फिक्सड डिपॉजिट बढ़ाते चलना यही हमारा उद्देश्य होना चाहिए।

मैं पन छोड़ें व साधक बनें

अभी हमारी पहले दो श्लोकों की व्याख्या ही चल रही है। भगवान संकल्पों से (कामना-आकाँशाओं इच्छाओं से) मुक्ति चाहते है एवं एक आदर्श शिष्य को सच्चा मार्गदर्शन कर रहे है कि जीवन मिला ही श्रेष्ठ कर्मों को करने के लिए है। श्रेष्ठ के खाते में वृद्धि करते रहिए एवं अपने पाप-कर्मों को, प्रारब्ध संचित को काटते चलिए। यही जीवन की रीति-नीति हमारी होनी चाहिए। हमारा हर कार्य ईश्वर समर्पित हो। जीवन व्यापार को ईश्वरीय स्वरूप मानकर करें। कभी भी अपना मैं पर निजी इच्छा आकाँशा को न जोड़ें। योग मनोविज्ञान की एक बड़ी जटिल व्यवस्था को वे अर्जुन के समक्ष रखना चाह रहे है ताकि वह आत्मसंयम, ध्यानयोग का कर्म समझ सके। अभी दोनों श्लोकों का प्रतिपादन संन्यास सम्बन्धी भ्रान्तियाँ मिटाने, दिव्यकर्मी के लक्षणों को बताने के लिए एवं यह समझाने के लिए किया गया है कि जिसने संकल्पों का त्याग न किया वह योगी नहीं हो सकता। (असंन्यस्त संकल्पः कश्चन योगी न भवति)। यदि संकल्प रखता है तो वह भ्रष्ट होकर पुनर्जन्म प्राप्त करता है एवं जब तक सारी इच्छायें मिट नहीं जाती, निरन्तर जन्म लेता रहता है। पूर्णतः बंधन मुक्ति का पथ प्रभु यहाँ समझा रहे है एवं चाह रहे है कि अर्जुन इस तथ्य को समझ ले।

एक बानगी

एक घटनाक्रम इसी संदर्भ में, जो इस युग का ही है। यहाँ बताने का मन है। प्रसिद्ध उद्योगपति एवं बिड़ला परिवार के आदि संस्थापक श्री जुगल किशोर जी बिड़ला के परिवार में एक बालक जन्मा। उसने आगे चलकर एक डायरी लिखी। यह बालक प्रतिभाग की दृष्टि से विलक्षण था एवं उसने आदित्य बिड़ला ग्रूप नाम से एक भरा पूरा संगठन खड़ा किया। उसकी मुम्बई-बैंगलोर फ्लाइट के क्रैश (हवाई दुर्घटना) में मृत्यु हो गयी। मृत्यु के बाद उसकी डायरी पायी गयी। डायरी के यह अंश उन दिनों प्रचलित सुप्रसिद्ध साप्ताहिक धर्मयुग में प्रकाशित हुआ जो कि पत्रिका का संयोग से अन्तिम अंक था। मृत्यु के समय उसकी आयु 32-33 वर्ष की रही होगी। उस डायरी में उसने लिखा था। अब मुझे अहसास हो रहा है, जाग्रति की अनुभूति हो रही है कि मैं पूर्वजन्म का संन्यासी हूँ। अमेरिका के रामकृष्ण मिशन में मैं पूर्वजन्म में सक्रिय रहा हूँ। वहाँ काम करते करते संन्यास लेने के बावजूद मेरे मन में एक लड़की के प्रति आकर्षण पैदा हुआ। मैंने बहुत सोचा कि उसके बारे में न सोचूँ। फिर मैंने शरीर छोड़ दिया। पूर्वजन्म के संस्कारोंवश मेरा इस परिवार में पुनः जन्म हुआ। अब मैं इंग्लैण्ड में पढ़ने आया हूँ तो ठीक उसी शक्ल सूरत की एक लड़की से मेरी मुलाकात हुई। क्या यह मेरी जीवनसाथी बन सकेगी? डायरी यहाँ मूक हो जाती है। परिवार के लोगों ने उनका विवाह कही और किया एवं दोनों पति-पत्नी क्रैश में मारे गये। उन्हीं की संतान अब उनका विशाल तंत्र चला रही है। वे डायरी में यह भी लिखते है मैं कर्मों का भोग भोगने आया हूँ। संन्यासी होने के नाते मेरी मुक्ति हो जानी चाहिए थी। शायद अभी और कष्ट भोगना भाग्य में लिखा है।

भोग छूटा तो ज्ञान जन्मा

पूर्वजन्म के तप ने एक साधन को एक धनीमानी परिवार में कर्मयोगी के रूप में जन्म दिलवाया। जैसे जैसे भोग छूटा, ज्ञान का उदय होता गया। किसी भी सामान्य व्यक्ति को अनायास ही पूर्वजन्म की स्मृति आने लगे व उसे आभास होने लगे कि वह कौन है तो वह कब संसार से जाने वाला है, यह ज्ञान उसे हो चुका ऐसा मान लेना चाहिए। परमहंस की स्थिति के लोग अपने विषय में जानते है, पर कभी कभी ही जग−जाहिर करते हैं। परमपूज्य गुरुदेव को तीन जन्मों की जानकारी उनकी अदृश्य सूक्ष्म शरीरधारी सत्ता ने दी। जो राम था, कृष्ण था, वही रामकृष्ण बनकर आया है, यह श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा था। ऐसे परमहंस अपने महानिर्वाण का दिन भी तय कर लेते हैं और स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करते हैं।

यह सुनिश्चित है कि पूर्वजन्म की कर्मवासना एवं संकल्पों के अनुसार भावी जीवन के संस्कार तय होते है। योग पर आरुढ होकर ही, निष्काम भाव से कर्म करते हुए ही व्यक्ति बंधक मुक्त हो सकता है, नहीं तो चौरासी लाख योनियों का फेर है। यदि यह तथ्य समझ में आ जाए तो हमारे सभी कर्म स्वतः निर्मल होते चले जाएंगे एवं हम मोक्ष को प्राप्त हो जाएंगे। संकल्पों से निवृत्ति की चर्चा श्रीकृष्ण इसीलिए कर रहे है। पुनर्जन्म एवं संकल्पों वासनाओं से जुड़े रहने की परिणति की व्याख्या इसी अध्याय में आगे 41-44 क्रमाँक के श्लोकों में विस्तार से हुई है। तब उसे वहाँ दृष्टांतों के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। अभी यहाँ अध्याय 6 के तीसरे व चौथे श्लोक की व्याख्या की ओर बढ़ते है।

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। योगरुढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥3॥

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। सर्वसंकल्पसन्यासी योगारुढस्तदोच्यते॥4॥

पहले शब्दार्थ देखते है -

“ज्ञानयोग में (योग) आरोहण करने के इच्छुक (आरुरुक्षो) मुनि के लिए (मुनि) निष्काम कर्म (कर्म) कारण कहा जाता है। (कारणम् उच्यते)। योगमार्ग में आगे बढ़े होने के कारण इनके लिए। (योगारुढस्य तस्य एवं) कर्म निवृत्ति (शमः) को ज्ञान की पूर्णता प्राप्ति का सहायक (कारण) कहा गया है (उच्यते)।”

जब(जिस समयावधि में) (यदा) सब प्रकार के संकल्प छोड़ने वाले साधन अर्थात् इहलोक व परलोक में सुख भोग की वासना त्यागने वाले (सर्वसंकल्पसंन्यासी) रूप रसादि इंद्रिय भोग्य विषयों में (इंद्रियार्थेषु) आसक्त नहीं होते (न अनुषज्जते) उनके साधनरूप कर्मों में भी आसक्त नहीं होते (न कर्मसु च न) तब (यदा) उन्हें योग में प्रतिष्ठित (योगारुढः) कहते है। (उच्यते)।

अब तीसरे व चौथे श्लोकों का भावार्थ देखते है :-

“योग में आरुढ होने की इच्छा रखने वाले साधन के लिए प्रभु समर्पित कर्म ही एकमेव साधन है। ऐसा होने पर उस योगारुढ़ पुरुष का जो सर्वसंकल्पों के अभाव वाला भाव है, वह उसके लिए शाँतिप्रदाता, कल्याणकारी होता है। (श्लोक 3, अध्याय 6)। जब व्यक्ति (जिस काल अवधि में) विषय भोगों और कर्मों में आसक्त नहीं होता, उस काल में उसे (तब ही) एकाग्र योग में आरुढ-त्यागी पुरुष माना जाता है। (श्लोक 4, अध्याय 6)।”

एकाग्रता का अभ्यास

अब यहाँ इन दो श्लोकों में कही गई बातों के मर्म को समझना जरूरी है। हर व्यक्ति एकाग्र होकर ध्यान करना चाहता है। यह आत्मा की प्यास है। बहुचित्तीय (पॉली साइकिक) मन वाला मनुष्य योगारुढ़ हुए बिना एकाग्रता को साध नहीं सकता। एकाग्रता का अर्थ मन चित्त की निश्चलता नहीं है। सभी बाधक विरोधी विचारों को परे हटाकर समग्र मन द्वारा (vलेvिटव माइंड) किसी एक ही विषय के चिंतन की विधि ही ध्यान कहलाती है। मन को खुला छोड़ देते है तो अनगढ़ कुसंस्कारी अवचेनत मन के कारण अस्थिरता के दिखाई देती है। मनोयोग तत्परता एकाग्रता तल्लीनता जैसी उपलब्धियाँ नहीं मिल पाती। मन की निरर्थक भाग दौड़ को नियंत्रित करने एवं उसे एक ही विषय पर केंद्रित करने के लिए एकाग्रता की शक्ति हर साधन को अभीष्ट है। तब ही तो मन शक्तिशाली संकल्पहीन बन पाएगा।

श्रीकृष्ण तीसरे श्लोक में कहते है कि एकाग्रता की प्राप्ति के लिए कर्मयोग साधन है किन्तु इसे क्रमशः विकसित करते हुए इसका व्यावहारिक प्रयोग आत्मा पर गहन ध्यान लगाने के रूप में किया जाना चाहिए। ‘शम’ अर्थात् मन की शाँति मन को चुपकर एक ही भाव में तल्लीन कर लेना। मन की शाँति के बिना योगारुढ़ नहीं हुआ जा सकता। जब मन कामनाओं के दबाव से मुक्त हो जाता है, उसकी भोग वासना की इच्छाएँ निवृत्त हो जाती है तो कहीं भी केंद्रित कर मनवाँछित आध्यात्मिक सफलताएँ अर्जित की जा सकती है, अतींद्रिय क्षमताओं को जाग्रत किया जा सकता है।

योग पर आरुढ साधक

श्री भगवान ने ‘आरुढ’ होना अर्थात् सवारी करना शब्द जान बूझकर प्रयुक्त किया है। योग पर आरुढ अर्थात् योग के घोड़े पर सवार साधक। वीर अर्जुन को युद्धक्षेत्र में इससे सुँदर और क्या समझाया जा सकता है। “यथा स्थान तथा शैली” का प्रयोग कर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते है कि जो योग के घोड़े पर सवार होना चाहते है उनके लिए निःस्वार्थ कम अति अनिवार्य है, सहायक है (कर्म कारणमुच्यते)। किंतु ऐसा हो जाने के बाद (योगरुढस्य तस्यैव) साधक हेतु आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँचने हेतु ‘शम’ अर्थात् मन की शाँति ही एकमात्र साधन है (शमः कारणमुच्यते)। एकाग्रता की उपलब्धि हेतु मन के विक्षेप के कारणों का हटाया जाना जरूरी है।

मनोविग्रह हेतु मानसिक विक्षोभ पैदा करने वाले अहंकार, अहंकेंद्रित कामनाएँ-वासनाएँ आदि कारणों से मुक्त होना पड़ेगा। निःस्वार्थ सेवाप्रधान समर्पित कर्मों के माध्यम से इन सभी कारणों का निवारण हो जाता है। कर्मयोग उन सभी लोगों के लिए एक साधन है, जो मन की एकाग्रता के लिए प्रयत्नशील है, ध्यानस्थ होना चाहते, मनः शक्ति के कुछ कार्य करना चाहते है। एकाग्रता प्राप्त होते ही आध्यात्मिक साधन को अधिकाधिक मानसिक शाँति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। मन की भटकन रुकेगी तो ही शाँति मिलेगी।

सफल ध्यान हेतु निष्काम योग

हर व्यक्ति आज के भोगवादी युग में मन की शाँति चाहता है। सुख साधनों का उपभोग करते हुए अपने अहं को पालकर उससे नियंत्रित होते हुए यह शाँति कभी मिलेगी नहीं। लोग उसे तलाशते भी इन्हीं चीजों के माध्यम से है। फलतः अतृप्ति बेचैनी-तनाव-उन्माद ही हाथ लगते है। ध्यान का नाटक करने से क्या लाभ, यदि संकल्पों से अहंकेंद्रित कामनाओं से मुक्ति नहीं मिल पाई। ध्यान तभी सफल है, जब वह मन को शाँत कर दे। उसे भटकन से मुक्त कर दे। योग पर आरुढ होने के बाद समर्पित कार्य करना अनिवार्य है। प्रभु समर्पित जीवन जिए बिना योगारुढ़ नहीं हुआ जा सकता और योगारुढ़ हुए बिना मन शाँत नहीं हो सकता। सभी बातें शर्तें एक दूसरे पर निर्भर है।

निष्काम कर्मों के परिणामस्वरूप चित्तशुद्धि होकर आत्मानुभूति होती है एवं ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है। श्री रामकृष्ण परमहंस कहते है, “ज्ञान काँटे से अज्ञान काँटे को निकालना होता है, तब दोनों ही काँटे फेंक दिए जाते है। तत्पश्चात तो ज्ञान व अज्ञान से परे ब्राह्मी स्थिति में पहुँचना अति सरल है” योगारुढ़ होने के लिए शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार की वासनाओं को छोड़ना होगा। तनिक सी भी रह गई तो मन अशाँत बना रहेगा। ठाकुर श्री रामकृष्ण देव कहते है, “सूत में जरा सा भी रेशा रहने से वह सुई के छेद में नहीं घुस सकता। उसी प्रकार मामूली सी वासना भी हुई तो मन ईश्वर के चरणकमलों का ध्यान, उनमें लीन होने का भाव नहीं कर सकता।” अब प्रश्न यह उठता है कि यह कैसे जाना जाए कि हमें पर्याप्त एकाग्रता मिल गई व हम योग आरुढ हो गए? इसकी व इससे आगे मन की शक्ति की चर्चा आगामी अंक में। (क्रमशः)


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