एक बार संत एकनाथ जी अन्य संतों के साथ प्रयाग से गंगाजी का जल काँवर में लेकर रामेश्वर जा रहे थे। रास्ते में एक रेतीला मैदान आया। वहाँ एक गधा प्यास के मारे छटपटा रहा था। एकनाथ जी ने तुरंत काँवर से गंगाजल लेकर गधे के मुख में डाला। एकनाथ के साथी संत प्रयाग के गंगाजल का इस प्रकार प्रयोग होते देखकर क्रुद्ध हुए। एकनाथ ने उन्हें समझाया, अरे सज्जनवृंदों आप लोगों ने तो बार-बार सुना है कि भगवान घट-घटवासी हैं। तब भी ऐसे भोले बनते हो? जो वस्तु या ज्ञान समय पर काम न आए वह व्यर्थ है। काँवर का जो जल गधे ने पिया, वह सीधे श्रीरामेश्वरम् पर चढ़ गया।
देवासुर संग्राम हेतु पितामाह ब्रह्माजी ने युद्ध की योजना बनाकर दी थी, विष्णु ने संगठन किया था, महर्षि दधीचि ने अस्थियाँ दी थीं, जिससे वृत्रासुर को मारने वाला वज्र बना था, विजय इन योजनाओं और आयुधों से ही मिली थी, किंतु कृतघ्न अहंकार की जितनी निंदा की जाए कम होगी, उसी अहंकार ने विजयी इंद्र को आच्छादित कर लिया था। इंद्र जाल बजाते घूम रहे थे, मैं न होता तो वृत्रासुर को कोई मार नहीं सकता था। अन्य देवतागण भी आत्मप्रशंसा में लगे थे।
ऐसे में भगवान ने माया रची। वे एक काँतियुक्त यक्ष के रूप में प्रकट हुए। दर्प में चूर एक-एक कर अग्निदेव, मरुत, वरुण, पृथ्वी और आकाश सभी उनसे उनका परिचय पूछने लगे। भगवान ने अपना परिचय देने के पूर्व एक छोटे से तिनके को अपने स्थान से हटाने की चुनौती दी। जब सब प्रयास कर चुके तब इंद्र वहाँ पहुँचे। इंद्र भी अपनी कोशिश कर हार गए। मायाजाल हट चुका था। स्वयं भगवान वहाँ विराजमान थे। सभी देवगणों को संबोधित कर उन्होंने कहा, “यह न समझें कि आप अपने आप में पूरे हैं, आपके अलावा, आपसे ऊपर भी कोई सत्ता है। उसे भुलाकर आत्मश्लाघा में पड़ने से ही असुरगण आप पर हावी होते रहे हैं।” देवगणों को प्रबोध देकर भगवान अपने लोक को चले गए।