संयुक्त परिवार का नया मॉडल बनेगा, जीवनमूल्य लौटेंगे

November 2003

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आज हम संक्रमण के निर्णायक दौर से गुजर रहे हैं। इसमें जहाँ एक ओर पुरानी रूढ़ियों, रीति-रिवाज एवं विचारों की दीवारें दरक-टूट कर ध्वस्त हो रही हैं, वहीं नये प्रतिमान, नये विचार, नये तौर-तरीके इनका स्थान लेने के लिए आतुर हैं। किन्तु दोनों के संगम से जो समाज एवं संस्कृति का नया रूप उभरने जा रहा है वह इनकी साझी भागीदारी के आधार पर ही निर्धारित होना तय है। परिवार संस्था के संदर्भ में भी यह सत्य पूरी तरह लागू होता है। एकल परिवार का प्रयोग अपने लम्बे अनुभव से गुजरने के बाद अपनी मौलिक त्रुटियों से भलीभाँति परिचित हो चुका है और बदलते समय की मुश्किलें एक बार फिर संयुक्त परिवार के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर रही हैं। किन्तु पुराने ढंग के संयुक्त परिवार को यथावत् स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसकी भी मौलिक त्रुटियाँ रही हैं, जिसके कारण यह आज किसी को रास नहीं आ सकता। अतः 21 वीं सदी की चुनौतियों एवं बदली यथार्थता के अनुरूप इसका स्वरूप क्या हो, यह विषय विचारणीय है।

वर्तमान का हमारा समाज एक ऐसी पीढ़ी से बना है जिसने स्वयं संयुक्त परिवार की गोद में ही आँखें खोली और फिर आगे बढ़कर एकल परिवार की स्थापना की। पुरानी संयुक्त परिवार व्यवस्था से अलग होने वाली पीढ़ी ने उस समय एकल परिवार की स्थापना की थी, जब समाज में व्यक्ति के विचारों को स्वतंत्र जगह मिलने लगी थी। यह उस पीढ़ी के लिए बेहद रोमाँचक समय था, जब वह अपने लिए अपनी इच्छा का घर बना रही थी। एकल परिवार व्यवस्था ने इस पीढ़ी को परम्पराओं की उन बन्दिशों से मुक्त किया जो संयुक्त परिवार में रूढ़ियां बन चुकी थीं। ऐसे में जहाँ भी जब कभी किसी परिवार में बड़े हो चुके बच्चों की अपने माँ-बाप से असहमतियाँ पैदा हुई, बच्चों ने अपने लिए अलग घर बना लिये और इस तरह एकल परिवार समाज में तेजी से फैलते चले गये। बिखरते परिवारों में टूटते मूल्यों और एकल परिवार को देख पुरानी पीढ़ी दुःखी थी। लेकिन जब एकल परिवार का बनना समाज में आये दिन की बात बन गये, तो पुरानी पीढ़ी ने धीरे-धीरे इसे स्वीकारना शुरू कर दिया और जमीनी सच्चाइयों से जुड़कर वह इसमें सहज होने लगी।

एकल परिवार की व्यवस्था को बनाने और बढ़ाने में एक महत्त्वपूर्ण कारक था-औद्योगीकरण। औद्योगिक क्रान्ति ने शहरों और कस्बों में रोजगार के रास्ते खोल दिये। ऐसे में स्त्रियाँ और पुरुष घरों से बाहर निकलकर दूसरे शहरों और कस्बों में काम करने के लिए चल पड़े। ऐसे मामलों में अक्सर ही माता-पिता उन्हीं जगहों से जुड़े रहे, जहाँ उन्होंने अपना बचपन और यौवन गुजारा था।

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता पाने की आस में संयुक्त परिवारों से अलग होने वाली पीढ़ी आज खुद स्वयं से यह पूछ सकती है कि इस आजादी को पाने की एवज में उसने क्या कुछ नहीं खो दिया है। एकल परिवार की एकमात्र जो सबसे बड़ी विशेषता है, वह यह है कि यह व्यक्ति को अपनी पहचान बनाने और अपनी काबीलियत सिद्ध करने के मौके उपलब्ध कराता है। लेकिन इसके बहुत सारे दोष भी हमारे सामने हैं। यहाँ अपनी कठिनाइयाँ, समस्याएँ या दुख बाँटने के लिए सिवाय अपने जीवन साथी के और कोई कन्धा नहीं मिलता और एक सीमा के बाद इन्हें व्यक्ति को अकेले ही उठाना होता है। परिणामस्वरूप समाज में अनेकों ऐसी समस्याएँ सिर उठा रही हैं, जो पहले बहुत कम होती थीं। तनाव एवं तनावजनित मनोकायिक रोग, डिप्रेशन एवं आत्महत्या आदि इसके कुछ ज्वलन्त उदाहरण हैं।

यहाँ ‘नजरों से दूर तो दिल से दूर वाली’ कहावत गलत नहीं है। परिवार के सदस्यों से दूर होने का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति अक्सर ही आत्मीय जनों के दिलो दिमाग से दूर हो जाते हैं। साथ ही एकल परिवार प्रायः अपनी परम्परा से जोड़ने वाले उत्सवों एवं पर्व-त्यौहारों से कट जाते हैं और उन्हें अकेले होने का अहसास लगातार बना रहा है। एकल परिवार में सबसे अधिक खामियाजा जिसे भुगतना पड़ता है तो वे हैं बच्चे। एकल परिवार के कारण बच्चों को अपने साँस्कृतिक मूल्य विरासत में दे पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। साँस्कृतिक मूल्यों को बच्चे अपने बड़े-बुजुर्गों से विरासत में सहज रूप से ही ग्रहण एवं आत्मसात् करते हैं। इन्हें अलग से सिखाया भी नहीं जा सकता।

एकल परिवार में छोटे बच्चों को पालने का तनाव सिर्फ पति-पत्नी को झेलना होता है या फिर उन्हें ‘चाइल्ड केयर’ जैसे संस्थानों के भरोसे छोड़ना पड़ता है। छोटे शहरों और कस्बों में यह समस्या काफी जटिल होती है, जहाँ ‘चाइल्ड केयर’ जैसे संस्थानों की सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं होती।

एकल परिवारों में आने वाली उपरोक्त वर्णित कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए आज नये मॉडल के संयुक्त परिवारों की नींव रखे जाने की सख्त जरूरत है। संयुक्त परिवारों की नई संरचना में मौलिक आधार तो पुराने होने चाहिए, लेकिन परिवार के सदस्यों में संवाद की परम्परा को नये ढंग से स्थापित करने की जरूरत है। संयुक्त परिवार के मूल में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि परिवार के सभी सदस्य एक ही छत के नीचे रहें और आपसी समझ और आपसी सहयोग के साथ एक-दूसरे की मदद करें। लेकिन संयुक्त परिवार के नये मॉडल में एक ही परिवार के सदस्य न होकर लोग अलग-अलग परिवारों से भी हो सकते हैं। यह नया संयुक्त परिवार मॉडल ‘मित्र परिवारों’ को एक छत के नीचे रखकर तैयार किया जा सकता है। परम पूज्य गुरुदेव ने इसे ‘लार्जर फैमिली’ के रूप में परिभाषित किया है।

किन्तु ‘लार्जर फैमिली’ के रूप में नये संयुक्त परिवार मॉडल को क्रियान्वित करने के लिए पुराने संयुक्त परिवार मॉडल की मौलिक खामियों से बचना होगा, जिसके कारण कभी नई पीढ़ी में इसके प्रति विद्रोह का भाव पनपा था। संयुक्त परिवार से बगावत का पिछली पीढ़ी का एक ठोस कारण था, पुरानी पीढ़ी का रवैया जो अपनी बात के आगे छोटों की बात को कुछ नहीं समझती थी। अधिकाँश परिवारों में सबसे बुजुर्ग व्यक्ति या पिता का वाक्य ही निर्णायक हुआ करता था, उसके खिलाफ कोई मुँह नहीं खोल सकता था। ऐसी स्थिति में घर में अशान्ति और बोलचाल बन्द होनी आम बात थी। यदि नये संयुक्त परिवार की आधारशिला परिवार के सदस्यों में परस्पर निस्वार्थ प्रेम और सम्मान पर रखी जाती है, तो इसकी सफलता में रत्ती भर संदेह नहीं होना चाहिए। प्रेम, स्नेह और सम्मान हृदय में होने पर कोई भी किसी पर हुक्म नहीं चलायेगा। बच्चों को प्रेम और सम्मान देकर ही उनसे बदले में इसकी उम्मीद की जानी चाहिए। यदि बच्चों के प्रति बड़े लोग समझदारी, प्रेम और सम्मान नहीं दिखाते हैं, तो बेटे या बेटी से अपने विचारों या सलाह के प्रति सम्मान की उम्मीद बेईमानी है।

परिवार के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे एक-दूसरे से खुलकर और ईमानदारी से आपस में बातचीत करें। परिवार के वरिष्ठ सदस्यों को छोटों को अपनी बात कहने के लिए प्रेरित करना चाहिए। ऐसा वातावरण न होने पर परिवार के सदस्य अपनी भावनाओं को दबा हुआ महसूस करते हैं और ऐसे में बड़ों से उनकी असहमति सहज ही बनने लगती है। पूर्वाग्रह से रहित होकर बात सुनना और परस्पर विश्वास का प्रदर्शन निश्चित रूप से सदस्यों को एक-दूसरे के करीब लाता है। पुराने संयुक्त परिवारों में यह एक बड़ी कमी थी। नये मॉडल में इसका निराकरण अवश्य होना चाहिए।

किसी भी संयुक्त परिवार में यह जरूरी होता है कि वह अपने सदस्यों को उसी रूप में स्वीकार करे, जैसा कि वह है। उससे बेवजह की उम्मीदें पालना गलत है। परिवार को अपने हर सदस्य की क्षमताओं और सीमाओं का ज्ञान होना चाहिए। साथ ही अपनी कमजोरियाँ भी जानना जरूरी है। ऐसा करने से किसी भी सदस्य के साथ गैर-जरूरी उम्मीदें नहीं बँधती। किसी से भी जरूरत से ज्यादा उम्मीद करना प्रायः दुःख और असहमतियों को बुलावा देना होता है।

अगर एक से अधिक परिवार साथ-साथ रहते हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि विभिन्न क्षमताओं से लैंस लोग एक छत के नीचे हैं। एकल परिवार की तुलना में इस परिवार का सबसे बड़ा लाभ यह है कि सबमें अलग-अलग प्रतिभा होती है और सबके साथ होने पर कोई भी काम रुकता नहीं। समझदारी के साथ चलें तो अलग होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इस तरह सब अलग-अलग होते हुए भी एक होते हैं। इस तरह संयुक्त परिवार के पुराने मॉडल में अभीष्ट सुधार करते हुए इसका नया ढाँचा बना सकते हैं, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों की समझ को जगह और सम्मान देना होगा।

संयुक्त परिवार का यह नया मॉडल आने वाली पीढ़ियों के लिए ‘ट्रेनिंग ग्राउंड’ साबित हो सकता है। वे समाज से सद्भावना के साथ रहने का पाठ यहाँ सीख सकते हैं। यदि हम आज के पारिवारिक ढाँचे को अपनी लाइफ स्टाइल का आइना मानें, तो पता चलेगा कि यह व्यवस्था हमारे स्वार्थ पर खड़ी है। हम किसी दूसरे के विचार सहन नहीं कर सकते हैं। ऐसे में हम अपने समाज से दूसरों के लिए बेहतर और कल्याणकारी होने की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? संयुक्त परिवार का नया मॉडल हमें ऐसा समाज बनाने में मदद दे सकता है, जो एक-दूसरे के विचारों और असहमतियों को सम्मान देता हो और जहाँ लोग एक-दूसरे से परस्पर सहयोग और प्रेम से रहते हों।

इस तरह एकल परिवार के अनुभवों और उसकी कमियों को देखने के बाद अब हम अपने लिए एक ऐसा मॉडल तैयार कर सकते हैं, जिसमें एकल परिवार और संयुक्त परिवार दोनों को लाभ हों। उपरोक्त चर्चा के आधार पर ऐसे संयुक्त परिवार की आवश्यकता स्पष्ट होती है। दूसरा यह करना हमारे लिए इसलिए भी जरूरी है कि हमारे संसाधन दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं और समय तेजी से गुजर रहा है। समय की चुनौती को देखते हुए एवं अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए भी हमें हर कीमत पर नये रूप में संयुक्त परिवार की व्यवस्था को स्वीकार करना ही होगा।

परम पूज्य गुरुदेव ने ‘लार्जर फैमिली’ के रूप में प्रतिपादित नये संयुक्त परिवार की इस अवधारणा को सतयुगी समाज का आधार माना है, जिसके रूप, आकार लेने की वैचारिक पृष्ठभूमि आज तीव्र रूप से चल रही है। इसके साकार होने के निमित्त अपने भावभरा सहयोग ही इस समय सभी विचारशील परिजनों का परम कर्त्तव्य है।


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