प्राणपुँज मनुष्य! तू किसी से मत डर

November 2003

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अथर्ववेदीय पिप्पलाद संहिता के ‘प्राण सूक्त’ में निर्भयता का संकल्प ऐसा है, जिसे बार-बार दोहराया जाना पाठ किया जाना चाहिए। इससे हमारे अंदर की निर्भयता को प्रेरणा और शक्ति मिलेगी और वह गंभीर संकट की स्थिति में भी तनकर खड़ी हो जाएगी।

अभयावस्था अध्यात्म का एक ऐसा गुण है, जिसके न रहने पर व्यक्ति जीवन में अनेक बार मरता है जबकि निर्भय आदमी की मौत सिर्फ एक बार होती है इसलिए हमारी आँतरिक संरचना ऐसी सुदृढ़ होनी चाहिए, जिसमें यह नौबत न आए तो ही अच्छा। इसी निमित्त सूक्त प्रेरणा देते हुए कहता है :-

यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिष॥

जिस प्रकार की द्यौ और पृथ्वी न तो किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी प्रकार हे प्राण! तू न तो किसी से डर और न क्षीण हो।

यथा वायुश्चाँतरिक्षं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिष॥

जिस प्रकार वायु और अंतरिक्ष न किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी तरह हे प्राण! तू न तो किसी डर और न क्षीण हो।

यथा सूर्यश्च चंद्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा न किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी प्रकार हे प्राण! तू न तो किसी से डर और न क्षीण हो।

यथाहश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह दिन और रात न तो किसी से डरते है और न क्षीण होते हैं उसी तरह हे प्राण! न तो तू किसी से डर और न ही क्षीण हो।

यथा धोनुश्चानडवाँश्च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह गाय और बैल किसी से न तो डरते है और न क्षीण होते है उसी तरह हे प्राण! न तो तू डर और न क्षीण हो।

यथा मित्रश्च वरुणाश्च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह मित्र और वरुण न तो किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी तरह हे प्राण! न तो तू डर और न क्षीण हो।

यथा ब्रह्म च क्षदं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह ब्राह्मण और क्षत्रिय न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं उसी तरह हे प्राण! न तो तू डर और न क्षीण हो।

यथेंद्रश्चेंद्रियं च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह इंद्र और इंद्रियाँ न तो किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी तरह हे प्राण! न तो तू डर और न क्षीण हो।

यथा वीरं च वीर्य च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह वीर और वीर्य न तो किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी तरह हे प्राण! न तो तू डर और न क्षीण हो।

यथा प्राणश्चापानश्च न बिभीतो न रिष्यतः। एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः॥

जिस तरह प्राण और अपान न तो किसी से डरते है और न क्षीण होते है उसी तरह हे प्राण! न तो तू डर और न क्षीण हो।

मनुष्य को डरना केवल दो से चाहिए एक ईश्वर के न्याय से और दूसरे पाप अनाचार से। जो इनसे डरता बचता रहेगा, उसे और किसी से डरने की आवश्यकता न पड़ेगी। आत्मबोध तथा आत्मबल का ज्ञान न होने के कारण लोग छोटे छोटे कारणों को लेकर चिंताग्रस्त, आशंकित आतंकित एवं भयभीत होते है। इस भीरुता को हेय ठहराते हुए प्राणसूक्त के उपर्युक्त मंत्रों में यही निर्देश दिया गया है कि अपने का देवशक्तियों की पंक्ति में बिठाएँ और उन्हीं की तरह निडर उल्लसित जीवन जिए।


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