सफलता हेतु दिव्य प्रभावी सात सूत्र

November 2003

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सफलता व्यक्तित्व का सम्मोहक प्रकाश है। सफलता समर्पण की चरम परिणति है। सफलता व्यक्तित्व के अन्दर गहरी परतों में ढँकी-छुपी रहती है। यह कहीं बाहर नहीं होती जिसे खरीद कर पाया जा सके। यह खदानों में दबी रहती है जिसे खोदकर एवं खरादकर ही बहुमूल्य रत्नों के रूपों में सजाया-निखारा जाता है। उद्यम एवं समर्पण से ही व्यक्तित्व को गलाया-ढलाया जाता है, जिसकी तपन व ताप से सफलता रूपी व्यक्तित्व की मोहक सुगन्ध महक उठती है। कड़ी मेहनत, धैर्य, लगन एवं साहस के संयोग से ही सफलता का जादुई चिराग हस्तगत होता है जिससे सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

सफल व्यक्तित्व को गढ़ने-सँवारने के लिए सात दिव्य सूत्र हैं। ये सूत्र यदि जीवन में शास्त्र बनकर रचे जा सकें तो व्यक्तित्व चमक उठता है। व्यक्तित्व निर्माण के ये सात स्वर्णिम सूत्र हैं-1. प्रोएक्टिव होना अर्थात् अपनी पूरी जिम्मेदारी आप उठाना, 2.सर्वांगपूर्ण योजना बनाना, 3. प्राथमिकता के आधार पर कार्य का निर्धारण करना, 4. विजेता के समान सोचना, 5. दूसरों को सुनने की समझदारी पैदा करना, 6. सच्चा तालमेल रखना तथा 7. सदैव नयापन बनाये रखना।

सफलता के इन दिव्य एवं प्रभावी सात सूत्रों में वैभव, विभूति एवं ऐश्वर्य के आगार एवं भण्डार भरे पड़े हैं। इन सूत्रों में भौतिक जीवन के साथ-साथ नव आध्यात्मिक जीवन की अनन्त सम्भावनाएँ भी सन्निहित हैं। इन सम्भावनाओं को साकार एवं मूर्तिमान करने हेतु प्रथम सूत्र है प्रोएक्टिव होना, जिसका अर्थ है अपने जीवन की पूरी जिम्मेदारी स्वयं उठाना। इसकी गहरी अनुभूति सफल जीवन का एक निर्णायक बिन्दु है। यह बोध हो जाना कि भगवद् प्रदत्त इस जिन्दगी के जिम्मेदार कोई और नहीं, स्वयं हम हैं, हमारी अच्छी-बुरी परिस्थिति एवं परिणाम का उत्तरदायित्व हम ही हैं, एक जागृति है, एक सच्ची समझदारी है। इस समझदारी एवं जिम्मेदारी के साथ ही हम अपने जीवन के भाग्य विधाता एवं निर्माता होने का बोध करते हैं और अपने अभीष्ट लक्ष्य और उद्देश्य की ओर आगे बढ़ते हैं।

यह जिम्मेदारी हमें स्पष्ट बोध कराती है कि हमारी योजना कैसी हो? इस संदर्भ में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि पहले से ही बड़ी योजनाएँ न बनाओ, धीरे-धीरे कार्य प्रारम्भ करो, जिस जमीन पर खड़े हो, उसे अच्छी तरह से पकड़कर क्रमशः ऊँचे चढ़ने का प्रयत्न करो। इसके साथ ही योजना की स्पष्ट रूपरेखा अपने मानस पटल पर अंकित होना चाहिए। स्पष्ट एवं छोटी-छोटी योजनाओं को जीवन में उतारना एवं इसे पूरा करना आसान एवं सरल होता है और इसे पूरा करने के पश्चात् मन में अपार संतोष एवं प्रसन्नता होती है। कार्य को पूर्ण कर पाने पर आत्मविश्वास पैदा होता है। यही आत्मविश्वास ही हमें किसी बड़े कार्य एवं, बड़ी योजना को पूरा करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करता है और जीवन में किसी महान् कार्य एवं उद्देश्य तक सफलतापूर्वक पहुँचने में सक्षम बनाता है। महापुरुषों के जीवन की सफलता का मूल मंत्र भी यही है कि वे प्रारम्भ में छोटी-छोटी परन्तु स्पष्ट योजनाओं को अंजाम देते हैं और क्रमशः महानता के उच्चतर शिखरों की ओर आरोहण करते हैं।

योजना की स्पष्ट रूपरेखा बन जाने के बाद ही कार्य का निर्धारण एवं चुनाव सम्भव है कि कौन कार्य अतिमहत्त्वपूर्ण है जिसे सबसे पहले किया जाना है, किसे इसके बाद करना है। कार्यों को सर्वप्रथम करने की प्राथमिकता एवं महत्व देने की निर्णय क्षमता ही सफलता का महान् रहस्य है। परीक्षा के समय विद्यार्थी की सर्वोपरि प्राथमिकता है अपने विषय की तैयारी करना, वर्षा ऋतु में किसान का प्रथम आवश्यकता कार्य है कृषि पर ध्यान देना। यदि विद्यार्थी एवं किसान अपने कार्यों की प्राथमिकता का निर्धारण न कर सकें तो उनकी सफलता सदैव संदिग्ध बनी रहेगी, परन्तु आवश्यकता को ध्यान में रखकर उनके द्वारा किया गया कार्य उनकी सफलता एवं खुशहाली को सुनिश्चित कर देता है। इसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में अपनी अपरिहार्य आवश्यकताओं के आधार पर कार्यों को योजना के अनुरूप चयन करने की कला आनी चाहिए। इस कला-कुशलता के अभाव में जिंदगी पतवार विहीन नाँव की भाँति लहरों के थपेड़ों में डगमगाती रहती है और अन्त में किसी भँवर में फँसकर नदी की अतल गहराई में समा जाती है। निर्णय लेने वाला व्यक्ति पुरुषार्थी कहलाता है जो जिन्दगी की पतवार को अपने हाथों थामकर भाग्य एवं भविष्य की परवाह किये बगैर सकुशल मञ्जिल तक पहुँच जाता है। उसकी सोच सदा विजेता के समान होती है और सफलता उसके चरण चूमती है।

विजेता की तरह सोच जीवन में उत्साह, उमंग एवं सृजनशीलता भर देती है। यह सोच थके हारे एवं निराश जीवन के अंधकार को तार-तार कर आशाओं का दीप जलाती है। यह विचार विश्वास दिलाता है कि सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे किसी भी कीमत पर प्राप्त करके रहेंगे। विजेता का यह प्रखर आत्मविश्वास उसे कभी असफलता के गर्त में नहीं गिरने देता। विजेता का विधेयात्मक चिंतन उसके समस्त एवं सम्पूर्ण नकारात्मक संस्कारों, आदतों एवं वृत्तियों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता है। नेपोलियन के समान वह ‘नहीं’ जैसे नकारात्मक शब्द को सुनना तक पसन्द नहीं करता क्योंकि ‘नहीं’ शब्द कार्य प्रारम्भ करने से पहले ही मृत्यु तुल्य असफलता को आमंत्रण देना होता है। विजेता पुरुषार्थी एवं पराक्रमी होता है। उसके गहन में सदा एवं सदैव ‘हाँ’ मंत्र प्रतिध्वनित होता रहता है। वह कहता है ‘हाँ’ मैं यह कर सकता हूँ चाहे इस अभीष्ट एवं उत्कृष्ट उद्देश्य के लिए मेरे प्राणों की बलि ही क्यों न लग जाय ।

विजेता के समान यह सोच व्यक्ति के अन्दर में शाश्वत यौवन को अलभ्य एवं अलौकिक वरदान से भर देती है। यह सोच पूर्ण यौवन का प्रतीक एवं प्रतिनिधि है। यह व्यक्ति को उम्र की सीमित व संकीर्ण सीमाओं में नहीं बाँधती । 60 से 80 वर्ष के ऊपर किसी भी वय का व्यक्ति युवाओं के समान सर्जनशील एवं सक्रिय हो सकता है और 20 से 30 वर्ष का युवा भी बूढ़ों के समान जीवन से हताश-निराश हो सकता है। यही आज के युग की महापीड़ा एवं महावेदना है कि समाज-राष्ट्र एवं विश्व में समझदार एवं सक्रिय युवाओं की घोर कमी हो गयी है। युवाओं के मजबूत एवं फौलादी कंधों पर ही किसी राष्ट्र का भार टिका रहता है। क्योंकि युवावय ही समझदारी, जिम्मेदारी एवं सृजन का महाप्रतीक है। इसी उम्र में जीने की अदम्य चाहत, सीखने की अनन्त लालसा, प्राणों पर खेल जाने का जुझारूपन और महासाहस का महासमन्वय होता है। युवा वय में ही सुनने, समझने एवं विचारने की अपार क्षमता एवं सामर्थ्य होती है। आगत भविष्य की सुनहरी कल्पनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने का महासाहस इसी उम्र में पूर्ण होता है। यौवन की महाविशेषता किसी भी उम्र में पैदा की जा सकती है। किसी भी उम्र में तल्लीनता एवं लगनशीलता एक सम्मोहक व मोहक व्यक्तित्व को जन्म देती है। यह व्यक्तित्व ही यौवन की सच्ची परिभाषा है, जो बताती है कि श्रेष्ठ, उत्कृष्ट एवं महान् लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी भी प्राण, ऊर्जा एवं शक्ति सामर्थ्य चुकी नहीं है, अशेष है, जीवन्त एवं जागृत है; अभी भी जीवन के आखरी पड़ाव में समझदारी का जखीरा, लगनशीलता का भण्डार एवं जुझारूपन भरा पड़ा है। आवश्यकता है हर युवाओं में यह समझदारी की विचार तरंग हिलोरें लेने लगें, पाषाणी जड़ता में जड़ हो चुके अन्तर में पुनः जीने, सीखने की चाहत सजे और अपने एवं अपने समाज-राष्ट्र के प्रति मर-मिटने का संकल्प जगे। हमारे अन्दर संघबद्ध हो सबको साथ लेकर चलने का साहस एवं उदारता का भाव पनपे। जीवन लक्ष्य के पथ पर हममें से कोई भी छूटने न पावे। पारस्परिक तारतम्य या सच्चे तालमेल का यह भाव ही सफलता का अगला दिव्य सूत्र है, जो आज सिनर्जी के रूप में प्रख्यात् है।

सिनर्जी अर्थात् सच्चे तालमेल में ही प्रेम, आत्मीयता, उदारता, सहानुभूति, सहयोग, सहकार एवं सेवा रूपी सद्गुणों का विकास होता है। यह विचार भाव हमें आन्तरिक ऊर्जा से भर देता है और जीवन की वीणा बज उठती है। इसके अभाव में ही इतनी उदासी है, दुःख है, इतनी पीड़ा है। इसीलिए व्यक्ति, समाज, देश और विश्व में इतना अँधेरा है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है। सच्चा तालमेल न होने के कारण ही विसंगतिपूर्ण, विचारहीन एवं गलाकाट प्रतियोगिता जन्म लेती है। सच्चा तालमेल इस विषमता एवं व्यथा को दूर कर एक साथ संघबद्ध व संगठित होकर चलने की प्रेरणा एवं प्रोत्साहन देता है। सच्चे तालमेल के भाव-विचार का अंकुरण हमारी आन्तरिक चेतना में होता है। यह भावना अन्दर में उमंगती है, इसका बाह्य आरोपण स्थायी एवं टिकाऊ नहीं हो सकता। सच्चा तालमेल एक ओर जहाँ व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में भी एकजुट बनाये रखता है वही दूसरी ओर प्रगति व विकास के नये-नये आयाम खोलता है।

सच्चे तालमेल का भाव-विचार हमें प्रतिदिन कुछ नया करने, नया सोचने तथा नयी योजना बनाने के लिए उत्साहित प्रेरित करता है। जो कुछ किया गया है उससे और भी अच्छा कैसे किया जाये, अपनी परिस्थिति एवं साधन के अनुरूप अच्छे से अच्छा और किया जाये, इसकी प्रेरणा हमें प्रतिदिन के मूल्याँकन एवं आन्तरिक अवलोकन से मिलती है। आत्मबोध एवं तत्त्वबोध की साधना से यह निरीक्षण अतिसहज और सुगम हो जाता है। इस सहज व सरल साधना से प्रत्येक दिन अपने नये जीवन एवं प्रत्येक रात्रि अपनी मृत्यु का अनुभव करना होता है। इससे हमें प्रतिदिन अपने कार्यों के मूल्याँकन के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व की गहराई में झाँकने का अवसर मिलता है। हर दिन एक नये संकल्प के साथ नया कार्य प्रारम्भ होता है जो सफल व्यक्तित्व की सम्मोहक विशेषता है।

सफलता के इन सात सूत्रों में व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास का गहरा मर्म छिपा है। इन सूत्रों को जीवन में संकल्पपूर्वक क्रियान्वित किया जाये तो व्यक्तित्व परिमार्जित होकर महक उठेगा। ऐसे व्यक्तित्व से ही एक नये आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत की जा सकती है। ये सूत्र भौतिक सफलता के साथ ही अध्यात्म जगत् में प्रवेश कराने के लिए अमोघ मंत्र साबित होंगे।


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