चेतना की शिखर यात्रा -21 - हिमालय से आमंत्रण-2

November 2003

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शाँकर मठ का विवाद

ज्योतिर्मठ में शंकराचार्य और उनके शिष्य तथा इस पीठ के प्रथम आचार्य त्रोटक की मूर्तियाँ है। मंदिर में तब कोई पीठाधीश नहीं था। दक्षिण भारत से नियुक्त पुजारी रावल ही मठ में पूजा अर्चना करते थे। लगभग डेढ़ सौ वर्ष से वहाँ की आचार्य परंपरा विच्छिन्न थी। जिन विभूति या शंकर के अवतार कहे जाने वाले महापुरुष ने इस मठ की स्थापना की थी, उन्हीं की आरंभ की हुई परंपरा की दुर्गति के बारे में सुनने को मिला तो श्रीराम का हृदय दुखी हो उठा। वृत्तांत वहाँ के रावत पुरोहितों से सुनने को मिला। सुनकर श्रीराम देर तक शंकराचार्य की प्रतिमा के सामने बैठ रहे। उठकर मठ में स्थापित स्फटिक शिवलिंग के समीप आए। वहाँ अभिषेक किया। शाँकर गुफा में स्थापित शिवलिंग के बारे में कहते है कि यह कैलाश से लाया गया था। स्वयं आदि शंकराचार्य ने ही इसकी स्थापना की थी। इन उल्लेखों को ध्यान से सुनने के बाद श्रीराम किसी गहरे विचार मंथन में चले गए। कुछ कदम चलने के बाद वे खीजे हुए से दिखाई दिए। संभवतः भीतर आए उतार चढावों ने उन्हें खिन्न किया हो। भावों और विचारों के वे उभार अपनी संस्कृति और प्राचीन गौरव गरिमा के क्षत विक्षत हो जाने से ही आ रहे थे।

श्रीराम मंदिर से बाहर निकलकर कुछ दूर स्थित एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। वे सोचने लगे कि अब किस दिशा में जाना है। इस ऊहापोह के साथ बदरीनाथ के खंडित गौरव और नर नारायण पर्वत मिलने के बाद होने वाले विनाश की किंवदंतियों पर भी ध्यान जा रहा था। इस पंद्रह मिनट अपने अंतस् में डूबते उतराते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला। पेड़ के सहारे बैठे बैठे जैसे नींद आ गई। पहाड़ी यात्रा ने बुरी तरह थका दिया था। ऊबड़-खाबड़ रास्तों से आने के कारण पर बेहद दबाव पड़ा था। रात में अच्छी नींद आई थी, लेकिन थकान अभी बाकी थी शायद। आधा घंटे बाद नींद खुली। ज्योतिष्पीठ के सामने ही एक झरना बहता है। उसे दंडधारा कहते हैं। श्रीराम ने पानी से हाथ मुँह धोए और आचमन किया।

आचमन के बाद क्षणभर के लिए ही मन में प्रश्न आया कि अब किधर चलना है? प्रश्न के तत्क्षण बाद या उससे मिलता हुआ ही समाधान भी आया। भविष्यबदरी होते हुए मानसरोवर की ओर निकलना चाहिए। समाधान अपने भीतर ही आंतरिक प्रेरणा की तरह उभरा था। इसे मार्गदर्शक सत्ता का प्रेषित निर्देश भी मान सकते है। गंतव्य और मार्ग स्पष्ट होते ही श्रीराम नीतिघाटी की ओर चल दिए। लगभग दस किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता तय करने के बाद तपोवन पहुँचे। वहाँ के तप्तकुँड में गुनगुने पानी से स्नान आर कुछ देर विश्राम कर भविष्यबदरी पहुँचे। चारों तरफ सन्नाटा था। इक्का दुक्का लोग ही दिखाई दिए। विष्णु मंदिर अभी खुला नहीं था। पुजारी यद्यपि पास ही रहता था, लेकिन लोगों की आवाजाही खास नहीं थी, इसलिए पूजा आरती का क्रम नियमित नहीं बन पाया था। मंदिर पूजा आराधना के लिए कहाँ होते है, उनकी व्यवस्था और अनुशासन में दर्शकों की भीड़ भाड़ ही मुख्य आधार होती है। मथुरा, वृंदावन और ऋषिकेश में श्रीराम ने यह तथ्य अच्छी तरह अनुभव कर लिया था। मंदिर के पट बंद देखकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

भविष्य बदरी में

मंदिर के पास पीपल का एक वृक्ष था। उसके नीचे एक शिला रखी दिखाई दी। श्रीराम उसे निहारने लगे। शिला पर किसी समय चढ़ाए गए फूल और पूजा सामग्री दिखाई दी। सूखे पत्ते, तिनके और हवा में उड़कर आया गर्द गुबार शिला पर फैले हुए थे। पिछले तीन चार दिन से जैसे किसी ने सफाई नहीं की थी। श्रीराम को लगा कि यह शिला सामान्य नहीं है। पूजा सामग्री चढ़ाई गई दिखाई दे रही है, इसका अर्थ है कि यह कोई देवप्रतिमा है। शिला को साफकर गौर से देखा तो स्पष्ट प्रतीत हुआ कि प्रतिमा ही है। प्रतिमा है, लेकिन अधबनी है जिस किसी भी देवता की हो, आकृति आधी ही बनी दिखाई देती है। धड़ के ऊपर का भाग पहचाना जा सकता है। वह भी बहुत स्पष्ट नहीं है। बहुत कोशिश करने पर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह विष्णु की प्रतिमा हो सकती है।

असमंजस हुआ कि विष्णु मंदिर पास ही है। प्रतिमा उसमें स्थित न होकर बाहर क्यों रखी हुई है। कोई कारण समझ नहीं आने के बाद श्रीराम ने उस सवाल को अनुत्तरित छोड़ दिया और वृक्ष के पास ही बैठ गए। वे देखना चाहते थे कि भविष्य के बदरीनाथ कैसे हैं? इसलिए पुजारी का इंतजार कर रहे थे। दोपहर का सूरज पश्चिम की ओर खिसकना शुरू हुआ, तब पुजारी आता दिखाई दिया। उसने मंदिर के पट खोले। उससे पहले दरवाजे पर चढ़ाई हुई सामग्री बटोरी। वह बुदबुदाता जा रहा था। सामग्री कम देखकर शायद आगंतुकों के लिए कुछ कह रहा था।

पट खुलने पर श्रीराम दर्शन के लिए आगे बढ़े। विष्णु मंदिर में गर्भगृह के भीतर नहीं जाया जाता। श्रीराम ने बाहर खड़े होकर ही हाथ जोड़े। पुजारी से कहा, “भीतर आना है। पास से दर्शन करना चाहो तो कर सकते हो। सवा रुपया लगेगा।”

सुनकर श्रीराम स्तब्ध रह गए। इस जंगल में भी भगवान के दर्शन से कमाई। वे चुप रहे। पुजारी ने फिर टोका, “सोचा लो। कोई है नहीं, इसलिए मौका है, वरना विष्णु मंदिर में अंदर किसी को नहीं आने दिया जाता।” श्रीराम ने पुजारी की पेशकश पर कहा, “नहीं महाराज!” मैं मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। यही ठीक हूँ।”

पुजारी फिर कुछ बुदबुदाया। श्रीराम को यह तो सुनाई नहीं दिया कि वह क्या कह रहा है, लेकिन उसके भाव जरूर समझ जा गए। श्रीराम ने कहा, “परेशान मत होएं महाराज! मैं अभीष्ट दक्षिणा चढ़ाऊँगा।” यह कहते हुए उन्होंने थैली में से सवा रुपया निकाला और गर्भगृह की चौखट पर रख दिया।

“किसी कुलीन परिवार के लगते हो।” पुजारी ने प्रसन्नता व्यक्त की। थोड़ा खुलने की दृष्टि से कहा, “अकेले ही आए तो क्या? इस छोटी से उम्र में तीर्थयात्रा की क्या सूझी? क्या साधु संन्यासी होने का मन है? यहाँ किसी बाबा जोगी को अपना गुरु मत बनाना। ज्यादातर लोग कपट मुनि होंगे।”

पुजारी ने एक ही साँस में कई सवाल कर दिए और सलाह भी दे दी। वह सवा रुपया मिलने की खुशी में आत्मीयता जाता रहा था। जिस किसी भी कारण जी खोल रहा हो, श्रीराम ने उसका आदर ही किया। पूछने लगे, “बाहर जो प्रतिमा है, वह किनकी है।”

“वह प्रतिमा अधूरी है। किसी ने गढ़ी नहीं है। समय अपने आप गढ़ रहा है। जब पूरी हो जाएगी तो बदरी विशाल यहीं पूजे जाएंगे।” पुजारी ने कहना जारी रखा, “तब नर और नारायण पर्वत भी मिल जाएंगे। लाता देवी के मंदिर में अभी तो चौबीस वर्ष में मेला लगता है। बदरी विशाल के यहाँ प्रकट होने पर हर वर्ष मेला लगेगा।”

विवरण देते हुए पुजारी अचानक गंभीर हो गया। “तब मुझे भी गर्भगृह के भीतर बुलाने का पाप नहीं करना पड़ेगा। मेले में ही बहुत लोग आएंगे और हाँ, बदरीनाथ जी के दर्शन करने वाले भी तो यही आएंगे। उनके चढ़ाए पैसों से मैं मालामाल हो जाऊँगा।” पुजारी कहे जा रहा था। श्रीराम उसकी बातें विनोद की तरह सुन रहे थे। थोड़ी देर पहले सवा रुपया माँगने पर जो गुस्सा आ रहा था, वह तरस में बदल गया था। गरीबी है इसीलिए ये लोग उम्मीद लगाते है। पुजारी कहे जा रहा था, “लेकिन वह दिन देखने के लिए मैं कहाँ बचूँगा। पता नहीं कब नर और नारायण मिलेंगे और कब बदरी विशाल यहाँ पधारेंगे। कोई बात नहीं, आने वाली पीढ़ियां ही वह सुख देखेंगी।”

पुजारी सवा रुपया की दक्षिणा से मगन था। उसे अपने ढंग से उल्लास व्यक्त करता छोड़कर श्रीराम मंदिर से बाहर आ गए। नीतिघाटी होते हुए वह अज्ञात स्थान गंतव्य था, जिसके लिए भीतर से प्रेरणा उमंग रही थी। यों कहें कि वह जगह मंजिल थी, जिसके बारे में पता नहीं था कि कहाँ है? लेकिन वह खींच रही थी। जिस रास्ते वे जा रहे थे, वह दुरूह चढ़ाई वाला था। संकरी पगडंडी और काँटे कंकड़ों से अटे पड़े उस मार्ग पर कुछ दूर चलते हुए ही थकान आ जाती थी। जोशीमठ में दंडधारा में स्नान करने के बाद श्रीराम पर थकान ने दोबारा हमला नहीं किया। दोनों कंधों पर दो थैलियाँ, हाथ में लाठी और पाँव में मोटे तले वाले रबड़ के जूते पहने वे समगति से आगे बढ़ रहे थे।

हेमकुँड साहिब में

करीब पच्चीस किलोमीटर दूरी तय करने के बाद श्रीराम एक झील के किनारे रुके। झील सभी दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी थी। उनका प्रतिबिंब पानी में दिखाई देता था। तट पर जगह जगह पत्थर की चौकियाँ बनी हुई थी। लगता था किसी समय लोग इनका उपयोग बैठने, वहाँ के नैसर्गिक सौंदर्य का आनन्द लेने या ध्यान धारणा के अभ्यास में करते होंगे। एक चौकी पर बैठकर श्रीराम ने झील के पानी में झाँका। लगा, अभी बर्फ पिघलकर आई है और द्रवीभूत हिम पहाड़ियों की गोद में जमा हो गई है। स्वच्छ पारदर्शी जल शीशे की तरह साफ था। उसमें निरभ्र आकाश, पहाड़ियों की चोटियाँ और देखने वाले के प्रतिबिंब के साथ जल की गहराई के अलावा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था।

जहाँ बैठे थे, वहीं से सब दिशाओं में नजरें दौड़ाकर श्रीराम ने गणना की। सात पहाड़ियां झील को घेरे हुए थी। उन्हें देखकर श्रीराम चौकियों की गिनती करने लगे। जहाँ बैठे थे, वहीं से गणना की। पाया कि चौबीस आसन बने हुए है। क्या यह स्थान किसी समय तपस्थली रहा होगा? मन में विचार आया। हिमालय ऋषि मुनियों का निवास है, किसी समय क्या, अब भी यहाँ ऋषिसत्ताएँ आती होंगी।

सात पहाड़ियों से घिरी उस झील के बारे में बाद में पता चला कि खालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोविन्दसिंह ने अपने पूर्वजन्म में यहाँ तप किया था। तब उनका नाम मेधस मुनि था। यह पता चलने के बाद 1936 में वहाँ सिखों के तीर्थों की स्थापना हुई। वही स्थान अब हेमकुँड साहिब के नाम से विख्यात है। यहाँ गुरुद्वारा भी बना हुआ है और आने जाने ठहरने की उत्तम व्यवस्था हो गई हैं श्रीराम उस स्थान पर देर तक बैठे रहे। उनके बैठने से लग रहा था, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो। झील के किनारे बैठे बैठे उन्हें प्रतीत हुआ कि कोई उनसे संवाद की कोशिश कर रहा है। अस्फुट ध्वनि सुनाई दे रही थी। आस पास देखा, कोई नहीं था। आवाज फिर भी आ रही थी।

चित को बहुत शाँत और निश्चित करने के बाद ध्वनि स्पष्ट हुई। यह आवाज इतनी क्षीण थी कि लगता था, वर्षों से चुप रहे कंठ से आ रही हो। ऐसे कंठ से, जो बोलना ही भूल चुका हो। ध्वनि की दिशा का अनुमान किया। पाँच आसन दूर एक कृष्णवर्ण आकृति दिखाई दी। वह श्रीराम को संबोधित करती हुई अपने पास बुला रही थी। चौकी से उठकर श्रीराम उस आकृति के पास गए। उसे प्रणाम किया तो आकृति से आवाज हुई, मुझे किसी भी नाम से पुकार सकते हो। मेरा कोई नाम नहीं है।

मुझे सिर्फ यह कहने का निर्देश हुआ है कि तुम गोमुख के पास पहुँचे। गोमुख से आगे नंदनवन है, वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है।

गुरुसत्ता के निर्देश

आकृति ने जो कुछ कहा, उसे श्रीराम ने मन में ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। इतना ही कहा कि मार्ग का पता नहीं है। आकृति ने कहा, “कठिन नहीं है। यहाँ से जोशीमठ वापस जाओ। चमोली, गोपेश्वर, गुप्तकाशी आदि स्थानों पर जाने की आवश्यकता नहीं है। रास्ता बहुत लंबा पड़ेगा। जोशीमठ में कुछ लोग मिलेंगे। उनका साथ पकड़ लेना। छोटे रास्ते पर चलते हुए शाम तक गोमुख पहुँच जाओगे।” श्रीराम ने इस निर्देश को भी मार्गदर्शक सत्ता के किसी प्रतिनिधि का संकेत माना और मान लेने के अर्थ में सिर हिलाया। उसी आकृति ने कहा, “कहीं रुकने अटकने की जरूरत नहीं है। सीधे गोमुख पहुँचकर ही दम लेना है, समझे।”

श्रीराम ने कहा, ‘जी’ और उस आकृति को प्रणाम करने के लिए सिर झुकाया। उनके प्रणाम पर ध्यान किए बिना ही वह आकृति झील में उतर चुकी थी और घुटनों घुटनों पानी में जाकर अर्घ चढ़ाने लगी थी। श्रीराम ने झील में स्नान किया और कुछ देर जप करने के बाद ध्यान लगाया। उस आकृति ने निस्पृहता दिखाई थी। घुटनों तक पानी में उतरने के बाद पीछे मुड़कर भी नहीं देखा था। साधना मार्ग के पथिकों को वैसा ही निस्संग होना चाहिए। श्रीराम भी अपने साधन भजन में तत्पर हो गए। उस आकृति से विरत होने या क्षणभर पहले हुई भेंट को भुला देने के लिए उन्हें कुछ नहीं करना पड़ा था। पानी में खींची लकीर की तरह वह स्मृति अपने आप तिरोहित हो गई। झील के तट पर कुछ देर और बैठकर श्रीराम जोशीमठ के लिए वापस मुड़ गए।


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