पेड़-पौधे, वृक्ष-वनस्पतियाँ एवं पुष्प प्रकृति के सौंदर्य अभिव्यक्ति के अनुपम अंग हैं। इनकी विविध छटा जहाँ एक ओर मन को असीम तृप्ति देती है वहीं दूसरी ओर स्वयं में ये अपरिमित शक्ति व रहस्य छुपाये हुये होती है। इतना ही नहीं ये मनुष्यों की तरह ही प्रेम भी करते हैं। अपने संरक्षकों से इतनी गहरी आत्मीयता रखते हैं कि उनके दुःख से दुःखी एवं सुख से सुखी होते हैं। नवीनतम वैज्ञानिक शोध परिणाम भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। एक अमेरिकी प्रयोगशाला में कार्य करते हुए एक वैज्ञानिक की उँगली कट गई। कमरे में रखे पौधे ने तुरंत शोक व्यक्त करना शुरू कर दिया। उसकी व्यथा की कहानी ग्राफ पर उतरने लगी। पौधे अदृश्य तरंगों द्वारा मानव की भावनाओं को पकड़ लेते हैं। उनके पास कोई ऐसी सूक्ष्म शक्ति होती है जो हमारे मस्तिष्क की थोड़ी सी हलचल को भी तुरंत भाँप जाती है। जैसे ही मस्तिष्क पौधे के बारे में सोचना शुरू करता है, अदृश्य तरंग पौधों तक सूचना पहुँचा देते हैं।
इसी प्रकार वैज्ञानिक कर्ल्यू वैक्सटर ने पेड़-पौधों की भावनाएँ जानने के लिए कई प्रयोग किये। उनमें से एक प्रयोग के अंतर्गत कई दिनों से प्यासे पौधे की शाखा को पॉलीग्राफ के संवेदनशील तार से जोड़ दिया गया और फिर उसकी जड़ों को पानी दिया गया। पौधे ने तुरंत अपनी खुशी ग्राफ पर एक रेखा के रूप में जाहिर की। प्रयोगों के दौरान वैक्सटर ने पौधे की एक शाखा को जला डालने की सोची। जैसे ही वे तीली जलाकर पौधे की ओर बढ़े ग्राफ पर भय दर्शाने वाली रेखा खींच गई। वैक्सटर ने दुबारा तीली जलाई पर अब पौध की शाखा को जलाने का उनका कोई इरादा नहीं था। उन्हें आश्चर्य तब हुआ जब जलती हुई तीली को शाखा के पास ले जाने पर भी पौध ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
उपरोक्त प्रयोगों से यह स्पष्ट पता चलता है कि पौधों में ऐसी शक्ति होती है जो हमारे मन की बात तक बता देती है। यहाँ तक कि पौधों में मनुष्य के झूठ को पकड़ने की भी अद्भुत क्षमता होती है। एक प्रयोग के तहत पौधे को पॉलीग्राफ से जोड़कर उसका सम्बन्ध एक व्यक्ति से स्थापित करा दिया गया। अब इस व्यक्ति से कुछ सवाल पूछे गये। जब भी उसने झूठ बोलना चाहा ग्राफ पर रेखा खिंचने लगी।
वैक्सटर ने अपने प्रयोगों से यह भी सिद्ध किया कि पौधे अपने मित्र व शत्रु को पहचानते हैं। अगर माली पौधों के पास जाते हैं तो वे शान्त रहते हैं लेकिन कोई फूल तोड़ने के इरादे से उनके पास जाता है तो उनकी व्यथा ग्राफ पर उतरने लगती है। लकड़हारे को पास आता देखकर तो वृक्ष ठीक वैसे ही भयभीत होता है जैसे किसी कातिल को अपने पास आता हुआ देख मनुष्य भयभीत हो उठता है। अगर वृक्ष बोल पाते तो निश्चित ही वे लकड़हारे को देख बचाओ-बचाओ की गुहार लगाते। इतना ही नहीं पौधे अपने शत्रु को पुनः पहचानने की क्षमता भी रखते हैं। वैक्सटर ने बन्द कमरे में रखे दो पौधों को पॉलीग्राफ से जोड़ा। अब कमरे में छः व्यक्तियों को बुलाया गया और उन्हें एक हैट में रखे हुए छः पर्चियों को बारी-बारी से उठाने के लिए कहा गया। इन पर्चियों में पाँच पर्चियाँ सादी थी परन्तु एक में लिखा गया था ‘इन पौधों की हत्या कर दो।’ जिसे यह पर्ची मिली उसने मौका मिलते ही अकेले में एक पौधे को नष्टकर डाला। दूसरे पौधे को छोड़कर अन्य कोई भी गवाह नहीं था। तीन दिन बाद उन्हीं छः व्यक्तियों को बारी-बारी से उस पौधे के सामने से गुजारा गया। नष्टकर्त्ता के पास आते ही दूसरे पौधे का भय से कँपकँपाना ग्राफ पर साफ-साफ उतर आया। पौधे ने बिना किसी पहचान के हत्यारे को कैसे पहचान लिया? बिना मस्तिष्क के यह कैसे सम्भव हुआ यह रहस्य ही है।
ऐसे प्रयोग रूस में भी हुए हैं। जिनके आधार पर ‘प्रावदा’ ने पेड़-पौधों के इस रहस्यपूर्ण पहलू पर शोध रिपोर्ट प्रकाशित की है। मास्को के कृषि विज्ञान अकादमी में किये गये एक प्रयोग के अंतर्गत पौधों के नन्हें अंकुरों को गर्म पानी में डाले जाने पर उनकी कराह स्पष्ट रूप से ग्राफ पर देखी गई। क्लोरोफार्म के छिड़काव से पौधों का बेहोश हो जाना भी स्पष्ट परिलक्षित हुआ।
मुम्बई के प्रसिद्धि वनस्पति विज्ञानी गोपीकृष्ण याल ने भी अपने विभिन्न प्रयोगों से यह सिद्ध कर दिखाया है कि पौधे भी सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। उनमें भी संवेदना होती है। क्याल ने वैज्ञानिकों का एक दल बनाया और बीस प्रकार के अलग-अलग किस्म के पेड़-पौधे लिये। यह पौधे देश के विभिन्न भागों से मंगाये गये। सभी पौधों पर विचारों के होने वाले प्रभाव को अलग-अलग गैल्वेनोमीटर से आँका गया। प्रयोगशाला में कोई कुत्ता, चूहा, बन्दर, बिल्ली लाया जाता तो पौधे भय से अलग-अलग कँपन करते। जैसे बिल्ली के प्रवेश पर वे सबसे कम भयभीत हुए और बन्दर के प्रवेश पर सबसे ज्यादा। यहाँ तक कि कोई मनुष्य प्रयोगशाला में किसी पौधे के प्रति दुर्भावना लेकर आता तो पौधा उसे भी अंकित कर देता। गैल्वेनोमीटर द्वारा अंकित किये गये कँपन को ध्वनि तरंगों में रूपान्तरित करने पर उनमें कहीं भय, कहीं प्रसन्नता, कहीं हर्ष तो कहीं उल्लास की ध्वनियाँ निकलती थीं।
पौधों को सर्दी व गर्मी भी लगती है। उन्हें प्यास भी लगती है तथा एक निश्चित मात्रा में खनिज लवणों तथा पोषक तत्त्वों की भी जरूरत होती है। पौधे संगीत के रसिया भी होते हैं। भारतीय वैज्ञानिक टी.एन सिंह ने कुछ फूल देने वाले पौधों को नियम से प्रतिदिन 25 मिनट वीणा सुनाई। एक हफ्ते बाद ये पौधे अन्य पौधों से ज्यादा तीव्र गति से विकसित हुए। उनमें फूल भी जल्दी और ज्यादा आये। अपनी सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने कुछ खेतों में रोज लाउडस्पीकर से राग ‘चारुकेशी’ प्रसारित करवाना शुरू कर दिया। इससे फसलों की उपज बढ़ने लगी। यह प्रयोग कनाडा, अमेरिका आदि देशों में भी आधुनिक यंत्रों की सहायता से किया गया परन्तु यह रहस्य ही बना हुआ है कि संगीत किस तरह से पौधों के वृद्धि हार्मोनों को उत्तेजित कर देता है।
पौधों में एक-दूसरे के प्रति जिस उच्च स्तर का प्रेम पाया जाता है वह मनुष्यों में भी दुर्लभ होता है। वे एक-दूसरे का स्पर्श तक नहीं करते बस मुग्धावस्था में कुछ समय तक रहने के बाद एक-दूसरे से दूर हट जाते हैं। उनके इस मौन, शर्मीले दांपत्य जीवन को सफल बनाने का दायित्व उन विषाणुओं पर होता है जो उनमें परजीवी होते हैं। तालाब व नहरों में मिलने वाला एक पौधा होता है ‘बैलिसनेरिया’ इसके नर व मादा फूल का डण्ठल सर्पिल रूप में मुड़ा होता है एवं पूर्ण यौवन की अवस्था में इसकी डण्ठल सर्पिलाकार कुण्डली के रूप में धीरे-धीरे खुलती है। इस अवस्था में यह फूल सम्पूर्ण रूप से पानी की सतह से ऊपर तैरने लगता है। ठीक उसी समय नर फूल के पराग जल की सतह पर तैरते हुए मादा फूल से आ मिलते हैं।
पेड़-पौधों की भावनाओं की पहचान सर्वप्रथम भारत में ही हुई। विश्वविख्यात वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने दुनिया को पहली बार बताया कि पौधों में भी हमारी तरह भावनाएँ होती हैं। उन्हें भी सुख-दुःख का आभास होता है। भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता में सदा से ही पेड़-पौधों को सजीव प्राणी की दृष्टि से देखा गया है। ज्योतिष के संहिता ग्रन्थों में वृक्षों में प्राण संचार प्रक्रिया एवं मनुष्यों की तरह सुनने व समझने की शक्ति को स्वीकार किया गया है।
पेड़-पौधों के प्रेम व्यवहार, उनकी मानवीय भावनाओं को उजागर करने वाला वर्णन उनकी रोचक संसार की एक झलक मात्र है। सच्चाई तो यही है कि सम्पूर्ण वनस्पति जगत् मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत है। आवश्यकता सिर्फ उन्हें समझने की है। वनस्पति एवं मनुष्य में मात्र इतना ही अन्तर है कि वनस्पति मनुष्य की भाषा में बात नहीं कर सकता है। परन्तु किये गये शोध परिणामों को देखकर यह कहा जा सकता है कि शीघ्र ही हम पॉलीग्राफ के जरिये वनस्पति जगत् से संवाद कायम करने में सक्षम हो पायेंगे। अतः संवेदनशील वनस्पति जगत् को समुचित स्नेह-प्यार एवं संरक्षण देकर उन्हें विकसित करना हममें से प्रत्येक का परम कर्त्तव्य होना चाहिए।