अंतः ऊर्जा का सुनियोजन हो

November 2003

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पृथ्वी की गहराई में प्रवेश करते जाने पर पता चलता है की वहाँ अनादिकाल जैसी गरमी अभी भी मौजूद है। आरंभकाल में पृथ्वी भी अन्य ग्रहों के जन्मकाल में पाई जाने वाली स्थिति में थी। उन दिनों वह आग का गोला थी। ठंडी होने का क्रम चला तो छोटी बड़ी दरारें बन गई। वर्षा ने उन्हें भरा और जलाशय बना दिए। ये हलचलें ऊपरी परतों को ही प्रभावित करती रही। वनस्पति तथा प्राणियों का विकास इसी ऊपरी परत पर हुआ।

पृथ्वी वायु और पानी के कारण क्रमशः ठंडी हुई है। उसके मध्यवर्ती अंतराल में प्रचंड गरमी मौजूद है। वह बहते हुए गरम लाल लोहे की तरह है। ऊपर से ठंडा घेरा उस गरमी को कैद किए हुए है। उसकी मोटाई और मजबूती भी बहुत है। इतने पर भी प्रकृति के नियम उस आतप को भी प्रभावित किए बिना नहीं रहते। गरमी से हर वस्तु फैलती है। पृथ्वी का गहरा भीतरी भाग भी स्वभावतः फैलना आगे बढ़ना चाहता है। ऊपरी परत उसे कसे रहती है, फिर भी भीतरी का लावा चैन से नहीं बैठता और अपने विस्तार के लिए रस्साकशी करता रहता है। बाहर निकलने के लिए कोई खिड़की चाहता है। यह प्रयास निरंतर चलता है। तनाव की यह खोज रहती है कि उसे फूट पड़ने के लिए अवसर मिले। जहाँ वह कमजोरी देखता है वहीं चढ़ दौड़ता है और छेद बनाकर बाहर निकलता है। ज्वालामुखी उसी स्थिति का नाम है। वे जब फटते है तो लावा उगलते है। भीतर की आग ऊपर की ठंडी परतों को ऊपर उछालती है तो जमीन पर लावा बहने लगता है। वह सुरंग फटने की तरह आकाश में भी उछलता है और बड़े क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लेता है। वहाँ विनाशलीला खड़ी हो जाती है वृक्ष,वनस्पति मकान, आश्रय, जलाशय सभी उस मलबे से भर जाते है।

इस विस्फोट के समय प्रभावित होने वाले क्षेत्र थरथराते भी है। उस हड़कंप को ‘भूकंप’ कहते है। धरती काँपी जैसी प्रतीत होती है। जमी हुई वस्तुएँ उलट पुलट जाती है। इस उलट पुलट में जो गिरता है वह नीचे वालों को दाब दबोच देता है। साथ ही यह भी होता है कि जो कुछ भला बुरा नीचे दबा था वह उलटकर ऊपर आ जाए और धरातल की स्थिति इतनी बदल जाए कि पूर्व स्वरूप का अता पता भी न चले।

आँका गया है कि हर वर्ष प्रायः 24 हजार सशक्त भूकंप आते है। एक हजार के करीब ज्वालामुखी फटते है। चूँकि समुद्र पृथ्वी का दो-तिहाई हिस्सा घेरे हुए है, इसलिए ज्वालामुखियों से भूकंपों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है, कारण कि समुद्र की गहराई वाला जल मध्य भूतल की आग्नेय परत के समीप पड़ता है वहाँ से सीलन, नमी, रिसन क्रमशः नीचे उतरती रहती है। आग में पानी का स्पर्श होने से भाप बनती है। भाप में अपेक्षाकृत दबाव अधिक होता है। यही कारण है कि भाप से बादल, रेलगाड़ियों के इंजन एवं घरेलू प्रेशर कुकर तक छोटे उपकरण काम करते है। भापस्नान से मैल फूलने और छूटने का अधिक उपयुक्त लाभ मिलता है। उससे रोमकूप खुलते और स्वेद बिन्दु निकलते है। इसी को जमीन द्वारा साँस लिया जाना कहते है। मात्र ऊपर से ही हवा के झोंके, अधड, चक्रवात नहीं आते, अविज्ञात रूप से धरती भीतर से भी उफनती रहती है। झरने फूटते है। नदियों के स्रोत खुलते है। बहुत जगह गरम जल के स्रोत भी पाए जाते है। खोदने पर जलने वाली गैसें निकल पड़ती है। खनिजों की जो परतें कभी बहुत गहरी थी, वे नीचे के दबाव से ऊपर उठती है और धरातल के इतने समीप आ जाती है कि उनका आसानी से पता लगाया जा सके, खोदकर खनिजों को ऊपर निकाला जा सके।

उपर्युक्त वस्तुस्थिति को भूगर्भ विद्या की उच्च कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थी भली प्रकार जानते है। भूकंपों, ज्वालामुखियों एवं अन्य प्रकार से नीचे की संपदा ऊपर आने के विषय में बहुत कुछ जान सकते है पर यह रहस्य किन्हीं बिरलों को ही विदित है कि विराट ब्रह्म की तरह मनुष्य की एकाकी सत्ता भी पृथ्वी की तरह ही विशाल, रहस्यमय और समानाँतर है।

पृथ्वी की भीतरी आग्नेय परत की बाहर आकर समीपवर्ती स्थिति को प्रभावित करती है। इससे इसके गुरुत्वाकर्षण पर कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि वह धरातल पर चलने वाली समस्त गतिविधियों को प्रभावित करता है। इसके अतिरिक्त स्वयं पृथ्वी को भी अपनी धुरी पर घूमने तथा सूर्य परिक्रमा के लिए चल पड़ने के लिए आगे ढकेलता है। उस परिभ्रमण की एक कक्षा भी बनती है, ताकि सौरमंडल के अन्यान्य ग्रहों के मार्ग में व्यवधान न पड़े, टकराव न हो। यह गतिशीलता ही पदार्थों में प्रवेश करके उनके अणु परमाणुओं को गति देती है और संसार का उत्पादन, अभिवर्द्धन, परिवर्तनक्रम चलाता हो संसार में जो कुछ संपदा, प्रगति, सुँदरता दीख पड़ती है, उसका निमित्त कारण पृथ्वी के अंतराल की ऊर्जा और उसके कारण उत्पन्न होने वाले दबाव को ही माना जाना चाहिए।

मनुष्य के अंतराल में भी ऊर्जा केंद्र है। उन्हें शरीर-क्षेत्र में अनहद क्षेत्र, हृदय एवं मनः क्षेत्र में ब्रह्मरंध्र कहा जा सकता है। यह ऊर्जा जब प्रबल प्रखर होती है तो शरीरगत समर्थता, बलिष्ठता, सुँदरता के रूप में उगती है। मस्तिष्क क्षेत्र में जब वह सक्रिय होती है तो बुद्धिमता, गुणवत्ता, विवेकशीलता के रूप में काम करती देखी जा सकती है। मानवी अंतराल में दबी ऊर्जा को ही आत्मचेतना, प्रेरणा के रूप में समझा जा सकता है। वही उमंग, आकाँक्षा, भावना के रूप में उभरती हैं जब उसका स्तर उत्कृष्ट एवं ऊर्ध्वगामी होता है तो उसे श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा के रूप में भाव संवेदना स्तर की देखा जाता है। शरीर क्षेत्र में वही पराक्रम, कौशल, संयम बनकर काम करती है। उसकी समग्रता ओजस, तेजस, वर्चस के रूप में जानी जाती है। यह उसका सौम्य और सृजनात्मक पक्ष है। यही जब विद्रूप होने लगता है तो शरीर में आधि व्याधि बनकर फूटता है। स्वभाव एवं चरित्र में दुष्टता, भ्रष्टता, अनाचार, आतंक, दुर्व्यसन जैसे आसुरी कहे जाने वाले लक्षणों के रूप में प्रकट होता है। द्वेष, दुर्भाव, ईर्ष्या, जलन, कुढ़न इन्हीं की सहोदरा है। भावक्षेत्र में जब इन विद्रूपताओं का उद्भव होता है तो वह मनुष्यता को नैतिकता को, मानवी मूल्यों को समरसता को, शालीनता और सौम्यता को बुरी तरह क्षत विक्षत कर देता है। फिर अंतःकरण की यह शुष्कता ओर कुरूपता उसके प्रगति पथ पर पग पग पर आड़े आती है और मार्ग में अटल चट्टान की तरह अड़ जाती है। इससे सहयोग सहकार के वे समस्त रास्ते बंद हो जाते है, जो अंतःऊर्जा के सौम्य प्रयोग से मिल सकते थे। लड़ाई-झगड़े वाद विवाद की संभावनाएँ बढ़ जाती है और जीवन को इतरा उपद्रवी बना जाती है कि उसे दानवी कहने में तनिक भी संकोच नहीं। जीवन में इन आसुरी लक्षणों का प्रकटीकरण ज्वालामुखी या भूगर्भ के भयावह उपद्रवों के समतुल्य समझा जा सकता है।

भीतरी अग्नि अंतःचेतना है। यही प्राण है जिसके रहने तक शरीर जीवित रहता है। उसमें सौम्य पक्ष चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्ट आदर्शवादी बनकर छलकता है। उसी के परिपोषण हेतु व्रत नियमों का निर्धारण, परिपालन किया जाता है। इसको आध्यात्मिक अग्नि क्षेत्र कहते है।

पृथ्वी के अंतराल की अग्नि का किस दिशा में निष्क्रमण हो, यह प्रकृति परमेश्वर के हाथ में है। वह उसके सौम्य या भयावह निष्क्रमण की उपयोगिता समझता और व्यवस्था बनाता है, किंतु मनुष्य अपनी ऊर्जा और उसकी दिशाधारा का इच्छित उपयोग करने में स्वतंत्र है। वह अनुशासन में रहकर अपने जीवनकाल और बुद्धिबल का उत्साहवर्द्धक उपयोग भी कर सकता है और उसके लिए यह भी संभव है कि घुटन, असंयम, विद्रोह का मार्ग अपनाकर न केवल अपने लिए संकट उत्पन्न करे, वरन् संबंधित लोगों को भी उस विनाशलीला का चपेट में ले ले। आत्मिक अग्नि ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति और संपदा है। उसे यही दिशा देना विवेकशील मनुष्य का अपना काम है।


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