दीर्घायुष्य की ओर बढ़ते विज्ञान के चरण

August 1991

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

क्या जराजीर्णता से बचे रहना और अपेक्षा.कृत अधिक लम्बी आयुष्य प्राप्त करना संभव है? अब इस प्रश्न का उत्तर हाँ में मिल रहा है। पुरातन ऋषि-मुनियों के ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, पर देखना यह है कि क्या अब भी ऐसा हो सकता है?

मनोविज्ञानियों का कथन है कि यदि मस्तिष्क को अनावश्यक रूप से उत्तेजित या शिथिल न होने दिया जाय तो निरोग दीर्घजीवन संभव है। शरीर शास्त्री कहते हैं कि अनावश्यक आहार का भार पाचन−तंत्र पर न लादा जाय तो बुढ़ापा आने पर भी जराजीर्णता का कष्ट न भुगतना पड़ेगा और मनुष्य लम्बे समय तक क्षमता सम्पन्न जीवन जी सकेगा।

योगशास्त्र के ज्ञाता कहते हैं कि अंतःस्रावी ग्रन्थियों पर, ध्यानयोग द्वारा नियंत्रण किया जा सकता है और हार्मोन्स-ग्रंथियों के स्रावों को दीर्घ जीवन के उपयुक्त बनाया जा सकता है। महर्षि चरक ने मनुष्य की स्वाभाविक आयु सौ वर्ष बताई है और कहा है कि जितने वर्ष में प्राणी की हड्डी प्रौढ़ होती है, उससे ठीक पाँच गुना अधिक आयु तक जीवित रहा और स्वस्थ दीर्घ जीवन का आनन्द उठाया जा सकता है। उनके अनुसार मनुष्य का पूर्ण विकास 20-25 वर्ष में पूरा होता है अतः उसे सौ से डेढ़ सौ वर्ष तक अवश्य जीवित रहना चाहिए। खान-पान का असंयम, दिनचर्या की अनियमितता, श्रम-विश्राम का असंतुलन और कृत्रिम अप्राकृतिक जीवन ही वे कारण है जो मनुष्य के स्वास्थ्य को बिगाड़ते और असामयिक जराजीर्णता उत्पन्न करते हैं। उनने नीरोग दीर्घायुष्य के लिए हितभुक-मितभुक की महत्ता का प्रतिपादन किया जाता है।

वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ताओं ने भी अब इस संदर्भ में गहन खोजें की है कि -’हम क्यों होते तथा मरते हैं? क्या प्राणियों की अजरता अमरता संभव है? उनका मत है कि मनुष्य सहित समस्त प्राणियों का जीवन जीन्स द्वारा नियंत्रित होता है। फ्लोरिडा विश्व विद्यालय के निदेशक लियोनार्ड हेफ्लिक के अनुसार प्रत्येक शारीरिक कोशिका का अपना एक ‘जेनेटिक क्लॉक’ होता है और हर कोशिका का विभाजन 5 बार से अधिक नहीं होता। अन्य विशेषज्ञों का मत है कि हमारे बुढ़ापे का कारण शरीर का रोगाणुओं तथा ‘फ्री रैडिकल्स’ द्वारा क्षतिग्रस्त होना है। फ्री रैडिकल्स चयापचय का उपोत्पादन है। किन्तु अभी तक निश्चित रूप से यह नहीं ज्ञात किया जा सका कि हमारी आयु सीमा को निर्धारित करने वाली वह केन्द्रिय क्लॉक कौन सी है?

विशेषज्ञों का कहना है कि हमारी आयु तीन प्रणालियों द्वारा प्रभावित होती है। ये हैं- मस्तिष्क, अंतःस्रावी प्रणाली तथा रोग प्रतिरोधी क्षमता-इम्यून सिस्टम। अंतःस्रावी प्रणाली द्वारा शरीर में हार्मोन्स स्रवित होते हैं, तो मस्तिष्क काया का केन्द्रिय संस्थान है जिससे समूचा कायतंत्र संचालित एवं नियंत्रित होता है। आम मान्यताओं के विपरीत आधुनिक वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि बढ़ती आयु के साथ मानव मस्तिष्क में कोई ह्रास उत्पन्न नहीं होता। विभिन्न खोजों के आधार पर अब यह सिद्ध हो चुका है कि केन्द्रिय तंत्रिका तंत्र में पुनर्जनन की क्षमता विद्यमान है और वृद्धावस्था तक स्नायु तंतुओं का उत्पादन निरन्तर करता रहता है। यदि आहार-विहार में असंयम न बरता जाय और चिंतन क्षेत्र की विकृति से बचा जा सके तो मस्तिष्क की सहायक प्रणालियाँ स्वस्थ बनी रहेगी और इस प्रकार मनुष्य 150 से 200 वर्षों तक के लम्बे जीवन का सुख भोग सकेगा।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की मूर्धन्य वैज्ञानिक मेरियन डायमंड का कहना है कि मस्तिष्कीय स्नायु कोषों की संख्या दो तीन वर्ष की अवस्था में ही चरम सीमा तक पहुँच जाती है और जीवन पर्यन्त यथावत बनी रहती है। उनके अनुसार शारीरिक पेशियों का निर्माण इस प्रकार होता है कि वे सिकुड़ एवं फैल सकें। प्रयत्नपूर्वक उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। इसी तरह मस्तिष्क की संरचना प्रेरणा ग्रहण करने के अनुरूप हुई है। इसके अभाव में मस्तिष्कीय कोष शिथिल पड़ते और क्षति-ग्रस्त होते जाते हैं। यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है कि वह मस्तिष्क की क्षमता का सही उपयोग करे अथवा निष्क्रियता अपना कर जराजीर्णता को आमंत्रित करे। अपने इस सिद्धाँत की पुष्टि के लिए उनने कितने ही प्रयोग-परीक्षण किये और पाया कि चूहे जैसे जिनकी सामान्य आयु 700 दिन की होती है, वातावरण एवं सद्व्यवहार से प्रभावित होकर 900 दिनों तक जीवित रहे।

जैव रसायन शास्त्रियों का कहना है कि ढलती आयु में ऑक्सीजन की खपत कम हो जाती है। इसका प्रमुख कारण पिट्यूटरी ग्रंथि द्वारा स्रवित एक प्रकार के रसायन को माना जाता है। एलन गोल्डस्टीन के अनुसार यदि मस्तिष्क की अंतःस्रावी प्रणाली पर नियंत्रण किया जा सके तो न केवल एण्डोक्राइन ग्लैण्ड सक्रिय बनी रह सकती है, वरन् इम्यून सिस्टम भी अक्षुण्ण बना रहता है। जीवनी शक्ति की सशक्तता बनी रहने पर वृद्धावस्था में भी स्वास्थ्य यथावत बना रहता है। उनके अनुसार थायमस ग्रन्थि के साथ भी आयु का सम्बन्ध है। उम्र बढ़ने के साथ ही वह छोटी होती जाती है तथा वृद्धावस्था तक अपने वास्तविक आकार का 1/10 वाँ हिस्सा ही रह जाती है। 50 वर्ष के पश्चात इसकी क्रियाशीलता घटने लगती है जिससे प्रतिरक्षक कोशिकाओं का उत्पादन भी मंद पड़ जाता है। आसन, प्राणायाम एवं ध्यान जैसी योगाभ्यास परक प्रक्रिया अपना कर मस्तिष्क सहित अंतःस्रावी प्रणाली पर नियंत्रण साधा और उस आधार पर दीर्घकाल तक उन्हें सक्रिय कार्यरत बनाये रखा जा सकता है। विलियम अर्सलर नामक स्नायु विज्ञानी ने इस संबंध में गंभीरतापूर्वक प्रयोग किये हैं। उनने इससे संयमी वृद्धजनों में भी युवाओं जैसी कार्य क्षमता देखी है।

स्वास्थ्य विज्ञानियों का मत है कि आहार की मात्रा को आरंभ से ही नियंत्रित करके हम 120 वर्ष तक सहज ही निरोगपूर्ण जीवन जी सकते हैं। आहार नियंत्रण के इस सिद्धाँत की पुष्टि कितने ही वैज्ञानिकों ने अपने-अपने अनुसंधान प्रयोगों द्वारा की है। चूहे एवं मछलियों पर किये गये अध्ययनों के पश्चात राँय वेल्फोर्ड एवं रिचर्ड वेन्डूक जैसे विज्ञानियों ने पाया है कि आहार नियंत्रण के कारण इन जीवों की उम्र सामान्य से तीन गुना अधिक बढ़ गई। माँसाहारी की तुलना में शाकाहारी अधिक दिनों तक जीवित पाये गये। उनकी उम्र में सात से 90 वर्ष का अन्तर पाया गया।

उक्त अध्ययनों से निष्कर्ष निकलता है कि आहार-विहार, संयमशीलता, विचार, जीवन प्रक्रिया तथा वातावरण आदि मिल कर मनुष्य का आयु सीमा का निर्धारण करते हैं। इतने पर भी मुख्य रूप से मस्तिष्कीय क्रियाकलापों को ही सर्वोपरि ठहराया जा सकता है। इसके ठीक बने रहने पर कहीं भी किसी भी स्थिति में मनुष्य स्वस्थ तथा दीर्घकाल तक सक्रिय एवं सक्षम बना रहा सकता है। सक्रिय बने रहने पर मस्तिष्कीय कोष वृद्धावस्था में भी विकास की प्रक्रिया से वंचित नहीं रहते हैं। इस आधार पर विज्ञानवेत्ताओं ने सठियाने की बात को भी निर्मूल बताया है और सुझाव दिया है कि विवेक बुद्धि अपनाकर हममें से हर कोई निश्चित रूप से पूर्ण आयुष्य को प्राप्त कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles