समझदारी तेजी से घट रही है।

August 1991

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दीर्घ जीवन अपने देश में कभी सौभाग्य का चिन्ह माना जाता था और चिरायु शतायु होने का आशीर्वाद दिया जाता था। अब स्थिति उल्टी हो गई है। प्राचीन काल में वयोवृद्ध भी वानप्रस्थ, संन्यास लेकर लोकसेवा के महत्वपूर्ण कार्यों में लगे रहते थे। आधी आयु लोक के लिए आधी परलोक के लिए लगाने से वृद्धावस्था व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही हितकर होती है। तब ढलती आयु से ही अध्यात्मपरक चिन्तन चल पड़ने से न अपने लिए बुढ़ापा भारभूत होता और न समाज के लिए।

अब कई प्रचलन नये आये हैं। ढलती आयु तक बच्चे पैदा करते रहने के कारण उनकी पंक्ति इतनी बड़ी हो जाती है कि लोभ मोह को अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं। दूसरे संयुक्त परिवार की प्रथा टूटती जाती है। जो लड़का कमाऊ होता जाता है, वही अपनी बीबी को लेकर अलग हो जाता है। बूढ़े की जवानी में कमाई पूँजी तो बड़े लड़के, लड़कियों की पढ़ाई शादी आदि में खर्च हो जाती है। पिछले बच्चों का तथा स्वयं वृद्ध-वृद्धाओं का निर्वाह कठिन पड़ता है, क्योंकि शरीर थक जाने से उतना परिश्रम नहीं हो पाता, जितना जवानी में कर लेते थे।

यह हवा पाश्चात्य देशोँ से चली है और अपने देश की ओर बढ़ती आ रही है। वृद्धावस्था घर परिवार को संभालने और साथ ही गिरते स्वास्थ्य की दुहरी चोट से बुरी तरह लड़खड़ाती जाती रही है। बुढ़ापे में उत्पन्न हुए और आजीविका स्वल्प होने के कारण बच्चे संख्या की दृष्टि से तो कई हो जाते हैं पर स्वास्थ्य की दृष्टि से इतने गये गुजरे होते हैं कि उन्हें एक प्रकार से अपंग ही कहना चाहिए। यह प्रकोप भारत जैसे गरीब देशों पर विशेष रूप से होता है। इन दिनों की जनगणना के हिसाब से संसार भर में छियालीस करोड़ व्यक्ति अपंग हैं। वे अपना निर्वाह भार स्वयं वहन नहीं कर सकते। दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। जिन पर भी वे आश्रित रहते हैं वे उनके लिए भार रूप ही बनकर रहते हैं। कुटुम्बियों की बेरुखी हो तो उन्हें भिक्षा का आश्रय ही लेना पड़ता है।

वृद्धावस्था चाहती है कि ढलती उम्र में शिथिलता भले ही आ घेरे पर मानसिक दृष्टि से सन्तुष्ट निश्चिन्त रहें। किन्तु आदि से अंत तक जैसे वातावरण में रहना पड़ा है, उसे देखते हुए क्रोध, चिड़चिड़ापन, चिन्ता जैसी मानसिक अपच, रक्तचाप, मधुमेह जैसी शारीरिक व्यथाएँ घेर लेती हैं। जिन्हें अतिशय नशेबाजी की आदत पड़ जाती है वे बुढ़ापे की रेखा तक पहुँचते-पहुँचते मनःस्थिति और परिस्थितियों के दुहरे दबाव से सदा खिन्न, उद्विग्न रहने लगते हैं। सम्मान जो मिलना चाहिए, वह व्यक्तित्व के घटिया होने के कारण मिल नहीं पाता। शरीर श्रम के योग्य नहीं रहता और मन अपने को एकाकी निठल्ला अथवा तिरस्कृत अनुभव करके चिंता में डूबा रहता है। खाँसी, अनिद्रा, अपच जैसे रोग आमतौर से हो जाते हैं, उनकी व्यथा सताती है सो अलग।

पारस्परिक सहानुभूति के अभाव में तथा थोड़ी सी प्रतिकूलता में आपे से बाहर हो जाने के कारण उनमें से कितने ही आत्महत्या कर बैठते हैं, घर छोड़कर निकल जाते हैं और अभाव भरी परिस्थितियों में दम तोड़ देते हैं।

पाश्चात्य देशों में स्थिति और भी बुरा है। संयुक्त परिवार का तो कोई प्रश्न ही नहीं, संबंधी कुटुम्बियों की ओर से सहानुभूति तक नहीं मिलती। परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए वे या तो कुछ बचा लेते है अथवा सरकारी ‘बूढ़ाखाने’ में उन्हें निर्वाह जितना आश्रय मिल जाता है। सहानुभूति के अभाव में अपने को सर्वथा निरर्थक समझने वाला व्यक्ति समय को काट नहीं पाता। मद्यपान की प्रवंचना से उत्तेजना और खिन्नता हर घड़ी छाई रहती है।

अमेरिका जैसे देशों में आर्थिक कठिनाई तो नहीं है पर नैतिक संकट ऐसा छाया रहता है जिसमें अपने को सुरक्षित विरले ही समझ पाते हैं। कलह, वासना, द्वेष लालच आदि के कारण उद्दण्ड व्यक्ति छोटी बड़ी दुर्घटनायें करते रहते हैं। पिछले दिनों अमेरिका में 38217 आत्म हत्यायें हुई और आक्रान्ताओं द्वारा की गई हत्यायें इससे प्रायः दूनी थीं।

अपंगों में गणना सामान्यतया उनकी की जाती है, जो जन्मजात विकलाँग थे या किसी दुर्घटना के शिकार हो गये हों। एक दूसरी प्रकार के अपंग हैं जो मानसिक क्षेत्र का अपना संतुलन गँवा बैठते हैं, जो परिस्थिति को समझ नहीं पाते और उनका अनुरूप हल सोच नहीं पाते। मस्तिष्क और शरीर का मध्यवर्ती संतुलन बिगड़ जाने से उनके इच्छित कार्य अवयवों से बन नहीं पड़ते। इन्हें पूरी तरह से पागल तो नहीं कहा जा सकता पर वे अर्धविक्षिप्त स्थिति में होते हैं। इन्हें सनकी कहा जा सकता है। वे उस प्रकार नहीं सोच पाते जो कर सकते हैं जो कर सकते हैं, वे उनसे सोचते नहीं बनता। मस्तिष्क और शरीर की मध्यवर्ती कड़ी ऐसी है कि वे लड़खड़ा जायं तो शरीर और मस्तिष्क का मध्यवर्ती संतुलन बिगड़ जाता है और मनुष्य जो चाहता है वह कर नहीं पाता और वह कर बैठता है जो नहीं चाहता। ऐसे लोग हाथ पैर से सही सलामत हों तो भी वे अपंगों में ही गिने जाते हैं। इस स्तर के लोगों की संख्या अब तेजी से बढ़ रही है पर उनकी गणना प्रत्यक्षतः नहीं हो सकती, क्योंकि बिना व्यक्तिगत संपर्क किए उनके बारे में यह समझा नहीं जा सकता कि इस प्रकार का अंतर उनकी भीतरी और बाहरी स्थिति के बीच चल रहा है। उस वर्गीकरण के बिना उसकी गणना कैसे हो? फिर भी अपने परिवार या साथियों के लिए वे भार रूप ही होते हैं उन्हें बार-बार संभालना और देखना पड़ता है। बिना मार्गदर्शक की सहायता के व कुछ भी ऐसा कर सकते हैं जो अटपटा लगे या अनर्थ खड़ा कर दें।

ऐसा क्यों होता है? इसका कारण ढूँढ़ते पर विशेष रूप से इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि प्रकृति के अनुशासन का निरन्तर उल्लंघन करते रहने, शरीर संरचना के अनुरूप अपने क्रियाकलापों का ढर्रा न बिठाने से लोग इस अवज्ञा को चतुरता समझने लगते हैं। उस चतुरता पर गर्व भी करते हैं, फलतः ऐसी आदत पड़ जाती है कि सामान्य जीवनक्रम उन्हें सुहाता नहीं और उनके विपरीत चलने या काट−छांट करने की आदत पड़ जाती है। फल यह होता है कि वे हर अटपटे काम को करने में बुद्धिमत्ता अनुभव करते हैं और आमतौर से इस तरह सोचते और करते रहते हैं जो कुछ समय के साथ रहने वाला सहज ही अनुमान लगा ले कि यह स्वाभाविक स्थिति नहीं है। वह अपने को अहंकारी हीन या अस्त−व्यस्त स्थिति में अनुभव कर रहा है।

बाहर के लोगों के साथ व्यवहार करते हुए तो वह लोकलाज एवं शिष्टाचार का किसी कदर अनुमान भी लगा लेता है, और संभल भी जाता है पर घर परिवार वालोँ के सन्मुख ऐसा भय न रहने से वह विसंगति विशेष रूप से बढ़ जाती है और उन्हें बालकों की तरह संभालना पड़ता है। इस तरह की अपंगता जिस तरह से बढ़ रही है, उसे देखते हुए लगता है कि समझदारी में तेजी से ह्रास हो रहा है। उपचार सभी का किया जाता है। वृद्धावस्था से जुड़े रोगों का भी, अनायास आ धमकने वाले रोगों का तथा शरीर को अपंग बनाने वाली विकृतियों का भी। किन्तु मानसिक विकलाँगता को, समझदारी को कुण्ठित कर देने वाले रोगों का भी निदान हो व उपचार का स्वरूप बनाया जाय, यह समय की आवश्यकता है।


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