शब्द शक्ति के साथ यज्ञाग्नि का जुड़ा हुआ सामर्थ्य

August 1991

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मंत्र विद्या और यज्ञ विज्ञान का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। मंत्र विद्या में जप-अनुष्ठान आदि की महत्ता है, किन्तु उनकी पूर्णता यज्ञकृत्य द्वारा सम्पन्न होती है। गायत्री जप अनुष्ठान के संबंध में जिन्हें विस्तृत जानकारी है, उन्हें यह भी विदित है कि अनुष्ठानों की पूर्णता के लिए यज्ञ कृत्य भी उसके साथ जोड़ना पड़ता है। मात्र जप ही करते रहा जाय और उसके साथ यज्ञ का समावेश न किया जाय, तो उतने भर से अभीष्ट शक्ति का उत्पादन न होगा, लक्ष्य की पूर्ति न होगी।

जड़ शक्तियों में जिस प्रकार धन, बल, पद, शस्त्र आदि की क्षमताओं को बड़ी सामर्थ्य बताया गया है, उसी तरह चेतना के क्षेत्र में मंत्र विद्या और यज्ञ विज्ञान की अपनी विशिष्ट महत्ता है। इनके समन्वित प्रयोग से ओजस, तेजस, वर्चस का आत्मोत्कर्ष का लाभ हस्तगत होता है। यज्ञ विज्ञान के माध्यम से शक्ति प्राप्त होती है। भौतिक क्षेत्र में कृषि, व्यवसाय, यंत्र, यह सब विज्ञान के अंतर्गत आते हैं। यंत्रों के द्वारा महत्वपूर्ण उत्पादन होते हैं। कल-कारखाने मनुष्य के लिए सम्पदा कमाते हैं। अस्त्र-शस्त्र भी विज्ञान की ही उत्पत्ति हैं। कोयला, भाप, बिजली, अणुशक्ति आदि वैज्ञानिक उत्पादन के लिए शक्ति उत्पन्न करते हैं। इस समस्त विज्ञान प्रक्रिया को ‘यंत्र’ उत्पादन कहते हैं।

दूसरा क्षेत्र चेतना का है। चेतना की क्षमता ज्ञान परिधि में आती है। ज्ञान मंत्र है। मंत्र का उच्चारण वाणी से होता है। इसलिए उसे वाक्शक्ति भी कहा गया है। अध्ययन, अध्यापन, विचार-विमर्श यह मंत्र पक्ष है। इसके द्वारा चेतना क्षेत्र को प्रभावित किया जाता है। वाक्शक्ति की महिमा असामान्य बताई गई है। साधारण बोलचाल के द्वारा ही नहीं, ऋषि प्रणीत मंत्रों के अमुक विधि-विधान में प्रयोग करने का प्रतिफल भी असाधारण होते देखा गया है। मंत्र भी एक महाविज्ञान है। उसकी एक पद्धति यौगिक दक्षिणपंथी है, दूसरी ताँत्रिक वाममार्गी। तंत्र भी मंत्र के समान ही विशिष्ट विज्ञान है। इनमें शाप-वरदान की दोनों स्तर की क्षमता है। प्राचीनकाल में वैज्ञानिक युद्ध भी लड़े जाते थे। उनमें मंत्रों का प्रयोग होता था। सम्पदा उत्पादन में भी मंत्रों का महान उपयोग है। असुर वाममार्गी ताँत्रिक प्रयोग करते थे और देव सम्प्रदाय वाले भौतिक सुख-शान्ति की अभिवृद्धि के लिए तथा सूक्ष्म चेतना को बलवती बनाने के लिए यह प्रयोग करते थे। दोनों में ही वाक्शक्ति का प्रयोग होता था।

विज्ञान में ताप, ध्वनि और प्रकाश को शक्ति की मूलभूत इकाई माना गया है। मंत्र केवल ध्वनि है। शब्द की अपेक्षा ताप और प्रकाश की गति तीव्र है। प्रकाश को यज्ञ के रूप में जोड़ना पड़ता है, तभी वह अधिक शक्तिशाली और विश्वव्यापी बनता है।

यज्ञ के सूक्ष्म आधारों की चर्चा न करके केवल भौतिक विज्ञान की दृष्टि से भी देखा जाय तो भी स्पष्ट होगा कि उसमें मंत्र-ध्वनि विज्ञान के रहस्यमय सिद्धाँतों का समावेश किया गया है, तो यज्ञ प्रक्रिया को ताप और प्रकाश शक्ति का विशिष्ट प्रयोग कहा जा सकता है। इन दोनों भौतिक शक्तियों का समन्वय करके अध्यात्म उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लगा दिया जाय तो उसका सत्परिणाम वैसा ही होता है जैसा कि यज्ञ विज्ञान के जन्मदाता ऋषि-मनीषियों ने सुविस्तृत फल श्रुति के रूप में प्रस्तुत किया है।

अग्नि का ही एक रूप विद्युत है। रेडियो प्रसारण में वक्ता की आवाज धीमी होती है। उसकी चाल भी मंद होती है। पर जब रेडियो यंत्र द्वारा उसमें विद्युत समावेश किया जाता है, तो वह आवाज विश्वव्यापी बन जाती है और सैकिण्डों में पृथ्वी की परिक्रमा लगा लेती है। उसे हजारों-लाखों रेडियो यंत्र पकड़ लेते हैं और करोड़ों व्यक्ति उसे एक साथ सुन लेते हैं। लेसर किरणों का प्रवाह भी ध्वनि परक है। उसके साथ विशेष विद्युत शक्ति का समावेश हो जाता है तो उसकी सामर्थ्य गजब की हो जाती है। चन्द्रमा तक सैकिंडों में धावा बोल देती है। उसकी सामर्थ्य इतनी बढ़ी चढ़ी होती है कि दाँतों तले उँगली ही दबानी पड़ती है। छोटे यंत्रों में लाउडस्पीकर की शक्ति को देखा जा सकता है। एक आदमी धीमी सी आवाज बोलता है, पर जब उसमें बैटरी या बिजली का संमिश्रण हो जाता है तो उतने भर से एक साथ सैकड़ों लाउडस्पीकर बोलने लगते हैं और लाखोँ व्यक्ति एक साथ उस वाणी को सुनते हैं। यज्ञ की, यज्ञ कुण्डों की बैटरी की, जेनरेटर, डायनेमो आदि से तुलना की जाती है जो ध्वनि शक्ति को सशक्त और सुविस्तृत बनाते हैं।

यज्ञ विज्ञान के संदर्भ में किये जा रहे शोध अनुसंधानों से जो तथ्य सामने आये हैं, उनमें मंत्रोच्चार द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को मानवी उपयोग के अनेक कार्यों में प्रयुक्त कर सकना संभव बना दिया है। कुछ सूक्ष्म ध्वनि प्रवाह सृष्टि की अन्यान्य हलचलों के कारण स्वयमेव उत्पन्न होते रहते हैं और उनके आधार पर प्रस्तुत परिस्थितियों एवं भावी संभावनाओं की बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इस संबंध में अपनी शताब्दी का एक नया प्रयोग और जुड़ा है कि मंत्रशक्ति के साथ यज्ञ शक्ति का समन्वय करके अभीष्ट प्रयोजन के लिए अभीष्ट स्तर की श्रवणातीत ध्वनियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं और उन स्वनिर्मित ब्रह्माण्डीय कम्पनों का आश्चर्यजनक लाभ उठाया जा सकता है। इस आधार पर न केवल वातावरण को शान्त एवं उत्तेजित करने, अनुकूल बनाने जैसे प्रयोजन सध सकते हैं, वरन् मानवी मस्तिष्क एवं अन्तराल को भी उपयुक्त दिशा में मोड़ा-मरोड़ा जाना संभव है। इन सूक्ष्म मंत्र ध्वनियों में कितनी ही इतनी अद्भुत और इतनी सक्षम हैं कि उनके स्वरूप की कल्पना मात्र से आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। तापशक्ति के समावेश से तो वे और भी अधिक सशक्त एवं प्रभावोत्पादक बन जाती हैं।

वैयक्तिक प्रयोजनों के लिए एवं सामूहिक प्रयोजनों के लिए, दोनों ही प्रकार के कृत्यों में तदनुरूप यज्ञ किये जाते हैं। मंत्र शक्ति का समन्वय भी उन्हीं के अनुरूप होता है। राजा दशरथ ने संतानोत्पत्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ किया था। यह व्यक्तिगत हुआ। लंकादहन और महाभारत के द्वारा असुर वध तो हो गया था, पर व्यापक वातावरण की शुद्धि शेष रह गई थी। उसके लिए भगवान राम ने दश अश्वमेध यज्ञ किये थे और कृष्ण के तत्वावधान में राजसूय यज्ञ हुआ था। रामराज्य के लिए जो वातावरण बनाया जाना था, उसकी भूमिका दश अश्वमेधों द्वारा सम्पन्न हुई थी। इसी प्रकार कौरवों के असुर दल का हनन होने के उपराँत परीक्षित जनमेजय के नेतृत्व में भारतवर्ष को महान भारतवर्ष बनाने की महाभारत की योजना थी, उसकी भूमिका बनाने के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञ ही सम्पन्न कर सका।

प्राचीनकाल में जहाँ वैयक्तिक, क्षेत्रीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्वों के अवसर पर मध्यवर्ती यज्ञ होते रहते थे, वहाँ बड़े-बड़े कुँभ जैसे अवसरों पर विशिष्ट अनुष्ठान और यज्ञ होते थे। यह सूक्ष्म जगत के संशोधन के निमित्त किये जाने वाले प्रयोग थे। इन्हें वातावरण संशोधन एवं प्रकृति अनुकूलन के व्यापक प्रयत्नों, उपचारों के रूप में जाना जाता था।

मंत्र वाक्शक्ति है। उसकी छोटी सीमित शक्ति को व्यापक बनाने के लिए यज्ञ को संयुक्त करना आवश्यक है, ऐसे अनेकों आधार हैं जिनके सहारे यज्ञीय क्रिया-कृत्य में उच्चारण किये गये मंत्रोच्चार से न केवल उपयोगी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती वरन् उस


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