इन विडम्बनाओं में अपने को बरबाद न करें।

August 1991

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परमात्मा प्राणि मात्र का सृजेता है। सभी जीव-जंतु उसी की संतानें हैं। न्यायनिष्ठ भावनाशील पिता को अपनी सभी संतानों पर समान प्यार होता है। सभी को समान सुविधाएँ देना उसका नैतिक कर्त्तव्य बन पड़ता है। इसी रीति-नीति का निर्वाह जब सामान्यजन करते देखे जाते है, तो कोई कारण नहीं कि परमात्मा इस न्यायनिष्ठ में किसी प्रकार की कमी रहने देगा, किसी के साथ पक्षपात करेगा और किसी को उसके अधिकारों से वंचित करेगा। ऐसा करने पर तो उसके समदर्शी, न्यायकारी और नीतिनिष्ठ होने की मान्यता पर ही प्रश्न चिन्ह लगेगा। ऐसी आशंका नहीं ही करनी चाहिए। सृजेता की न्यायनिष्ठ में अन्तर पड़ने की बात कभी सोची ही नहीं जानी चाहिए।

फिर मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में असाधारण वर्चस्व कैसे मिला? उसे असाधारण संरचना वाला शरीर क्यों कर मिला? इतनी सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि वाली मानस सम्पदाओं की उपलब्धि किस आधार पर हुई? अनेकानेक वैज्ञानिक अनुदानों से भरी-पूरी साधन सम्पन्नता कैसे प्राप्त हुई? इतना संवेदनशील अन्तःकरण कैसे मिला? ज्ञान, कर्म और भक्ति के साथ जुड़ी हुई उच्चस्तरीय अभिव्यंजनाओं के प्रकटीकरण का सुयोग किस प्रकार हस्तगत हुआ? यह मनुष्य का मात्र निजी उपार्जन नहीं है। यदि होता तो अन्य प्राणी भी उतनी प्रगति करने, उतने ही साधन संजोने में समर्थ रहे होते। यहाँ सहज असमंजस उत्पन्न होता है और उसका सही समाधान खोजा ही जाना चाहिए अन्यथा सृष्टा और सृष्टि की वर्तमान स्थिति को समझने में ऐसी उलझन उत्पन्न होगी, जिसका कोई समाधान ही न निकल सके। यह असमंजस तो नास्तिकता का ही पक्षधर बनेगा और नियामक के सुव्यवस्थित नियन्त्रण पर वे विश्वास उठ जाना अराजकता का, उद्दंड उच्छृंखलता का निमित्त कारण बनेगा। आदर्शवादी अनुशासन की मान्यता को बनाये रहना कठिन पड़ जायेगा।

सृष्टा ने मनुष्य को अपना ज्येष्ठ राजकुमार बनाया और उसे यह दायित्व सौंपा कि सृष्टि को सुव्यवस्थित, समुन्नत, सुसंस्कृत बनाये रहने में उसका हाथ बँटाये, सौंपे गये उत्तरदायित्व को ठीक तरह निभा सकने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता थी, उनके बिना तो कुछ करते-धरते न बन पड़ता। सरकार उच्च अधिकारियों को अधिकार भी देती है और आवश्यक साधन, उपकरणों की भी व्यवस्था करती है। यदि न करे तो उनके लिए सौंपे उत्तरदायित्वों को पूरा कर सकना ही संभव न हो सकेगा? पुलिस को हथियार मिलते हैं, पर वे उन्हें नहीं मिलते जो पुलिस में नहीं है। उच्च अधिकारियों को जीप, टेलीफोन, दफ्तर, स्टाफ आदि मिलते हैं। इसके बिना वे अपनी बड़ी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर नहीं सकते। आयुधों के विशाल भण्डारों की चाबी किन्हीं उच्च अफसरों के पास रहती है। खजाने के बड़े अधिकारी उपलब्ध सौंपी गई धन राशि की सुरक्षा करते है। इसके अतिरिक्त जिसे जो मिला है वह उसे निर्धारित प्रयोजन के लिए ही प्रयुक्त करता है। निजी काम में उन साधनों के लगाने की छूट नहीं रहती। यदि खजाने और सरकारी कोष को अपने निजी काम में खर्च कर डालें तो उसे हड़पा हुआ धन लौटाने के लिए बाधित ही नहीं किया जायगा, वरन् जेल जाने और नौकरी से हाथ धोने के लिए भी बाधित होना पड़ेगा।

मनुष्य को भी अन्य प्राणियों की तरह शरीर की सामयिक आवश्यकताएँ पूरी करते रहने भर की छूट है। वेतन हर महीने मिलता है। ऐसा नहीं होता कि जिन्दगी भर में मिलने वाली राशि, भोजन, आवास आदि का सारा हिसाब आरंभ में ही चुकता कर दिया जाय। जितनी आवश्यकता-उतनी राशि मिलने का ही सिद्धाँत अपनाया जाता रहा है। मनुष्य के पास भी उतना ही संग्रह रहना चाहिए जो उसकी सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति भर के लिए आवश्यक है। अनावश्यक संग्रह करने के लिए अत्यधिक वेतन किसी को भी नहीं मिलता। मात्र इतनी ही सुविधा रहती है कि अपने वेतन में से कुछ बचाकर किसी इच्छित व्यक्ति को उसे दिया जा सके या इच्छित कार्य में लगाया जा सके।

लौकिक और परलौकिक, बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही दृष्टियों से लाभदायक मार्ग यह है कि उत्कृष्ट आदर्शवादिता की रीति-नीति अपनायी जाय। वर्जनाओं पर अंकुश रखा जाय। वासना, तृष्णा की संकीर्ण स्वार्थपरता को उफनने न दिया जाय। सर्व साधारण को जितने साधनों में निर्वाह करना पड़ता है, उतने का ही उपयोग करके संतुष्ट रहा जाय। महत्वाकाँक्षाओं की आग ऐसी है, जिसमें जितने-जितने साधन मिलते जायं, वह उतनी ही अधिक तीव्र होती जाती है। साधनाओं की विपुलता वाले भी चैन से कहाँ बैठ पाते हैं? जो मिलता है वह कम प्रतीत होता? इससे बहुत अधिक पाने की उत्कंठा कुछ हस्तगत होने के साथ-साथ ही भड़कती चली जाती है। ऐसा कदाचित ही कभी कहीं हुआ हो कि आज जो चाहा जा रहा है वह उपलब्ध हो जाय तो उतने भर से ही संतोष करते बन पड़े। आवश्यकताएँ सीमित हैं, उन्हें तो हर कोई थोड़े प्रयत्नों से पूरी कर सकता है। उसके लिए थोड़े साधन भी पर्याप्त हो सकते है, पर तृष्णाएं तो असीम हैं। महत्वाकाँक्षाओं का कोई अन्त नहीं। वे हर कदम पर अधिक तीव्र, उद्धत होती चली जाती है, तब अतृप्ति और भी बढ़ती चली जाती है। सोने की लंका बनाकर भी रावण को संतोष की साँस लेने का अवसर कहाँ मिला था? सिकन्दर, चंगेज खाँ आदि जीवन भर आक्रमण करते और दौलत बटोरते रहे, पर वे मरते दिन तक संतोष की साँस न ले सके, फिर सामान्य व्यक्ति का तो कहना ही क्या?

एक कुम्हार ने गधे को जल्दी चलाने के लिए एक चालाकी बरती। उसने उसकी पीठ पर तो वजन लादा, पर सिर के ऊपर एक लकड़ी काट कर एक हरियाली का गुच्छा लटका दिया। गधे को यह निकट ही दीखती इसलिए उसको लपक लेने के लिए तेजी से आगे बढ़ता। उतनी देर में लकड़ी पर टंगी हुई हरियाली और अधिक आगे निकल जाती। गधे को इस प्रलोभन में लगातार भागते रहना पड़ता, पर हाथ कुछ भी न लगता इसी प्रकार के विभ्रम, व्यामोह में फँसे हुए लोग अधिकाधिक साधन और वैभव बटोरने की ललक में दिवा स्वप्न देखते और कल्पना-जल्पना के महल खड़े करते रहते हैं, पर जब निष्कर्ष पर दृष्टि दौड़ाई जाती है, तो निराशा, असफलता, खीज और थकान के अतिरिक्त कुछ भी हाथ न पड़ता। जो मिला उसमें से उतना ही उपयोग बन पड़ा जितनी कि भोग सकने की शारीरिक सीमा है। अधिक धनवान होने पर भी न कोई दूनी रोटियाँ खा सकता है और न दूने आकार के कपड़े पहन पाता है। जो कुछ अनावश्यक संग्रह किया गया था वह इसी धरती पर जहाँ-का-तहाँ पड़ा रह जाता है। सम्बन्धी, कुटुम्बी, मित्र, पड़ोसी, ठग, डॉक्टर आदि उस बचत को मिल बाँट कर खा सकते हैं।

सीमित साधन ही अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा कर लेते हैं और उतने भर से संतुष्ट प्रसन्न रहने का अवसर मिल जाता है। अति की दरिद्रता की तरह ही अति की समृद्धि भी अगणित संकटों का कारण बनती है। असन्तुष्ट रहने के अतिरिक्त अनुचित अनाचार द्वारा अल्प श्रम में बहुत पाने का कुचक्र रचना पड़ता है। उस मार्ग पर चलते हुए पग-पग पर कुकर्म करने और उद्विग्न रहने की स्थिति विकट से विकटतम होती जाती है। दुर्व्यसनी की आदतें कुसंग के सहारे स्वभाव में उतरती और अपना अधिकार जमा लेती हैं। संपर्क में आने वालों की ईर्ष्या भड़कती है। वे अपहरण करने और नीचा दिखाने के कुचक्र रचते रहते हैं। शारीरिक, मानसिक बीमारियों के दौर इन परिस्थितियों में आये दिन बढ़ते रहते हैं। आशंका, भय और आक्रमणों से बचाव की चिन्ता ही, सन्तानों की सुख शान्ति के भारी व्यवधान खड़े करती रहती है। सगे सम्बन्धियों तक से भी खिंचाव बढ़ता है। परस्पर के स्वार्थ टकराते हैं तो यह आशा निराशा में बदल जाती है कि सम्पन्नता से अपना और कुटुम्बियों का भला किया जा सकता है। -उत्तराधिकार आलसी, प्रमादी, व्यसनी और प्रतिभा रहित बनते जाते हैं। इस स्थिति में पले हुए लोग ऐसे दुर्गुणों के शिकार बनते हैं जिनके कारण विकास की संभावना धूमिल ही होती चली जाती है, देखा गया है कि तथाकथित धनाध्यक्षों की चमक-दमक बाहर वाले को ही प्रभावित करती है, किन्तु स्वयं को हेय बनाती चली जाती है, ईर्ष्यालु उस पर उचित-अनुचित लाँछन लगाते रहते हैं। उज्ज्वल छवि बिगाड़ने में कुछ उठा नहीं रखते। इस स्थिति में फँसना, फँसने के मनोरथ गढ़ना किसी भी प्रकार समझदारी नहीं कही जा सकती।

आमतौर से आम आदमी को इसी विग्रह को अपनाये हुए व्यस्त संत्रस्त रहते देखा जाता है। बढ़ाने और बढ़े को सँभालने के प्रयास में समूची शक्ति चुकती रहती है। समय, श्रम, प्रभाव परिचय, कौशल की एक-एक बूँद इसी निमित्त खप जाती है। ऐसी दशा में ऐसा कुछ बचता ही नहीं, जिसे आत्म कल्याण और लोक कल्याण के पुण्य परमार्थ में लगाया जा सके। ऐसे व्यक्ति सदा साधनों की दृष्टि से अपने को अभावग्रस्त और समय की दृष्टि से व्यस्त अनुभव करते रहते हैं। उन्हें दूसरों की सहायता की आवश्यकता प्रतीत होती है जो सीधी तरह न मिल पाने पर अनीतिपूर्वक छीननी पड़ती है और अपयश से लेकर सामाजिक राजनीतिक दंड भुगतने के लिए बाधित होना पड़ता है।

सम्पन्नता की एक सहेली विलासिता भी है। बढ़ी हुई दौलत का खर्च विलास के अतिरिक्त और किसी मार्ग में खर्चने की बात सूझती ही नहीं। विलास प्रकारान्तर से कामुकता भड़काने का ही निमित्त कारण बनता है। उस मार्ग पर कदम बढ़ते ही अवाँछनीय प्रयत्न चल पड़ते हैं। उनके उचित पालन पोषण में अधिकाधिक खर्च बढ़ता जाता है। साधन सम्पन्न परिवारों में अपेक्षाकृत अधिक मनो मालिन्य उभरता है। मुफ्त का माल पाने की ललक और भी अधिक तीव्र होती है। विलास और अहंकार की पूर्ति के लिए साधन भी अत्यधिक चाहिए। उच्छृंखलता की छूट भी ऐसे ही परिवारों में अधिक उग्र होती है। इस सबका परिणाम विग्रह, विद्रोह के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। जहाँ श्रम, उपार्जन की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, वहाँ खाली समय और खाली दिमाग में उद्दण्डताएँ ही सूझती हैं।

यही कारण है कि समझदार लोग उत्तराधिकार में अपने परिजनों के लिए मात्र सद्गुणों की सम्पदा ही छोड़ते हैं। विपुल सम्पदा छोड़ मरने का ताना-बाना नहीं बुनते। उसमें अपनी जीवन सम्पदा की बरबादी तो प्रत्यक्ष ही है, साथ ही उनके परिजनों सम्बन्धियों का भी सब प्रकार अहित ही है, जिन्हें अनावश्यक राशि मुफ्तखोरी की तरह हाथ लगती है। देखा गया है कि संतान न होने पर जो किसी दूसरे के बच्चे को अपना घोषित करने के लिए गोद रखने जैसा मन बहलाव करते हैं, उन्हें उस तथाकथित संतान से प्रताड़ना ही अधिक सहनी पड़ती है। जब सगे अभिभावकों के प्रति आज किसी के मन में कृतज्ञता के, सेवा साधना के भाव नहीं पाये जाते तो इस नकली संतान से उस प्रकार की आशाएँ बाँधना तो और भी अधिक उपहासास्पद है। बुढ़ापे में सेवा लेने और पिण्डदान पाकर उद्धार कराने की बात सोचना तो और भी अधिक विडम्बना वाली है। बेटी-बेटे का अन्तर बरतने की संकीर्णता तो और भी अधिक हेय है। बुढ़ापे में सेवा लेने की बात किसी को सोचनी पड़े तो उस सम्बन्ध में भी बेटों की तुलना में बेटी से तो भी कुछ आशा की जा सकती है। समय बदल रहा है जिसमें बेटी-बेटे का अंतर अनायास ही समाप्त हो जायेगा। ऐसी दशा में विपुल सम्पदा कमाने, लम्बी चौड़ी महत्वाकांक्षा संजोकर उनके उपार्जन का लाभ परिवार वालों के लिए छोड़ जाना हर दृष्टि से अवाँछनीय है।

परिवार के लिए मात्र सभ्य आवरण और सुसंस्कारी चिन्तन की सम्पदा ही छोड़ी जा सकती है। अपनो को प्रमाणिक, प्रखर प्रतिभावान बनाने पर ध्यान केन्द्रित करके सच्चे अर्थों में उक्त हित साधन करना चाहिए। बुद्धिमान अभिभावक अपनी संतान को श्रमशीलता, शिष्टता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता, उदार सहकारिता रूपी पंचशील की शिक्षा देते हैं। उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने की प्रेरणा देते और अभ्यास कराते हैं। साथ ही यह भी ध्यान रखते है कि उत्तराधिकार में हराम का पैसा न मिले, जिसके कारण उनका व्यक्तित्व और भविष्य एक प्रकार से कुँठित होता चला जाय।


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