अध्यात्म क्षेत्र की त्रिवेणी, अनुदानों की जननी

August 1991

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ज्ञान, भक्ति और कर्म-अध्यात्म क्षेत्र की तीन प्रमुख धारायें हैं। समग्र आत्मिक प्रगति के लिए तीनों में सन्तुलन एवं समन्वय होना अनिवार्य है। यह तीनों ही धारायें परस्पर उसी प्रकार गुँथी हुई हैं जिस प्रकार काया के प्रमुख घटक शरीर, मस्तिष्क और हृदय। ऊर्जा शक्ति शरीर की उपज मानी जाती है, तो बुद्धि मस्तिष्क की एवं भाव-संवेदनाएँ हृदय की। इन तीनों में से कोई भी एक कार्य करना बंद कर दे तो सारी जीवन प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जायेगी। शरीर कितना ही बलिष्ठ, स्वस्थ एवं सुगठित क्यों न हो, विचार एवं भावना शून्य हो तो किसी काम का नहीं रहता। इसी तरह विचार कितने भी सशक्त और प्रभावशाली क्यों न हों, जब तक उनमें संवेदनशीलता न जुड़ी हो कल्याणकारी नहीं हो सकते। शून्य भावनाओं से रहित महान ज्ञानी तत्वदर्शी किस काम का? उसका ज्ञान तो पुस्तकों, ग्रन्थों एवं शास्त्रों जैसा नीरस एवं निष्प्राण होगा।

एकाँगी भावनायें भी उतनी उपयोगी सिद्ध नहीं होतीं। विचारों से शून्य भावनाओं के अतिरेक में बहता हुआ हृदय भी वैज्ञानिक दृष्टि से हानिकारक है। एक से काम चलता होता तो भावनाओं के केन्द्र हृदय एवं विचारों के केन्द्र मस्तिष्क को परमात्मा प्राण ऊर्जा से भरे एक ही शरीर में क्यों संजोता? यह इस बात का प्रमाण है कि भाव संवेदनाओं अर्थात् भक्ति के साथ विचारों की, ज्ञान की भी उतनी ही उपयोगिता एवं महत्ता है। कर्म तो इन दोनों के बीच की सबसे बड़ी इकाई है, जिसके बिना कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। परिणाम तक पहुँचने के लिए क्रियाशील बनना पड़ता है। निष्क्रियों के लिए कुछ कर सकना तो दूर अंग अवयवों का संचालन तक भी नहीं बन पड़ता। संसार में कुछ भी प्राप्त करना कर्म के आधार पर ही बन पड़ता है। आवश्यकता तीनों में समन्वय की है।

प्रचलित मान्यता है कि तीनों ही धारायें परस्पर विरोधी हैं। इनमें समन्वय नहीं है। कर्मयोगी कर्म को, जिम्मेदारियों को ही सब कुछ मान बैठता है, तो ज्ञानमार्गी दर्शन में विश्वास करता है। तत्वदर्शन ही उसका लक्ष्य होता है। भक्ति मार्ग का अनुयायी भक्ति भावना में अपने को तन्मय रखना चाहता है, दर्शन के रूखेपन में उसे रस नहीं आता। फलतः तत्वदर्शन की बौद्धिक गवेषणाओं में वह अपना समय और श्रम नहीं गंवाता। भाव समुद्र में डूबे रहना ही उसे अच्छा लगता है। वस्तुतः यह मानवी चिन्तन की सबसे बड़ी कमी रही है कि इन तीनों धाराओं को अलग-अलग समझा गया, जबकि ये सभी अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। इन्हें अलग कर देने से ही समस्यायें उठ खड़ी हुई हैं और साधकों को अध्यात्म मार्ग की महान उपलब्धियों से वंचित रहना पड़ता है। समुचित लाभ तो तीनों ही अनिवार्य पक्षों को समान रूप से अपनाने से ही मिल पाता है।

इस तथ्य को जानने के लिए इतिहास का पर्यवेक्षण, अध्ययन करना होगा। संसार भर में जितने भी महान अध्यात्मवादी महापुरुष, सन्त, महात्मा, ऋषि हुए हैं, वे इन तीनों ही विशेषताओं से पूर्णतया भरपूर थे। उनके हृदयों में जहाँ भाव-संवेदनाओं की, करुणा की धारायें बहती थीं, वही विवेक से ज्ञान का प्रवाह फूटता था। ज्ञान एवं भक्ति से बुद्धि और भावना, सम्पदा से वे समस्त विश्व को सिक्त एवं तृप्त करते थे। परस्पर गुँथी हुई दोनों धाराओं का अवगाहन-अवधारण करके ही वे उच्चस्तरीय कर्मों में संलग्न रह सके। लोक मंगल को प्रमुखता देते हुए समाज सेवा में निरत रह सके। ज्ञान, कर्म और भक्ति की तीनों धारायें मिलकर किस प्रकार समग्र अध्यात्म का स्वरूप बन सकती है, इसके लिए विश्व के महानतम अध्यात्मवादियों पर दृष्टिपात करना होगा।

दर्शन के महान तत्ववेत्ता के रूप में शंकराचार्य का नाम प्रख्यात एवं प्रतिष्ठित है। उनका वेदान्त दर्शन अद्वितीय एवं दुनिया के सभी दर्शनों में समग्र एवं श्रेष्ठ है। ब्रह्म विद्या का इतना सशक्त प्रतिपादन अत्यन्त दुर्लभ है। दर्शन के मूर्धन्य ज्ञाता होते हुए भी उनका हृदय उदात्त भाव संवेदनाओं से लबालब भरा था। उसमें से भक्ति की तरंगें उद्वेलित होती थी। सौंदर्य लहरी ग्रंथ का सृजन इस भक्ति भाव के प्रस्फुटन का ही परिचायक है। भारतीय एकता एवं अखण्डता के लिए जहाँ उन्होंने देश के चार कोनों में चारों धामों की स्थापना कर जन जाग्रति का शंखनाद फूँका, वहीं ज्ञान के अविरल स्त्रोत वेदान्त के प्रचार के साथ भक्ति की अविच्छिन्न धारा के भी साथ में जोड़े रखा। फलतः भक्ति का अवलम्बन पाकर ही वेदाँत सरस एवं ग्राह्य बन सका।

विश्वभर में वेदाँत की पताका फहराने वाले स्वामी विवेकानन्द का जीवन भक्ति रस से सिक्त था। महान कर्मयोगी की भाँति लोक आराधना में वे सतत् निरत रहे। उनकी ज्ञान की प्रखरता ने भारतीय संस्कृति को विश्वभर में प्रतिष्ठित किया। इसके पूर्व विदेशों में भारत के प्रति मान्यता दूसरी थी। इसे मात्र अंधविश्वासों में जकड़ा, धर्म के नाम पर मूर्ति पूजक देश के रूप में समझा जाता था। आदिकाल से मनुष्य जाति को सिक्त करते चले आ रहे भारतीय दर्शन का स्पष्ट स्वरूप उनने विदेशों में रखा तत्ववेत्ता-दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान के रूप में यह उनका एक स्वरूप था। दूसरा पक्ष भी था, माँ काली के समक्ष एक अनन्य भक्त का। काली की प्रतिमा में अपने इष्ट का दर्शन करने वाले, अपनी सत्ता को ही भूल जाने वाले विवेकानन्द को कौन भक्ति मार्गी नहीं कहेगा। उनका कथन है कि दर्शन की शुष्कता एवं नीरसता को भक्ति रस से उठने वाली भाव तरंगें ही दूर कर सकती हैं। मानवी अन्तराल को छू सकने में भाव संवेदनायें ही समर्थ हो सकती है।” अतएव दर्शन के साथ भक्ति भावना को भी विकसित करना उतना ही आवश्यक है। साधना पथ की महान उपलब्धियाँ इन दोनों के समन्वय पर ही अवलम्बित है। कर्मयोग इन्हें चिरस्थायित्व प्रदान करता है।

सन्त इमर्सन प्रख्यात तत्ववेत्ता थे। उनके अगाध ज्ञान ने असंख्यों को प्रेरणा एवं प्रकाश प्रदान किया। उनकी उक्तियों का अध्ययन करने पर गहन दार्शनिक विचारों का समावेश मिलता है। तत्ववेत्ता दार्शनिक होते हुए भी उनका जीवनक्रम एक ओर जहाँ भक्तिरस की धाराओं में सदा डूबा रहता था, वहीं वे लोकसेवा में जीवन की सार्थकता समझते थे। वे कहा करते थे कि “परमात्मा को वही प्राप्त कर सकते हैं जो हृदय के पवित्र हैं। यह पवित्रता सेवा से ही उपलब्ध हो सकती है। करुण हृदय में ही परमात्मा अवतरित होते हैं। “उपासना, साधना, प्रार्थना-अभ्यर्थना के साथ ही आराधना का भी उनके दैनिक कृत्यों में अनिवार्य रूप से समावेश था।

इसी तरह प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात का अधिकाँश समय लोगों के दुख-दर्दों के निवारण में लगता था। वे कहते थे- “मानव सेवा ही मेरी भक्ति है।” दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी भक्ति को उन्होंने अपने जीवन में सर्वोपरि स्थान दिया। मानव सेवा प्रकाराँतर से भक्ति भावना का ही प्रतीक है।

कन्फ्यूशियस न केवल विख्यात दार्शनिक - तत्वज्ञानी थे, वरन् ईश्वर भक्ति में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। प्रकृति को वह परमात्मा का स्वरूप मानते थे। अनुपम सौंदर्य के अवलोकन में उनका अधिकाँश समय व्यतीत होता था। वे कहते थे-”देखो। प्रकृति के भीतर से परमात्मा झाँक रहा है। प्रकृति में भावनाओं द्वारा परमात्मा का दर्शन करना भक्तिभावना की पराकाष्ठा है। उनके जीवनक्रम में ज्ञान, भक्ति एवं कर्म का अद्भुत समन्वय मिलता है।

फ्रेंच संत ज्यॉपाल सात्र प्रकाण्ड विद्वान थे। उनकी दार्शनिक विचारधारा ने बौद्धिक वर्ग को विशेष प्रभावित किया। तत्वज्ञान के मर्मज्ञ होते हुए भी उनका हृदय भक्ति भावना से अभिपूरित था। प्रार्थना में उनकी अगाध श्रद्धा थी। प्रार्थना को वे ईश्वर प्राप्ति एवं लोकसेवा को आत्मिक परिष्कार का सशक्त साधन मानते थे। सेंट आंगस्टाइन का मत है कि परमात्मा को बुद्धि द्वारा नहीं पवित्र हृदय द्वारा पाया जा सकता है और हृदय की पवित्रता सेवा साधना से ही आती है। पवित्र हृदय में ही प्रभु का अवतरण होता है। महात्मा बुद्ध, ईसा, महावीर आदि का जीवन भी इसी तथ्य की साक्षी है।

ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि वैदिककाल से लेकर मध्यकालीन एवं आधुनिक काल के संतों, महामानवों के हृदय सरोवर को पवित्र करती हुई ज्ञान, भक्ति एवं कर्म की त्रिवेणी ही अपनी व्यापकता एवं सर्वांगपूर्णता को प्रकट करती रही है। इसे मध्यकाल का अभिशाप समझा जाना चाहिए कि अविच्छिन्न रूप से जुड़ी अविरल रूप में बहती तीनों धाराओं को अलग-अलग करने और प्रवाहित करने का प्रयास किया गया। फलतः दर्शन मात्र वैचारिक उड़ान भर बन कर रह गया। भक्ति ने तर्कों की, तथ्यों की उपेक्षा की फलतः उसमें अन्ध विश्वास एवं पाखण्डों का समावेश हुआ। इस सम्बन्ध में महर्षि अरविन्द का कथन अक्षरशः सत्य है कि-”भक्ति तब तक पूर्णतः चरितार्थ नहीं होती जब तक वह कर्म और ज्ञान नहीं बन जाती। जब ज्ञान से आलोकित तथा कर्म के द्वारा नियंत्रित और भीम शक्ति प्राप्त प्रबल स्वभाव परमात्मा के प्रति प्रेम एवं आराधना भाव में उन्नत होता है। तब वहीं भक्ति टिकती है तथा आत्मा का परमात्मा से सतत् सम्बन्ध बनाये रखती है। व्यक्तित्व में उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र से ज्ञानयोग सधता है, तो समाजसेवा में, लोक आराधना में निरत रहने से कर्मयोग। आत्मीयता के आरोपण की, प्रेम की साधना ही भक्तियोग कहलाती है। अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति करने एवं महान उपलब्धियों से लाभान्वित होने के लिए तीनों का ही अवलम्बन लेना होगा। ईश्वरीय दिव्य अनुदानों का वास्तविक आनन्द तभी उठाया जा सकता है।


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