प्रकृति रूठी तो प्रलयंकारी दृश्य दीखेंगे ही

August 1991

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मनुष्य ने जितने अधिक प्रयास निर्माण के किये हैं, उससे कहीं अधिक उसने विध्वंस के सरंजाम खड़े किये हैं। प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुँध दोहन धरती को जगह-जगह पर खोखली बनाने से लेकर पर्यावरण में विषाक्तता भरने और असंतुलन पैदा करने में उसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यही कारण है कि प्रकृति में जितने अप्रत्याशित परिवर्तन इन दिनों दिखाई पड़ रहे हैं उतने पिछले कई सौ वर्षों में कभी घटित नहीं हुए। उसकी क्रुद्धता को विविध विक्षोभों के रूप में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। तूफान, बाढ़, महामारी, ज्वालामुखी विस्फोट, भूकम्प आदि विपदायें प्रकृति के साथ किये गये अनावश्यक छेड़छाड़ के दुष्परिणाम हैं। भूकम्पों की प्रतिवर्ष बढ़ती संख्या प्रकृति के विक्षुब्ध और कुपित होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। प्राकृतिक विपदाओं में इसे सबसे अधिक विनाशकारी और हानिकारक विपत्ति कहा जा सकता है।

यों तो भूकम्प की कहानी पृथ्वी के जन्म के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। जापानी साहित्य में, वहाँ की प्राचीन सभ्यता में ‘भूकम्प देवता’ की पूजा-उपासना का सुविस्तृत उल्लेख मिलता है। उस मान्यता के अनुसार ‘मनुष्य के उच्छृंखलतापूर्ण व्यवहार से कुपित होकर भूकंप देवता अपना ध्वंसात्मक स्वरूप प्रकट करते और मनुष्य सहित समूचे प्राणि समुदाय को दंडित करते-त्रास देते हैं। विश्व के भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में भी इस संबंध में अलग-अलग तरह की मान्यतायें एवं धारणायें प्रचलित हैं, लेकिन उनके वैज्ञानिक कारण उपलब्ध न होने से उन्हें प्रामाणिक नहीं माना गया। प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक अरस्तू का कहना है कि प्रकृति के साथ जब कभी मनुष्य का व्यवहार असहनीय हो जाता है, तो वह पृथ्वी के भीतर भरी वाष्प को बाहर निकालकर दुर्बल स्थानों पर विस्फोट कर देती है।

चीन की पौराणिक गाथाओं के अनुसार पृथ्वी भी मनुष्य की तरह साँस लेती है। मनुष्य की श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया में व्यवधान पड़ने पर जिस प्रकार से उसका दम घुटने लगता है और प्राणों पर बन आती है, ठीक उसी तरह धरती की श्वसन प्रक्रिया में भी व्यतिक्रम उत्पन्न होने पर भूकम्प आने लगते हैं। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स एफ. रिक्टर ने भूकम्पमापी यंत्र की खोज इसी आधार पर की है जिसे ‘रिक्टर स्केल’ के नाम से जाना जाता है। पृथ्वी में प्रतिवर्ष 14 लाख कंपन होते हैं, पर उनमें से मात्र छह हजार कम्पनों को ही मापा जा सकता है। अब इन कंपनों की संख्या में तीव्रता आती जा रही है और हर वर्ष आने वाले कुल भूकम्पों की संख्या में अभिवृद्धि होती जा रही है। इनकी तीव्रता भी बढ़ रही है जो जन, धन की असाधारण हानि का कारण बनती है।

वैज्ञानिकों का, अंतरिक्ष विज्ञानियों, खगोल शास्त्रियों एवं भौतिक विदों ने अपने-अपने ढंग से किये गये शोध अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि पृथ्वी सहित हम सभी इन दिनों एक विशिष्ट परिवर्तन काल से गुजर रहे हैं। पर्यावरण में घटित हो रहे अप्रत्याशित परिवर्तन कुछ ऐसा संकेत दे रहे हैं कि आने वाला समय असामान्य है, जिसमें समूची मानव जाति का भाग्य और भविष्य जुड़ा हुआ है। जब कभी मानवी उद्दण्डता अपनी सीमा को पारकर प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करती दीखती है तो प्रकृति उसे अपने ढंग से सबक सिखाती है। छोटे-मोटे प्रकोपों से जब काम नहीं चलता तो वह कहीं आग उगलने लगती है, तो कहीं धरती हिलने और फटने लगती है। भूकंप एवं ज्वालामुखी विस्फोटों के प्रलयंकारी इतिहास इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि इस प्रकार की विभीषिकाओं के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है। अलसल्वाडोर, कोलम्बिया, मेक्सिको, रूस, भारत, मोरक्को, ईरान, चिली, अल्जीरिया आदि देशों में आये भूकंपों का इतिहास कोई पुराना नहीं है, दो दशकों बाद अब इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी ही हुई है। लाखों व्यक्ति काल कवलित हुए एवं अपार सम्पदा की क्षति हुई है।

इन दिनों सैकड़ों वर्ष पुराने प्रसुप्त पड़े ज्वालामुखी फिर से आग उगलने लगे हैं। इससे जन जीवन की हानि तो होनी ही है, भौगोलिक संरचनायें भी बदलेंगी। वस्तुतः प्रकृति परमात्मा की व्यवस्थापिका शक्ति है। अच्छा हो हम प्रकृति माता के निर्देश परम्परा का निर्वाह करें और उसे क्रुद्ध करके वह परिस्थिति न पैदा करें जिससे इस लोक की शान्तिदायक गरिमा घटे और धरतीवासियों पर विपत्ति के बादल टूटें।

परम पूज्य गुरुदेव की :-


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