सतयुगी स्थापना को संकल्पित मानव

August 1991

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जिस प्रकार बाल्यकाल के निमित्त निर्मित वस्त्र परिधान यौवनावस्था में उपयुक्त नहीं हो सकते, उसी प्रकार अतीत काल के नियम, रीति रिवाज आज के प्रगतिशील मानव समाज के लिए लाभकारी नहीं सिद्ध हो रहे हैं। कारण तत्कालीन प्रथाएँ -मान्यताएँ, नियम-व्यवस्था जिन्हें मनुष्य ने स्वीकार किया था, वह सब समय की माँगों के अनुरूप थीं और मानव समुदाय को तब इनकी आवश्यकता थी। ऋतु परिवर्तन के अनुरूप मनुष्य अपने खान-पान, परिधान आदि में परिवर्तन कर तालमेल बिठा लेता है। उसने जीवन के इस मूल तत्व को जब भलीभाँति समझ लिया है परिस्थिति एवं प्रकृति के अनुकूल रहकर अथवा उन्हें अपने अनुरूप ढालकर ही जीवित रहा जा सकता है। जीव-जन्तु भी प्रकृति के इस नियम से भिज्ञ हैं और तदनुरूप अपने परिवर्तन करते रहते हैं। जिनके स्वभाव में यह गुण नहीं पाये जाते, वे देर तक अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ नहीं होते। यही कारण है कि पृथ्वी पर कभी पाये जाने वाले महाकाय डायनोसौर जैसे सरीसृप के नाम एवं अवशेष ही कहीं पुस्तकों के पन्नों पर एवं संग्रहालयों में देखने को मिलते हैं, परिवर्तित प्रवाह के अनुरूप न चल पाने के कारण प्रकृति ने उन्हें नष्ट कर दिया।

प्रकृति का दूसरा नाम परिवर्तन भी है। सृष्टि में सतत परिवर्तन करते रहना और उसे नवीन स्वरूप प्रदान करना उसका स्वाभाविक गुण है। उन्नति का मूल भी यही है। इन दिनों उसकी परिवर्तन प्रक्रिया में पिछले दिनों की अपेक्षा तीव्रता आई है और वह नूतन सृष्टि-संरचना खड़ी करने के लिए आकुल-व्याकुल है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मानवी विचारधारा में हो रहे असाधारण परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। इन्हीं दिनों उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावनाओं से भरी-पूरी एक आदर्शवादी नवीन विचारधारा का उदय हुआ है, जिसने मनीषियों के चिन्तन-मनन की प्रक्रिया में उथल-पुथल मचा दी है। यद्यपि इसकी शुरुआत विगत महायुद्धों के विनाशकारी दृश्यों के साथ हुई थी, जिसने मानवी अन्तराल को झकझोर कर रख दिया था। उस घटना ने लोगों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया था कि अतिवादी भौतिक चिन्तन की क्या परिणति होती है। अब जो स्फूर्ति, चेतना और उमंग उभरी है, उसके आधार पर मनुष्य ने अपनी सामर्थ्य को पहचाना और अधिकारों को जाना है। प्राचीन रूढ़िवादी परम्पराओं, संकीर्ण विचारधाराओं के शिकंजे में वह अब अधिक दिनों तक जकड़ा नहीं रह सकता। जाग्रत आत्मचेतना ने करवट बदली है और नवीन विचारधारा को-सन्मार्ग को अपनाने और तदनुरूप नई सृष्टि की भव्य समाज की नूतन संरचना में सन्नद्ध होने की आकुलता प्रकट की है।

तत्ववेत्ताओं का कहना है कि विश्व में अगर कोई शक्तिशाली वस्तु है, तो वह है विचार-चिंतन, शेष सभी पदार्थ नश्वर हैं, नष्ट होने वाले हैं। विचारणा ने ही एकमेव अमरत्व पाया है। अतः अब मनुष्य को जिन नवीन विचारणाओं से दिशा मिलने वाली है, उनसे वह समस्त संसार को, युग को बदले बिना नहीं रहेगा। वर्तमान भौतिकवादी मान्यताओं, साम्प्रदायिक मान्यताओं, दर्शनों आर्थिक तथा राजनीतिक ढाँचों-कलेवरों के प्रति उसकी आस्था हटने लगी है, संतोष जाने लगा है। सबके प्रति एक रचनात्मक विद्रोह की आवाज सर्वत्र गूँज उठी है। यह एक विश्वव्यापी महा परिवर्तन का शंखनाद है, जो आवश्यक भी है। जीवन सत्ता जब प्रगति की ओर नहीं बढ़ पाती, तो उसकी गति का पतन की ओर मुड़ना स्वाभाविक है। प्रकृति ने प्राणिमात्र को, विशेषकर मनुष्य को गतिशीलता इसीलिए प्रदान की है। वर्तमान प्रगति से सन्तुष्ट होकर न बैठना उसकी विशेषता है। जल की धारा सरिता का साथ छोड़ने पर जिस प्रकार अपनी निर्मलता खो बैठती है, उसी प्रकार जीव सत्ता यदि प्रगति का पथ छोड़ देती है तो उसका पतन प्रारंभ हो जाता है। मानव अभ्युदय में उत्कृष्टता की पक्षधर विचारणाओं का महत्वपूर्ण स्थान है।

सृष्टा के अन्य सभी निर्माण, कृतियों की तुलना में मानव भले ही अन्यान्य विशालकाय जीवों से शारीरिक बलिष्ठता में दुर्बल है, फिर भी अपनी मस्तिष्कीय विलक्षणता, आन्तरिक उत्कृष्टता एवं परिश्रम-शीलता के कारण उसकी श्रेष्ठ रचनाओं में अद्वितीय है। तीनों के समन्वित प्रयोग से वह नवीन दुनिया की रचना कर सकने में समर्थ है। अपनी बुद्धि कौशल के बलबूते आज वह सागर की अतल गहराई से लेकर अनन्त अंतरिक्ष जगत तक का जानकार बन गया है। कल तक जो मानव अपनी अज्ञानता के कारण जंगलों में भटकता और शीत-ताप तक सहन करने तक में सक्षम न था, धीरे-धीरे उसने आज प्रकृति से तारतम्य बिठा लिया और ताप, वाष्प, पेट्रोल, विद्युत, ब्रह्माण्डीय किरणों और परमाणविक शक्ति तक को करतलगत कर लिया, प्रकृति को अपना सहायक बना लिया। जिस नूतन चेतना का संचार इन दिनों हुआ है, उसके आधार पर अब उसकी अगली यात्रा दृश्य जगत को छोड़कर अंतर्जगत की ओर होगी। जीवन तथा उसके मूल्यों का अध्ययन आत्मा के प्रकाश में वह अपने ढंग से करेगा, जिसके साथ ऋषियुगीन प्राचीन अनुभव भी जुड़ा होगा। जीवन भले ही क्षणिक है, किन्तु उसमें नित्यता विद्यमान है। अपनी इस असीम आध्यात्मिक शक्ति का परिचय मनुष्य को मिल चुका है। अन्तराल की महत्ता का, भाव संस्थान की क्षमता का मर्म जान लेने पर वह अपनी क्षुद्रताओं, संकीर्णताओं एवं दोषों को उतार फेंकने और स्वयं का रूपांतरण कर महानता अपनाने की विशेष योजना को कार्यान्वित करेगा।

सुप्रसिद्ध मनीषी एलिस ए. बेल्ली ने अपनी कृति “पोंडर आन दिस” में इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि अन्तर जगत में प्रवेश करने पर मानव यह भलीभाँति जान लेगा कि वह सृष्टा का ही अंश है और अपने भाग्य का निर्माता भी। भविष्य गठन में इस विचार प्रवाह की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। तब वह मात्र भौतिक उन्नति से ही संतुष्ट न रहेगा और न ही वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक दासताओं में जकड़ा रहेगा, वरन् व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में व्याप्त अज्ञान, अभाव, दुःख-दारिद्रय, भय, अत्याचार आदि से स्वयं जूझेगा? और उन्हें परास्त कर इस धरती का भविष्य एवं अपने भाग्य का निर्माण खुद अपने हाथों करेगा। इस धारा पर वह ऐसे स्वर्ग को लायेगा जिसका निर्माण उसके द्वारा होगा और पूर्ण दिव्यताओं, सद्भावनाओं, सद्इच्छाओं और सत्कर्मों से सुसम्पन्न होगा।

इस नवयुग की विशेषता होगी कि यह नित्य प्रगति की ओर तीव्रता से गतिशील होगा। इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य का आगमन उसी प्रकार सुनिश्चित है, जिस तरह प्रकाश के आने पर तम चला जाता है और रात्रि व्यतीत हो जाने पर स्वर्णिम प्रभात चहुं ओर फैल जाता है। उनके अनुसार नवयुग का आगमन कहीं बाहर से नहीं, वरन् मनुष्य के अन्दर से सद्विचारणाओं के रूप में संज्ञात भाव के रूप में प्रस्फुटित होगा। किन्तु परिवर्तन की विचारणा ही केवल अपने आप में पर्याप्त नहीं। इसके लिए उस जनमानस को भी तैयार करना होगा, जो अपनी मान्यताओं, संकीर्ण विचारधाराओं के मकड़जाल में अभी भी जकड़ा हुआ है और प्रभातकालीन ब्रह्ममुहूर्त की स्वच्छ प्राणवायु में साँस लेने से हिचकिचा रहा है। रचनात्मक दिशाधारा अपनाकर ही नूतन ज्ञान प्रवाह से सबको सामूहिक रूप से आलोकित किया एवं प्रगतिशीलता के उच्च आयामों की ओर अग्रसर किया जा सकेगा। सतयुगी विश्व की स्थापना तभी साकार होगी।


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